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हाइड एण्ड
सीक राजनैतिक और सामरिक नीतियों के चलते, इन नौ - दस सालो के दरम्यां इन रास्तों में बहुत कुछ फेर - बदल हो चुका था। ठीक एक खूबसूरत बच्चे के गालों की तरह, जो ज्यादा रोने से गंदला से जाते हैं, यह शहर भी गंदला गया था। मगर वे गाल गंदले होकर भी लगते उतने ही खूबसूरत हैं। छोटे - छोटे उदास मलिन गांवों के बाहर उगे बागों में चेरी के पेडों ने हल्की पीली - गुलाबी चेरियों के झुमके पहन लिए थे। अखरोटों के जगंल फलों से लदे गुनगुना रहे थे। मेहनतकश मधुमक्खियां जंगली सफेद गुलाबों से रस बटोर कर अपने छत्ते भर रही थीं, आने वाली सैनिकों और श्रमिकों की नस्ल के लिए। छोटे - छोटे झरने ठिठक कर बह रहे थे। मगर चिनार गुम - सुम उदास खडे थे, हर पचास कदम पर खडे सीमा सुरक्षा बल के सैनिकों की बन्दूकों से सहमे। तराई से पहाडों की तरफ बढते हुए, तमाम रास्ते उन्हें अलमस्त यायावर मिलते रहे। आतंक से बेखौफ, पहाडी ख़ानाबदोश। जो गर्मियां शुरु होते ही, अपने भेड - बकरियों के रेवड क़ो ऊंचाइयों की तरफ, हरी चराई के लिए ले जाते हैं। उनके साथ होता है, उनका राशन - पानी और चाय - कहवा बनाने का साजो - सामान और कुछ - कुछ रूसी समोवार जैसी समोवार। एक - दो बार उन्होंने बीच - बीच में जीप रोकी और, मक्खन डली नमकीन चाय पीने के लालच में भेड क़ी तरह गंधाते उन खानाबदोशों के साथ जा बैठे थे। चाय के उसी चिरपरिचित स्वाद के साथ उन्होंने महसूस किया कि ये मंजर बदल जरूर गये हैं, मगर विकास के कुछ पैबन्दों से भी इन रास्तों का पुरानापन नहीं मिटा है। प्राकृतिक
संपदा से समृध्द इस प्रदेश के मेहनतकश,
संर्घषशील लोगों के
हिस्से में हमेशा से एक ही चीज आई थी वह थी
_
बदहाली ।यह बदहाली उनकी जिन्दगी
का अभिन्न हिस्सा थी,
हाड - तोड मेहनत उनके जीने का
तरीका था,
लुटते चले जाना उनकी नियति और
गैरों पर विश्वास एक दर्शन। मगर यह जो हताशा भरी बदहाली जो आज लोगों के चेहरे
पर नुमायां थी,
वह उनके हाथों से कुदाल और
पैरों के नीचे से धान के टुकडा - टुकडा खेत छीन लिए जाने की थी। वे हाथ कुदाल
गिरा चुके थे,
मगर बन्दूक पकडने से कतरा रहे
थे,
इसलिए उनके घर टूटे थे और बच्चे
भूखे थे। जिन हाथों में ग्रेनेड थे,
बन्दूकें थीं उनके घर
पक्के हो रहे थे। लेफ्टिनेंट कर्नल हंसराज बहुत बरसों बाद लौट रहे थे, इस शहर की ओर, इस प्रदेश में। जब वे मेजर थे, तब वे यहां तैनात थे। उन तीन सालों में बहुत कुछ घटा था, उनके बाहर भी और भीतर भी। वक्त ने स्मृतियों पर अतीत के अटपटे खुरंट जमा दिए थे। वे उस समय से जुडा हुआ, लगभग सब कुछ भूल जाने की कोशिश कर चुके थे, लेकिन खुरंटों के नीचे के घाव थे कि कभी - कभी टीस जाते थे। देह जब यात्राएं कर रही होती है, आस - पास की तो मन सुदूर की यात्राएं कर रहा होता है। देह जिन पक्के रास्तों पर गुजरती है, वे रास्ते तो फरेब होते हैं, मगर मन जिनपर गुजर रहा होता है वे पगडण्डियां शाश्वत होती हैं, कभी नहीं मिटती। वे तो एक यायावरी के लिए निकले थे। माना यायावरी दिशाहीन होती है, मगर अवचेतन ने ये कौनसी दिशा तय कर दी थी कि वे यहां फिर लौट कर आने को उत्सुक हो गए थे! स्तब्ध, मलिन