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'लाल पीली ज़मीन'


उपन्यास का एक अंश

 खेलने के लिए उस गली से बेहतर जगह जखीरा थी। एक धर्मशालानुमा इमारत-जिसे हर तरह के कामों के लिए इस्तेमाल कर लिया जाता। कभी वहाँ बारात ठहरी होती, कभी बाहर से ट्रेनिंग के लिए आए अध्यापकों के लिए वह होस्टल बना होता ... कभी मेले के लिए आये स्काउट ठहर जाते ... जब इमारत को खाली रहना पड़ता तो वहाँ एक प्राइमरी स्कूल खुल जाता और चल देता। स्कूल अमूमन बाहर बजे बन्द हो जाता था ... और तब उन दिनों स्कूल के बाद इमारत के सामने वाला खुला हिस्सा खेलने के लिए सपाट पड़ा होता। वह एक फड़क मैदान था, सिर्फ बेल का एक पेड़ था, बीचमें थोड़ा इधर की तरफ ... पर वहाँ वे खेलने को नहीं जाते थे, जब तक कि कई न होते। सालों-साल पुताई न होने के कारण वह इमारत भयंकर रूप से एक-सी हो गई थी ... फैली हुई छत पर चुडैलों के नाच के किस्से केशव ने जाने कहाँ से सुन रखे थे।

कहते थे कि कई सालपहले रियासत के किसी दीवान ने अपने रहने के लिए वह कोठी बनवाई थी। उसके ज़माने में छत पर खूब रोशनी होती। बड़ी-बड़ी दरियाँ व कालीनें बिछतीं और घुँघरुओं की छमाछम रातोंरात चलती। दीवान का इकलौता लड़का किसी छबीली के प्रेम में फँस गया। कहाँ दीवान का खून, कहाँ नाचने वाली का ...? दीवान ने छबीली और उकसी एक-दो साथिनों को गोली से उड़वा दिया। दो-तीन दिन बाद लड़के ने भी अपने सीने में उसी बन्दूक से गोली दाग ली थी। दीवान को वह कोठी फली नहीं ... और वे उसे लावारिस छोड़कर तालाब के किनारे वाली कोठी में चले गये थे। कुछेक सालों बाद जब उसे वेचने की सारी कोशिशें बेकार गईं तो दीवान ने उसे एक सोसाइटी को दान कर दिया ... जो तरह-तरह से इमारत का इस्तेमाल करती थी।

दीवान का लड़का भूत बनकर छबीली के साथ अब भी रामलीला करता है छत पर, यह मान्यता वहाँ बड़े-बूढ़ों की भी थी। केशव और उसके साथी तो अगर खरी दोपहरी को बेल की छाँह में भी गोली खेलते होते तो उन्हें चुड़ैलों की छुनछुनाहट सुनाई पड़ती थी। रात को इमारत के बगल से जब कभी मजबूरन अकेल गुजरना पड़ता तो बड़ा डर लगता था। मैदान का आधा हिस्सा एकदम साफ-सुथरा था जिसमें जब-कब स्कूली लड़कों के आपसी फुटबाल मैचे वगैरह हो जाते, हालांकि वहाँ पूरी फील्ड नहीं बनती थी। आधा हिस्सा झ्रखाड़ था जिसमें एक तरफ बम्पोलिस के ढंग की टट्टी भी थी। चौहद्दी के लिए एक पक्की पट्टी थी जो एक तरफ से छोटी थी और जखीरा के मुख्य दरवाजे तक आते-आते ऊँची होती गई थी। केशव और उसके साथी सिर्फ छोटे किनारे से ही पट्टी को लाँघ पाते थे ... और पट्टी के ऊपर चलते-चलते ही इधर आ जाते। जखीरा का बाहरी दरवाजा सिर्फ एक था ... काफी चौड़ा-चौड़ा फाटक-जैसा ... जो एक ढलान में सामने के छोटे तिकोने मैदान में उतरता था। किवाड़ नहीं थे, इसलिएजखीरा का मैदान हर वक्त हर किसी के लिए खुला रहता था।

