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अन्तिम योद्वा
 भाग-
11                     

(आपने पढ़ा-

दैत्यराज बली ने अमरावती पर अधिकार कर स्वयं को इन्द्रसेन घोषित कर दिया एवं वचनानुसार लोकतंत्र  की स्थापना में सहायता न कर स्वर्ग पर अतिक्रमण सी नीति अपनाई तब देवगुरु बृहस्पति ने देवों के आध्यात्मिक गुरु पौंरुषपति विष्णु से सहायतार्थ याचना की । तब क्षीरसागर निवासी विष्णु ने अपने व्यक्तित्व को वामन करते हुए दैत्य राज बली को पुन: पाताल लोक  की ओर प्रस्थान करने हेतु विवष किया। इस  प्रकार एक ओर दैव-दैत्य संग्राम की समाप्ति हुई।

इसी समय परम पुरुष शिव के क्षेत्र में एक भयावह घटना  घटित  हुई जिससे मध्य  एवं दक्षिण  गोलार्द्व का भविष्य खतरे में पड़ गया----- अब आगे। )               

विशाल द्वार के पट आज अभी तक अनावृत नहीं हुए थे। सम्पूर्ण वातावरण  में एक रहस्यमय मौन पसरा  हुआ था। किसी अनहोनी की आशंका का भय सम्पूर्ण परिसर में व्याप्त था। महाबली नंदी एवं विद्युतजिव्ह  द्वारपालों के निर्देषार्थ उपस्थित नहीं थे।

विशाल द्वार के भीतर परम पुरुष शिव के आवास में मानों वृक्षादि भी श्वासोपश्वसन को रोक कर मौन साधे खेड़ थे । विहंग स्वर सुनाई नहीं दे रहा था। विहारार्थ खड़ी नौकाएं तड़ाग के एक कोने में बंधी थी।  

मुख्य चतुष्पथ से दिव्य पुरुष शिव तक पहुंचने वाले समस्त मार्ग अवरुद्व कर दिए गए थे। वीथिकाओं के द्वार आवृत हो चुके थे एवं उन पर सेनापति नंदी ने अपने अत्यंत उद्भट वीरों को नियुक्त कर दिया था। ये वीर नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्रों से युक्त सजग खड़े थे।  

सभागृह में मौन पसरा हुआ था तथा समस्त सिंहासनों पर द्वीप पति  दम साधे विराजमान किसी  अनहोनी की प्रतीक्षा कर रहे थे।  

सभाकक्ष के पार्श्व स्थित कुंजों में आज मद्यादि उपलब्ध नहीं था एवं न ही सद्य स्नाता यक्षणियां इस प्रयोजनार्थ उपलब्ध  थी । स्वयं यक्षपति कुबेर अत्यंत उदास  नेत्रों  से सिर झुकाए  सभाकक्ष के बाह्य मार्ग पर उपस्थित थे।   

अजेय पौरुष का प्रतीक द्वीपपति रावण, दूर एक तमाल के वृक्ष के नीचे सहस्त्रबाहु से वार्तार्थ व्यस्त था। सेनापति नंदी विभिन्न व्यवस्थाओं हेतु अपने गणों को निर्देष दे रहे थे। दक्षिण वीथिका के द्वीप मध्यम प्रकाश के साथ जल  रहे थे। सम्पूर्ण वीथिका सुनसान थी। कभी- कभी कोई परिचारिका अवष्य दीख पड़ती थी।  

राज महिषी सती के राज प्रासाद के द्वार स्वर्ण श्रंखळाओं से जड़े जा चुके थे उस पर लगे दीप स्तंभ अपनी स्थिर लौ वाले विशालकाय दीपकों का साथ मौन साधे खड़े थे।

