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पहचान

तीन

कल्लू के गांव के नीचे एक नाला बहता था। दर्रा-नाला। खदान से निकला पानी और कालोनी का निकासी पानी नाले में साल भर बहता। दर्रा-नाले के इर्द-गिर्द एक बस्ती आबाद हो गई 777थी। यह ठेकेदारी मज़दूरों की बस्ती थी। इस आबादी का नाम सफेदपाश लोगों ने आजाद-नगर नाम दिया था।

आजाद-नगर नाम के अनुसार ये बस्ती भारतीय दंड विधान की धाराओं, उपधाराओं आदि पाबंदियों से आजाद थी। इस बस्ती को समस्त वर्जनाओं से आजादी मिली हुई थी। आजाद नगर में प्रचुरता से उपलब्ध था--शराब, शबाब, कबाब, जरायम-पेशा लोग, भूख-बीमारी-बेकारी और सट्टा-जुआ के अड्डे।

सभ्य-जन इधर का रूख न करते, वे उसे पाप-नगरी कहते। रावण की लंका और नर्क का द्वार कहते।

इस नर्क के निवासी थे तमाम मेहनतकश....

ये मेहनत-कश कार्ल-माक्र्स के देसी संस्करण वाले तमाम मजदूर संगठनों की निगाह से उपेक्षित थे। उनकी खुशहाली के लिए उन मज़दूर संगठनों के पास कोई कार्यक्रम न था। उन लोगों के लिए कोई मानवाधिकार आयोग न था। कोई टाउन-प्लानिंग कमेटी न थी। कोई अस्पताल, कोई नर्सिंग होम न था। उनके लिए कोई रिक्शा-स्टेंड या बस-अड्डा न था। उनके बच्चों के लिए कोई स्कूल न था। उनके लिए किसी तरह की औपचारिक या अनौपचारिक शिक्षा की कोई व्यवस्था न थी।

उनकी आध्यात्मिक उन्नति के लिए कोई मौलवी, पंडित या पादरी न था।

उनमें ज्यादातर लोग कोयले के ढेर से पत्थर-शैल छांट कर अलग करने वाले मज़दूर थे। खदान चलाने के लिए भवन, नगर, सड़कें और विशालकाय वर्कशाप आदि निर्माण के काम में नियोजित सैकड़ों रेजा मजदूर और मिस्त्री। विद्युत, यांत्रिकीय, सिविल आदि काम के लिए कुशल-अकुशल ठेकेदारी कामगार। मेहनत-मशक्कत, नैन-मटक्का से लेकर गाने-बजाने तक में कुशल युवतियां।

आजाद नगर में कुछ छोटे-मोटे ठेकेदारों ने भी अपने आशियाने सजाए हुए थे।

पुलिस थाने के रिकार्ड में ये बस्ती तमाम अपराधों की जन्मदाता के नाम से मशहूर थी। इसलिए पुलिस यहां अक्सर दबिश करती और प्रकरण बनाया करती, लेकिन गलत काम पूरी तरह से बंद नहीं करवाती। लोग कहते कि यदि आजाद नगर सुधर गया या उजड़ गया तो फिर पुलिस विभाग की कमाई बंद हो जाएगी।

कल्लू आजाद नगर के उस हिस्से का नियमित ग्राहक था, जहां दारू और रूप का सौदा होता था।

ऐसे ही गप्प के दौरान यूनुस ने एक किशोरी के बारे में जानना चाहा, जो साइकिल पर दनदनाती फिरती है। लोग कहते हैं कि वह थानेदार और एक बड़े ठेकेदार की रखैल है।

कल्लू ने यूनुस की तरफ अविश्वास से देखा--''का गुरू, तुम भी इस चक्कर में रहते हो?''

यूनुस क्या जवाब देता-''तो का, मैं आदमी नहीं हूं क्या?''