करीब साढ़े पाँच का समय था। धूप और गरम हवा में अब भी जोर था। केशव, लछमन, सुरेश और चिन्तामणि पट्टी पर उस जगह बैठे थे जहाँ बेल की छाया पड़ रही थी। बड़े लड़के ईटों का गोल बनाकर हाकी से गोल मारने का अभ्यास कररहे थे। वहाँ हाकी कम ही लड़कोंके पास थी। स्कूल में पी.टी. और ऐसे खेल, जिनमें किसी सामान की जरूरत नहीं पड़ती थी, उनमें तो सभी को हिस्सा लेने को मिल जाता। फुटबाल-जैसे खेलों में भी सभी जब-कब घुस लेते ... लेकिन हाकी बाकायदे लड़कों के नाम बाँटी जाती थी और इसलिए इस खेल का सौभाग्य सबको नसीब नहीं था। केशव और उसके साथियों में देखा-देखी हाकी के खेल में दिलचस्पी पैदा हुई थी और अब तक उनमें से ज्यादातर के पास हाकी के नाम पेड़ की एक मोटी-सी डाल थी जो हाकी की शक्ल में मुड़ती थी। लकड़ी को छील-छाल और काट-कूट करहाकी की शक्ल दे दी जाती। छोटे सूखे कैथे के फल को गेंद की जगह इस्तेमाल किया जाता। हाकी वालेअब भी उन्हें साथ नहीं खिलाते थे। जब वे आते तो इन्हें मैदान से निकाल बाहर किया जाता ... क्योंकि डंडियों की खूंतों से उनकी हाकियों पर इधर-उधर खरोंचें पड़ सकती थीं। स्कूली लड़कों के पास एक खासकिस्म का गेंद भी था जो बड़े कैथे की शक्ल का था-एक बार उधर के फूंस में गेंद चला गया तो केशव ने दौड़कर उसे निकालकर देखा और मसका भी था ... याद नहीं चमड़े का था या कपड़े का। वह ज्यादा देर अपने पास नहीं रख सका था ... उधर से 'फेंक बे' की एक सख्त-सख्त आवाज आई थी। दोबार फिर छूने का मौका नहीं मिला था। जब उस गेंद के साथ एक-दो स्टिकें मैदान में उतरतीं तो केशव-जैसे लड़कों केलिए वह एक घटना होती थी। उनका कोई एक साथी नहीं भी हुआ तो उसे घर से बुला लिया जाता था।

स्टिक वाले लड़कों में एक शिवमंगल भी था, लम्बा छरहरा।स्कूल के लड़कों में उसकी धाक थी। वह स्कूल के सबसे ऊपरी दर्जे ... दसवें का विद्यार्थी था, पिछले छ: वर्षों से फल हो रहा था। अक्सर स्कूल के उसके साथी स्टिक के अभ्यास के लिए इधर आ जाते थे, ज्यादातर शाम को पर आज शाम के कुछ पहले ही आ गये थे वे। शिवमंगल को मिलाकर पाँच ही थे ... इसलिए मैदान के एक हिस्से में ही खेल रहे थे ... ईंटें रखकर गोल बना लिया गया था ... एक दूसरे के पास फेंकता, दूसरा उसके पास, जो गोल के एकदम पास खड़ा था ... और वहफिर गोल में लगाता था, जिसे गोल पर खड़ा लड़का रोकता था। अक्सर बॉल नहीं रूकता ... उधर की लाल दीवार से टकराकर लौटता था।

''कहाँ गया साला ... आज मैं उसका और अपना खून एक कर दूंगा ...''