भयावह स्वानमुखी स्त्री प्रहरी द्वार के सम्मुख सजग  खड़ी थी । उनके मुख पर ढंके मुखौटों से केवल रक्तिमवर्णी नेत्र दृष्टिगोचर हो रहे थे। उनके होथों में लिए हुए त्रिशूलादि  भयावह अस्त्र क्षण भर में ही किसी का संहार करने को उद्यत थे।  

परम पुरुष शिव के आवास की ओर प्रस्थान करने वाली वीथिका के समस्त दीप बुझा दिए गए थे तथा वहां  अत्यंत उद्भट वीरों को प्रहरी नियुक्त किया गया  था। उस रहस्यमयी वीथिका में कभी कोई पदचाप  मौन भंग  कर रही थी। यह वीथिका वैसे भी स्थापत्य कला  का अद्भुद उदाहरण थी जिसे पार कर शिव के आवास तक पहुंचना अत्यंत दुष्कर कार्य  था एवं मात्र सेनापति नंदी के अतिरिक्त कुछ विश्वस्त अनुचर ही प्रवेश गम्य थे।साधना गृह तक जाने वाली वीथिका में स्थापित  भैरव आदि दिक्पालों का आज महिष रक्त से अभिसिंचन नहीं हुआ था जबकि वासर दो प्रहर  व्यतीत हो चुका था। सदैव  क्रोध का नैत्र खोले ये भैरवादि  दिक्पाल आज मौन थे एवं इनके नेत्रों में भय व्याप्त था।

इस वीथिका में भी मात्र दो दीप प्रज्जवलित थे जिनके मंद प्रकाश में वीथिका में अंधकार  अधिक था।  यह वीथिका भयावह सिंहों द्वारा रक्षित  थी अत: सामान्यजन के लिए अगम्य थी। इस वीथिका के उस पार साधना गृह के पट बंद थे एवं उन पर अंतरिक्ष से आ रही विशिष्ट रश्मियां झिलमिला रही थी । इस वीथिका को बंद नहीं किया गया था तथापि  स्वयं  महा सेनापति नंदी अपने अनुचरों के साथ यहां उपस्थिति दे रहे थे।

आज कोई भी अनुचर  सम्पूर्ण  प्रासाद में भ्रमण  करता दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। इस  वीथिका में नंदी के अतिरिक्त बल एवं चपलता के प्रतीक  एवं परमपुरुष शिव के अत्यंत विश्वसनीयगण  वीरभद्र उद्विग्न से खड़े थे।

आज का दिन मानो दक्षिण गोलार्द्व में प्रलय का दिन  था। सम्पूर्ण व्योम मंडल में घनाच्छादित थे एवं मूसल धार वृष्टि पिछली रात्रि से ही हो रही थी। घनघोर वृष्टि मानो सम्पूर्ण स्थल मंडल को जलप्लावित करना चाहती हो ।  तड़ित झंझा रह - रह कर सर्पिणी सी आकाश से पृथ्वी पर उतर रही थी ।  उस सघन वन के जिस भी  क्षेत्र पर वह भयानक गर्जन के साथ गिरती , वह क्षेत्र अग्नि स्नान करने लगता ।

भयावह घने वनों के मध्य शिव के आवास  पर आज कोई प्रकाश व्यवस्था नहीं थी अपितु दीप  ओंधे मुंह पड़े थे । समूची प्रकृति  मानो रुदन कर रही थी । वनों से विकट पषुओं की चीत्कारें सुनाई दे रही थी।  

शिव के आवास  की ओर प्रस्थान करने वाली वीथिका में पीत नेत्रों वाला भयावह रोमावली वाला सर्प आज चपलता पूर्वक बैठा जिव्हा लपलपा रहा था। रह -रह कर होने वाले तड़ित प्रकाश में कई योजन मे प्रस्तारित परमपुरुष शिव का आवास किसी भयावह रहस्यमय स्थानक सा चमक उठता एवं पुन: अंधकार में डूब जाता ।

