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अन्तिम योद्वा (अब तक आपने पढा ---------- अमरावती पर दैत्यराज बली द्वारा छद्मपूर्वक अधिकार के पश्चात स्वयं को इन्द्रसेन घोशित कर स्वर्गविजय पर आहत देवप्रजाति के प्रमुख नेतृत्वकर्ता देवगुरु बृहस्पति सहित परम पुरुष विष्णु के पास सहायतार्थ पहुंचे। पूर्व ही में आशंका व्यक्त -कर चुके लक्ष्मीपति ने अंततोगत्वा एक बार पुन: देवों को इस संकट से उबारने का निष्चय किया और देवगुरु बृहस्पति के साथ स्वयं भी दैत्यराज से कूटनीतिक वातार्थ अमरावती पहुंचे । देवगुरु को एक चतुष्पथ पर विदा कर विष्णु का रथ सीधे राजप्रासाद पहुंचा एवं षीघ्र ही वे दैत्यराज बली से मिलने भीतर पैठ गए। समय के महत्व एवं देव प्रजाति को सता सौंपने की वार्ता पर दिव्यपुरुष विष्णु ने तीन महत्वपूर्ण चरण सूत्र के रुप में दैत्यराज के सम्मुख रखे- प्रथम दैत्य सेना पुन: प्रस्थान करें, द्वितीय देवों के नागरिक अधिकारों का पुनर्वसन त्वरित प्रभाव से हो एवं तृतीय, स्वयं दैत्यराज इन्द्रासन रिक्त कर पाताल की ओर प्रस्थान करे। महातेजस्वी विष्णु के तीन चरण अत्यंत विषद् एवं दैत्यराज को विचलित करने वाले थे। उद्विग्न दैत्यराज की राज्य विस्तार की लिप्सा पर यह कुठाराघात था अत: दैत्यराज बली ने विष्णु के इन चरणों को मानने से स्पष्टत: असहमति प्रकट की। अब आगे........ )
दैत्यराज का मुखमण्डल विवर्ण हो चुका था। उसके नैत्रों में भय, आशंका एवं क्रोध के मिले जुले भाव थे। वह अत्यंत विचलित सा खड़ा था। तब तक विष्णु भी सिंहासन से उठ चुके थे। उनके मुख पर गंभीरता एवं नेत्रों में अदम्य साहस झलक रहा था। ''आपने तो कहा था कि आप याचनार्थ प्रस्तुत हुए है?'' देत्यराज का स्वर उद्विग्न था । ''सत्य तो यही है, महाराज बली , मैं रक्तपात में विश्वास नहीं रखता हूं और प्रजातंत्र का समर्थक हूं'' विष्णु ने गंभीरता से कहा। ''अत: मेरा उद्वेश्य सीधे से उन मांगों को रखना है जो आम जन के हित की हों। और आमजन से उनकी सत्ता छीनना आपको शोभा नहीं देता दैत्यराज ।'' ''देखिये चक्रघर, आपका प्रबल पौरुष और कूटनीति एवं मेरा साहस एवं सैन्यबल ,हमें समस्त भूमण्डल पर राज्य स्थापना में सहायता कर सकता है। अत: यह समय विचार का है ।'' ''दैत्यराज का संकेत किस ओर है?'' ''हम दोनों यदि मित्रता के गठबंधन में बंधें तो सह गठबंधन सर्वशक्तिमान होगा'' ''...............'' ''समस्त भूमण्डल पर हमारी पताका फहरेगी'' ''मैं दैत्यराज के मित्रता के आग्रह से अभिभूत हूं किंतु मैं अधिनायकवाद की प्रबल विरोधी एवं लोकतंत्र का समर्थक हूं महाराज ।'' ''आप कूटनीति संरचित कर रहे है चक्रपाणि'' ''आप इसे कोई भी नाम दें दैत्यराज किंतु सत्य यही है कि मेरी लोकतंत्र में ही पूर्ण निष्ठा है और फिर राज्यलिप्सा मेरे स्वभाव का हिस्सा नहीं है महाराज बली '' विष्णु ने अत्यंत स्पष्ट एवं दृढ स्वर में प्रत्युत्तार दिया। ''फिर मैं विवश हूं दिव्यपुरुष '' दैत्यराज के स्वर में अब रुक्षता थी। ''परिणामों के कारक भी फिर दैत्यराज ही होंगे'' विष्णु ने चेतावनी के स्वर में कहा। ''महामना मुझे भयभीत करना चाहते है?'' ''नहीं महाराज केवल चेता रहा हूं '' ''क्या होगा।'' ''परिणाम समय के हाथ है दैत्येश्वर '' ''दैत्यकुल में रावण से प्रतापी युवक हैं जो समय को सीमाबद्व कर सफल वैज्ञानिक सिद्व हुए हैं'' दैत्यराज बली के ह्यदय में उद्वेलन था। ''समय को परिधि में बांधना भ्रम मात्र है'' तथापि