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हाइड एण्ड सीक 
उस जन्नत की तरह खूबसूरत शहर तक पहुंचने में वे उत्सुकता और बेचैनी भरी प्रतीक्षा को महसूस करना चाहते थे इसलिए घरवालों और परिचितों के बहुत मना करने के बावजूद उन्होंने अकेले और सडक़ के रास्ते से होकर, खुद अपनी गाडी चला कर वहां तक जाना तय किया थावे बरसों बाद एक बार फिर रास्तों के साथ चलती नदियों से मिलना चाहते थेरंग बदलते चिनारों से बात करना चाहते थे

राजनैतिक और सामरिक नीतियों के चलते, इन नौ - दस सालो के दरम्यां इन रास्तों में बहुत कुछ फेर - बदल हो चुका था। ठीक एक खूबसूरत बच्चे के गालों की तरह, जो ज्यादा रोने से गंदला से जाते हैं, यह शहर भी गंदला गया था। मगर वे गाल गंदले होकर भी लगते उतने ही खूबसूरत हैं। छोटे - छोटे उदास मलिन गांवों के बाहर उगे बागों में चेरी के पेडों ने हल्की पीली - गुलाबी चेरियों के झुमके पहन लिए थे। अखरोटों के जगंल फलों से लदे गुनगुना रहे थे। मेहनतकश मधुमक्खियां जंगली सफेद गुलाबों से रस बटोर कर अपने छत्ते भर रही थीं, आने वाली सैनिकों और श्रमिकों की नस्ल के लिए। छोटे - छोटे झरने ठिठक कर बह रहे थे। मगर चिनार गुम - सुम उदास खडे थे, हर पचास कदम पर खडे सीमा सुरक्षा बल के सैनिकों की बन्दूकों से सहमे।

तराई से पहाडों की तरफ बढते हुए, तमाम रास्ते उन्हें अलमस्त यायावर मिलते रहेआतंक से बेखौफ, पहाडी ख़ानाबदोशजो गर्मियां शुरु होते ही, अपने भेड - बकरियों के रेवड क़ो ऊंचाइयों की तरफ, हरी चराई के लिए ले जाते हैंउनके साथ होता है, उनका राशन - पानी और चाय - कहवा बनाने का साजो - सामान और कुछ - कुछ रूसी समोवार जैसी समोवारएक - दो बार उन्होंने बीच - बीच में जीप रोकी और, मक्खन डली नमकीन चाय पीने के लालच में भेड क़ी तरह गंधाते उन खानाबदोशों के साथ जा बैठे थेचाय के उसी चिरपरिचित स्वाद के साथ उन्होंने महसूस किया कि ये मंजर बदल जरूर गये हैं, मगर विकास के कुछ पैबन्दों से भी इन रास्तों का पुरानापन नहीं मिटा है

प्राकृतिक संपदा से समृध्द इस प्रदेश के मेहनतकश, संर्घषशील लोगों के हिस्से में हमेशा से एक ही चीज आई थी वह थी _ बदहाली ।यह बदहाली उनकी जिन्दगी का अभिन्न हिस्सा थी, हाड - तोड मेहनत उनके जीने का तरीका था, लुटते चले जाना उनकी नियति और गैरों पर विश्वास एक दर्शन। मगर यह जो हताशा भरी बदहाली जो आज लोगों के चेहरे पर नुमायां थी, वह उनके हाथों से कुदाल और पैरों के नीचे से धान के टुकडा - टुकडा खेत छीन लिए जाने की थी। वे हाथ कुदाल गिरा चुके थे, मगर बन्दूक पकडने से कतरा रहे थे, इसलिए उनके घर टूटे थे और बच्चे भूखे थे। जिन हाथों में ग्रेनेड थे, बन्दूकें थीं उनके घर पक्के हो रहे थे।
मुस्कानें बस अबोध बच्चों के चेहरों पर थी। वयस्कों के चेहरे पर चुप्पा सा गुस्सा, नपुंसक विरोध, आतंक पसरा था। औरतों की सुन्दर आंखें इतनी सफेद और उजाड थीं कि सपनों तक ने उगना बन्द कर दिया था। वहां हसीन मर्ग नहीं थे, वहां तो वेदना, पीडा, घृणा के झाड - झंखाड थे। घृणा किससे? आतंकवादियों से, व्यवस्था से, सेना से? उन्हें कुछ भी स्पष्ट नहीं था। कोई उनके साथ नहीं था और उनके खुद के बस में कुछ नहीं था। टूरिस्ट बसों पर ग्रेनेड फेंके जाने का सिलसिला नया शुरु हुआ था। और वे खुद नहीं जानते थे कि उनकी रोजी - रोटी में ये बारूद कौन घोल रहा है।

लेफ्टिनेंट कर्नल हंसराज बहुत बरसों बाद लौट रहे थे, इस शहर की ओर, इस प्रदेश मेंजब वे मेजर थे, तब वे यहां तैनात थेउन तीन सालों में बहुत कुछ घटा था, उनके बाहर भी और भीतर भीवक्त ने स्मृतियों पर अतीत के अटपटे खुरंट जमा दिए थेवे उस समय से जुडा हुआ, लगभग सब कुछ भूल जाने की कोशिश कर चुके थे, लेकिन खुरंटों के नीचे के घाव थे कि कभी - कभी टीस जाते थेदेह जब यात्राएं कर रही होती है, आस - पास की तो मन सुदूर की यात्राएं कर रहा होता हैदेह जिन पक्के रास्तों पर गुजरती है, वे रास्ते तो फरेब होते हैं, मगर मन जिनपर गुजर रहा होता है वे पगडण्डियां शाश्वत होती हैं, कभी नहीं मिटती