पट्टी से केशव ने देखा, मास्टर कौशल हाथ में पत्थर लिये चले आ रहे थे। हमेशा की तरह वे खाकी हाफ पैंट में थे और उसी रंग की कमीट पैंटके अन्दर थी। वे स्कूल में पढ़ाने के अलावा ड्रिल की क्लास भी लेते थे और चुस्त रहना उनकी आदत बन गई थी। काफी दिलखुश थे। केशव का ड्रिल का क्लास जब वे लेते तो थोड़ी-सी ही ड्रिल कराकर खूब खेल खिलाते ... कभी खो-खो, कभी रूमाल-झपट्टा, कभी मुर्गा-लड़न्त और कभी घेरे में बिठाकर किस्सा भी सुनाते थे। उन्हें नाराज होने की जरूरत नहीं पड़ती थी। डांट-डपट उनकी बुलन्द आवाज से ही हो जाती थी। केशव ने उन्हें नाराज कभी नहीं देखा था।

लेकिन तब वे एकदम लाल थे, साक्षात हनुमान की मूर्ति-''कहाँ गया साला, बड़ा तीसमारखाँ बनता है ... आज मैं उसको और खुद को मिट्टी में मिलाकर छोडूँगा।''

शिवमंगल ने पलटकर जखीरे से ही देखा। स्टिक हवा में फाटक की तरफ घुमाई और फरफराता हुआ उधर की ओर लपका। पीछे-पीछे उसके साथी भी गए। केशव और उसके साथ पट्टी से ही भद्द-भद्द कूदे और पीछे दौड़ गए। शिवमंगल सीधे उतरकर तिकोने मैदान में मास्टर कौशल के मुँह पर खड़ा हो गया। मास्टर ढेला चलाने की मुद्रा में थे, पर उन्होंने अब तक नहीं चलाया था।

''क्या बात है बे घनचक्कर ... यह स्कूल नहीं है।'' शिवमंगल गुर्राया।

''जानता हूँ, तुझ-जैसी कमीनी औलाद को स्कूल भी स्कूल नहीं है, मास्टर मास्टर नहीं है।''

''मास्टर, जुबान को लगाम रख ...'' शिवमंगल ने स्टिक उठाई।

''क्या मारेगा साले ... मार, देखता हूँ तुझको ... मैं आज सारी गुंडई निकाल दूँगा ... घर की खेती समझ रखी है ... तू समझता क्या है अपने आपको ... जो चाहे सो कर सकता   है ... ? रास्ते चलते मास्टरों को गाली दे सकता है ... कुछ भी कर सकता है तू ...?''

तब तक कुछ रास्ते चलते लोग इकट्ठे हो गए, बीच-बचाव करने लगे-''मास्टर साहब, लड़के हैं, उम्र है ... समय से सब सीख जायेंगे ... जाओ बेटा, जाओ।''

''मैं इसकी उम्र की गर्मी निकाल दूँगा ...''

''जा बे खूसट ...'' शिवमंगल भुनभुनाया।

शिवमंगल कम पर सख्त बोला था। जो लोग थे वे ज्यादातर मास्टर को ही शान्त कर रहे थे। केशव को यह खराब लग रहा था कि कोई भी शिवमंगल को कुछ भी नहीं कह रहा है।

''देखिए, आप सबके सामने गाली बकता है ... हट जाइए ... आज खून-खराबा होना है तो हो जाए।''

एक हल्की-फुल्की भीड़ जमा हो गई थी। उसे चीरता हुआ कल्लू आया-''क्या बातहै मास्टर?'' करता हुआ। कल्लू का शरीर एकदम चिकना और काला था। केशव जब भी उसे देखता उसे बंटा की याद आ जाती ... लाख की बनाई गई बड़ी गोली को लगातार तेल पिला-पिलाकर काला कर लेते थे - इतना काला कि कोई और रंग दिखाई ही नहीं पड़े, तब वह बंटा बनता था। कल्लू चौबों के मन्दिर में राजे सुबह-शाम डंड पेलता और शरीर को बोतलों तेल पिलाता था। शाम को विजया और उसके बाद मलाई-रबड़ी छानता था। उसकी पोशाक एक ही रहती थी ज्यादातर-घुटनों तक की सफेद लूंगी, जो थोड़ा आगे की तरफ से कुछ ज्यादा ही ऊपर उठी होती थी, बाँहों वाली बनियान, जिसमें से उसका कसा हुआ सीना साफ झलकता था, गले में पड़ा काला डोरा, हाथ में एक डंडा जो तेल से उसी की तरह चिकना और काला कर लिया गया था। वह डंडा, रूल और लाठी के बीच की चीज़ था। शिवमंगल कल्लू के सामने सीकिया दिखता था।

''क्या बात है मास्टर?'' इस बार कल्लू सीधा मास्टर के सामने खड़ा था।

''बात क्या है, कमीने पैदा हो गये हैं, बस मुहल्ले में। सोचते हैं, बस जवानी उन्हीं को तो आई है, वे जो चाहें सो कर लें ...''