मैं आपके वचनों से अहसमत हूं'' ''मैं चरण बद्व निष्क्रमण का मार्ग दैत्यराज के सम्मुख रख रहा हूं '' ''अन्यथा-------'' ''मार्ग कंटकाकीर्ण होगा'' ''आप को ज्ञात है कि मैं वर्तमान में देव एवं दैत्य प्रजातियों का अधीश्वर हूं '' ''दैत्यराज अतिक्रमण में अंतर समझें।'' ''अर्थात------?'' ''आक्रांता, अधीश्वर नहीं होते है एकराट्'' अब प्रथम बार विष्णु के मुखारबिन्द पर अधीरता थी। ''मैं इन्द्रासन रिक्त नहीं करुंगा। यह मेरे पुरुषार्थ के सर्वथा विपरित है कि मैं विजित इला लौटा दूं'' ''ठीक है दैत्येश्वर, मेरा कार्य देवों के हेतु लोकतंत्र की याचना मात्र था'' विष्णु ने अत्यंत गुरुगम्भीर स्वर में कहा । सहसा बाहर वीथिका में किसी की द्रुत पदचाप सुनाई दी। दोनों के ही नेत्र द्वार की ओर मुड़ गए। एक प्रहरी हांफता सा कक्ष में घुसा - ''महाराज क्षमा करें, बिना अनुमति प्रवेश धृष्टता है किंतु ......'' ''किंतु........?'' दैत्यराज के मुखमंडल पर प्रश्न था। ''किंतु गुरुदेव शुक्राचार्य अत्यंत अधीरता से महाराज इन्द्रसेन के राजप्रासाद की ओर आगमन कर रहे हैं साथ ही उनके दो सेवक तार - बेतार का एक दृश्यपटल लेकर उनके साथ आ रहे हैं। प्रहरियों द्वारा विनम्रतापूर्वक पूछने का प्रत्युत्तार तक नहीं दिया।'' प्रहरी का मुख विवर्ण था। दैत्यराज विस्फरित नेत्रों से प्रहरी को ताक रहा था। तभी बाहर वीथिका में हलचल सुनाई दी और सहसा दैत्यगुरु , शुक्राचार्य ने अपने दो परम शिष्यों के साथ कक्ष में प्रवेश किया । ''इन्द्रसेन का विनम्र प्रणाम स्वीकारें गुरुदेव'' दैत्यराज करबद्व खड़ा था। ''दैत्यगुरु शुक्राचार्य को मेरा विनम्र अभिवादन प्रस्तुत है'' दिव्य पुरुष चक्रपाणि ने हाथ जोड़ कर दैत्यगुरु का अभिवादन किया । क्रोध में दैत्यगुरु के मुख पर भूचाल के भाव थे । विष्णु का अभिवादन सुन एकाक्ष ने उस ओर दृष्टिपात किया एवं उनके मुख पर कई भाव एक साथ उभरे- ''ओह तो पद्मनाभ का आगमन राज प्रासाद में हो चुका हैं'' शुक्राचार्य फुंफकारते हुए बुदबुदाए। कुछ क्षण कक्ष में मरघट सा सन्नाटा छा गया। ''दैत्यगुरु विद्वान शुक्राचार्य किंचिंत व्यथित हैं ?'' मौन भंग करते हुए विष्णु ने प्रश्न किया। ''कुशलक्षेम का ढोंग न ही करें पद्मनाभ तो उचित होगा।'' षुक्राचार्य ने रुष्टतापूर्वक कहा। ''एक प्रकाण्ड विद्वान का अभिवादन एवं क्षेम -कुशल पूछना मेरी संस्कृति है मनीषी '' चक्रधारी विष्णु के स्वर में स्थिरता थी। ''तुम्हारे आगमन के पश्चात कुशलक्षेम कैसे संभव है पद्मनाभ विष्णु । तुम चतुर एवं कुटिल हो '' शुक्राचार्य के मुख पर रोष था। ''क्या हुआ, गुरुदेव मुझ पर भी कृपा करें'' दोनों की वार्ता सुन आशंकित दैत्यराज बली ने शुक्राचार्य से पूछा। ''क्या हुआ ? पूछो क्या नहीं हुआ।'' ''अर्थात्'' ''इन्द्रसेन , तुम्हारा वर्तमान, अतीत की चेरी हो चुका है'' ''मैं समझा नहीं ।'' ''भोले हो शिश्य, तुम क्या इस भ्रम में हो कि चक्रपाणि याचानार्थ उपस्थित हुए है।'' ''तो फिर '' ''यह कूटनीतिक चाल है दैत्याधीश्वर और इसमें तुम पराजित हुए'' शुक्राचार्य के स्वर में हताशा थी। ''असंभव गुरुदेव '' ''ये सत्य है महाराज बली । क्या याचना की थी पद्मनाभ विष्णु ने '' ''मात्र तीन चरण '' ''इन तीन चरणों में वो जीत गये और तुम पराजित हुए शिश्य। ''अविश्वसनीय है गुरुदेव'' ''सत्य तुम्हारे सम्मुख है दैत्यराज '' कहते हुए उन्होंने दोनों शिष्यों को संकेत किया । उन्होंने वो आरसी का दृश्यपटल सम्मुख