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क्षमादान वन्या
स्कूल से लौट कर थकी क्लान्त सी लेटी अभी कपड़े बदलने की सोच ही रही थी,
कि द्वार पर पड़ी थाप से वह चौँक
पड़ी, इस समय
कौन आ गया?
उसने अनमने भाव सें
द्वार खोला तो आगन्तुकों को देख कर क्षण भर तो उसे अपनी आंखों पर विश्वास
ही न हुआ।
वह सामान्य औपचारिकता भी भूल
कर अवाक् सी उन्हे देखती रह गई। ''हां
हां आइये ''कहते
हुए उसकी जिव्हा लड़खड़ा गई। वह यन्त्र चालित सी दो पग पीछे हट गई । वन्या समझ
नही पा रही थी कि आज अचानक इतने वर्षों बाद इनके आने का क्या प्रयोजन हो सकता
है और फिर बेटी का संबोधन और वाणी की मिठास अपने आप में एक रहस्य उत्पन्न कर
रहा था अभी वह इस द्वन्द से उबर भी न पाई थी कि मम्मी जी ने उसे गले लगा लिया
और रोते हुए बोलीं ''बेटी
मुझे माफ कर दे''।
वन्या उसके तानों व्यंग्य और आदेश सुनने की अभ्यस्त तो थी पर यह मधुर
वाणी उसके गले न उतर रही थी। क्या यूं अचानक किसी का इतना हदय परिवर्तन भी हो
सकता है ''नहीँ,
नहीं, हो न हो इसके परोक्ष में कुछ रहस्य अवश्य है''वन्या
के मन की दुविधा उसकी जिव्हा पर आए बिना न रह सकी
,उसने
तनिक शुष्क स्वर में कहा ''
पर आप की दृष्टि में तो मैं
पापी हूं फिर आज अचानक ''
वाक्य अधूरा छोड़ कर वह उन्हे
प्रश्न वाचक दृष्टि से देखते हुए इस परिवर्तन को समझने का प्रयास करने लगी ।
पर आश्चर्य उसके उपेक्षा पूर्ण व्यवहार से अविचलित मम्मी जी ने बात को आगे
बढाते हुए कहा ''बेटी
हमें अपने कर्मों का दंड मिल चुका है,अविनाश
अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है।''
'' बेटी आज से यह ही तेरा घर है इसके सुख और दुख सब तेरे हैं ''यही कुछ तो कहा था मम्मी जी ने ,जब प्रथम बार उसने ससुराल की देहरी लांघी थी और वन्या ने मन ही मन इस घर के सुख दुख को अपना बनाने का प्रण करते समय कब सोचा था कि सुख तो विशिष्ट अतिथि के समान मात्र अपने आस्त्त्वि की अनुभूति करा कर कहीं और की राह पकड़ेगा और इस घर के दुखों को अपनाते अपनाते ही उसका जीवन अंधकार की ऐसी भूल भुलैया में भटक जाएगा जहां से बाहर जाने का कोई मार्ग भी शेष न हो । मां पिता विहीन वन्या को अविनाश से विवाह करके अविनाश ही नही मम्मी पापा और महिमा के रूप में सम्पूर्ण परिवार मिल गया था । आज उसे जो नाटक लग रहा है उस समय वही उसके जीवन का वह अमूल्य प्राप्य था । प्रथम दिन ही नाश्ते की मेज पर चार प्लेटें देख कर पापा जी ने उसे पुकारा था -- '' वन्या '' वह डर
गई ,आज प्रथम
दिवस ही कुछ गलती हो गई क्या, सिर पर पल्ला रख कर
सहमी सी घ्वनि में उसने कहा
-- ''जी पापा
जी।'', वन्या
की सांस में सांस आई उसने संकोच से कहा
-
'' मैं बाद में खा
लूंगी '' मम्मी पापा के अचानक ऐक्सीडेंट में मौत के पश्चात जब से भैया भाभी के घर में आ कर रहना पड़ा था, वह स्वयं को सदा ही एक अनचाहा बोझ अनुभव करती थी ,पर इस घर में आ कर मानों बरसों से क्षुधित उसका मन ,आत्मीयता की शीतल फुहार से सिंचित हो गया था ।अभी वह उन फुहारों को आंचल में समेट भी न पाई थी कि अविनाश के प्रति उसके प्यार और समर्पण का नन्हा अंकुर पल्लवित होने को आतुर हो उठा ।संसार के लिये भले ही यह एक साधारण घटना हो जो प्राय: विवाह के बाद अवश्यंभावी है पर वन्या के लिये तो यह जीवन का सफलतम क्षण था। वह एक अदृभुत कृति की रचनाकार होने जो जा रही थी । वह तो स्वयं को कुछ विशेष अनुभव कर ही रही थी मम्मी पापा अविनाश और महिमा ने भी आजकल उसे विशेष ही बना दिया था । प्रात: ही मम्मी उसे दूध का प्याला पकड़ाते हुए कहतीं '' सुबह - सुबह चाय पीना छोड़ दे बच्चे पर बुरा असर पड़ेगा। '' पापा बाजार जाते तो मानों फलों का पूरा ठेला ही घर ले आते ।