''हो क्या गया?''

''होना क्या ... अभी-अभी इतने सब लोगों के सामने गाली बकता है, खुलेआम ... आज मैं इसे मिटा दूंगा या खुद मिट जाऊँगा।''

''अरे, आप क्यों मिटें ... अभी आपकी उम्र क्या है ... कोई साला आपको गाली नहीं दे सकता-किस की मजाल है जो मास्टर कौशल की तरफ ऑंख उठाए। आइए चलें ...''

मास्टर कौशल विजय की चहक लिये कल्लू के साथ बाहर निकलने लगे। उनके हाथ का ढेला, पता नहीं कब और कहाँ गुम हो चुका था। हाथमें सिर्फ उसकी मिट्टी अब भी चिपकी हुई थी। रूक-रूककर वे शिवमंगल की तरफ देखते जाते ... देखते और बड़बड़ाते जाते-''समझता है दूसरे के जिस्म में खून ही नहीं बच गया ... वर्ना खून पी जाता आज ... अब फिर कभी कोई हरकत की तो जिन्दा गाड़ दूंगा ... समझता है जेलर का बच्चा है तो कुछ भी कर सकता है-यह नहीं जानता मैं भी मास्टर कौशल हूँ ... तेरे बाप को भी 'एक-दो, एक-दो' कराकर निकाल चुका हूँ, कान पकड़कर उट्ठा-बैठी कराई है ...''

यहाँ आकर वातावरण का तनाव कुछ ढीला पड़ गया। कल्लू हँसा और साथ में जितने और खड़े थे, सब हँसने लगे। शिवमंगल के साथियों के चेहरों पर भी दबी हँसी उभरी, पर शिवमंगल खिसियाया खड़ा रहा। उसके होंठों पर गालियों की चटपटाहट थी, पर आवाज दबी हुई.... बच गया साला-नहीं तो आज भुरकुस कर देता ... हल्ला मचाकर भीड़ इकट्ठा कर लेता है ... देखूंगा बच्चू-कब तक अदंब रहेगा ...'' मास्टर के ओट होने पर वह भुरभुरा रहा था।

मोड़ पर कल्लू के साथ मास्टर कौशल अपना हाफ पैंट कसते हुए छोटी-सी पथरीली ढलान उतर रहे थे। ढलान होने की वजह से वहाँ बरसात का पानी तेजी से नीचे उतरता था-इसीलिए मिट्टी सारी बह गई थी और नीचे से अच्छी-खासी चीपें निकल आईं थीं, उन दाँतों की तरह जिनके मसूड़े घिस गये हों। बरसात में केशव और उसके साथ वहाँ बहते पानी पर घिसटा करते ... और तब तक घिसटते जब तक पैंट पौदों से चिर नहीं जाता।

लोग-बाग अपने-अपने रास्ते चले गये थे। औरतेंअपने जंगलों से हट गई थीं, पर लछमन, केशव और चिन्तामणि अब भी उधर ही चिपके हुए थे। सुरेश मास्टर कौशल और कल्लू के पीछे-पीछे चला गया था।

शिवमंगल ने जोर से ख्रखार कर एक तरफ थूका कि ये सब दिख गए। थूककर वह गुर्राया, ''चलो बे, लकड़घोंघों, साले हर जगह मक्खियों जैसे भिनभिनाते रहते हैं।''

केशव सहमकर पीछे हट गया, उसके और साथी भी। शिवमंगल बहुत खिसियाया हुआ था ... क्या पता इन्हीं में से किसी को एक झापड़ रसीद कर देता सब एक किनारे हो लिये। शिवमंगल भी ज्यादा वहाँ नहीं रुका, फिर जखीरा के अन्दर की ओर चल दिया। पीछे-पीछे उसके साथी भी स्टिक कंधे पर रखे चल दिए।

केशव कोफिर अन्दर जाने की हिम्मत नहीं हुई। मन भी खेल देखने का नहीं था।

''चलो, उधर चलें यार।''

''कहाँ?'' लछमन ने पूछा!