कस्बे और शहर, पीली सरकारी इमारतें और खूबसूरत मगर तन्हा और उदास रास्ते, सर झुकाए खडे चिनार, बलत्कृत झीलें, ठिठक कर बहते झरने अब तक उनके साथ साथ चल रहे थे। वे हल्के भय को थामे, पूरे दैहिक और मानसिक संतुलन के साथ अपनी गाडी चला रहे थे मगर अचानक उनकी खामोशियों के झुरमुटों के पीछे आवाजों के पंछी हल्के - हल्के पंख फडफ़डाने लगे। _ 'कमॉन इण्डिया जीत के आना है।' के स्लोगन्स की धूम, र्वल्ड कप का शोर। उनसे मुखातिब उनके अधीनस्थ अफसर की हताशा से भरी आवाज _ '' सर, क्या आप ऐसे बैट्स मेन की कल्पना कर सकते हो, जिसे फास्ट बोलिंग झेलने के लिए हेलमेट, ग्लव्ज और पेड्स के साथ खडा दिया गया है मगर उससे बैट वापस ले लिया गया है? रोज बम शैलिंग से गांव के गांव रिफ्यूजी कैम्पों में तब्दील हो रहे हैं मगर हमें पलटवार की इजाजत नहीं। क्यों सर क्यों?'' बेस युनिट से उनके बॉस की भर्राई आवाज _ '' एक - एक करके अब तक 400 शहीदों को यहां से विदा कर चुका हूँ, जिन्होंने अपने परिवारों से वादा किया था कि वे वापस लौटेंगें। उन्होंने इसे निभाया है। वे एक आम आदमी की तरह गए थे, मगर महानायकों की तरह लौट रहे हैं।तरंगों में लिपटे और 'ताबूतों' में बन्द। इन महानायकों की उम्र 19 से 35 के बीच थी। दिल्ली जाकर जिन्हें मिला 'शोक शस्त्र' फेयरवेल सेल्यूट! लोह - सैनिकों की ऊपर उठी हुई बन्दूकों की खामोश वेदना, उन बन्दूकों की बैरल का उलटाना सीने के करीब लगाया जाना, एकसाथ कई सरों का झुक जाना 30 सैकण्ड का पथरीला मौन और फिर उनके मृत सीनों पर सेना के सर्वोच्च अधिकारियों, साथियों के चढाए गए रजनीगंधा और गेंदों के 'रीथ'(शवों पर चढाई जाने वाली विशिष्ट गोल माला)। फिर एक कामरेड की देख - रेख में, इनकी अपने घरों की ओर अंतिम यात्रा।'' हवाओं की सरसराहट में वे मौसम बदलने की आहट सुन पा रहे थे। बदलते मौसम के इस बेपनाह सौन्दर्य में इतनी उदासी क्यों घुली है? हर अतीव सुन्दरता की तरह यह भी अभिशप्त क्यों है? इस अभिशप्त सुन्दरता की जीवन्त उदासी से खामोशी के झुरमुटों के पीछे की आवाजों की फडफ़डाहट स्थगित हो गयी। 'ठहरो - हिन्दुस्तानी साबमेरी भेडें ड़र जाऐंगी।' एक पतली आवाज उसे मुखातिब थी। एक मोड पर हाथ हिला - हिला कर एक दस साल का सुन्दर मुखडाउसे रोक रहा था। उसकी भेडें रास्ते पर बिखर गईं थीं और उन्होंने वह ढलवां, संकरी - सी, सडक़ पूरी की पूरी घेर ली थी। इस मासूम को किसने समझाया यह सम्बोधन? किसने बोया होगा इस सरल मन में इस विभेद का बीज? आज इस दस साल के लडक़े के मुंह से 'हिन्दुस्तानी' सुन कर, उन्हें ऐसा लगा कि किसी ने उन्हें दूसरी शिकस्त दी हो। बरसों पहले की, वह पहली शिकस्त उन्हें बखूबी याद है। वे तबादले पर वहां पहुंचे ही थे। इस राज्य के दूरस्थ इलाके, जो 1971 के युध्द के बाद भारत का हिस्सा बन चुके थे, सेना द्वारा चलाए गए 'आपरेशन मित्रता' केन्द्र बिन्दु थे। लाइन ऑफ कन्ट्रोल से कुछ किलोमीटर दूर, एक महत्वपूर्ण पोजिशन की सतर्क चौकसी के साथ - साथ उन्हें इस ऑपरेशन की भी कमान संभालने को मिली थी। उन्होंने अपनी युनिट की सारी ऊर्जा 'ऑपरेशन मित्रता' में झौंक डाली थी। वे स्वयंसेवी संस्थाओं की सहायता से यहां स्कूल