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प्रतीक्षा 

जलते अंगारे सी लाल
, शरीर का सारा खून निचुड़ कर जैसे उन में उतर आया हो, सिकुड़े सिमटे चेहरे पर मानो बलात् रख दी गई हों, दिन-ब-दिन अपनी जगह छोड़ कर पीछे की ओर दबती हुई पथराई-पथराई वे ऑंखें, न जाने क्या ऐसा छोड़ आईं जिस की तलाश लगातार उन्हें बेचैन किये हुए थी। जिस के साथ जुड़ी थीं, नौसिखिये शिल्पी की गढ़ी बेडौल प्रतिमा सी वह आकृति ऐसी कि देख कर बरबस ही निरे पत्थर मन में भी एक टीस जाग उठे। ठीक किसी हठ योगी की भाँति एकाकी और कृशकाय।

मैं देर तक उसे देखता रहा, लगता था पहले भी कहीं मिला हूँ। अचानक मन में बिजली सी चमकी, याद आया यह तो अमित था। अमित खन्ना, मेरे कालेज के जमाने का मित्र। अब दिखाई पड़ ही गया तो सोचा मिलता चलूं।

'अमित, जरा सुनो तो भाई।' पहली पुकार खाली जाने पर मैंने फिर से आवाज दी।

'अरे! तुम और यहाँ ?' जैसे सोते से जागा हो, अपने आप में खोया-खोया वह पलट कर मेरी ओर देखने लगा।

'हाँ, बिटिया की पढ़ाई के सिलसिले में आया था, मगर तुमने भला ये क्या हाल बना रखा है?'

जाने क्यों तब अमित मेरे पश्न का उत्तर टाल गया। सब ठीक है, कहते हुए आग्रह पूर्वक मुझे अपने घर ले आया। कोई चार-पाँच साल हुए होंगे, हम दोनों ने पढ़ाई पूरी कर के कालेज छोड़ा ही था। उन दिनों बड़ा चुम्बकीय व्यक्तित्व हुआ करता था अमित का। आज उसका वही भोलाभाला कवित्व भरा चेहरा मेरे चिंतन में झाँक रहा था जिस में जमाने भर की मासूमियत समेट कर एक गीत बड़े ही भावपूर्ण स्वर में वह अक्सर गाया करता था, 'मैं तुम्हारे प्यार का प्यासा पपीहा' अौर वही अमित अब लुटा-लुटा सा मेरे सामने बैठा था, उस का मौन, उस का बदलाव, मुझे किसी कल्पनातीत दुर्घटना का संकेत दे रहा था।

'बताओ भी अमित, अचानक ऐसा क्या हो गया जिस ने तुम्हें इस कदर तोड़ कर रख दिया।' आखिर मैंने पूछ ही लिया।

'शादी के पहले और उस के बाद की मेरी आर्थिक परिस्थियाँ तुम्हारे लिये अनजानी नहीं, ऐसे में विवाहित जीवन के कुछ वर्ष तो ठीक से निकले पर धीरे-धीरे एक अजीब सी घुटन मुझे चारों ओर से घेरने लगी।' कहते-कहते वह अपने अतीत की ओर लौटने लगा। बोला-'कलकत्ते वाले चाचाजी तो तुम्हें याद होंगे, उनके बड़े बेटे राजन का कामकाज तब अच्छा चल पड़ा था। मुझे सुना-सुना कर जो बातें अक्सर वे दूसरों से कहा करते थे जब याद आती हैं तो आज भी दिल में नश्तर से चुभने लगते हैं।'

'ऐसा क्या कह देते थे?' मैंने पूछा।

'यही कि शादी के बाद घर की जिम्मेदारी सर पर आते ही राजन ने खुद को कितना बदला है। उसकी तरक्की देखने वाली है,और भाई एक से दो हुए तो फिर बिना कुछ कामकाज किये चल भी कब तक सकता है।'

'फिर?'

'फिर क्या, मैं सब कुछ सुनता, समझता और चुप साध कर रह जाता। कुछ करो के उपदेशक इनसे तो कहे कौन कि इनके उपदे8श् सुनने वाला पहले ही इनसे अधिक चिन्तित भी है और प्रयत्नशील भी। अपने अधिकतम अनुभव के साथ ये दिखावटी शुभचिन्तक स्वयं यदि कहीं सहायक नहीं हो सकते तो कम-से-कम चुप तो रह सकते हैं।'

'लेकिन भाभी?'

'हाँ, हाँ, वही बतला रहा हूँ। आभा कुछ दिन सामान्य रही, फिर उसका भी व्यवहार बदलने लगा।'

'क्यों?'

'वही घर के हालात, उसके लिये उपलब्ध साधारण रख-रखाव पर हँसती औरों की निगाहें, ऊपर से मेरा उड़ा-उड़ा बर्ताव। असर तो होना ही था।'

'मगर मनचाहा सब को नहीे मिलता इतना तो उन्हे भी मानना चाहिये था।'

'पता नहीं कितनी बार यही बात मैंने समझानी चाही उसे, पर वो, उसकी बात ही अलग थी, कहती थी जब उसके साथ इन्साफ नहीे हुआ तो उसी से इन्साफ चाहने का किसी को क्या अधिकार?'