रखा। दैत्यगुरु भौतिक शास्त्र के किसी सूत्र को बुदबुदाते हुए उसमें लगे संकेतकों को परिवर्तित करने लगे । दैत्यराज अधीरता से दृश्यपटल को देख रहे थे। जब कि गदाधारी विष्णु संयत एवं शांत प्रतीक्षारत् थे। सहसा उस आरसी में कुछ दृश्य उभरने लगा। दृश्य के साथ ही एक कोलाहल उस यंत्र के ध्वनि विस्तारकों से सुनाई देने लगा। दृश्य वीभत्स था। गली - वीथियों में आबाल वृद्व आतुरता से भाग रहे थे। दृश्य में भव्य अट्टालिकाओं के उपर का सम्पूर्ण व्योममंडल रक्तिम वर्ण का हो रहा था। रह - रह कर विद्युत तड़ित का प्रकाश सम्पूर्ण नगर पर पड़ रहा था। नगर की कृत्रिम प्रकाश व्यवस्थाएं ठप्प हो चुकी थी । नगर अंधकार में डूबा था। झंझावत से वृक्ष जड़ सहित उखड़ कर मुख्य मार्गों को अवरुद्व कर रहे थे। नगर के ठीक उपर एक विशालकाय यंत्र चम- चमा रहा था जो षट्कोणाकार था। उसमें से रह - रह कर कई रंगों का धूम्र तीव्र गति से निकलता था। प्राण बचाने को भागते नगरवासियो पर स्पष्टत: भय व्याप्त था। उस यंत्र पर लगे विभिन्न आयुध स्पष्ट चमक रहे थे। नगर के मुख्य मार्ग पर रथों का जमघट लग चुका था। व्यवस्थाएं भंग हो चुकी थी। दृश्य देखकर दैत्यराज के मुख पर स्वेद बिन्दु झिलमिलाने लगे। ''गुरुवर ........'' हकलाते से दैत्यराज बली ने शुक्राचार्य की ओर देखा। भय से श्वेत हो चुके दैत्यों के गुरु एकाक्ष आचार्य शुक्र ने कम्पित स्वर में कहा - ''ये ब्रह्मास्त्र है शिश्य, जिसका संधान पाताल की राजधानी पर किया गया है और ये प्राणघातक अस्त्र पलक झपकते ही सम्पूर्ण नगर को लील लेगा। हम समाप्त हो जाएंगे नरेष, हमारी सभ्यता का अस्तित्व तक खत्म हो जाएगा। ''तुम -------- तुम बहुत वामन हो विष्णु । मैं आज तक तुम्हें एक राजपुरुष के रुप में जानता था। तुम्हारे परम ष्षक्तिषाली व्यक्तित्व एवं अद्भुद् विज्ञान अविष्कारों की चर्चा सुनी थी मैने किंतु तुम कुटिल और वामन भी हो ये सिध्द हुआ'' दांत पीसते हुए दैत्यराज बली बोला । ''लोहा -लोहे को काटता है दैत्यराज, तुम याचना और मित्रता की भाषा नहीं समझ रहे थे '' चक्रपाणि विष्णु ने अत्यंत रुक्ष स्वर में कहा ''तब तुम्हें समझाने का और कोई रास्ता देव प्रजाति के पास नहीं रहा । हम रक्तपात एवं अतिक्रमण में भरोसा नहीं करते हैं अत: ब्रह्मास्त्र का संधान एक संकेत है कि तुम्हारी एक अनुचित क्रिया पाताल की राजधानी में क्षणांष में सैंकड़ों दैत्यों की बलि ले लेगी। '' दैत्यराज मस्तक झुकाए खड़ा था। षुक्राचार्य मौन अनवरत् उस आरसी के दृश्य पटल पर उभरते भयावह वैज्ञानिक अस्त्र के चित्र देख रहे थे।कई पल मौन रहा। सहसा विष्णु बोले - ''यह यंत्र स्वचालित है तथापि इसका सम्पूर्ण संचालन किसी विशिष्ट जगह से संचालित है। हम दैत्यराज को मित्रतापूर्ण मार्ग लौटने हेतु प्रदान कर रहे हैं साथ ही यह वचन भी देते हैं कि आम देवताओं को यही ज्ञात रहेगा कि विष्णु की याचना को उदारमना दैत्यराज ने स्वीकर कर लिया ताकि दैत्यराज की छवि कलंकित न हो ।'' ''पद्मनाभ द्वारा सुझाया हुआ मार्ग ही अन्तिम है दैत्यराज '' आचार्य शुक्र की वाणी कंपित थी। कक्ष में पुन: मौन छा गया। विष्णु एकटक दैत्यराज का मुख देख रहे थे। सहसा दैत्यराज बली ने धीमे व हताशा भरे स्वर में कहा- ''मुझे तुम्हारे तीनों चरण स्वीकार हैं वामन विष्णु '' दिव्य विष्णु के मुख पर मोहक मुस्कान थी। (क्रमश:..............................)
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