वे तो एक यायावरी के लिए निकले थेमाना यायावरी दिशाहीन होती है, मगर अवचेतन ने ये कौनसी दिशा तय कर दी थी कि वे यहां फिर लौट कर आने को उत्सुक हो गए थे!  स्तब्ध, मलिन कस्बे और शहर, पीली सरकारी इमारतें और खूबसूरत मगर तन्हा और उदास रास्ते, सर झुकाए खडे चिनार, बलत्कृत झीलें, ठिठक कर बहते झरने अब तक उनके साथ साथ चल रहे थे वे हल्के भय को थामे, पूरे दैहिक और मानसिक संतुलन के साथ अपनी गाडी चला रहे थे मगर अचानक उनकी खामोशियों के झुरमुटों के पीछे आवाजों के पंछी हल्के - हल्के पंख फडफ़डाने लगे  _  'कमॉन इण्डिया जीत के आना है' के स्लोगन्स की धूम, र्वल्ड कप का शोर उनसे मुखातिब उनके अधीनस्थ अफसर की हताशा से भरी  आवाज _ '' सर, क्या आप ऐसे बैट्स मेन की कल्पना कर सकते हो, जिसे फास्ट बोलिंग झेलने के लिए हेलमेट, ग्लव्ज र पेड्स के साथ खडा दिया गया है मगर उससे बैट वापस ले लिया गया है? रोज बम शैलिंग से गांव के गांव रिफ्यूजी कैम्पों में तब्दील हो रहे हैं मगर हमें पलटवार की इजाजत नहींक्यों सर क्यों?''

बेस युनिट से उनके बॉस की भर्राई आवाज _ '' एक - एक करके अब तक 400 शहीदों को यहां से विदा कर चुका हू, जिन्होंने अपने परिवारों से वादा किया था कि वे वापस लौटेंगें उन्होंने इसे निभाया हैवे एक आम आदमी की तरह गए थे, मगर महानायकों की तरह लौट रहे हैंतरंगों में लिपटे और 'ताबूतों' में बन्दइन महानायकों की उम्र 19 से 35 के बीच थीदिल्ली जाकर जिन्हें मिला 'शोक शस्त्र' फेयरवेल सेल्यूट!  लोह - सैनिकों की ऊपर उठी हुई बन्दूकों की खामोश वेदना, उन बन्दूकों की बैरल का उलटाना  सीने के करीब लगाया जाना, एकसाथ कई सरों का झुक जाना 30 सैकण्ड का पथरीला मौन और फिर उनके मृत सीनों पर सेना के सर्वोच्च अधिकारियों, साथियों के चढाए गए रजनीगंधा और गेंदों के 'रीथ'(शवों पर चढाई जाने वाली विशिष्ट गोल माला)फिर एक कामरेड की देख - रेख में, इनकी अपने घरों की ओर अंतिम यात्रा'' 

हवाओं की सरसराहट में वे मौसम बदलने की आहट सुन पा रहे थेबदलते मौसम के इस बेपनाह सौन्दर्य में इतनी उदासी क्यों घुली है? हर अतीव सुन्दरता की तरह यह भी अभिशप्त क्यों है? इस अभिशप्त सुन्दरता की जीवन्त उदासी से खामोशी के झुरमुटों के पीछे की आवाजों की फडफ़डाहट स्थगित हो गयी

'ठहरो - हिन्दुस्तानी साबमेरी भेडें ड़र जाऐंगी।' एक पतली आवाज उसे मुखातिब थी। एक मोड पर हाथ हिला - हिला कर एक दस साल का सुन्दर मुखडाउसे रोक रहा था। उसकी भेडें रास्ते पर बिखर गईं थीं और उन्होंने वह ढलवां, संकरी - सी, सडक़ पूरी  की पूरी घेर ली थी। इस मासूम को किसने समझाया यह सम्बोधन? किसने बोया होगा इस सरल मन में इस विभेद का बीज? 

आज इस दस साल के लडक़े के मुंह से 'हिन्दुस्तानी' सुन कर, उन्हें ऐसा लगा कि किसी ने उन्हें दूसरी शिकस्त दी होबरसों पहले की, वह पहली शिकस्त उन्हें बखूबी याद है 

वे तबादले पर वहां पहुंचे ही थेइस राज्य के दूरस्थ इलाके, जो 1971 के युध्द के बाद भारत का हिस्सा बन चुके थे, सेना द्वारा चलाए गए 'आपरेशन मित्रता' केन्द्र बिन्दु थेलाइन ऑफ कन्ट्रोल से कुछ किलोमीटर दूर, एक महत्वपूर्ण पोजिशन की सतर्क चौकसी के साथ - साथ उन्हें इस ऑपरेशन की भी कमान संभालने को मिली थीउन्होंने अपनी युनिट की सारी ऊर्जा 'ऑपरेशन मित्रता' में झौंक डाली थीवे स्वयंसेवी संस्थाओं की सहायता से यहां स्कूल और अस्पताल खुलवा रहे थेआतंकवाद की चपेट में आए स्थानीय लोगों को पुर्नस्थापित करने में उनके सैनिकों ने हरसंभव सहायता की थी धमाकों में अपाहिज हुए लोगों को कृत्रिम अंग लगवाए गए थेमगर फिर भी यहां के निवासी आतंकवादियों और घुसपैठियों को हर संभव सहायता और आश्रय दिया करते थेइन इलाकों के असहयोगी माहौल में विश्वसनीयता हासिल करना क्या आसान काम था? पूरा साल वे स्थानीय निवासियों के साथ फौज के सम्बन्ध सुधारने पर एडी से चोटी तक का जोर लगाते रहे उन्हें लगता था कि एक दिन वे इन स्थानीय लोगों का विश्वास हासिल करने में सफल होंगे मगर आज से लगभग नौ साल पहले, ऐसे ही तो बसन्त की शुरुआत थी, ऐसे ही फूल खिले थे जब हमारे प्रधानमंत्री लाहौर में शांति वार्ता में अपनी नितांत भारतीय नीतियों की दार्शनिक व्याख्या कर रहे थे अपने परमाणविक शक्तिधारक दुश्मन के समक्ष