'खैर, जैसी जिसकी सोच।' मैं बोला।

'सो तो है ही', अमित ने आगे कहना प्रारम्भ किया-'पर धीरे-धीरे हमारे बीच तनाव बढ़ने लगा, तन से पास-पास मगर मन से हम कितने दूर थे सोचता तो दुख और अवमानना से खीझ उठता अपने आप पर।'

'फिर भी पुरुष होने के नाते तुम्हें तो संयत रहना था अमित।' मेरे मुँह से अचानक निकल गया, पर यह बात जैसे कहीं उसके मर्म को बींध गई। देर तक मौन रह कर सूनी-सूनी ऑंखों से मेरी ओर निहारता रहा। मुखमुद्रा से अन्तर्द्वन्द स्पष्ट झलक रहा था। मुझे लगा जो कह दिया कहना नहीे चाहिये था। एकाएक उसकी मुध्दियाँ भिंच गईं।

'उँहँ, पुरुष - पौरुष सब ढकोसले हैं कोरी कल्पना, किसी ने देखा-परखा है इसे और इसकी अपराजेयता को। वह जो हालात के एक झटके से चकनाचूर हो जाय कौन उसके भरोसे जीने की सोच सकता है। मैं भी इसी के सहारे टिका रहना चाहता था, मगर मेरा सा जीवन जिया होता तो समझते।'

'मेरी बातों को अन्यथा न लो अमित।' बात काटते हुए मैंने समझाया, उसकी इन उलझी-उलझी बातो और प्रतिकूल आस्थाओं पर मैं चकित था। कभी पौरुष का दिग्गज हिमायती रहा यह व्यक्ति अभी-अभी क्या कह गया, समझना कठिन हो रहा था कि कहीं पर मन का दार्शनिक जाग उठा। अब उसका एक-एक शब्द मुझे झकझोरने लगा था, अमित बोले जा रहा था।

'मैं निराश नहीं था पर यह आशा भी तो मेरे लिये समस्यायें ही अधिक लाती रही। अभीष्ट की सफल सर्जना की आशा में डूब कर अपनी सहज अनुभूतियों, निकटतम वास्तविकताओं और निजी संवेदनाओं से मैं बिल्कुल कट सा गया।' कुछ देर चुप रह कर उसने फिर कहना शुरू किया- 'एकाकीपन में केवल कलम और कल्पना मेरे साथी होते, इससे कभी कुछ मिल भी जाता पर शान्ति नहीं, हरएक मँह पर यही एक सवाल कि चार शब्द लिख कर चन्द सिक्के जुटा लेना ही क्या उपार्जन का चरम बिन्दु है? इस तरह जीविका की उलझन में जीवन से भी दूर होने लगा, मन-प्राण जैसे जीतेजी मेरे अस्तित्व को नकारने लगे।'

'इस सब के बढ़ावे में तुम्हारी व्यक्तिगत मान्यताओं का हस्तक्षेप दोषी नहीं क्या?'

'हो सकता है रहा हों किन्तु मान्यताओं के भी आधार होते हैं यह अकारण अस्तित्व में नहीं आतीं।' उसने कहा, 'और इनके लिये क्या वह वातावरण पर्याप्त नहीं था जिसमें मैं जकड़ा रहा।'

'समस्या के मूल में कहीं न कहीं तुम भी तो रहे।'

'जो चाहो कह लो पर इस सब का कारण आभा थी। उसका एक-एक बोल जैसे जहर बुझा तीर होता था जिसका हर घाव नासूर बन कर मेरे अन्तर को गलाने में लगा रहा।'

'ऐसा क्या था भाभी के व्यवहार में?'

'आग थी, ठण्डी आग, जो महसूस होने से पहले ही जलाकर राख कर दे। उचित-अनुचित के विवेक से परे मुझ से तो वह कुछ भी कह जाती थी।'

 'परन्तु'

'परन्तु क्या?' मुझे रोक कर वह बोला, 'यही से मेरे चिन्तन की दिशा बदलने लगी, सोचता काश आभा का कहा सच हो जाय, लेकिन जिसकी परवाह दुनियाँ को नहीं उसकी तरफ मौत भी शायद मुँह नहीं करती।'

'विपरीत परिस्थितियों के बावजूद तुम्हें तो अपनी ओर से कुछ ऐसा करना ही चाहिये था कि भाभी का हृदय परिवर्तन हो।' मैंने कहा।