और अस्पताल खुलवा रहे थे। आतंकवाद की चपेट में आए स्थानीय लोगों को पुर्नस्थापित करने में उनके सैनिकों ने हरसंभव सहायता की थी। धमाकों में अपाहिज हुए लोगों को कृत्रिम अंग लगवाए गए थे। मगर फिर भी यहां के निवासी आतंकवादियों और घुसपैठियों को हर संभव सहायता और आश्रय दिया करते थे। इन इलाकों के असहयोगी माहौल में विश्वसनीयता हासिल करना क्या आसान काम था? पूरा साल वे स्थानीय निवासियों के साथ फौज के सम्बन्ध सुधारने पर एडी से चोटी तक का जोर लगाते रहे। उन्हें लगता था कि एक दिन वे इन स्थानीय लोगों का विश्वास हासिल करने में सफल होंगे मगर आज से लगभग नौ साल पहले, ऐसे ही तो बसन्त की शुरुआत थी, ऐसे ही फूल खिले थे जब हमारे प्रधानमंत्री लाहौर में शांति वार्ता में अपनी नितांत भारतीय नीतियों की दार्शनिक व्याख्या कर रहे थे अपने परमाणविक शक्तिधारक दुश्मन के समक्ष। बिलकुल ऐसे ही दिनों में एक साधारण अभ्यास की तरह बर्फीली चोटियों पर सर्दी खत्म होने के बाद सेना की पहली पेट्रोलिंग टीम दुर्गम उंचाइयों पर चढी थी। चार जवानों और एक युवा अधिकारी की ये टुकडी अचानक बर्फीली उंचाइयों पर से गायब हो गई थी। हालांकि वे उनकी यूनिट के नहीं थे किसी और रेजिमेन्ट के ये पांच फौजी पेट्रोलिंग के लिए निकले थे। वे महीना भर लापता रहे। जब उनके शव मिले, तब पता चला कि बर्फीली उंचाइयों में छिपे बैठे घुसपैठियों ने उन्हें कैद कर लिया और उस पार ले गए जहां उन्हें यंत्रणाएं देकर मारा गया, उनके शरीरों पर सिगरेट से जलाने के निशान थे, उनकी सिर की हड्डियां टूटी हुई थीं, कान के पर्दे गर्म रोड डाल कर फाड दिए गए थे, आंखें निकाल ली गई थीं। पर यह बात उन्हें खटकी थी कि ऐसे अनुभवहीन युवा अधिकारी को पेट्रोलिंग के लिए बिना तहकीकात किए क्यों भेजा गया था और उसका शव घर पर उसकी पहली या दूसरी तन्ख्वाह के चैक के क्लियर होने से पहले ही पहुंच गया था इस बात को लेकर उन्होंने उच्चधिकारियों से जिरह की थी। मगर उन्हें चुप करवा दिया गया। उनका और उनकी यूनिट के जवानों का 'ऑपरेशन मित्रता' से धीरे - धीरे मोहभंग होता जा रहा था। वे यह जान गए थे उनके धैर्य को उनकी कमजोरी माना जा रहा है। सरासर ध्यान भटकाने वाली गतिविधियां जारी थी। यहां विस्फोट, वहां नर - संहार। एक रात उन्हें अपने विश्वसनीय मुखबिर से पता चला था कि एन् उनकी नाक के नीचे आतंक सांसे ले रहा है, और वे सरासर बारूद के एक बडे ढ़ेर पर बैठे हैं। अगले ही दिन जहाज से उनके पास एक 'स्निफर डॉग स्क्वाड' ( खोजी और गश्ती कुत्तों का दस्ता) आ गयी थी। 'ऑपरेशन मित्रता' के सैनिकों के उन हाथों में फिर बन्दूक आ गयी थी, जिनसे वे स्थानीय निवासियों की सहायता करते थे। ''इन खोजी कुत्तों के बिना यहां कोई ऑपरेशन मुमकिन नहीं सर जी। इंसान की अपनी लिमिट है जी, मगर इन लेब्राडोर कुत्तों को भगवान ने खास ताकत दी है, सूंघने की। हमारे सैंकडों जवानों को इन साशा और रोवर की तेज नाक ने जिन्दगी बख्शी है। और मुझे बडा नाज है जी, इन पे। यकीन तो है ही खैर'' ''क्या
बताऊं सर जी,
हैण्डलर का प्रेम ही होता है जो
इनसे यह काम करवाता है। इनके लिए तनख्वाह,
पावर,
इज्जत या धर्म या जात का
कोई मतलब है क्या साब?