बिलकुल ऐसे ही दिनों में एक साधारण अभ्यास की तरह बर्फीली चोटियों पर सर्दी खत्म होने के बाद सेना की पहली पेट्रोलिंग टीम दुर्गम उंचाइयों पर चढी थीचार जवानों और एक युवा अधिकारी की ये टुकडी अचानक बर्फीली उंचाइयों पर से गायब हो गई थीहालांकि वे उनकी यूनिट के नहीं थे किसी और रेजिमेन्ट के ये पांच फौजी पेट्रोलिंग के लिए निकले थे वे महीना भर लापता रहेजब उनके शव मिले, तब पता चला कि बर्फीली उंचाइयों में छिपे बैठे घुसपैठियों ने उन्हें कैद कर लिया और उस पार ले गए जहां उन्हें यंत्रणाएं देकर मारा गया, उनके शरीरों पर सिगरेट से जलाने के निशान थे, उनकी सिर की हड्डियां टूटी हुई थीं, कान के पर्दे गर्म रोड डाल कर फाड दिए गए थे, आंखें निकाल ली गई थींपर यह बात उन्हें खटकी थी कि ऐसे अनुभवहीन युवा अधिकारी को पेट्रोलिंग के लिए बिना तहकीकात किए क्यों भेजा गया था और उसका शव घर पर उसकी पहली या दूसरी तन्ख्वाह के चैक के क्लियर होने से पहले ही पहुंच गया था इस बात को लेकर उन्होंने उच्चधिकारियों से जिरह  की थी मगर उन्हें चुप करवा दिया गया उनका और उनकी यूनिट के जवानों का 'ऑपरेशन मित्रता' से धीरे - धीरे मोहभंग होता जा रहा थावे यह जान गए थे उनके धैर्य को उनकी कमजोरी माना जा रहा है

सरासर ध्यान भटकाने वाली गतिविधियां जारी थीयहां विस्फोट, वहां नर - संहार

एक रात उन्हें अपने विश्वसनीय मुखबिर से पता चला था कि एन् उनकी नाक के नीचे आतंक सांसे ले रहा है, और वे सरासर बारूद के एक बडे ढ़ेर पर बैठे हैंअगले ही दिन जहाज से उनके पास एक 'स्निफर डॉग स्क्वाड' ( खोजी और गश्ती कुत्तों का दस्ता) आ गयी थी 'ऑपरेशन मित्रता' के सैनिकों के उन हाथों में फिर बन्दूक आ गयी थी, जिनसे वे स्थानीय निवासियों की सहायता करते थे

''इन खोजी कुत्तों के बिना यहां कोई ऑपरेशन मुमकिन नहीं सर जी। इंसान की अपनी लिमिट है जी, मगर इन लेब्राडोर कुत्तों को भगवान ने खास ताकत दी है, सूंघने की। हमारे सैंकडों जवानों को इन साशा और रोवर की तेज नाक ने जिन्दगी बख्शी है। और मुझे बडा नाज है जी, इन पे। यकीन तो है ही खैर''

''क्या बताऊं सर जी, हैण्डलर का प्रेम ही होता है जो इनसे यह काम करवाता है। इनके लिए तनख्वाह, पावर, इज्जत या धर्म या जात का कोई मतलब है क्या साब? ये वफादार दोस्त जाने कितनी जिनगानियां बचाते हुए खुद मर जाते हैं। पहले मेरे पास चम्पा नामकी लेब्राडोर कुतिया थी, उसने बडी ज़ानें बचाईं, कितनेक तो लैण्ड माईन्स ढूंढे उसे मेरे साथ कमण्डेशन भी मिला था। इन की फीमेलों की नाक मेलों से ज्यादा तेज होती है वैसे सर जी नाक और कान तो हमारी फीमेलों के भी खूब तेज होते हैं।'' बहुत बातूनी था लांसनायक महेश। उसकी स्क्वाड के  वे दो काले लेब्राडोर कुत्ते खूबसूरत और बुध्दिमान थे। खाली वक्त में वे आपस में अठखेलियां किया करते। महेश उनके साथ विस्फोटक की मामूली सी मात्रा रूमाल में छिपा कर 'खोजो तो जानें' का खेल खेल कर उनके हुनर को पैना किया करता था।
मुखबिर का संकेत मिलते ही, वे उन घरों की तलाशी के लिए निकल पडे थे, जिनमें उन्हें शक था कि उग्रवादी छिपे बैठे हैं। उनकी युनिट ने गली के बाहर, गली के भीतर, आगे झील तककवरिंग और अटैकिंग पोजिशन ले ली थी और वे धीरे - धीरे सावधानी से एक झील पर जाकर खत्म होती पतली गली में घुसे, लांसनायक महेश, साशा की जंज़ीर थामे उनके साथ - साथ था। रोवर,उसका हैण्डलर सुरेन्दर एक दूसरे घर के बाहर कैप्टन राजेश के साथ खडे थे, संकेत दिए जाने की प्रतीक्षा में। गली में चहल - पहल की जगह सन्नाटा पसरा था। ऐसा लग रहा था कि इन घरों की दीवारों के कान जैसे मीलों फैले हुए हों। वे घर दम साधे, एक दूसरे को थामे खडे थे, हल्की - हल्की सांस लेते हुए। सैनिक सतर्क थे। बस एक सफेद - गुलाबी मगर मैले गालों वाली किशोरी झील के किनारे से सटी नाव में सहमी बैठी थी, उसके हाथों में शलगम का गुच्छा और एक मछली थी। उसके सुर्ख होंठ कंपकंपा रहे थे कि मानो कुछ कहना चाहती हो। उसका फिरन भीगा हुआ था।उसकी नीली पुतलियों वाली शफ्फाक आंखों में भय तैर रहा था। उन्होंने उसे घर लौट जाने का इशारा किया।
 