बस, फिर क्या था।

कल्लू एक दिन यूनुस को आजाद नगर ले गया।

पहले तो यूनुस ने ना-नुकुर की। उसे डर था कि कहीं ये बात खालू या खाला तक न पहुंचे। उसकी गत बन जाएगी। यदि सनूबर उसकी ये हरकत जान गई तो जिन्दगी भर माफ न करेगी। उसे कितना प्यार करती है सनूबर।

अरे, जब सनूबर की चचेरी बहन जमीला ने यूनुस को अपने हुस्न के जाल में फंसाना चाहा था तो सनूबर ने ही उसे बचाया था।

जमीला यूनुस से चार-पांच साल बड़ी होगी। वह विवाहित थी। उस समय उसके बच्चा न हुआ था। एकदम पके आम की तरह गदराई हुई थी।

जमीला मैके आई तो खाला से मिलने चली आई। जमीला का शौहर खाड़ी देश कमाने गया था। जमीला के पास पैसे तो इफ़रात थे। इसीलिए वह दिल खोल कर खर्च करती थी। ऐसे मेहमान किसे बुरे लग सकते हैं।

जमीला की खाला से खूब पटती। वे जब भी मिलतीं, जाने क्या बातें करके खूब हंसतीं, ज्यों बचपन की बिछड़ी पक्की सहेली हों।

जमीला की नाक में पड़ी सोने की लौंग में एक नग गड़ा था। रोशनी पड़ने पर वह खूब चमकता। उसकी चमक से जमीला की आंखें दमकने लगतीं। यूनुस जब भी जमीला की तरफ देखता, उसकी नाक की लौंग की चमक के तिलस्म में उलझ कर रह जाता।

शायद इस बात से जमीला वाकिफ़ थी।

यूनुस ने महसूस किया कि जमीला उसकी तरफ कुछ अधिक झुकाव रखती है। ऐसा पहले न था। अब शायद यूनुस किशोरावस्था से जवानी की ओर तेज़ी से क़दम बढ़ा रहा था। काम-धंधा करने से उसके जिस्म में ग़ज़ब की कशिश आ गई थी।  था भी यूनुस पांच फिट सात इंच का गबरू जवान। हल्की-हल्की मूंछ और बाल संजय दत्त जैसे। यूनुस संजय दत्त का फैन था।

यूनुस नाईट-शिफ्ट खटके घर लौटा तो घड़ी में सुबह के दस बज रहे थे। रात पाली में पेलोडर चलाने के बाद यदि गाड़ी में कुछ खराबी आ जाए तो उसे वर्कशॉप लाकर खड़ा करना होता था। फिर गाड़ी में जो भी ब्रेक-डाउन हो उसे मेकेनिक को बतलाकर मरम्मत करवाना रात-पाली के आपरेटर का काम था। वहां का सुपरवाईज़र एक मद्रासी था। बहुत कानून बतियाता था।

'अइसा करने का' 'वइसा करने का' या 'बोले तो नई सुनता का?'

यूनुस मद्रासी को रत्ती-भर भाव न देता। इस कारण मद्रासी सुपरवाईज़र से उसे अवांछित लाभ भी न मिल पाता।

सो काम पूरा होने के बाद भी घर पहुंचने में उसे देर हो ही जाती।

जब वह घर पहुंचा उस समय खालू डयूटी गए हुए थे। खाला कहीं पड़ोस में गपियाने गई थीं। गोद के बच्चे छोड़कर पढ़ने वाले सभी बच्चे स्कूल जा चुके थे।

यूनुस ने दरवाजा ढकेला तो वह खुल गया।

सन्नाटा देख वह बैठकी में रखे तखत पर बैठ गया कि आहट सुनकर कोई बोलेगा। हो सकता है कि खाला गुसलखाने में हों।

लेकिन कुछ देर तक कोई खट-पट नहीं हुई तो वह उठा। रसोई से होकर आंगन की तरफ गया। आंगन में पानी की टंकी थी, जहां परिवार के मर्द या फिर बच्चे नहाते-धोते थे।

हाथ-मुंह धोने वह टंकी के पास जा पहुंचा।

अभी वहां पहुंच कहां पाया था कि उसने जो दृश्य देखा तो उसके होश उड़ गए।

जमीला टंकी के पीछे खड़े-खड़े नहा रही थी।

उसकी कमर से ऊपर का हिस्सा खुला हुआ था।

सांवला जवान जिस्म....