ये वफादार दोस्त जाने कितनी
जिनगानियां बचाते हुए खुद मर जाते हैं। पहले मेरे पास चम्पा नामकी लेब्राडोर
कुतिया थी,
उसने बडी ज़ानें बचाईं,
कितनेक तो लैण्ड माईन्स ढूंढे
उसे मेरे साथ कमण्डेशन भी मिला था। इन की फीमेलों की नाक मेलों से ज्यादा तेज
होती है वैसे सर जी नाक और कान तो हमारी फीमेलों के भी खूब तेज होते हैं।''
बहुत बातूनी था लांसनायक
महेश। उसकी स्क्वाड के वे दो काले लेब्राडोर कुत्ते खूबसूरत और
बुध्दिमान थे। खाली वक्त में वे आपस में अठखेलियां किया करते। महेश उनके साथ
विस्फोटक की मामूली सी मात्रा रूमाल में छिपा कर
'खोजो
तो जानें'
का खेल खेल कर उनके हुनर को
पैना किया करता था। सैनिकों ने उनके संकेत पर एक घर को घेर लिया।वे तीन सैनिकों, लांसनायक महेश और साशा के साथ एक सुनसान टूटे - फूटे घर में घुसे। इस टूटे - फूटे घर के नीचे की मंजिल पर जमीन पर बिछे बिस्तरों पर सलवटें थीं। कालीन पर जूतों के कई निशान। बिस्तरों में इन्सानी जिस्मों की गर्म बू ताजा ही थी। ज्यादा दूर नहीं गए होंगे वो। संभल कर वे ऊपर की मंजिल की ओर बढे। ऊपर जाते ही साशा बेचैन हो गयी और इधर - उधर सूंघने लगी, गोल - गोल चक्कर काटने लगी। बीच बीच में कूं ऽ कूं भी करने लगती और पूंछ हिलाने लगती। महेश बहुत सर्तक हो गया था। उनके तीन अधीनस्थ अधिकारियों सहित सैनिकों की एक बडी टुकडी उन्हें कवर दे रही थी। वह एक मर्तबान में बार - बार मुंह डाल रही थी। उस मर्तबान के चारों तरफ गोल चक्कर काट रही थी। फिर उसने पंजे से उसे उलट दिया। एक बेलनाकार धातु की वस्तु कपडों में लिपटी रखी थी। महेश समझ गया था कि साशा ने बम ढूंढ लिया क्योंकि वह उसके पास बैठ गई थी, ताकि उसका हैण्डलर स्थिति का जायजा ले सके। ''
सर आप सब बाहर जाएं,
आतंकवादी तो नहीं,
मगर बम है यहां। सूबेदार
हनीफ अहमद को भेज दें इसे डिफ्यूज क़रने के लिए।''
महेश ने फुसफुसा कर कहा। उन खाली टूटे - फूटे घरों में हरेक में बम रखे मिले थे। रोवर ने उन्हें ढूंढ निकाला था। रोवर को आतंकवादियों की तलाश में हैण्डलर जंगल की तरफ घुमाता मगर वह लौट - लौट कर बस्तियों की तरफ भाग रहा था। वह एक घनी बस्ती के ऐसे घर दरवाजे पर रुका, जहां पर्दानशीन औरतें ही औरतें थी और वहां दालान में पडी थी, घर के एकमात्र युवक की लाश, जिसे ताजा - ताजा कत्ल किया गया था। जिबह की गई बकरियों की तरह वे औरतें चीख रही थीं। घर की तलाशी ली गई मगर वहां कुछ नहीं मिला। घर के पीछे गली झील पर खत्म होती थी, झील के उस तरफ मस्जिद थी। यह वही जगह थी, जहां सफेद - गुलाबी मगर मैले गालों वाली किशोरी झील के किनारे से सटी नाव में सहमी बैठी मिली थी। अब वहां न नाव थी न वह किशोरी। शलगम के गुच्छे ज़मीन पर गिरे हुए थे। गली के मकानों की खिडक़ियां यूं बन्द थीं गोया बरसों से खोली ही ना गई हों। उस गली से पलटते ही मस्जिद की दिशा से फायरिंग शुरु हो गयी। जवाबी कार्यवाही में वे फायर नहीं कर सकते थे क्योंकि जुम्मे का दिन था और मस्जिद में आतंकवादियों की जद में कुछ मासूम नमाज़ी फंसे हुए थे। '' हिन्दोस्तानी कुत्तों मस्जिद का रुख न करना, वरना ये नमाजी हमारे हाथों खुदा के प्यारे हो जाएंगे।'' यह उनके 'ऑपरेशन मित्रता' की पहली शिकस्त थी। आज नौ साल बाद यह दूसरी शिकस्त उन्हें उदास करने के लिए काफी थी। बेस पर लौट कर रोवर बहुत बेचैन हो उठा था। बार - बार कैण्टर की तरफ जाता जहां 'साशा' का