सैनिकों ने उनके संकेत पर एक घर को घेर लियावे तीन सैनिकों, लांसनायक महेश और साशा के साथ एक सुनसान टूटे - फूटे घर में घुसेइस टूटे - फूटे घर के नीचे की मंजिल पर जमीन पर बिछे बिस्तरों पर सलवटें थींकालीन पर जूतों के कई निशान बिस्तरों में इन्सानी जिस्मों की गर्म बू ताजा ही थीज्यादा दूर नहीं गए होंगे वो संभल कर वे ऊपर की मंजिल की ओर बढे ऊपर जाते ही साशा बेचैन हो गयी और इधर - उधर सूंघने लगी, गोल - गोल चक्कर काटने लगीबीच बीच में कूं ऽ कूं भी करने लगती और पूंछ हिलाने लगतीमहेश बहुत सर्तक हो गया था उनके तीन अधीनस्थ अधिकारियों सहित सैनिकों की एक बडी टुकडी उन्हें कवर दे रही थीवह एक मर्तबान में बार - बार मुंह डाल रही थीउस मर्तबान के चारों तरफ गोल चक्कर काट रही थीफिर उसने पंजे से उसे उलट दिया एक बेलनाकार धातु की वस्तु कपडों में लिपटी रखी थीमहेश समझ गया था कि साशा ने बम ढूंढ लिया क्योंकि वह उसके पास बैठ गई थी, ताकि उसका हैण्डलर स्थिति का जायजा ले सके

'' सर आप सब बाहर जाएं, आतंकवादी तो नहीं, मगर बम है यहां। सूबेदार हनीफ अहमद को भेज दें इसे डिफ्यूज क़रने के लिए।'' महेश ने फुसफुसा कर कहा।
यह अजीब - सी डिवाइस ऊंचे दर्जे के विस्फोटक पदार्थ से भरी हुई थी और शायद यह एक रिमोट कन्ट्रोल से जुडा था। कुछ देर बाद, साशा महेश के ऊपर चढ क़र अपने इनाम के बिस्किट की मांग करने लगी थी। महेश ने उसे अनदेखा कर दिया। महेश दूर से बम का निरीक्षण कर रहा था और वे अपने दस्ते के बम डिफ्यूजल एक्सपर्ट को बुलाने के लिए पीछे मुड क़र कुछ सीढियां उतरे ही थे कि धमाका हो गया, घर के ऊपर का हिस्सा ढह कर, सडक़ पर आ गिरा। मलबे में दबे हुए साशा के चिथडा - चिथडा जिस्म को और अचेत महेश को निकाला गया। महेश बुरी तरह घायल हो चुका था, उसकी एक बांह विस्फोट में उड ग़ई थी और वह नीम बेहोशी में था। उनके भी पैरों में अचानक सीढियों से कूद जाने की वजह से अन्दरूनी चोटें आई थी। 'शो मस्ट गो ऑन' की तर्ज पर ऑपरेशन जारी रहा। महेश को तुरन्त मिलीटरी अस्पताल भेज दिया गया। साशा की मृत देह कम्बल में लपेट कर 'कैन्टर' में रख दी गई।

उन खाली टूटे - फूटे घरों में हरेक में बम रखे मिले थेरोवर ने उन्हें ढूंढ निकाला था रोवर को आतंकवादियों की तलाश में हैण्डलर जंगल की तरफ घुमाता  मगर वह लौट - लौट कर बस्तियों की तरफ भाग रहा था वह एक घनी बस्ती के ऐसे घर दरवाजे पर रुका, जहां पर्दानशीन औरतें ही औरतें थी और वहां दालान में पडी थी, घर के एकमात्र युवक की लाश, जिसे ताजा - ताजा कत्ल किया गया थाजिबह की गई बकरियों की तरह वे औरतें चीख रही थींघर की तलाशी ली गई मगर वहां कुछ नहीं मिलाघर के पीछे गली झील पर खत्म होती थी, झील के उस तरफ मस्जिद थीयह वही जगह थी, जहां सफेद - गुलाबी मगर मैले गालों वाली किशोरी झील के किनारे से सटी नाव में सहमी बैठी मिली थीअब वहां न नाव थी न वह किशोरी शलगम के गुच्छे ज़मीन पर गिरे हुए थे गली के मकानों की खिडक़ियां यूं बन्द थीं गोया बरसों से खोली ही ना गई होंउस गली से पलटते ही मस्जिद की दिशा से फायरिंग शुरु हो गयीजवाबी कार्यवाही में वे फायर नहीं कर सकते थे क्योंकि जुम्मे का दिन था और मस्जिद में आतंकवादियों की जद में कुछ मासूम नमाज़ी फंसे हुए थे'' हिन्दोस्तानी कुत्तों मस्जिद का रुख न करना, वरना ये नमाजी हमारे हाथों खुदा के प्यारे हो जाएंगे''

यह उनके 'ऑपरेशन मित्रता' की पहली शिकस्त थीआज नौ साल बाद यह दूसरी शिकस्त उन्हें उदास करने के लिए काफी थी