सांचे में ढला बदन.....

यूनुस उल्टे पांव भागना चाहा, लेकिन तभी उसकी नाक की लौंग का नग चमचमाने लगा। उसकी चमक से निकली किरनों की रस्सी से यूनुस के पांव बंध से गए थे।

आहट पाकर जमीला एकबारगी चौंकीफिर खिलखिलाकर हंस पड़ी। उसने अपने जिस्म को छुपाया नहीं बल्कि दो मग पानी और जिस्म पर डाल लिया।

यूनुस के होश उड़ गए।

उसने जाना कि जमीला की हंसी में खुला आमंत्रण था।

जमीला एक चैलेंज की तरह उससे टकराई थी।

घबराहट में यूनुस घर से निकल भागा, वह रूका नहीं।

वह तब तक न लौटा जब तक उसे विश्वास न हो गया कि अब घर में खाला और बच्चे आ गए होंगे।

दोपहर में जब वह आंगन में खटिया डाले धूप में सो रहा था, कि उसे लगा उसके ऊपर कोई सोया हुआ है। वह जमीला थी, जो मौका पाकर यूनुस को छेड़ रही थी।

जमीला की छातियां उसकी छाती से आ लगी थीं।

यूनुस की सांस अटकने लगी।

जमीला के हंठ यूनुस के चेहरे पर अपना कमाल दिखाने लगे।

जमीला उसके कान में फुसफुसा कर गा रही थी-

           ''धीरे धीरे प्यार को बढ़ाना है

             हद से गुज़र जाना है....''

क्या यूनुस को उस समय तक 'हद से गुज़र जाने' का मतलब पता चल पाया था?

ऐसा नहीं कि यूनुस कोई संत था लेकिन वह तब सनूबर की आंखों की झील में डुबकियां लगा रहा था। सनूबर के पल्टे हुए होंठ जब मुस्कुराते तो जैसे यूनुस के जेब खनखनाने लगती। यूनुस एकाएक अमीर आदमी में बदल जाता था। उसे लगता कि इस संसार में एक वही 'धनवान' है, और बाकी सब मर्द 'कंगाल' हो गए हैं।

उसे सनूबर छोड़ और कोई दूसरी लड़की कैसे प्यारी होती ?

एक दिन उसने सनूबर से जमीला की हरकतों के बारे में बताया तो सनूबर खूब हंसी। उसने यूनुस को चिढ़ाया कि वह कैसा मर्द-बच्चा है। यहां तक कि सनूबर ने जमीला के साथ मिलकर उसकी हंसी भी उड़ाई थी।

यूनुस अपने प्यार के साथ बेवफ़ाई नहीं करना चाहता था।

इस घटना के बाद उसने अपने लिए सनूबर के दिल में और ज्यादा जगह बना ली थी।

 चार

यूनुस कोई बाल-ब्रह्मचारी न था और न ही सदाचार के लिए कृत-संकल्पित युवक।

वह अपने आसपास के अन्य सैकड़ों किशोरों और युवाओं की तरह अपनी शारीरिक क्षमताओं और कमज़ारियों के प्रति आशंकित रहता था। उसके मन में सहज जिज्ञासा थी कि इंसान के जीवन का ये कैसा अध्याय है, जिसके प्रति सयाने-बुजुर्ग इतनी घृणा का प्रदर्शन करते हैं। क्या वे वाकई इन गोपन-क्रियाओं के प्रति अनासक्त होते हैं? नहीं, बल्कि इस अनूठी-प्राकृतिक क्रिया में वे आकंठ डूबे होते हैं।

यूनुस एक ऐसे निम्न-मध्यम वर्गीय मुस्लिम परिवार में पैदा हुआ था, जहां दो कमरे में पूरी गृहस्थी समाई हुई थी।