''कल्लू के अखाड़े ...''

''क्या करेंगे ...''

''देखेंगे ... कुश्ती ... हमें भी कसरत शुरू करना चाहिए।''

''इस समय वहाँ छन रही होगी ... कसरत का वक्त खत्म हो गया।''

''सुरेश वहीं गया है, वह छानने लगा है।''

''तो फिर चलो, जादव जी के मन्दिर चलें ... वही खेलेंगे।'' चिन्तामणि ने कहा।

''देर हो जाएगी ...''

''अरे, अभी घर जाएगा तो आरती के लिए आना ही है, कितनी देर है आरती को ... आरती हो जाए तो भोग लेकर चले जाना।''

जादव जी का मन्दिर मुहल्ले के बीचोंबीच था, उनके मकान से सटा हुआ। जादव जी उस मुहल्ले के इधर के हिस्से के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। उनका मकानगली के उस छोर तक फैला था ... इधर जखीरा की पट्टी के बगल की गली पार कर एक गोल चबूतरे पर छोटा-सा अशोक का पेड़ था। वहीं से उनके घर की चौहद्दी शुरू हो जाती ... उधर आखिर में मन्दिर था गली के दूसरे छोर पर। घर के पिछवाड़े बेरी की बड़ी बगिया और एक कुइयाँ थी।

मन्दिर में नारायण पूजा करता था। रामलीला के समय वह राम बनता था। शाम को मन्दिर में मुहल्ले के ज्यादातर छोकरे जमा हो जाते थे ... कोई शंख लेता था, कोई घड़ियाल, कोई घंटी, कोई घंटा। एक किनारे नगाड़े भी रखे हुए थे जिन पर एक लड़का धम्म-धम्म कारता था। कभी-कभार के लिए वह एक उम्दा खेल था, केशव और उसके साथियों के लिए। आरती के बाद थोड़ा-थोड़ा प्रसादमिलता था-कभी अनार दाने, कभी शक्कर ... कभी गुड़। गरी-मिठाई के एकाध टुकड़े भी जब-कब मिल जाते थे। मन्दिर आना इन लड़कों की करीब-करीब रोज़ की दिनचर्या में शामिल हो गया था।

 मन्दिर की परकम्मा में लड़कियाँ पहले से ही खेल रही थीं ... बिट्टी, सुक्खो, मुना ... और कुछ और। ज्यादातर जादव जी के घर की ही थीं ... इतनी ज्यादा थीं उस घर में कि कम ही की अलग-अलग पहचान होती थी। खासतौर से छोटी-छोटी तो सभी एक-सी दिखती थीं। जो बड़ी होकर धोती पहनने लगीं, सिर्फ उन्हीं की शक्लें थोड़ा अलग-अलग दिखती थीं। नामों का पता भी सिर्फ उन्हीं का था। ये तीन भी शामिल हो गए ... लुका-लुकव्वल में। मन्दिर से जादव जी की घर की तरफ एक कच्ची पौर थी--उसके बाद एक और लम्बी सार, जो सामने से बगिया खुलती थी। परकम्मा के ऊपर छत की सीढ़ियाँ भी खुली हुई थीं। काफी मैदान बन जाता था खेलने के लिए। मुना चोर बनी। लछमन और केशव ऊपर सीढ़ियों में लुक गये। मुना ने रेडी सुनते ही सीढ़ियाँ पकड़ीं, क्योंकि छत पर भगदड़ की आवाज वह सुन चुकी थी छत के ऊपर लुकने की जगह सिर्फ गुम्बद के पीछे थी। बिना आहट दिए मुना गई और लछमन को, जो तब सन्नाटा खीचे जमीन कुरेद रहा था--पकड़ लिया। केशव ने ऊपर का खतरा समझा और इस बार पौर में चारे के पीछे जाकर छिपा ... जब हल्ला हुआ कि सुक्को पकड़ी गई, वह बाहर निकला। कमीज़ के अन्दर चारे के टुकड़े घुस गये थे और लम्बे (चार का काँटा) जहाँ-तहाँ काट रहे थे। अगली बार इसलिए वह सार में गया। वहाँ एक ही दरवाजा था। सार एकदम लम्बी थी, गोबर की गन्ध से लबालब भरी हुई। दरवाजे के आसपास तो थोड़ा-बहुत उजाला था, पर बाद में दोनों तरफ ऍंधेरा होता चला गया था। टटोलता हुआ केशव एक बैलगाड़ी के चक्के पर पहुँचा और उसके नीचे घुस गया। पैर एक मुलाम-सी चीज़ से टकराये और एक हल्की-सी 'सी' नीचे से उठी। 'बैठ जाओ' ... बिट्टी थी। रेडी बोली जा चुकी थी। उसने बैठकर बिट्टी का हाथ अपने हाथों में लिया, जहाँ उसके पैर से कुचल गया था वहाँ सहलाने लगा। हाथ बहुत मुलायम लगा जैसे पत्तो को छूने में लगता है। उँगलियाँ भी पतली-पतली ... और इतनी गोरी थी कि उस ऍंधेरे में भी वह उन्हें साफ-साफ देख सकता था।