बेस पर लौट कर रोवर बहुत बेचैन हो उठा थाबार - बार कैण्टर की तरफ जाता जहां 'साशा' का शव रखा थाकूं कूं करके उसके चारों तरफ घूमने लगता थाअपने हैण्डलर की बात भी नहीं सुन रहा थाउससे बहुत छिपा कर साशा को उन हरे - भरे मर्गों में कहीं दफना दिया गया थामगर रोवर ने भांप लिया था हैण्डलर ने बहुत कोशिश की उसे खिलाने की, मगर उसने खाने को सूंघा तक नहींउसे ड्रिप भी लगाईफिर उसने किसी भी अभ्यास में मन से हिस्सा नहीं लिया, अभ्यास के दौरान विस्फोटक की गंध से भरा कपडा उसे सुंघा कर छिपाया जाता पर वह उसे खोजने की कोशिश करने की जगह एक जगह पर बैठ जाता और उसकी आंखों से पानी बहता रहताउन्हें नहीं पता कि कुत्ते रोते भी हैं कि नहींमगर रोवर को देख कर उनका मन भारी हो जाता थारोवर के असहयोग की वजह से तुरन्त दूसरे स्निफर डॉग और उसके हैण्डलर को भिजवाने का संदेश भेज दिया गया था जिस दिन उसे वापस भेजा जाना तय था, उस दिन के पहले वाली रात, जब वे लांसनायक सुरिन्दर से मिलने गए तो रोवर उसके साथ बुखारी के सामने बैठा थाबीमार मगर शांतउनके आने पर उसकी दोनों कत्थई एक साथ आंखें उठीं थींहल्के - हल्के उसने दोस्ताना अंदाज में पूंछ भी हिलाई, सर सहलाने पर हाथ चाटा थाफिर वह आंखें मूंद कर लेट गया सुबह वह नहीं उठा

महेश अब दिल्ली में रिसर्च एण्ड रैफरल हॉस्पीटल में स्थान्तरित कर दिया गया थाउन्होंने उससे फोन पर बात की वह व्यथित था, अपने हाथ के कट जाने को लेकर नहींसाशा और रोवर को लेकर,   '' सर जी बहुत प्यार था उनमेंउन्हें आस - पास ही दफनाना'' उसके कहने पर रोवर को साशा के बगल में ही उसके साथी दफना आए थे जहां तक उन्हें याद है महेश का साथी लांसनायक सुरेन्दर लाल रंग के दो समाधि - पत्थर बनवा कर लाया था

''सर, सच्चे सिपाही, सच्चे आशिक तो यही हैं ना।आप इजाजत दें तो इनकी कब्रों पर ये पत्थर लगवा दें।'' उन्होंने वहां अपने हाथों से एक चेरी का पेड लगा दिया था। लांसनायक महेश के 'स्पेसिफिक काउन्टर टैरर मिशन' के 'कमण्डेशन'(प्रशंसा - पत्र) के लिए उन्होंने चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ को 'साइटेशन' (अनुशंसा) भेजी थी, जो स्वीकृत हुई।

छद्म युध्द ने तेजी से आग पकड ली थीउस छद्म युध्द में उनकी सेवाओं के लिए उन्हें सेना मैडल मिलाइस सबके बावजूद एक असंतोष सा उनके मन में घर कर गया थाइतने स्थानीय नागरिकों, जवानों - अधिकारियों की जान महज कुछ लिजलिजे निर्णयों और ढुलमुल नीतियों के चलते गंवा दिए जाना उन्हें नागवार गुजरा थाउन्होंने सेना से स्वैच्छिक अवकाश ले लिया था

वे शहर में बस दाखिल हुए ही थे कि उन्हें पीली दीवारों वाला डाकघर दिख गया थाशहर के बदलावों में बच गए एकमात्र जर्जर अवशेष - साजिसके बाहर फुटपाथ पर, सूखे मेवे बेचने वाले अखरोटों का ढेर लगाए खडे थेदुकानों पर कढाई किए गए कपडे र सुन्दर दस्तकारी के साजो - सामान सजे थेशहर अजब तरह से विकसित हो रहा था, जैसे बदहाली नाम की खूबसूरत गरीब - बेबस औरत को तीखा मेकअप करके बिठा दिया गया हो, लेकिन डर उसकी आंखों, हरकतों, जुम्बिशों से किसी न किसी तरह टपक ही रहा होरंग - बिरंगे शीत पेयों और मोबाईल फोन की कंपनियों के बडे - बडे होर्डिंग, शहर के हर चौराहे पर लगे थेसफेद स्कार्फ से सर को अच्छी तरह ढके, सर झुकाए, बिना खिलखिलाए किशोरियां स्कूल जा रही थींधूसर - भूरी दीवारों और लकडी क़े दरकते फर्श और टीन की छतों वाले घरों की कतार जहां खत्म होती थी वहां से एक झील शुरु होती थीएक बूढा अपनी नाव में बैठा इस झील में उगी जलीय खरपतवार को जाली से बडी तटस्थता से साफ कर रहा थालाईन से लगे शिकारे और हाउसबोट एक अंतहीन प्रतीक्षा में प्रार्थनारत मालूम होते थे

वे एक मुगलकालीन बाग के करीब से निकले, वहां एक ऊन की टोपियां बेचने वाले ने बताया कि अभी वहां विस्फोट होकर चुका है, एक गुजरातियों से भरी बस परलेकिन जिंन्दगी बदस्तूर रवां थी चेरी - अखरोट बेचने वाले बसों में बैठे टूरिस्टों से मोल - तोल कर रहे थेआखिर हम सीख ही गए आतंक के साए में जीना