जहां माता-पिता के बीच प्रेम और घृणा प्रकट करने के लिए कोई पृथक व्यवस्था न थी।

जहां हर दो-चार साल के अंतराल में एक संतान का जन्म लेना साधारण घटना थी।

जहां बड़े-बुजुर्ग, बच्चों के सामने मुहल्ले के लोगों से खुलकर हंसी-ठिठोली करते थे।

जहां स्त्रियां आपस में गोपन रहस्यों पर इशारतन बतिया कर अवर्णनीय आनंद उठाया करतीं।

इन ठिठोलियों में देवर-भौजाई के रिश्ते से उपजी अश्लील शब्दावली आम थी।

बच्चे जान जाते थे कि जब सड़ा केला-पिलपिला पपीता कहा जाता है तो उसका भावार्थ क्या होता है ?

जब गहरा कुंआ और छोटी रस्सी की बात करके बड़े हंस रहे हैं तो उसका अर्थ क्या हो सकता है?

जब खलबट्टा से मसाला कुटाई की बात होती है तो मार कहां होती है।

परिणामत: उन परिवारों की बेटियां असमय युवा होकर नैन-मटक्का करते-करते घर से भाग जाती है या फिर बिन-ब्याही मां बन जाती है।

उन परिवारं के लड़के बुआ-मौसी, चाची-काकी, अविवाहित दीदियं या फिर घरेलू नौकरानियों के संपर्क में आकर युवा अनुभवों का पाठ पढ़ते हैं।

इसीलिए यूनुस के, बचपन से जवानी तक के अध्याय निर्दोष न थे।

बीना कोयला खदान में काम के दौरान कल्लू यूनुस का अंतरंग मित्र बन गया।

कल्लू बाल-बच्चेदार किन्तु बहुत लापरवाह किस्म का युवक था। यूनुस ने उसकी बीवी को देखा था। वह मुटा कर भैंस हो गई थी।

कल्लू की मौसी दिखती थी वो।

कल्लू के लिए तीन लड़कियां और एक लड़का जन चुकी थी वो।

अगर सारे बच्चे जिन्दा होते तो अब तक वह पांच बार मां बन चुकी थी। एक बार गर्भपात हुआ था। अब उसके जिस्म में रस न था। बच्चों को पाल ले, कल्लू को बस इतनी ही चाह थी उससे।

कल्लू इसीलिए इधर-उधर मुंह मारा करता।

कल्लू ने यूनुस को भी 'स्वाद चखने' का न्योता दिया।

वह कहा करता-''तुम अपने अल्ला के पास जाओगे, तो अल्ला पूछेगा, धरती में क्या किया? जब तुम बताओगे कि न मैंने दारू पी, न जेल गया, न रंडीबाजी की तो अल्ला बड़ी जोर से हंसेगा और तेरी गांड़ पर दो किक जमा कर इस दुनिया में दुबारा भेज देगा कि बच्चू जब कुछ किया ही नहीं फिर यहां कैसे आ गए।''

इसी तरह की बातें करके वह यूनुस को अपने पक्ष में तैयार करता।

और एक दिन यूनुस तैयार हो ही गया।

उसने कल्लू के प्रस्ताव को एक चैलेंज माना।

हालांकि उसका अंतर्मन इस बात के लिए तैयार न था।

कल्लू उसे आजाद नगर के उस हिस्से में ले गया जहां जिस्म-फरोशी होती थी।

झोंपड़ियों की कतारें। बीच में गली। ठेले पर चना, मूंगफली, नमकीन और अंडे की दुकानें। कुछ पान की गुमटियां। चाय-समोसे के लिए होटल एक झोपड़ी में।

माहौल में अजीब तरह की सड़ांध। जैसे कहीं कोई जानवर मरा हो। हवा में हल्की सी नमी व्याप्त थी। बारिश का मौसम खत्म हुआ था और शरद का आगमन हो चुका था। सायंकालीन आकाश का रंग हल्का लाल, पीली और नीला था। सारे रंग धीरे-धीरे धुंधलाते जा रहे थे। लगता था कि जल्द ही आसमान पर सुरमई रंगत छा जाएगी।

