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योद्धा
भाग -9
(अभी
तक आपने पढ़ा ----
दैत्यराज बली द्वारा अमरावती पर
आक्रमण कर देवेन्द्र के सिंहासन पर अतिक्रमण करने,
स्वयं को इन्द्रसेन
घोषित करने के पश्चात वचनानुसार स्वर्ग का राज्यासन देवगुरु को हस्तगत न करने
से विचलित एवं भयभीत देव प्रजाति के वरिष्ठ प्रतिनिधि परम श्रेष्ठ विष्णु के
पास क्षीर सागर सहायता प्राप्त करने हेतु पहुंचें।
समस्त घटनाक्रम पर विचार कर
परमपुरुष विष्णु ने स्वयं दैत्यराज बली से वार्ता करने का निश्चय किया एवं
देवगुरु बृहस्पति के साथ अमरावती के लिए प्रस्थान किया। नगर में प्रवेश के
पश्चात श्रम से क्लांत देवगुरु को विश्राम हेतु छोड़ विष्णु ने अपने
सारथि सम्ब को सीधे राजप्रासाद चलने को कहा। अब आगे------)
राज प्रसाद के द्वार के ठीक
सम्मुख रथ रुका। चमचमाते हुए स्वर्ण रथ में जुतै श्यामकर्ण अश्वों के
नासाछिद्रों से अभी भी फैन गिर रहा था किंतु अश्व क्लांत दृष्टिगोचर नहीं हो
रहे थे। सम्पूर्ण रथ में जटिल अनगिनत मूल्यवान् रत्न एवं रथ की आन्तरिक
साज सज्जा रथ के स्वामी के अत्यन्त कुलीन एवं श्रेष्ठ होने
की ओर संकेत कर रही थी। रथ पर फहरा रही ध्वजा पर चक्र अंकित था। रथ के
गवाक्ष से रथारुढ़ एक परम सौम्य मूर्ति के दर्शन हो रहे थे,
जिसका वर्ण श्याम था।
सुंदर कमलनयन,
गण्डस्थलों से अटखेलियां
करती अलकावलियां,
पुष्प की पंखुड़ियों से अधर और
उन पर खेलती चपल मुस्कान,
कानों में दमकते कुंडल,
सुंदर एवं सुडौल भुजाएं
केहर कटि व विशाल कठोर उरुप्रदेश पर पड़ा उतरीय उस राजपुरुष के व्यक्तिव
को गरिमामय एवं श्रेष्ठतम् बना रहे थे।
ऐसे अद्भुद सौन्दर्य,
सौम्यता एवं गरिमामय
व्यक्तित्व को देख द्वारपाल स्वत: ही सम्मान एवं आदर से नतमस्तक हो कर बोले-
''सम्मानीय आगंतुक अपना
परिचय देकर कृतार्थ करे''
''मैं क्षीर सागर निवासी
विष्णु हूं'' रथ में विराजित राजपुरुष ने विनम्रता से
प्रत्युतर दिया ।
''तात के आगमन का प्रयोजन
?''
''यह दैत्यराज से ही
संबधित हैं ।''
''क्या महाराज इन्द्रसेन
इससे परिचित हैं?''