वे उस प्रसिध्द चौक से गुजरते हुए आगे की तरफ मुड ग़ए, जहां मौत का खेल शतरंज की तरह खेला जाता थावो प्यादा मरा वो वजीर! वजीर कम मरते, प्यादे ज्यादाबल्कि वजाीरों की शह और मात के बीच प्यादे कब लुढक़ जाते, इसका न पता चलता, न फर्क पडता था हालांकि माहौल में जाहिरा तौर पर कोई तनाव नहीं थालेकिन उन्होंने देखा, तब के शहर और अब शहर की सोच तक में फर्क आ गया थापहले एक - एक मौत मायने रखती थी अब विस्फोटों और दो - चार मौतों के बावजूद एकाध घण्टे में ही जिन्दगी फिर से रवां हो जाती हैवो मरी हुई शतरंज की गोटियों की तरह लाशें हटाते और खेल फिर शुरु  अब वे फिर से टूरिज्म के विकास की तरफ बढ रहे थेसरकार और कठमुल्लाओं और उनके खैरख्वाह बनने वाले आतंकवादियों सभी से वे विमुख हो चले थेफौज से उनका प्रेम और घृणा, सहयोग और असहयोग का व्यापार निरन्तर जारी था

शहर के मुख्य और बडे हिस्से में स्थापित सेना के एक बहुत बडे बेस के सामने से वे तटस्थता से गुजर गएपहले उनका वहीं उसी बेस में ठहरना तय थामगर वहां उन्हें कुछ अजनबी लगा, बेमानी भीउनकी जान - पहचान का पुराना कोई भी तो नहीं होगाउस बेस के चारों तरफ एक लम्बा चक्कर काट कर वे शहर से बाहर आ गए थे
 

वे उस सडक़ की तरफ मुड चले जिसके साथ एक नदी चला करती थीरास्ते बदल गए थेउन्हें गाडी रोक कर नए रास्तों की बाबत पूछना पडापहाड क़ा एक हिस्सा काट कर सडक़ का एक छोटा - सीधा रास्ता बन गया थामगर शायद नदी ने पलट कर फिर कहीं आगे जाकर सडक़ का हाथ पकड लिया थाअब वह फिर साथ थीअवरोधों पर वह नदी और अधिक उच्छृंखल हो जातीऊंचाई से नीचे गिरती तो अनेकानेक भंवर डालती बहतीनदी के पानी में बहा खून जाने कहां बिला गया होगा मगर इसकी चंचलता और निश्छलता में कोई फर्क नहीं आया यह कुछ मील दूर दूसरे देश में में भी ऐसे ही उछालें मार कर बहती रही है

खुद से उलझते, अपनी मंजिल के बारे में तय करते - करते उन्हें शाम हो आई थी, कुछ रास्ते बदल गए थे, कुछ वे भटक गए थेअंतत: वे एक नए बने आर्मी बेस के छोटे से ऑफिसर्स मैस में जा ठहरेमैस बहुत खूबसूरत जगह पर बनी थी उनके कमरे के इस तरफ नदी के छल - छल, कल - कल गीत गूंजते थे तो दूसरी तरह पहाड ध्यानमग्न नजर आतेउन्होंने अपने कमरे के पीछे वाली बॉलकनी की रैलिंग से नीचे देखा नीचे ढलानों की तरफ फैले हरे - भरे विस्तृत चारागाह में, शाम के गुलाबी झुटपुटे और चांद की फैलती रूपहली रोशनी में दो सफेद मजारें जगमगा रही थीं, मानो मुस्कुरा रही हों

उस पल हरे - भरे मर्ग के बीच उन गुनगुनाती मजारों, उनके चारों तरफ खिले फूलों और आकाश में तैरते टुकडा - टुकडा बादलों को देख कर, न जाने क्यों कर्नल हंसराज को लगा कि मानो मौत का दूसरा नाम खुशगवारी हो

अगले दिन सुबह नहा धोकर, नाश्ता करके वे अपने कमरे से निकल आएकमरे की बॉलकनी से जो मजारें उन्हें आकर्षित कर रही थींउसी तरफ बढ चलेआज उस तरफ रौनक थी, चहल - पहल थीउन्हें हैरानी हुई

मैस के एक अर्दली ने बताया कि ये दो सूफी पीरों की मजारें हैं, एक भले दिल के सूफी दरवेश ने अपने पैसे और रसूख वाले मुरीदों से कह कर वहां दरगाह बनवा दी हैंपूरे चांद की रात में सुबह से ही वहां मेला लग जाता हैदूर दराज से लोग आते हैं हंसराज हैरान रह गए थेवे दरगाह के बाहर ही रुक गए एक तरफ लगे एक तंबू में कहवा बन रहा था कहवे की महक ने, वह स्मृति में बसा सौंधा स्वाद याद दिला दियावे उसी तरफ बढ ग़ए
 '' भई, जहां तक मेरा ख्याल है _ नौ - दस साल पहले तो यहां कोई मजार नहीं थी
न यहां कोई मेला हुआ करता था''
 ''हां बस, दो बरस ही हुए हैं इन मजारों को मरहूम सुलेमान दरवेश साहब ने देखाऔर दरगाह बनवा दी
वे कहा करते थे कि दस साल पहले उनके लापता हुए उनके दो सूफी उस्तादों की मजारें हैं''

कर्नल हंसराज ने दिमाग पर जोर डाला  '' दस साल पहलेहा, उन दिनों लेह के  'दो बौध्द भिक्षु' तो जरूर मार डाले थे, आतंकवादियों नेमगर सूफी ! कुछ याद नहीं पड रहा''

आतंकवादी शब्द बोल कर जैसे उनसे कोई कुफ्र हुआ हो, उस कहवावाले ने उन पर क्रूर और ठण्डी निगाह डाली
'' कहवा खत्म कर लिया हो तो चलें जनाब
''

उन्हें तम्बू से बाहर ले जाते हुए एक नौजवान कश्मीरी बोला, '' बुरा मत मानिएगा सर, ये बडे मियां जरा खब्ती हैं। सच्ची बात तो ये है कि ये मजारें किसी सूफी - दरवेशों की नहीं हैं, लैला - मजनूं जैसे दो आशिकों की मजारें हैं। कहते हैं, लडक़ी कश्मीरी थी और लडक़ा सिपाही था, हिन्दुस्तानी फौज का।''

'' क्या बात करते हो?''