महिमा ने उसके कमरे में एक गोल - गदबदे बच्चे का चित्र लगा दिया था ,प्रात: आंख खुलते ही वन्या की दृष्टि उस पर पड़ती और उसंकी फैली बाहें देख कर ऐसा अनुभव होता मानो कह रहा ''मां मुझे गोद में ले लो ''वन्या नित्य ही उसके आने के शेष दिन गिनती और फिर स्वयं ही अपनी आतुरता पर हंस देती । अविनाश तो उसे फूलों के समान सहेज रहा था । घर में उस नन्हे आगन्तुक के स्वागत और वन्या का ध्यान रखने की मानो होड़ सी लग गई थी । उसके मन में अनायास ही इतना अयाचित सुख पा कर संषय होता क्या इतना सुख क्या उसका आंचल उसे सहेज पाएगा ? पर जिसे वह मन का संशय समझ रही थी वह संभवत: आगत की पूर्व आहट थी । जब वे डाक्टर को दिखाने पहुंची तो उन्होने ढेर सारे निर्देशों ,दवाओं और न जाने कौन कौन से परीक्षणों की लम्बी सूची थमा दी । अविनाश और वन्या की समझ में आ गया था कि आगन्तुक महाशय उन्हे नाकों चने चबवाने वाले हैं। वह बात अलग है कि उस नन्हे अतिथि के लिये तो उन्हे कुछ भी स्वीकार था । जब वे रिपोर्ट लेने गए तो डाक्टर की गंभीर मुख मुद्रा देख कर वन्या का मन अनहोनी की आषंका से कांप उठा, उसकी आशंका व्यर्थ न थी डाक्टर ने जो कहा उसे सुन कर उसके पैरों तले धरती खिसक गई और सम्पूर्ण ब्रम्हांड घूमता प्रतीत होने लगा । आगे डाक्टर ने क्या कहा उसे कुछ नही पता उसके कानों में तो बस एक ही वाक्य घूम रहा था ''तुम्हारे रक्त की रिपोर्ट एच0 आई0 वी0 पाजिटिव आई है , अर्थात तुम्हें एड्स है '' संज्ञा शून्य वन्या के सपने आकार लेने से पूर्व ही किर्च किर्च हो कर उसे चुभने लगे थे, जिसकी असहय पीड़ा से वह वाणी षून्य हो गई थी उसे एड्स होने का अर्थ था कि नन्हा आगन्तुक भी इस भयावह रोग से ग्रसित होगा ,उस नन्हे मासूम को तो जन्म से पूर्व ही मृत्यु का संदेश दे दिया गया था ।जहां एक ओर भयावह मृत्यु के साए ने उसके जीवन को अंधकार मय कर दिया था वहीं उसकी आने वाली संतान में इस रोग की संभावना ने जीवन में प्रकाष के सभी द्वार बन्द कर दिये थे ।उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से अविनाश को देखा तो उन्होने आंखें फेर लीं । अविनाश
ने तो इस सत्य को घर
वालों से छिपाना चाहा था पर उनके चेहरे पर पुती कालिमा ने अनुभवी मम्मी के
समक्ष उसके लक्ष्य को सफल न होने दिया । जब उन्होने वन्या को झिझोड़ कर पूछा
'' डाक्टर ने
क्या कहा बच्चा ठीक है न ?'' तो वन्या उनके कंधे
से लग कर हिलक हिलक कर रो पड़ी ।मम्मी पापा सब घबरा गए तब
अविनाश
को सत्य बताना ही पड़ा और
क्षण भर में ही दृश्य
ही पलट गया। मम्मी जो
अब तक वन्या को बाहों में समेटे थीं,
लगभग धक्का देते हुए परे धकेल कर बोलीं
''चुप
कर अपने दुष्कर्म मेरे बेटे के सिर मढ़ते तुझे लज्जा नही आती
?'' ''बच्चा
भी न जाने किसका है। ''
अविनाश आफिस के कार्य के संबध में प्राय: लम्बे टूर पर जाता था, एक दो बार हवा में उड़ती कुछ कहानियां अविनाश के भटकते पैरों को ले कर वन्या कानों तक भी पहुंची थी, संदेह के सर्प ने सिर भी उठाया था पर अविनाश ने एक कुशल संपेरे की भांति अपने अथाह स्नेह की बीन बजा कर सर्प को वष में कर लिया था ।अपने नव विवाहित संसार में खोई अपने पति के प्यार से पूर्णत: संतुष्ट वन्या को ऐसा कोई कारण न दिखा कि वह अविनाश पर अविश्वास करती ।