फिर कोई पकड़ा गया। सुक्ो यहाँ तक नहीं आई थी। पहले ही पोर से उसे कोई मुर्गा मिल गया। हल्ला होते ही वे बाहर निकले। पहले केशव, फिर बिट्टी। दोनों दरवाजे की ओर चले। दरवाजे के बार आकर और पौर की तरफ जाते हुए केशव ने गौर से देखा--बिट्टी नाटी और गोरी थी। धोती में थोड़ा बड़ी लगती थी। मुँह पर बड़े ही बारीक चेचकके दाग थे। अच्छी थी। वह पहले चुपचाप चली, फिर पौर का दरवाजा लगते ही दौड़कर लाँघ गई और मन्दिर जा पहुँची।

''कौन चोर हुआ ...?'' केशव ने पीछे से पहुँचकर पूछा।

''कोई नहीं ... पूजा हो रही है, दौड़-प-दौड़ बन्द ...''

''ए जी, चलो अपुन बखरी में खेलेंगे ... मुनाबोली।

नारायण इस बीच आ चुका था, मन्दिर का पट खुल गया था। उसने आरती का सामान सामने खड़े लड़कों को थमाना शुरू कर दिया। आज ये तीन ही थे, इसलिए पकड़े गये ... खेल कब खत्म हुआ, लड़कियाँ कब उधर चली गईं किसी को कुछ पता नहीं चला।

आरती खत्म हुई, भोग बंटा ... तब तक खूब ऍेंधरा छा गया था। उस कस्बे में बिजली थी पर सिर्फ बड़ी-बड़ी डामर सड़कों के लिए या बाजार में, या फिर उस इलाके में जिसे 'शहर' कहते थे। इन छुटपुट मुहलें और इनकी बेहिसाब गलियों में वे चौकोर लालटेनें भी नहीं थीं जिन्हें नसैनी वाला आदमी शाम को आकर जलाता और सुबह आकर बुझाता। ये लालटेनें सिर्फ उन खास चौराहों के लिए थीं जहाँ बिजली होनी चाहिए थी और नहीं थी। केशव मन्दिर से बाहर निकल रहा था कि चिन्तामणि ने हाथ पकड़कर इधर खीच लिया।

''देख-देख ...'' वह मन्दिर के बरामदे वाले खम्बे से चिपका हुआ फुसफुसा रहा था। केशव भी पास दुबक गया। लछमन का अता-पता नहीं था, शायद खिसक चुका था।