शव रखा था। कूं कूं करके उसके चारों तरफ घूमने लगता था। अपने हैण्डलर की बात भी नहीं सुन रहा था। उससे बहुत छिपा कर साशा को उन हरे - भरे मर्गों में कहीं दफना दिया गया था। मगर रोवर ने भांप लिया था। हैण्डलर ने बहुत कोशिश की उसे खिलाने की, मगर उसने खाने को सूंघा तक नहीं। उसे ड्रिप भी लगाई। फिर उसने किसी भी अभ्यास में मन से हिस्सा नहीं लिया, अभ्यास के दौरान विस्फोटक की गंध से भरा कपडा उसे सुंघा कर छिपाया जाता पर वह उसे खोजने की कोशिश करने की जगह एक जगह पर बैठ जाता और उसकी आंखों से पानी बहता रहता। उन्हें नहीं पता कि कुत्ते रोते भी हैं कि नहीं। मगर रोवर को देख कर उनका मन भारी हो जाता था। रोवर के असहयोग की वजह से तुरन्त दूसरे स्निफर डॉग और उसके हैण्डलर को भिजवाने का संदेश भेज दिया गया था। जिस दिन उसे वापस भेजा जाना तय था, उस दिन के पहले वाली रात, जब वे लांसनायक सुरिन्दर से मिलने गए तो रोवर उसके साथ बुखारी के सामने बैठा था। बीमार मगर शांत। उनके आने पर उसकी दोनों कत्थई एक साथ आंखें उठीं थीं। हल्के - हल्के उसने दोस्ताना अंदाज में पूंछ भी हिलाई, सर सहलाने पर हाथ चाटा था। फिर वह आंखें मूंद कर लेट गया। सुबह वह नहीं उठा। महेश अब दिल्ली में रिसर्च एण्ड रैफरल हॉस्पीटल में स्थान्तरित कर दिया गया था। उन्होंने उससे फोन पर बात की। वह व्यथित था, अपने हाथ के कट जाने को लेकर नहीं। साशा और रोवर को लेकर, '' सर जी बहुत प्यार था उनमें। उन्हें आस - पास ही दफनाना।'' उसके कहने पर रोवर को साशा के बगल में ही उसके साथी दफना आए थे। जहां तक उन्हें याद है महेश का साथी लांसनायक सुरेन्दर लाल रंग के दो समाधि - पत्थर बनवा कर लाया था। ''सर, सच्चे सिपाही, सच्चे आशिक तो यही हैं ना।आप इजाजत दें तो इनकी कब्रों पर ये पत्थर लगवा दें।'' उन्होंने वहां अपने हाथों से एक चेरी का पेड लगा दिया था। लांसनायक महेश के 'स्पेसिफिक काउन्टर टैरर मिशन' के 'कमण्डेशन'(प्रशंसा - पत्र) के लिए उन्होंने चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ को 'साइटेशन' (अनुशंसा) भेजी थी, जो स्वीकृत हुई। छद्म युध्द ने तेजी से आग पकड ली थी। उस छद्म युध्द में उनकी सेवाओं के लिए उन्हें सेना मैडल मिला। इस सबके बावजूद एक असंतोष सा उनके मन में घर कर गया था। इतने स्थानीय नागरिकों, जवानों - अधिकारियों की जान महज कुछ लिजलिजे निर्णयों और ढुलमुल नीतियों के चलते गंवा दिए जाना उन्हें नागवार गुजरा था। उन्होंने सेना से स्वैच्छिक अवकाश ले लिया था। वे शहर में बस दाखिल हुए ही थे कि उन्हें पीली दीवारों वाला डाकघर दिख गया था। शहर के बदलावों में बच गए एकमात्र जर्जर अवशेष - सा। जिसके बाहर फुटपाथ पर, सूखे मेवे बेचने वाले अखरोटों का ढेर लगाए खडे थे। दुकानों पर कढाई किए गए कपडे और सुन्दर दस्तकारी के साजो - सामान सजे थे। शहर अजब तरह से विकसित हो रहा था, जैसे बदहाली नाम की खूबसूरत गरीब - बेबस औरत को तीखा मेकअप करके बिठा दिया गया हो, लेकिन डर उसकी आंखों, हरकतों, जुम्बिशों से किसी न किसी तरह टपक ही रहा हो। रंग - बिरंगे शीत पेयों और मोबाईल फोन की कंपनियों के बडे - बडे होर्डिंग, शहर के हर चौराहे पर लगे थे। सफेद स्कार्फ से सर को अच्छी तरह ढके, सर झुकाए, बिना खिलखिलाए किशोरियां स्कूल जा रही थीं। धूसर - भूरी दीवारों और लकडी क़े दरकते फर्श और टीन की छतों वाले घरों की कतार जहां खत्म