कामगार काम से छूटकर घर लौट रहे थे।

झोपड़ियों के दरवाज़े खुलने लगे थे।

मर्द घर के बाहर खाट डाल कर बैठने लगे थे। गांजा-चिलम का दौर शुरू हो रहा था। दारू पीने वाले मजदूर बन-ठन कर भट्टी की ओर जा रहे थे।

झोपड़ियों में अब चूल्हे सुलगाने का उपक्रम होने लगा। मज़दूर अमूमन काम से लौट आए थे। दर्रा नाले में नहाकर औरतें, मर्द और बच्चे लौट रहे थे।

दर्रा नाला एक बदनाम जगह का पर्याय बन चुका था।

लोग जानते थे कि यहां सुबह से शाम तक मजदूर स्त्री-पुरूषों के नहाने का कार्यक्रम निर्विध्न चला करता है।

बीना-वासी दर्रा-नाले को 'वैतरणी' का नाम देते या फिर उसे 'राम तेरी गंगा मैली' कहते। कॉलोनी के बदमाश लड़के स्कूल से भागकर दर्रा नाला के आसपास मंडराते रहते और छुप-छुप कर नहाती स्त्रियों को देखा करते।

यूनुस सहमा-सहमा आजाद-नगर के माहौल का जायज़ा ले रहा था। उसके मन में भय था कि कहीं खालू का कोई साथी उसे यहां देख न ले, वरना शामत आ जाएगी। 

वैसे भी यूनुस का खालू से छत्तीस का आंकड़ा था। खालू उसे फूटी आंख पसंद न करते।

कल्लू यूनुस का हाथ थामे एक झोंपड़ी के सामने रूका।

यह निचली छानी वाली एक मामूली सी झोपड़ी थी। बाहर परछी थी। परछी में एक खाट बिछी थी। कल्लू ने यूनुस को परछी में खाट पर बैठने का इशारा किया। फिर वह अंदर चला गया।

यूनुस खाट पर बैठा ही था कि दो नंग-धड़ंग बच्चे उसके पास चले आए-''मालिक चना खाने को पैसा दो ना!''

यूनुस ने उन्हें फटकारा।

वे टरे नहीं, ज़िद पर अड़े रहे।

तब तक कल्लू झोंपड़ी से बाहर निकला। उसने यूनुस को परेशान करते बच्चों की पीठ पर धौल जमाई। बच्चे तुरंत रफूचक्कर हो गए।

कल्लू ने यूनुस से फुसफुसाकर कहा-''पहले तुम जाओ, समझे।''

यूनुस क्या कहता, उसे तो अनुभव लेना था। उसने 'हां' में सिर हिला दिया।

उसके दिल की धड़कनें तेज़ हो चुकी थीं। उसने अपने सीने में हाथ रखा। दिल बड़ी तेज़ी से धड़क रहा था। माथे पर पसीना चुचुआने लगा था।

हिम्मत करके वह खटिया से उठा।

कल्लू उसकी जगह खाट पर बैठ गया।

यूनुस झिझकते-झिझकते झोपड़ी के दरवाज़े के पास जाकर खड़ा हुआ।

वह टीना-टप्पर ठोंक-ठांक कर बनाया गया एक काम-चलाऊ दरवाजा था। उसने कल्लू की तरफ देखा।

कल्लू ने आंख के इशारे से बताया कि दरवाजा ठेलकर वह घुस जाए।

यूनुस ने दरवाजे को धक्का दिया। दरवाजा खुल गया।

अंदर लालटेन की मध्दम रोशनी थी।

वह अंदर पहुंचा तो उसने देखा कि कोने में एक चारपाई है और जमीन पर भी बिस्तर बिछा है।