''कदाचित् नहीं।''
''तब ? ''
''महाराज को सूचित किया
जाए---''
द्वारपाल तनिक रुका तत्पश्चात बोला-
''तात् प्रतीक्षा
करें----'
''ये चिन्ह दैत्यराज को
दें '' दिव्य पुरुष विष्णु ने एक सुंदर ष्वेत कमल
द्वारपाल को दिया और कहां '' साथ ही संदेश दें कि
विष्णु वार्तार्थ एवं याचनार्थ उपस्थित हुआ है''
द्वारपाल महल के भीतर पैठ गया।
सूर्य की रश्मियां अमरावती पर
स्वर्ण वृष्टि करने लगी थी।
कुछ अंतराल पश्चात
द्वारपाल प्रकट हुआ ''महाभाग् के लिए महाराज
इन्द्रसेन ने संदेश दिया है कि तात् का इस राज प्रासाद में दैत्यराज की
ओर से स्वागत है। कृपया तात् मेरे साथ स्वागत कक्ष तक पधारने की कृपा करें
'' द्वारपाल ने अत्यंत विनीत भाव से कहा।
आभूषण विहीन विष्णु के सुंदर तन
पर मात्र वस्त्र थे। यहां तक कि रतनजटित खड़ाऊ तक रथ में थी। उनके खुले केश
अंसो पर खेलने लगे। दिव्यपुरुष विष्णु ने एक गहन दृष्टि से सम्ब को
देखा और द्वारपाल के साथ महल में प्रविष्ट हो गए।
इस भव्य महल में विष्णु इससे
पूर्व भी कई बार आ चुके थे एवं उनका सत्कार सदैव अत्यंत वृहत् पैमाने
पर होता था किंतु आज स्वयं विष्णु के मन में कई एक आषंका भी सिर उठा रही
थी। यधपि विष्णु की योजनाबद्वता एवं चतुराई पूर्वक समस्या समाधान से कितनी ही
बार देव प्रजाति पर आए संकट टले थे परन्तु इस प्रकार का घटनाक्रम
जिसमें किसी दैत्य प्रजाति के राजा ने न केवल स्वर्ग पर अधिकार कर लिया
अपितु स्वयं को इन्द्रसेन घोषित कर दिया था एक घोर संकट था एवं यहां केवल
लौह से ही लौह को काटा जा सकता था।
इतने महत्वपूर्ण घटनाक्रम के
पश्चात् भी विष्णु के मुख मंडल पर एक आभा झलक रही थी। महातेजस्वी
विष्णु राजप्रासाद के मंत्रणा कक्ष तक पहुंच चुके थे। कक्ष पर उपस्थित
द्वारपालों ने विनम्र अभिवादन प्रस्तुत किया साथ द्वार खोल दिए। इस भव्य कक्ष
में मात्र दो आसन थे।
दैत्यराज ने दिव्य पुरुष विष्णु
को देखकर अत्यंत सम्मानीय भाव से सिंहासन छोड़ा और द्रुत गति से
स्वागतार्थ आगे बढ़ा।
''देवों के आध्यात्मिक
गुरु का इन्द्रसेन स्वागत करता है''
''शुभस्तु''
''आप आसन ग्रहण करें
''
विष्णु के विराजमान होने के
पश्चात् कुछ पल कक्ष में मौन छाया रहा मानो विष्णु कहां से आरम्भ करें
इस उहापोह में थें और दैत्यराज को आशंका थी कि विष्णु का आगमन किसी अनहोनी का
संकेत हो।
सूर्य की रश्मियां कक्ष में
बिछी हुई थीं। अन्तत: दैत्यराज ने मौन तोड़ा-
''तात ने कृपा की''
''नहीं दैत्यराज मैं
प्रयोजनार्थ उपस्थित हुआ हूं''
''तात का प्रयोजन और
मुझसे ?''
''हां महाराज बली प्रयोजन
किसी का किसी से भी हो सकता है किंतु यह तय करने का अधिकार मात्र समय के पास
है''
''तो प्रयोजन प्रकट करें
महाभाग।''
''आशकित हृदय प्रयोजन
पहचान लेते है दैत्यराज''
''मैं अवबोध प्राप्त नहीं
कर पा रहा हूं''
''दैत्यराज की निर्निमेष
दृष्टि भ्रम उत्पन्न करती है''
''तात
स्पष्ट करने की कृपा करें''
''देव
लोकतंत्र समर्थक प्रजाति हैं दैत्यराज यहां इन्द्र का चयन प्रजा करती है।
''---------------------------''
''ऐसे
में एक समर्थ एवं सार्थक प्रजाति को अलोकतांत्रिक तरीके से बंदी बनाना
दैत्यराज को शोभा नहीं देता।''
''किंतु
महाभाग मैं तो स्वयं देवगुरु के आमंत्रण पर उपस्थित हुआ हूं फिर आप इसें
आक्रमण अथवा अतिक्रमण कैसे कहते है''
दैत्यराज ने अत्यंत
धूर्ततापूर्वक कहा ।
''समय
की मांग और वर्तमान का नैराश्य किसी भी भविश्य को आक्रमण का न्यौता नहीं देता
है दैत्यराज ।''
''मैं
देवों के भविश्य के प्रति भी चिंतित हूं महामन''
''यह
कार्य हम स्वयं देव प्रजाति पर छोड़े तो ही उचित होगा''
''अर्थात?''