होती थी वहां से एक झील शुरु होती थी। एक बूढा अपनी नाव में बैठा इस झील में उगी जलीय खरपतवार को जाली से बडी तटस्थता से साफ कर रहा था। लाईन से लगे शिकारे और हाउसबोट एक अंतहीन प्रतीक्षा में प्रार्थनारत मालूम होते थे। वे एक मुगलकालीन बाग के करीब से निकले, वहां एक ऊन की टोपियां बेचने वाले ने बताया कि अभी वहां विस्फोट होकर चुका है, एक गुजरातियों से भरी बस पर। लेकिन जिंन्दगी बदस्तूर रवां थी। चेरी - अखरोट बेचने वाले बसों में बैठे टूरिस्टों से मोल - तोल कर रहे थे। आखिर हम सीख ही गए आतंक के साए में जीना। वे उस प्रसिध्द चौक से गुजरते हुए आगे की तरफ मुड ग़ए, जहां मौत का खेल शतरंज की तरह खेला जाता था। वो प्यादा मरा वो वजीर! वजीर कम मरते, प्यादे ज्यादा। बल्कि वजाीरों की शह और मात के बीच प्यादे कब लुढक़ जाते, इसका न पता चलता, न फर्क पडता था। हालांकि माहौल में जाहिरा तौर पर कोई तनाव नहीं था। लेकिन उन्होंने देखा, तब के शहर और अब शहर की सोच तक में फर्क आ गया था। पहले एक - एक मौत मायने रखती थी। अब विस्फोटों और दो - चार मौतों के बावजूद एकाध घण्टे में ही जिन्दगी फिर से रवां हो जाती है। वो मरी हुई शतरंज की गोटियों की तरह लाशें हटाते और खेल फिर शुरु अब वे फिर से टूरिज्म के विकास की तरफ बढ रहे थे। सरकार और कठमुल्लाओं और उनके खैरख्वाह बनने वाले आतंकवादियों सभी से वे विमुख हो चले थे। फौज से उनका प्रेम और घृणा, सहयोग और असहयोग का व्यापार निरन्तर जारी था। शहर के
मुख्य और बडे हिस्से में स्थापित सेना के एक बहुत बडे बेस के सामने से वे
तटस्थता से गुजर गए।
पहले उनका वहीं उसी
बेस में ठहरना तय था।
मगर वहां उन्हें कुछ
अजनबी लगा,
बेमानी भी।
उनकी जान - पहचान का
पुराना कोई भी तो नहीं होगा।
उस बेस के चारों तरफ
एक लम्बा चक्कर काट कर वे शहर से बाहर आ गए थे।
वे उस सडक़ की तरफ मुड चले जिसके साथ एक नदी चला करती थी। रास्ते बदल गए थे। उन्हें गाडी रोक कर नए रास्तों की बाबत पूछना पडा। पहाड क़ा एक हिस्सा काट कर सडक़ का एक छोटा - सीधा रास्ता बन गया था। मगर शायद नदी ने पलट कर फिर कहीं आगे जाकर सडक़ का हाथ पकड लिया था। अब वह फिर साथ थी।अवरोधों पर वह नदी और अधिक उच्छृंखल हो जाती। ऊंचाई से नीचे गिरती तो अनेकानेक भंवर डालती बहती। नदी के पानी में बहा खून जाने कहां बिला गया होगा मगर इसकी चंचलता और निश्छलता में कोई फर्क नहीं आया। यह कुछ मील दूर दूसरे देश में में भी ऐसे ही उछालें मार कर बहती रही है। खुद से उलझते, अपनी मंजिल के बारे में तय करते - करते उन्हें शाम हो आई थी, कुछ रास्ते बदल गए थे, कुछ वे भटक गए थे। अंतत: वे एक नए बने आर्मी बेस के छोटे से ऑफिसर्स मैस में जा ठहरे। मैस बहुत खूबसूरत जगह पर बनी थी। उनके कमरे के इस तरफ नदी के छल - छल, कल - कल गीत गूंजते थे तो दूसरी तरह पहाड ध्यानमग्न नजर आते। उन्होंने अपने कमरे के पीछे वाली बॉलकनी की रैलिंग से नीचे देखा _ नीचे ढलानों की तरफ फैले हरे - भरे विस्तृत चारागाह में, शाम के गुलाबी झुटपुटे और चांद की फैलती रूपहली रोशनी में दो सफेद मजारें जगमगा रही थीं, मानो मुस्कुरा रही हों। उस पल हरे - भरे मर्ग के बीच उन गुनगुनाती मजारों, उनके चारों तरफ खिले फूलों और आकाश में तैरते टुकडा - टुकडा बादलों को देख कर, न जाने क्यों कर्नल हंसराज को लगा कि मानो मौत का दूसरा नाम खुशगवारी हो। अगले दिन सुबह नहा धोकर, नाश्ता करके वे अपने कमरे से निकल आए। कमरे की बॉलकनी से जो मजारें उन्हें आकर्षित कर रही थीं। उसी तरफ बढ चले। आज उस तरफ रौनक थी, चहल - पहल थी। उन्हें हैरानी हुई। मैस के