अवश्य, मेरा हमेशा यही प्रयास हुआ करता था। अलगाव के हर क्षण में मैंने चाहा कि उसका सर अपने सीने पर रख लूँ, उसे दुलार करूँ मगर आभा की ओर से न तो कभी कोई पहल हुई और न ही किसी प्रकार का सहयोग। हर बार यही सोच कर रह जाता कि अभी शायद मेरे सीने में इतनी जगह नहीं बन पाई जहाँें सर रख कर कोई अपना सब कुछ भूल सके।` उ>ार में अमित ने कहा।
उस रात बस यही बातें हो सकीं। अगली सुबह जब मैं उसके पास से चला उसे समझाया भी कि गति ही जीवन है और अवरोध मृत्यु, इस लिये वह कुण्ठा को अपने मार्ग का अवरोध न बनने दे तो उसके हित में अच्छा है। पता नही ंतब उसे मेरी बात पसन्द आई या नहीं।
बहुत समय तक फिर मेरी मुलाकात अमित से नही हुई। इस बार जब दोबारा बिटिया के पास आना हुआ तो पता लगा वह आजकल अस्वस्थ है। कुछ समय पहले कहीं गिर जाने से उसे गहरी चोट आई थी। एक बार फिर ध्यान अमित के कल की यादों से जुड़ने लगा। बाद में वर्तमान ही चाहे अतीत का चोला पहन कर यादों में बोलता हो पर हर वर्तमान की सर्जना में अतीत का अंश अवश्य होता है, दोनों के बीच का यही सम्बन्ध उन्हे अलग-अलग रहते हुए भी कहीं-न-कहीं जोड़े रखता है। अमित के दाम्पत्य में कोई ज्वालामुखी करवटें ले रहा है इसका आभास तो मुझे पहले से था पर उसका वर्तमान इस कदर उजाड़ और वीरान होगा मैं सोच भी नहीं सकता था।
लोगो ने बताया पुत्र-जन्म का समाचार सुनते ही न जाने क्या हुआ कि लड़खड़ा कर गिर पड़ा और तब से अस्पताल में था। उस दिन यह सूचना पाकर मैं भी अमित से मिलने को आतुर हो उठा, पता चला अब वह घर आ गया है इस लिये मैं उसके घर ही पहुँचा था। बैठक के बन्द द्वार खटखटाने ही वाला था कि अन्दर से अमित और आभा के बीच किसी गम्भीर वार्तालाप की भनक पाकर सहसा रुक गया।
वैसे छुप कर किसी की बातें सुनना पसन्द नहीं, ऐसी मेरी आदत भी नहीं लेकिन अब दरवाजे से लौट कर जाता तो जाता कहाँ, और फिर बाहर से सुनाई दे रहा वार्तालाप ही कुछ ऐसा था जिसने अनायास ही एक उत्कण्ठा जागृत कर दी थी।
'दवायें बाहर के घाव तो भर देंगी आभा मगर अन्दर के उन घावों का क्या करूँ जो तुमने मुझे दिये हैं। ` यह अमित का स्वर था।
'घाव तो मुझे भी तुम्हारे कारण कम नहीं मिले। जब तक मातृत्व से वंचित रही दूसरे लोग कचोटते रहे, उँगलियाँ उठाते रहे और अब अगर मातृत्व पाया तो तुम्हारी उँगली उठने लगी। सब की जली कटी मेरे हिस्से में आई और मैं हमेशा निभाने में लगी रही, बिना किसी शिकायत केे।` आभा का उत्तर हैरान करने वाला था।
'खूब निभाई, मेरा स्वत्व, मेरा सम्मान, मेरा अधिकार कुछ भी तो सुरक्षित नहीे रहने दिया।`
'कौन सा अधिकार? वही, जिसे न तुमने ठीक से समझा, न पहचाना और न कभी प्रयोग में लायेे। तुम्हें तो अपनी लड़ाई से ही फुर्सत नहीं थी, बाहर की ओर देखते तो जानते किस पर क्या बीत रही है।`
'ठीक है, पर क्या किसी का अधिकार किसी और के नाम लिख देने के लिये इतना ही पर्याप्त है? क्या मेरा संघर्ष सिर्फ मेरे लिये था? क्या उसमें तुम कहीं नहीे थीं?`
'मैं नहीं जानती। कुछ पश् न ऐसे होते हैं अमित, जिनके उत्तर आसान नहीं होते। उलझन बढ़ाने वाले सवालों को टाल ही दिया जाय तो अच्छा। कई बार सही-गल़त का फैसला तर्क से नहीं भावनाओं से होता है और तुम जानते हो भावनायें सब की अलग-अलग होती हैं।`
'जो हुआ उसका अफसोस नहीं आभा, दुख केवल इस बात का है कि मेरा विश्वास तुम्हें प्रतीक्षा की शक्ति नहीं दे पाया।` अमित बोला।
यह सारी ही बातें मुझे अचम्भित करने के लिये कम नहीं थीं। मेरी चेतना पर एक प्रश्न चिन्ह सा लग गया। हर ओर से उपेक्षित आभा ने ऐसा क्या अनुचित कर दिया, मेरे लिये समझना कठिन था। सोचा शायद आगे की बातचीत में कुछ स्पश्ट हो मगर फिर तो बस एक लम्बी चुप्पी छा गई। इतना सब सुन कर मैं भी अमित से मिलने का साहस नहीं जुटा पाया पर आज भी जब याद हो आती है तो मन उलझ सा जाता है।

मदन मोहन शर्मा 'अरविन्द`
जून 1, 2007

 

 

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