''क्या बताऊं सर, दोनों ही बातें कहते हैं लोग। बडे - बूढे तो सूफी - दरवेश की मजार मानते हैं इसलिए यहां सूफी - दरवेशों की हर पूरे चांद पे मजलिस लगती है। मगर कुछ लोग इन्हें दो आशिकों की मजार समझते हैं तो नौजवान जोडे भी यहां आकर मन्नतें मांगते हैं।''
''
सर, कहां ठहरेंगे? शहर में मेरे चचा का हाउस बोट है, थ्री स्टार।''
उन्होंने कोई रुचि नहीं ली तो कहने लगा, '' यहां बगल के कस्बे में मेरे पहचान के होटल भी हैं सर, हिन्दू होटल।''
''
अरे नहीं भई, मैं वहां ऊपर ऑफिसर्स मैस में ठहरा हुआ हूँ।''

'' तो चलिए सर आपको ग्लैशियरघुमा लाऊं।''
''
मेरा सब कुछ देखा हुआ है। तुम जाओ, मैं यहीं कुछ देर रुकूंगा।''

'' अच्छा कोई बात नहीं सर, मैं बता रहा था न इन मजारों के बारे में _ ''

वे समझ गए थे कि यह गाइड या टूरिस्ट एजेन्टनुमा कोई जीव हैइन मजारों की कहानी सुनाने के बहाने चिपक ही गया हैकुछ लिए बिना टलेगा नहीं

'' बताओ क्या बता रहे थे?'' वे उकता कर बोले।

''कहते हैं एक कश्मीरी लडक़ी, इस छावनी से कुछ ऊंचाई पर बने गांव में रहा करती थी। खूबसूरत, मासूम, कमसिन। 'सना' नाम था उसका।नीचे छावनी की एक बैरक में रहने वाले एक क्रिश्चन सैनिक 'रोजर' से उसका इश्क हो गया। आप तो जानते हैं सर इश्क ज़ात - धर्म कहां देखता है।'' उसका चिपकूपन उन्हें खिजा रहा था, वे उसे झिडक़ने ही वाले थे कि उसके सुनाने के दिलचस्प अंदाज पे वे मुस्कुरा उठे।

'' लगता है तुमने भी इश्क क़िया है।''

'' हां सर, बहुत पहले। एक हिन्दू लडक़ी से उसके भाई और बाप तो आतंकवादियों ने मार डाले और वो और उसकी मां यहां से जम्मू चले गए। खैर छोडिए वो कहानी सरये कहानी सुनिये_

हां तो, वह रोज उससे सुबह - सुबह मिला करती, घास काटने के बहानेरोज सुबह पांच बजे उसकी खिडक़ी पर एक कस्तूर चिडिया आकर तान देती और वह ढलान उतर कर अपने आशिक से मिलने जाती

एक रोज क़स्तूर ने सुबह पांच की जगह तीन बज कर चालीस मिनट पर ही किसी डर से तान दे दीशायद उसके घोंसले के नन्हें चूजों पर किसी बाज ने चोंच मारी होगीसना को वह तान अजीब तो लगी, मगर प्रेमी से मिलने के चाव में उसने ध्यान ही नहीं दियाबर्फीले पानी से मुंह धोया तो मुंह सुर्ख क़ी जगह नीला हो गयाअंधेरे में फिरन पहना तो कील में अटक कर फट गया मगर फिर भी उसने इन बदशगुनों पे ध्यान नहीं दियाअपने घर से नीचे ढलान की तरफ अपने प्रेमी से मिलने उतर पडी, ख़ुशी से सरोबार, देख लिए जाने के डर से घबराती, जिस्मानी चाहतों में सुलगती, महबूब की आंखों का इंतजार उसकी रूह में सुलग रहा थाउसे पता था रोजर ने परदा दरवाजे में अटका कर रखा होगा वह खटखटाएगी भी नहीं पास की बैरकों के उसके साथी न जाग जाएं इसलिएवह फूलों से लदे एक चेरी के पेड क़े पास से गुजरी जहां से रोजर की बैरक दस फर्लांग पर थीकि उसे पहली गोली लगी, कन्धों पर वह बाहर निकल आया चीख कर रोकता फैंस के पास अपने पहरा दे रहे साथी को तब तक दूसरी गोली उसका अरमानों भरा सीना चूम चुकी थीजमीन पर पडे चेरी के फूल लाल हो गए थे खून से

'' ये क्या किया यह आतंकवादी नहीं मेरी महबूबा है।'' कह कर रोजर ने कनपटी पे गोली चला ली और सना के जिस्म पर जा गिरा। कहते हैं सर, कब्रों के पास लगे पेड क़ी चेरी एक दम खून जैसे सुर्ख रंग की होती हैं।'' नौजवान की आंखों में आंसू थे मानो वह उसकी खुद की प्रेमकहानी हो। 

कर्नल हंसराज भी उसके कंधों पर हाथ रख कर बोले, ''ेतुम एक कामयाब टूरिस्ट गाईड बनोगे, इतनी खूबसूरत कहानी गढी है, तुम्हें तो अफसानानिगार होना चाहिए थातुम्हारी शादी हो गई?''
'' हां सर, चार बच्चे हैं
खर्चा बामुश्किल चलता है'' उसने सिटपिटा कर कहा

'' चार बच्चे! तुम्हें देख कर तो कतई ऐसा नहीं लगता।''
''
सर, बचपने में ही निकाह हो गया।''

'' क्या यह दरगाह अन्दर से देख सकता हूँ मैं?'' कह कर उन्होंने जेब से पचास रूपए का नोट निकाल कर उसे दे दिया।
''
सर आप तो फौजी हैं, आपको कौन रोकेगा? यहां के लोगों के दिलों को रौंद कर भी गुजर सकते हैं आप तो।'' उसकी आवाज में तल्खी थी। यह तल्खी पचास रूपए के नोट से असंतुष्ट होने की थी या फिर सच में फौज को लेकर थी यह अंदाज लगाना मुश्किल था।

''मैं फौजी था, अब नहीं हूँ।''

'' चलें?''