इतने सघन घनों के पष्चात् भी पिंगलवर्ण त्रियम्बक के साधना कक्ष  पर झिलमिलाती अंतरिक्ष रश्मियां अबाध गति से झिलमिला रही थी।

साधना कक्ष के बाहर उपस्थित क्षीण कटि एवं गुम्फित आयल वाले दोनों सिंह द्वार के दायें एवं बाँये बैठे हुए थे। यहां तक कि महासेनापति नंदी भी वहां तक नहीं जाते थे। केवल वीरभद्र को साधनाकक्ष तक  जाने  की अनुमति थी।

सहसा एकान्त देखकर सेनापति नंदी ने महाविकराल  गण वीरभद्र के सम्मुख विनम्रता पूर्वक कहा- ''महावीर  , क्या परमपिता शूलपाणि को विलम्ब होगा ? आज दो दिवस सम्पूर्ण हो चुके हैं पिनाकपाणि  को साधना गृह में प्रवेश किए हुए ।''

वीरभद्र  ने अत्यंत  तीक्ष्ण दृष्टि से नंदी को देखते हुए कहा -

''आप संयम व धैर्य रखें। वे परम  है एवं ब्रह्माण्ड का ज्ञान है उन्हें''

''मेरा तात्पर्य  था----------''

''क्षमा करें सेनापति , मैं स्वयं इस समय अधीर हूं यदि आप उचित दूरी बनाए रखेंगें तो हितकर होगा।''

वीरभद्र के नेत्रों की गहराती लालिमा नंदी के लिए मौन रहने का  संकेत थी। सेनापति पुन: वीथिका के द्वार पर आ गए।

सहसा साधना कक्ष के द्वार पर आहट हुई एवं हल्की  गड़गड़ाहट की ध्वनि के साथ वे खुलने लगे। सजग प्रहरी  पिंगल वर्ण सिंह उठ  खड़े हुए । वीथिका में स्थापित भैरवादि दिक्पालों ने भय के मारे नेत्र मूंद लिए । वीरभद्र सजग हो गए । वीथिका के आरंभ पर खड़े महासेनापति नंदी  एवं अन्य गण अनुषासित मुद्रा  में खड़े हो गए।

साधना कक्ष के पट अनावृत  हो चुके  थे। सहसा उसमें से तेजपुंज परम पुरुष  शूलपाणि वीथिका में पदार्पण करते दृष्टि गोचर हुए।

दिव्यपुरुष शिव के तेजस्वी मुखारविंद पर क्लांत भाव थे। उनके नेत्र अर्हनिलमित थे। पिंगलवर्ण के केउनके अंसों पर अठखेलियां कर रहे  थे। क्षीण कटि पर कसकर बंधा व्याघ्र चर्म  सुशोभित हो रहा था।  ध्रूमवर्णी शिव  के  रक्त तलों वाले  पांवों में  खड़ाऊ एवं हाथों में कमल के पुष्प थे।

वे धीमे -धीमे चतुष्पथ की ओर बढ़ने  लगे  । वीरभद्र उनका अनुसरण  कर रहे थे। चतुष्पथ  पार कर  वे राजमहिषी सती के राज  प्रासाद  की ओर प्रस्थान करने वाली वीथिका की ओर  मुड़ गए।

यकायक स्वामी को देख श्वानमुखी अनुचरियां भी सजग हो गई ।

सम्पूर्ण वीथिका में परम पुरुष शिव एवं उनका अनुसरण करते वीरभद्र  की पदचाप सुनाई दे रही थी।कदाचित् वृष्टि थम गई थी किन्तु मेघगर्जन हो रहा था एवं  तड़ित का प्रकाश  रह - रह कर सम्पूर्ण क्षेत्र  को प्रकाषित कर  रहा था।

राजमहिषी के प्रासाद के द्वार तक  पहुंचते ही द्वारपालों ने तुरंत ही द्वार खोल दिए। वीरभद्र उससे आगे नहीं गए किंतु परम श्रेष्ठि शिव राजप्रासाद के भीतर पैठ  गए। 