तब वह उसकी मात्र पत्नी से न बुझने वाली प्यास को कहां समझ पायी थी ,वह तो आज भी उस कहानियों को अफवाह ही मानती यदि वह आज इस वीभत्स साक्ष्य के रूप में सामने न आई होतीं ।एक अविनाश ही था जो उसे इन कलंक के छींटों को धो सकता था पर वह तो सम्पूर्ण घटना चक्र में मूक श्रोता बन गया था । एक पल में उसके नितान्त अपनो और उसके मध्य एक पार न की जा सकने वाली रेखा खिंच गई थी... और वह असहाय सी.. छिटक कर रेखा के उस पार गिरी थी । उसने रेखा के उस पार खड़े कभी अपना होने का भ्रम देने वाले एक एक सदस्य को कातर भाव से देखा पर उन्हे तो वन्या वह अक्षम्य अपराधी लग रही थी जिसने उनके वंश के एकमात्र वाहक अविनाश को भी अपनी काली छाया से डस लिया था।अब वन्या या उसकी होने वाली संतान में उनकी क्या रूचि हो सकती थी ,बल्कि अब तो उन्हे यह चिन्ता थी कि कहीं यह बात प्रचारित हो गई तो उनकी बेटी महिमा का विवाह भी दूभर हो जाएगा । अंतत: तीनों की सर्व सम्मति से यही प्रस्ताव पारित हुआ कि इस मुसीबत से जितनी शीघ्र संभव हो छुटकारा पाना ही श्रेयस्कर है ।वन्या ने उनके पांव पकड़ लिये थे वह जीवन के शेष दिन एक छत पाने की आकांक्षा में कोई भी मूल्य देने को तैयार थी ,तब कल तक उसके लिये दिन रात विहवल रहने वाली मम्मी उसकी बांह पकड़ कर लगभग घसीटते हुए उसे बाहर ले आईं थी... उसने अविनाश को गुहार लगाई,पर कही अविनाश पत्नी की करूण वाणी से पसीज न जाय ,इस भय से उन्होने तड़ तड़ तड़ाक....अपने दोनो हाथों से उसे रूई के समान धुन कर उसका मुंह बन्द कर दिया था । आज भी उस प्रहार के चिन्ह तन से अधिक उसके मन पर पर अंकित हैं कलंक
का इतना बड़ा बोझ ले कर वह किस मुंह से कहां जाती उसका स्वाभिमान इस स्थिति
में भैया भाभी पर बोझ बनने से उसे रोक रहा था । उसने तो संभवत: मौत को गले
लगा ही लिया होता यदि वह नन्हा
अंश
उसकी कोख में पल न रहा
होता ।उसे देखने की अदम्य लालसा ही उसके लिये जीवन का कारण बनी ।जहां चाह हो
राह मिल ही जाती है वन्या के समक्ष अपनी सखी अनु का चेहरा घूम गया था समाज
कल्याण में कार्यरत
अनु ने एक बार अचानक मिल जाने पर इधर उधर की बातों के मध्य जब उसे बताया था
कि वह नारी निकेतन की अध्यक्ष है और उसके निकेतन में सतायी असहाय स्त्रियां
रहती हैं...
, तो वन्या उसके इस
निस्वार्थ कार्य से प्रभावित हुए बिना न रही ,उसने
कहा था,''
कभी घर गृहस्थी से फुरसत मिली तो मैं भी तेरे इस पुण्य
हवन में समिधा डालना चाहूंगी '' आज अंश ही उसके जीवन का ध्येय है ,अपने अल्पकालिक जीवन का पल पल वह सार्थक करना चाहती है और नन्हे अंश को दुनिया के हर संकट से दूर क्षण क्षण ममता के आंचल की छांव देना चाहती है ।उसके जीवन का एक ही ध्येय हौ कि अंश को जीवन में कभी कहीं एक शूल भी न चुभने पाए । ''बेटी तुम चलोगी न? '' मां जी के इस कातर स्वर ने वन्या की अबाध विचार धारा को अवरूद्व कर दिया, उसने व्यंग्य से कहा '' तो अब आप मुझे बीमार अविनाश की सेवा करने के लिये ले चलना चाहती हैं... '' ''
नहीँ नहीँ ऐसा न कहो सच तो यह
है कि अविनाश ने अपनी गलती स्वीकार कर ली है
,वह
पश्चाताप की अग्नि में जल रहा है। बस यह समझो कि तुमसे क्षमा मांगने और अपने
बेटे का मुंह देखने के लिये ही उसकी सांसें चल रही हैं।
'' अविनाश
ने नन्हे
अंश
को देखा तो उसकी आंखें बरस
पड़ीं । उसकी भूल ने उसकी निर्दोष
पत्नी और मासूम बेटे
का जीवन दूभर कर दिया था,
उसने वन्या के समक्ष क्षमा मांगने हेतु हाथ जोड़ दिये ।
अलका प्रमोद |
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