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शहादत  

साथ चलने की कोशिश थी या अनायास साथ! दो पांव कई बार साथ आ जा चुके थे। माँ बीमार थी। एम्स में उन्हें भर्ती होना पड़ा। करीब दस दिन रिया का माँ के साथ रहना हुआ था। तीसरे मंजिल से नीचे

उतरकर चाय-काफी या फल लेने जाना होता। हो सकता है अनायास हो! रिया ने सोचा। रिया और देवेश आज तीसरी बार सीढ़ियां उतर रहे थे। रिया ने प्रश्न किया ''आप? आप कहाँ से?''

मैं देवेश! मैं ललितपुर, झांसी से! यहां मेरे अंकल बीमार हैं। मैं उनके साथ आया हँ।

''आप?'' देवेश ने पूछा

मैं रिया! मेरठ से! माँ बीमार है।

''डाक्टर कह रहें हैं कि माँ को अभी कुछ दिन और रखना होगा''। भाई ने बताया।

माँ को लेकर रिया और भाई ही साथ आए थे। रिया का अब घर लौटना जरूरी हो गया था।

आज रात की गाड़ी से रिया का लौटना तय हो गया। भाई माँ के साथ थे। रिया सड़क पर आटो के लिए आगे बढ़ी कि देवेश बैग लिए दिखाई पड़े। फिर दोनों साथ ही स्टेशन आए। करीब एक घंटे स्टेशन पर बैठकर बिताया। देवेश और रिया के बीच एक कैमेस्ट्री बन रही थी। स्टेशन पर बातचीत में दोनों ने अपने-अपने फोन नम्बर दिये और फिर अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। उसने धन्यवाद के साथ सकुशल घर पहुंचने की सूचना देवेश को दे दी।

''जिन्दगी के सफर में गुज़र जाते हैं जो मुकाम फिर नहीं आते'' मैसेज रिसिब्ड!किसका और कैसा? रिया ने सोंचा।सेल हांथ में उठा देखा तो देवेश!
''अरे!''

आप कैसी हैं? कुछ शब्द मुस्कुराते हुए दिखे

तब वह एसएमएस लिखना नहीं जानती थी। देवेश को फोन किया।

''ठीक हूँ? आप कैसे हो?''

एसएमएस कल्चर मेरे यहां नहीं है। मैं लिखना जानती भी नहीं। तभी फोन किया। हर दूसरे तीसरे दिन एस.एम.एस. फोन आते रहे। कुछ बातें होती रहीं। रिया बार-बार सोंचती। हर तीसरे दिन फोन करने या एस.एम.एस. करने का क्या मतलब?वह आदमी....इतना दूर........भरे-पूरे परिवार से कहीं कोई अभाव नहीं.........फिर यह कैसा अपनापन!वह डरने लगी! घर परिवार पति/बच्चों के बीच एस.एम.एस. का डर उसे सताने लगा। अक्सर वह एस.एम.एस. बिना पढ़े डिलीट कर देती। कई तरह से वह परखने लगी। फिर सवाल खुद से ही खड़े होने लगे।

 ''मुझसे उसको क्या मिलेगा? इतनी लम्बी दूरी! कहीं कुछ भी तो नहीं!अनायास ही उसे दो-तीन दिनों के लिए बाहर जाना हुआ। उसे डर लगा कि कहीं वहां कोई एयएमएस फोन तो वह क्या बताएगी?
अपने परम्परागत परिवेश में स्त्री के लिए माँ-बाप, भाई-बहन, पति...बच्चे.....से अलग कोई रिश्ता नहीं होता।

उसे जाने से एक घंटे पहले याद आया। उसने देवेश को फोन किया। देवेश! मुझे दो-तीन दिनों के लिए बाहर जाना है, इस बीच आप कोई एस.एम.एस. फोन न करें।तीसरे दिन वह रात में वापस आयी। इस बीच कोई एस.एम.एस. या फोन नहीं आया।