महल के भीतर विशालकाय प्रांगण में अनुचरियां मौन पंक्तिबद्व खड़ी थी। सामान्य दिनों में त्रियम्बक का आगमन समारोह का प्रतीक होता था। सम्पूर्ण गवाक्षों में विभिन्न वाद्य यंत्रों का वादन होता था। यक्षिणियों एवं किन्नरियों द्वारा परम पुरुष शिव का स्वागत होता था । प्रांगण में षतदल कमल  बिछे रहते थे। किन्तु आज अत्यंत गहन मौन व्याप्त था। मानो वायु के संचरण को भी अनुभव किया जा सकता  हो।

सम्पूर्ण  प्रांगण को पार कर शिव  मुख्य  प्रासाद  में प्रविष्ठ  हो  गए । भीतर कक्ष  में मात्र एक  स्वर्णदीप उस  कक्ष को  प्रकाषित कर रहा था।  षीघ्र ही रंगभवन  को  पारकर पिनाकपाणि यन कक्ष  में  प्रवेश कर गए। यन कक्ष में चार अत्यंत विश्वस्त परिचारिकाएं सिर झुकाए उपस्थित थी।

पर्यंक के ईशान कोण में  एक मिट्टी  का दीपक ठीक  सिरहाने के पास  जल  रहा था। षयन कक्ष के समस्त दीप बुझा दिये गए थे। हल्के अंधकार में भी राज महिषी सती  का मृत रीर पर्यंक पर स्पष्ट दमक रहा था। उनके मुख पर आश्चर्यजनक आभा मण्डल था। नैत्र  मुंदे थे। केराषि फैली थी। चंदन की महक सम्पूर्ण कक्ष  में व्याप्त थी। राजमहिषी  ने अत्यंत सुंदर रक्तिम पौषाक धारण कर रखी  थी। यों प्रतीत  हो रहा था। मानो वे गहन निद्रा में है और  प्रियतम की आहट सुन अभी नैत्र खोल देंगी।

शूलपाणि कई पल पर्यंक के दक्षिण भाग में खड़े राज महिषी  को एकटक निहारते रहे  तत्पष्चात् अपने करांजुरी में लिए हुए कमल के पुष्प राजमहिषी के चरणों में रख दिए।

''हे शक्ति , आप महज मेरी अर्धागिनी ही नहीं अपितु मेरे जीवन का सत्य थीं। मेरे शरीर में अनंत ऊर्जा का स्त्रोत रही है । आज जबकि सम्पूर्ण दक्षिणी गोलार्द्व  एवं सप्त द्वीपपति मेरा मार्गदर्शन चाहते है, मैं  अपनी प्रिया के लिए विलाप भी नहीं कर सकता । आपके परमपद गमन से मैं रिक्त हुआ भामिनी। आपकी अनंत यात्रा में मेरी शुभकामनाएं।''

ऐसा प्रतीत हो रहा मानों समय अपनी अनवरत यात्रा स्थापित कर शोक संवेदना प्रकट कर रहा हो । सूर्य शोकाकुल होकर मेघों की ओट  बैठ गया हो ।

मूसलाधार वृष्टि परमपुरुष शिव के अश्रुओं के समक्ष अपने वामन स्वरुप  से आहत  थम गई  हो ।

कक्ष  में मौन पसरा  हुआ  था। परिचारिकाएं सिर  झुकाए खड़ी थी । राजमहिषी सती के नष्वर शरीर की  उत्तार दिषा  में एक मिट्टी का दीप  प्रज्ज्वलित  था। पल पल युग के समकक्ष  प्रतीत हो रहा था। 

''विदा प्रिये, शिव तुम्हारे इस सहयात्री होने के ऋण  हेतु चिरऋणी  रहेगा''