साड़ी में एक औरत-सी लड़की पौर की तरफ से आई और तब मन्दिर के ऑंगन की सीढ़ियाँ चढ़ रही थी, धीरे-धीरे। मँझोला कद और चमकता हुआ साँवला रंग-छवि थी। सुन्दर वह पहले से ही थी, लेकिन इतनी बड़ी हो गई यह केशव ने अभी गौर किया ... मामुलिया के मौके पर बेरी की आड़ी-तिरछी डगाल पर फूल खोंसती लड़कियों के गाते हुए झुंड मेंछवि की आवाज़ अलग उछलती थी-'लइयों लइयों रतनगढ़ फूल बनइयों नोनी मामुलिया'। नौरता के लिए पत्थरों का रंग-बिरंग चूरन महीनों पहले से पीसने में वह व्यस्त रहती और त्यौहारके दिन जादव जी के चबूतरे इस छोर से उस छोर तक एक से एक डिजाइनदार चौकों से पुरे होते ... उन चौकों से छवि की मुस्कान जैसे झरती रहती। अजीब था यह त्यौहार। पत्थर, जो वहाँ आदमी से भी बड़ी हस्ती के दिखते थे, उन्हें पीसती थीं औरतें--अबलाएँ! पीसकर रंग देती थीं, और फिर उस रंग को चबूतरों पर बिखेर देती थीं ... वे ही जो पत्थरों के बीच कैद थीं। मामुलिया और नौरता के त्यौहारों पर छवि न केवल जादव जी के घर बल्कि पूरे मुहल्ले में छायी होती। उस इलाके में इन दो त्यौहारों की कल्पना छवि के बिना अधूरी थी--मामुलिया में बेरी के काँटों में फूल खोंसती हुई, उसकी लम्बी-लम्बी गेहुँवी लालिमा को छलकाती हुई उँगलियाँ, नीरता के चौक पुरते वक्त पैर के टिंघुरे पर रखी उसकी बाँह जिसकी गोलाई तब थोड़ा चौड़ी होकर और भी खूबसूरत दिखती थी।

छवि ने भगवान को माथा टेककर प्रणाम किया, जल लिया और परकम्मा के लिएमुड़ गई। थोड़ी देर में परकम्मा की दूसरी तरफ से निकली ... फिर भगवान को माथा टेका और प्रसाद लेने के लिए मन्दिर की देहरी की ओर बढ़ गई, हाथ की अंजुली बनाए हुए। नारायण ने प्रसाद लिया--खूब ज्यादा--शायद जितना बचा था सब दे दिया। प्रसाद लेकर छवि मुड़ी और वापस पौर की तरफ से घर को चली गई। केशव के शरीर में एक लहर सनसनाती हुई बराबर चल रही थी। वह छवि को इस तरह गौर से देख नहीं बल्कि साथ-साथ चल रहा था, एक तरह से।

उस रात सोते समय उसकी ऑंखों के सामने जो चेहरे बार-बार घूमते थे वे नारायण और छवि के थे ... जोड़ी क्या बुरी है, एकदम राम-सीता की है। रामलीला में नारायण राम बनता ही है। जो सीता बनता है वह लड़का नाटातो क्या होता है, पर वहबात नहीं आती जो औरत से आ सकती है। छवि को बनाने में क्या नुकसान है, जँचेगी। छवि का गेहुऑं रंग कैसा चमकता है--वैसे ही जैसे कल्लू का काला रंग, लेकिन गेहुँआ रंग अच्छा है। आम के पास बैठ जब रोटी पकाती होगी, चूल्हा फूँककर इधर मुँह करती होगी, तब और भी सुर्ख हो जाता होगा उसका चेहरा। बिट्टी है ... यों छवि से ज्यादा गोरी भी, लेकिन वह बात नहीं आती। नाटे-से उस कद में कभी औरत भी नहीं लग पाएगी, हमेशा लड़की ही रहेगी।

छवि का मँझोला कद ... तपे हुए तांबे का-सा रंग--दूर तक खखुआती हुई ऑंखें ... नपी-तुली चाल, जैसे भरे शरीर को छलकने से बचाती हुई चल रही हो ... चेहरे पर बिछी हुई एक तर संजीदगी ... जिस किसी बहाने और रूप में बार-बार केशव के सामने झूल रहे थे। छवि के बारे में सोचते रहना उसे अच्छा लग रहा था।

सम्मतियाँ

 - गोविन्द मिश्र
दिसंबर 24,2008

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