वे दोनों दरगाह के भीतर थेशांत, ठण्डी, संगेमरमर की छोटी सी दरगाह संगमरमर के जालीदार गलियारों के बीचों - बीच सलेटी फर्श वाला अहाता था, अहाते में बीचों - बीच लगा चेरी का पेड सच में सुर्ख चेरी के झुमकों से लदा हुआ था, पेड क़े नीचे का फर्श पर टपके हुए फलों से लाल धब्बों से अंटा थालोग गिरे हुए फलों को कुचल कर आ - जा रहे थेपेड की छाया के फैलाव में कोने में संगमरमर के पत्थरों से ढंकी दो मजारें थींसंगमरमर के पत्थर बाद में मजारों पर मढे ग़ए होंगे क्योंकि उनके सिरहाने लगे समाधि - पत्थर पुराने थे साधारण लाल पत्थर के, जिन पर गढ क़र, अंग्रेजी में लिखा गया धुंधला - सा कुछ दिखाई दे रहा थावक्त ने बहुत कुछ मिटा डाला था, मगर एक पर 'एस' और '' तो गढा हुआ दिख रहा था दूसरे में 'आर', '' और 'आर' अक्षर दिखाई दे रहे थेबीच के अक्षर मिट चुके थे

'' यह तो अंग्रेजी में कुछ लिखा है।''
''
तभी तो साहब हम कहते हैं ये सूफियों की मजारें नहीं। मगर ये सूफी लोग कहते हैं कि ये अंग्रेजी नहीं, अरबी की कोई मिटी हुई इबारत है।'' वह फुसफुसाया।चेरी का पेड र यह समाधि- पत्थर!

कर्नल हंसराज को बुरी तरह झुरझुरी आ गई। ये तो साशा और रोवर की कब्रें थीं! वे अचकचा कर अपने चारों तरफ देखने लगे। श्रध्दा से भरे लोगों को हैरानी से देखने लगे। उन्हें लगा कि उनके भीतर बर्फानी लहर दौड रही है और उनके वजूद को सुन्न करती जा रही है। दो दरवेश, दो दीवाने प्रेमी!
कव्वाली शुरु हो चुकी थी  भीड बढने लगी थी।
_
जाहिद ने मेरा हासिले इमां नहीं देखा
             इस पर तेरी जुल्फ़ों को परीशां नहीं देखा
एक भारी, उदास आवाज और कुछ पतली खिली आवाज़ों का कोरस, बादलों से भरी दोपहर में पहाडों से टकरा कर एक तिलिस्म बुन रही थी। नीचे घास पर नन्हें फूल खुशहाली का पता दे रहे थे तो ऊपर आकाश में उडता हुआ, चौकसी करता सीमा सुरक्षा बल का हेलीकॉप्टर एक बहुत - बहुत कडवी सच्चाई की तरह आंखों में गड रहा था हम दरख्तों, कबूतरों, नदियों और हवाओं की तरह बेलौस और बेखौफ नहीं। हम अपने - अपने खौफ़ के गुलाम हैं। 

वे एक ठण्डी संगमरमर की बैंच पर बैठ गए, तेज - तेज ठण्डी सांसे लेने लगेआस - पास बैठे व्यक्तियों को देखाएक तरफ बुरके में अधेड ज़नाना बैठी थीं, हाथ में सबीह के मनके फेरतींउनके ठीक सामने, एक जवान जोडा गुफ्तगू में तल्लीन थाकिसी को क्या कहें? कहें भी कि ना कहेंकौन मानेगा उनकी? मान भी लिया तो बहुतों की श्रध्दा पर भीषण तुषारापात होगाबेचैनी से वे अपना सीना मलने लगे खुद को शांत करने की कोशिश में

उनके जहन में थे, विस्फोटकों को सूंघकर उनका पता देते साशा और रोवर। सैंकडों जिन्दगियां बख्शते वे दो सुन्दर काले लेब्राडोर कुत्ते। उन्हें उनकी प्रेमिल अठखेलियां याद आ गईं, सुबह पांच बजे महेश कैम्प के अहाते में उन्हें खोल दिया करता था। अभ्यास से पहले वे गोल - गोल एक दूसरे के पीछे दौडते हुए खेलते थे, घास में लोटते, प्यार भरी गुर्राहटों से अहाता गुंजा देते। उसके बाद शुरु होता था विस्फोटकों के साथ उनका वह 'हाइड एण्ड सीक' (लुकाछिपी) का अभ्यास। जिसे वे खेल समझते थे वह मौत का ताण्डव था, यह वे मासूम कहां जानते थे।

क्यों कहें किसी से कुछ भीकोई जरूरत नहीं हैक्या यह सच नहीं कि साशा - रोवर सच में दो अनूठे प्रेमी थे! और क्या वे धर्म, प्रतिष्ठा, धन और शक्ति के मोह के आगे प्रेम और वफादारी को तरजीह देने वाले दरवेश नहीं थे? क्या हुआ जो वे इन्सान नहीं थे, मगर उनके जीवन और मृत्यु दोनों इन्सानों को पाठ नहीं पढा गए? 

उन्होंने पास के एक माला वाले से दो गहरे रंगो के गुलाबों की माला ली, और उन दो मज़ारों की तरफ बढ ग़ए 

 

मनीषा कुलश्रेष्ठ
नवंबर 26, 2007

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