परिचारिकाएं  रुदन करने लगी। प्रथम बार पिनाकपाणि शिव का तेजस्वी मुखमंडल शोक से विवर्ण  दिखने लगा। मंथर गति से शिव  राजमहिषी के कक्ष से बाहर आ गए एवं  मुख्यद्वार की ओर अग्रसर हुए।
द्वार पर उपस्थित वीरभद्र ने  परम पुरुष शिव को  देखते ही नतमस्तक हो गए। ''जाओ वीरभद्र , महाराज  दक्ष को सम्पूर्ण  दक्षिण गोलार्द्व  के स्वामी  के अपमान एवं राज  महिषी सती के आत्मदाह हेतु  दंडित करों  ताकि  भविष्य में  कोई  स्त्री  को अपमानित करने का प्रयत्न न करें  चाहे वह पिता ही क्यों न हो'' शिव के स्वर में गांभीर्य  था।  वीरभद्र  तत्क्षण वायुवेग  से प्रस्थान कर गए।

वीथिकाओं के चतुष्पथ पर प्रतीक्षारत् महासेनापति नंदी हाथ बांधे  पिनाकपाणि के आदेष हेतु प्रतीक्षारत्  थे।

''सेनापति, आप सभागृह में जाकर समस्त द्वीपपतियों से शोक  संदेश  प्राप्त करें एवं इस घड़ी में प्रकट संवेदना हेतु धन्यवाद ज्ञापित  करें। समस्त वीथिकाओं के मार्गों का पटाक्षेप हो एवं समस्त चर - अचर का प्रवेश वर्जित कर दिया जाय । नैत्र  झुकाए शिव सीधे आवास  की ओर प्रस्थान करने वाली वीथिका में प्रवेश कर गए  व दृष्टि से ओझल  हो गए। 

सहसा  परिसर में दूर स्त्रागार की दिषा में  रणभेरी का स्वर  सुनाई दिया साथ ही दुधुर्ष योद्वाओं का कोलाहल एवं स्त्रों के खनकने का स्वर  सुनाई  देने लगा। महागण वीरभद्र के नेतृत्व में शिवसेना प्रजापति दक्ष पर आक्रमण  हेतु तैयार हो रही थी।

परम पुरुष शिव के ओझल होने  के पश्चात आवास  की समस्त  सुरक्षा का भार  महासेनापति  नंदी पर आ गया  था।

शोक - संवेदना , व्यक्त  कर द्वीपपति  प्रस्थान कर चुके थे।  आवास के मुख्य द्वार के पट  बंद किए जा चुके  थे। आवास खाली हो गया था । सुरक्षा  प्रहरियों एवं  नित्यकार्य हेतु उपलब्ध अनुचरों के अतिरिक्त  - शेष सभी आवासों में समा गए।

सहसा मेघगर्जन  के साथ ही मूसलाधार वृष्टि पुन: प्रारंभ हो गई । आवष्यक मार्गो के अतिरिक्त शेष दीप  बुझा दिए गए थे। राजमहिषी के प्राण  त्यागने  का दु:खद संदेश से मानों समस्त  आवास  उद्वेलित   एवं अधीर था। 

परम पिता शिव अपने पारदर्षी प्रासाद में प्रवेकर चुके थे। उपलब्ध अनुचर मौन थे ।  बाहर भीषण वृष्टि हो रही थी। नंदी  का जलस्तर संकट के स्तर को पार कर चुका था। महल तक पहुंचने वाला काष्ट पुल अवरुद्व कर दिया गया ।

 

उस सघन वन में कभी - कभी डमरु नाद गूंज उठता। बस । फिर शेष मौन  पसर जाता। राजमहिषी  के विछोह ने  शूलपाणि को पुन: समाधिस्थ कर दिया था एवं उनकी उपलब्धि दुर्गम हो गई  थी।

                                            (क्रम:)

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