एक अर्दली ने बताया कि ये दो सूफी पीरों की मजारें हैं,
एक भले दिल के सूफी दरवेश ने अपने पैसे और रसूख वाले
मुरीदों से कह कर वहां दरगाह बनवा दी हैं।
पूरे चांद की रात में
सुबह से ही वहां मेला लग जाता है।
दूर दराज से लोग आते
हैं।
हंसराज हैरान रह गए थे।
वे दरगाह के बाहर ही
रुक गए।
एक तरफ लगे एक तंबू में कहवा
बन रहा था।
कहवे की महक ने,
वह स्मृति में बसा सौंधा स्वाद याद दिला दिया।
वे उसी तरफ बढ ग़ए। कर्नल हंसराज ने दिमाग पर जोर डाला '' दस साल पहले, हँ हाँ, उन दिनों लेह के 'दो बौध्द भिक्षु' तो जरूर मार डाले थे, आतंकवादियों ने। मगर सूफी ! कुछ याद नहीं पड रहा।''
आतंकवादी शब्द बोल कर जैसे उनसे कोई कुफ्र हुआ हो,
उस कहवावाले ने उन पर क्रूर और ठण्डी निगाह डाली। उन्हें तम्बू से बाहर ले जाते हुए एक नौजवान कश्मीरी बोला, '' बुरा मत मानिएगा सर, ये बडे मियां जरा खब्ती हैं। सच्ची बात तो ये है कि ये मजारें किसी सूफी - दरवेशों की नहीं हैं, लैला - मजनूं जैसे दो आशिकों की मजारें हैं। कहते हैं, लडक़ी कश्मीरी थी और लडक़ा सिपाही था, हिन्दुस्तानी फौज का।'' '' क्या बात करते हो?'' ''क्या
बताऊं सर,
दोनों ही बातें कहते हैं लोग।
बडे - बूढे तो सूफी - दरवेश की मजार मानते हैं इसलिए यहां सूफी - दरवेशों की
हर पूरे चांद पे मजलिस लगती है। मगर कुछ लोग इन्हें दो आशिकों की मजार समझते
हैं तो नौजवान जोडे भी यहां आकर मन्नतें मांगते हैं।''
''
तो चलिए सर आपको ग्लैशियरघुमा
लाऊं।'' '' अच्छा कोई बात नहीं सर, मैं बता रहा था न इन मजारों के बारे में _ '' वे समझ गए थे कि यह गाइड या टूरिस्ट एजेन्टनुमा कोई जीव है। इन मजारों की कहानी सुनाने के बहाने चिपक ही गया है। कुछ लिए बिना टलेगा नहीं। '' बताओ क्या बता रहे थे?'' वे उकता कर बोले। ''कहते हैं एक कश्मीरी लडक़ी, इस छावनी से कुछ ऊंचाई पर बने गांव में रहा करती थी। खूबसूरत, मासूम, कमसिन। 'सना' नाम था उसका।नीचे छावनी की एक बैरक में रहने वाले एक क्रिश्चन सैनिक 'रोजर' से उसका इश्क हो गया। आप तो जानते हैं सर इश्क ज़ात - धर्म कहां देखता है।'' उसका चिपकूपन उन्हें खिजा रहा था, वे उसे झिडक़ने ही वाले थे कि उसके सुनाने के दिलचस्प अंदाज पे वे मुस्कुरा उठे। '' लगता है तुमने भी इश्क क़िया है।'' '' हां सर, बहुत पहले। एक हिन्दू लडक़ी से उसके भाई और बाप तो आतंकवादियों ने मार डाले और वो और उसकी मां यहां से जम्मू चले गए। खैर छोडिए वो कहानी सरये कहानी सुनिये_ हां तो, वह रोज उससे सुबह - सुबह मिला करती, घास काटने के बहाने। रोज सुबह पांच बजे उसकी खिडक़ी पर एक कस्तूर चिडिया आकर तान देती और वह ढलान उतर कर अपने आशिक से मिलने जाती। एक रोज क़स्तूर ने सुबह पांच की जगह तीन बज कर चालीस मिनट पर ही किसी डर से तान दे दी। शायद उसके घोंसले के नन्हें चूजों पर किसी बाज ने चोंच मारी होगी। सना को वह तान अजीब तो लगी, मगर प्रेमी से मिलने के चाव में उसने ध्यान ही नहीं दिया। बर्फीले पानी से मुंह धोया तो मुंह सुर्ख क़ी जगह नीला हो गया। अंधेरे में फिरन पहना तो कील में अटक कर फट गया मगर फिर भी उसने इन बदशगुनों पे ध्यान नहीं दिया। अपने घर से नीचे ढलान की तरफ अपने प्रेमी