''देव
प्रजाति अपना इन्द्र स्वयं चयन करें एवं नाहक दो संस्कृतियों में क्लेश
उत्पन्न न हो''
विष्णु गंभीर थे।
''बिना
रक्तपात की क्रान्तियाँ राजनीति का अंग रही है महाभाग और ये ऐसी ही क्रान्ति
है। मुझे देवों का समर्थन प्राप्त है।''
''भ्रम
असत्य की उत्पति का कारक है दैत्यराज और यह आपका भ्रम है कि देवों का समर्थन
आपको प्राप्त है।''
अब भी दिव्य पुरुष
विष्णु के स्वर में गांभीर्य और धैर्य था
''
निश्चित ही देवगुरु का आमंत्रण
आपको था मगर यह एक शक्तिषाली पड़ौसी की सहायता से शांति स्थापना का उपक्रम था
किंतु आप इसें इन्द्रासन हेतु समर्थन मान बैठे''
''तो
महामना सीधे से उद्वेश्य पर आएँ''
दैत्य राज बली के स्वर
में उद्विग्नता थी।
''
''स्वयं
पक्ष में तर्क गढ़ने को परिभाषाएं देना नहीं कहते है दैत्यराज,
इसे क्षुद्र स्वार्थ की
संज्ञा दी जाती है और फिर वर्तमान के नाम पर कुटिल कर्म भविश्य को गर्त
की ओर ले जाते है।''
परम पुरुष विष्णु की वाणी में
स्थिरता थी।
''महाभाग
अपनी परिभाषाएं गढ़ने के लिए स्वतंत्र है।''
दैत्यराज के अधरों पर एक
कुटिल मुस्कराहट थी,''यदि
देव इसे मेरा कुटिल कर्म मानते है तो यह उनका मतिभ्रम हैं । मेरा कार्य
पूर्णता राजनीति से प्रेरित है एवं मैं विजय में भरोसा रखता हूं चाहे इस हेतु
साम - दाम - दण्ड - भेंद,
कुछ भी प्रयोग करना पड़े।''
''दैत्यराज
का यह कार्य दैत्य प्रजाति के लिए संकट उपस्थित कर सकता है''
प्रथम बार दिव्य पुरुष
विष्णु के मुख पर चेतावनी के लक्षण उभरे।
''महामना
मुझे भयाक्रांत करना चाहते है
?''
''नहीं
दैत्य राज,
चेंतावनी देना चाहता हूं जो
आपके एवं आपकी प्रजाति के हित में है।''
''अर्थात''
''देवों
की ओर से विनम्र अनुरोध के रुप में तीन मांगे प्रस्तुत करना चाहता हूं''
''--------------------------''
प्रथम,
आप समस्त दैत्य सैनिकों
को पुन प्रस्थान की आज्ञा दें।द्वितीय देवों के नागरिक अधिकारों का पुनर्वसन
किया जाए एवं तृतीय ----''
''तृतीय
क्या ------?''
दैत्यराज का मुखमण्डल
क्रोध से विवर्ण हो चला था।
''तृतीय
यह कि आप तत्क्षण इन्द्रासन रिक्त कर अमरावती ही नहीं सम्पूर्ण स्वर्र्ग से
पाताल की ओर प्रस्थान करें''
विष्णु ने दृढ़ता से कहा।
कुछ क्षण कक्ष में गहरा मौन छा
गया।
विष्णु सीधे दैत्यराज के
नेत्रों में देख रहे थे और दैत्यराज के मुखमण्डल पर भूकम्प से भाव थे। सहसा
दैत्यराज खड़े हो गये और उसने विद्युत्ता चमक सा अपना खड्ग निकाल कर
उच्चस्वर में कहा-
''यधपि
आप याचनार्थ एवं वार्तार्थ उपस्थित हुए तथापि आपकी वाणी में राजपुरुषों सा
दंभ है। मैं दैत्यराज बली इन्द्रसेन अपने चरण को उचित ठहराते हुए यह घोषणा
करता हूं कि स्वर्ग ,
दैत्यसाम्राज्य का
अभिन्न अंग हो चुका है,
एवं आप द्वारा तीनों चरण
स्वीकारने से मना करता हूं
''
दैत्यराज बली के भाल पर स्वेद
बिन्दु उभर आए थे।
''गुरुदेव
शुक्राचार्य पधार रहें है एवं अत्यंत उद्विग्न अवस्था में है''
(क्रमश:)
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अरविन्द सिंह आशिया
भाग -
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