''आप वापस आ गई?'' एस.एम.एस. से प्रश्न उभरा।

''हाँ! मैं तो रात में ही वापस आ गई। उसमें नरमी आने लगी। और आप कैसे हो?'' रिया ने पूंछा।  ''ठीक हँ!......आप सुबह कितने बजे उठ जातीं। सुबह उठकर क्या करतीं।'' प्रश्न बढ़ने लगा।

''मैं तो सुबह छ: बजे उठ जाती फिर टहलने जाती। सात बजे तक घर आ जाती।''.......सहज प्रवाह बनने लगा।

''बहुत खूब! जब आप उठे तो मुझे एक मिस काल कर दें। मैं भी उठ जाउँगा।'' वह हंस पड़े।

''नहीं! मैं सुबह किसी को काल नहीं कर सकती।'' रिया ने दृढ़ता से कहा।

''क्यों! बस! मै भी आपके साथ उठ जाऊंगा। मैं भी टहलने चला जाऊंगा।'' उसका आग्रह बचपना सा लगा उसे।

नहीं! मैं किसी को सुबह काल नहीं करती।

करीब एक हफ्ते बाद........(मैसेज रिसिब्ड!)

सुप्रभात!.......वह हंस पड़ी।

सुप्रभात से लिखने की कोशिश शुरू हो गई। टहलने वक्त बातचीत होने लगी।

रिया जब-तब सोंचती, कहीं वह गलत तो नहीं? एकदम पाक-साफ। एक दूसरे के सामाजिक और नैतिक धरातल का

पूरा सम्मान!

कहीं कोई स्वार्थ....लिप्सा....महत्वाकांक्षा....की कोई सीढ़ी नहीं...।

मन ने थपथपाया इसमें बुराई क्या है? एक मित्रता का हांथ है। मानवता का यह रिश्ता है।

उस दिन फोन आया।

''मैं कुछ कहना चाहता हूँ आपसे''। देवेश सहज थे।

हां कहें! वह सहमते हुए बोली।

''मेरे जीवन के किसी भी रिश्ते के रूप में आप मेंरे साथ रहें। मैं यही चाहता हूँ।''

उसके लिए यह अलौकिक सुख था। जैसे लगा सारे सितारे उसके आस पास तैर रहे हैं। रिया बहुत देर तक इस सुख को

पीती रही। सारे तर्क उसकी कसौटी पर बेमानी हो गए थे।

''जिन्दगी धूप.... तुम घना साया....''। ऊंगलियां चलने लगी। रिश्ते का इतना मर्यादित रूप! वह कई बार अपने को परख चुकी थी पर कहीं कुछ गलत नहीं दिखता।

धीरे-धीरे वह मित्रता रंग लाने लगी। दोनों सुप्रभात के साथ टहलने जाते.....दिन में एक बार बात कर लेते फिर अपनी जिम्मेदारियों को बखूखी जीते.....। एक सम्पूर्ण जीवन! एक दूसरे के सुख-दुख में बराबर की भागीदारी! सलाह, मशविरे, दर्शन, इतिहास, साहित्य, फिल्में....राजनीति.....सामाजिक चर्याओं से बनती दुनिया सबसे सुखदायी थी। बच्चों की पढ़ाई, बीमारी....मौसम....सब था इस दुनिया में। यह ध्वनि तरंगों की दुनियां मानवता का हर रंग समेटे थी।

यह यात्रा नियमित होती गई। दोनों साथ जीते साथ चलते.....एक सम्पूर्ण जीवन!

देवेश के जीवन में नियमितता जैसा शब्द नहीं था। न बच्चों को पढ़ाने का, न उन्हें घर पर समय देने का। रिया ने बच्चों को पढ़ाने, उन्हें समय देने की बात की। घर पर अधिक साथ रहने की बात की। पारिवारिक चर्या में बदलाव की बात की पर उसे क्या मालूम कि उसकी सलाह उसकी बलि देकर पूरी की जाएगी।

देवेश सुबह बच्चों को टहलाने लगे। सुबह-शाम का समय जाता रहा। रहा-सहा रिया के साथ का समय देवेश की मकान बनने में दफन हो गया।