से मिलने उतर पडी, ख़ुशी से सरोबार, देख लिए जाने के डर से घबराती, जिस्मानी चाहतों में सुलगती, महबूब की आंखों का इंतजार उसकी रूह में सुलग रहा था। उसे पता था रोजर ने परदा दरवाजे में अटका कर रखा होगा वह खटखटाएगी भी नहीं पास की बैरकों के उसके साथी न जाग जाएं इसलिए। वह फूलों से लदे एक चेरी के पेड क़े पास से गुजरी जहां से रोजर की बैरक दस फर्लांग पर थीकि उसे पहली गोली लगी, कन्धों पर वह बाहर निकल आया चीख कर रोकता फैंस के पास अपने पहरा दे रहे साथी को तब तक दूसरी गोली उसका अरमानों भरा सीना चूम चुकी थी। जमीन पर पडे चेरी के फूल लाल हो गए थे खून से। '' ये क्या किया यह आतंकवादी नहीं मेरी महबूबा है।'' कह कर रोजर ने कनपटी पे गोली चला ली और सना के जिस्म पर जा गिरा। कहते हैं सर, कब्रों के पास लगे पेड क़ी चेरी एक दम खून जैसे सुर्ख रंग की होती हैं।'' नौजवान की आंखों में आंसू थे मानो वह उसकी खुद की प्रेमकहानी हो। कर्नल
हंसराज भी उसके कंधों पर हाथ रख कर बोले,
''ेतुम एक कामयाब टूरिस्ट गाईड बनोगे,
इतनी खूबसूरत कहानी गढी है,
तुम्हें तो अफसानानिगार होना चाहिए था।
तुम्हारी शादी हो गई?'' ''
चार बच्चे! तुम्हें देख कर तो
कतई ऐसा नहीं लगता।'' ''
क्या यह दरगाह अन्दर से देख
सकता हूँ मैं?''
कह कर उन्होंने जेब से पचास
रूपए का नोट निकाल कर उसे दे दिया। ''मैं फौजी था, अब नहीं हूँ।'' '' चलें?'' वे दोनों दरगाह के भीतर थे। शांत, ठण्डी, संगेमरमर की छोटी सी दरगाह। संगमरमर के जालीदार गलियारों के बीचों - बीच सलेटी फर्श वाला अहाता था, अहाते में बीचों - बीच लगा चेरी का पेड सच में सुर्ख चेरी के झुमकों से लदा हुआ था, पेड क़े नीचे का फर्श पर टपके हुए फलों से लाल धब्बों से अंटा था। लोग गिरे हुए फलों को कुचल कर आ - जा रहे थे। पेड की छाया के फैलाव में कोने में संगमरमर के पत्थरों से ढंकी दो मजारें थीं। संगमरमर के पत्थर बाद में मजारों पर मढे ग़ए होंगे क्योंकि उनके सिरहाने लगे समाधि - पत्थर पुराने थे। साधारण लाल पत्थर के, जिन पर गढ क़र, अंग्रेजी में लिखा गया धुंधला - सा कुछ दिखाई दे रहा था। वक्त ने बहुत कुछ मिटा डाला था, मगर एक पर 'एस' और 'ए' तो गढा हुआ दिख रहा था दूसरे में 'आर', 'ओ' और 'आर' अक्षर दिखाई दे रहे थे। बीच के अक्षर मिट चुके थे। ''
यह तो अंग्रेजी में कुछ लिखा
है।'' वे एक
ठण्डी संगमरमर की बैंच पर बैठ गए,
तेज - तेज ठण्डी सांसे लेने लगे।
आस - पास बैठे
व्यक्तियों को देखा।
एक तरफ बुरके में
अधेड ज़नाना बैठी थीं,
हाथ में सबीह के मनके फेरतीं।
उनके ठीक सामने,
एक जवान जोडा गुफ्तगू में तल्लीन था।
किसी को क्या कहें?
कहें भी कि ना कहें।
कौन मानेगा उनकी?
मान भी लिया तो बहुतों की श्रध्दा पर भीषण तुषारापात होगा।
बेचैनी से वे अपना
सीना मलने लगे।
खुद को शांत करने की कोशिश
में। क्यों कहें किसी से कुछ भी। कोई जरूरत नहीं है। क्या यह सच नहीं कि साशा - रोवर सच में दो अनूठे प्रेमी थे! और क्या वे धर्म, प्रतिष्ठा, धन और शक्ति के मोह के आगे प्रेम और वफादारी को तरजीह देने वाले दरवेश नहीं थे? क्या हुआ जो वे इन्सान नहीं थे, मगर उनके जीवन और मृत्यु दोनों इन्सानों को पाठ नहीं पढा गए? उन्होंने पास के एक माला वाले से दो गहरे रंगो के गुलाबों की माला ली, और उन दो मज़ारों की तरफ बढ ग़ए।
मनीषा कुलश्रेष्ठ |
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