जब कभी देवेश खाली होते तो वह दफ्तर में होती, जब वह खाली होती तो देवेश घर में होते। जहां दोनों को बात करना सम्भव नहीं होता।

कई बार वह बता चुकी थी पर देवेश अपनी जिम्मेदारियों में मशगूल होते रहे। जब उसने यह शिकायत की तो देवेश का रवैया एकदम बदल गया। उसकी शिकायत उसके दर्द का एहसास नहीं करा पाई।उस रोज वह झल्ला गए ।

''अपेक्षाएं....अपेक्षाएं....! ये क्या है? करता तो हूँ न!''

उसके लिए यह किसी वज्रपात से कम न था। वह सहम गई।

रिया ने अगले दिन कह दिया तुम मेरे ढ़ंग के नही हो देव! मैं कभी शिकायत का मौका नहीं देती। मेरे जीवन में सबसे पहले तुम हो पर मैं तुम्हारे लिए, तुम्हारे जीवन में कहां हँ मुझे मालूम नहीं। देव! मुझे सबसे तकलीफ यही होती है कि हम साथ चलें न चलें पर हमें साथ चलने का अफसोस तो हो न!

ठीक है.....ठीक है..... देव खीझ पड़े।

 वह बिखरने लगी।उसकी अपेक्षाएं खुद उसकी आंखों से झरने लगतीं। न चलो सही मेरे साथ पर मेरे दर्द को सहला तो जाओ..........। कई नए प्रयोगों के साथ वह जीने लगी। उसने अपने को काम को इतना बढ़ा लिया कि उसे सिर उठाने की फुरसत न मिले। फोन कम से कम अपने साथ रखती पर मन क्या करे? इसको कहां फेंके?

रात को तीन बजे पढ़कर उठी तो सोंचा सुबह देर से उठने की सूचना देव को दे दे। ''मैं देर से उठूंगी देव''

न जाने कौन सा था वह समय!

रिया! तुम चाहो तो वापस लौट सकती हो..........। वह आगे नहीं पढ़ पायी। मैसेज डिलीट कर दिया।वह इस समंदर के भंवर में पूरी तरह फंस गयी थी। अनियमित धड़कनों ने उसे बिस्तर पर ला दिया।  उसने देव से बात की।
''यह क्या है देव?'' स्वर आंसुओं में भीग चुका था।
रिया! मैं तुम्हें खुश नहीं कर पा रहा हूं। तुम लौट जाओ! देव ने स्पष्ट कर दिया।
देव! खुश नहीं कर पा रहे हो तो करने की कोशिश करो न! धकेलने की क्यों
?
नहीं रिया! मैं उन लम्हों को याद कर जीवन भर जी लूंगा। मैने दिल कड़ा कर लिया है..........तुम लौट जाओ रिया!

वह आवाक! हजारों फिट अंधेरी सुरंग में जा गिरी थी। देव की आवाज कानों में गूंजती रही....। पुरूष के अहं की सलीब पर यह रिश्ता शहीद हो गया। उसकी अपेक्षाएं, उसकी शिकायतें पत्थर बन गई। उसकी यह शहादत सिर्फ उसकी नहीं समूचे शाश्वत प्रेम की थी।
उसने सिम निकाल नदी में प्रवाहित कर दिया! उसे पानी में तैरते देखती रही कितने सुख
, कितने ऑंसू इसमें दर्ज हैं। उसने अपनी अंजुरी जल लेकर इस शहादत को नमन किया। देखा उस जल में उसका प्रतिबिम्ब साफ दिखायी दे रहा था। उसके ऑंसुओं में उसकी तस्वीर धुंधली हो रही थी।

कृष्ण और राधा! राधा मंदिरों में पूजी जा सकती है। इतिहास के पन्नों में दर्ज हो सकती है। गीतों में सुनी जा सकती है पर इस धरती पर राधा? कभी नहीं!

यह धरती कृष्ण की है राधा की नहीं।

मानसा
अप्रेल 30,2008
 

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