जमीन के बिस्तर पर एक अधेड़ महिला बैठी है। ठीक उसकी खाला की उम्र की महिला। उसने सिर्फ लहंगा और ब्लाउज़ पहन रखा है। वह एक छोटे से आईने को एक हाथ से पकड़े अपने होठों पर लिपिस्टिक लगा रही है।

यूनुस को देखकर उसने उसे खटिया पर बैठने का इशारा किया।

यूनुस का मन वितृष्णा से भर उठा।

उसकी रंगत सांवली थी जो लालटेन की मध्दम रोशनी में काली नज़र आ रही थी।

महिला ने उसे एक बार फिर गौर से देखा और हंसी। यूनुस ने देखा कि उसके सामने के दो दांत टूटे हैं।

लालटेन की धुंधली रोशनी में उसका हंसता चेहरा किसी चुड़ैल की तरह नज़र आया।

यूनुस को उबकाई आने लगी।

अभी तक उसने कोठा देखा था तो सिर्फ सिनेमा में। जहां वेश्याओं का रोल नामी-गिरामी हीरोइनें किया करती हैं। रेखा, माधुरी दीक्षित, तब्बू, करिश्मा कपूर, रवीना आदि हीरोइनें जब वेश्याएं बनती हैं तों कितनी खूबसूरत दिखा करती हैं। एक से बढ़कर एक हीरो इन वेश्याओं के दीवाने होते हैं। अरे, 'मंडी' पिक्चर में भी वेश्याएं कितनी खूबसूरत थीं।

आजाद-नगर में तो सारा हिसाब ही उल्टा-पुल्टा है।

महिला यूनुस के पास आकर खाट पर बैठ गई।

उसने ब्लाउज़ के बटन खोलते हुए कहा-'देरी नहीं, जल्दी करो। बोत काम है। जादा टैम नहीं लेना।''

ब्लाउज़ के बटन खुले और..... यूनुस को काटो तो खून नहीं।

वह तब तक बेहद घबरा चुका था।

अभ्यस्त महिला जान गई कि बालक नर्वस है। उसने यूनुस का हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचा।

यूनुस ने उसके हाथ की सख्ती महसूस की। वह एक खुरदुरा-पथरीला हाथ था।

यूनुस की रही-सही ताकत जवाब दे गई।

उसने महिला से हाथ छुड़ाया और उठते हुए बस इतना ही कहा-''थोड़ा बाहर से होकर आता हूं।''

और बिना देर किए कमरे से बाहर निकल आया।

कल्लू ने सवालिया निगाहों से उसे देखा और फुसफुसाया-''बड़ी जल्दी झड़ गया बे!''

यूनुस ने इशारे में बताया-''हां!''

फिर जब कल्लू सीना फुलाकर कमरे के अंदर घुसा तो यूनुस तत्काल उस आजाद-नगरी से नौ-दो ग्यारह हो गया।

उसके बाद उसने कल्लू की दोस्ती भी छोड़ दी थी।

 पांच

चाय कब खत्म हुई, वह जान न पाया।

एक रूपए की एक कप चाय वह पी चुका था और उसे उस चाय की तासीर का इल्म भी न हुआ।

यूनुस को सनूबर 'चहेड़ी' कहती।

खालू चाय के दुश्मन हैं। चाय को खालू ज़हर कहा करते। खाला चाय की बेहद शौकीन थीं। खाला के घर के अजीब हालात थे। खालू जिस चीज़ के खिलाफ़ होते, खाला उस काम को धड़ल्ले से करतीं। खालू बड़बड़ाते तो खाला तिरस्कार से हंसतीं।

यूनुस का मन उस एक कप चाय से न भरा।

उसने होटल वाली से एक और कप चाय के लिए कहा।

केतली में चाय बची थी।

महिला उसे कप में ढालने लगी तो यूनुस ने उसे टोका-''ठंडा गई होगी। तनि गरमा लेई।''

केतली की चाय को महिला ने भट्टी पर गरमाया।

फिर उसके लिए चाय कप में न ढाल कर कांच के गिलास में ढाली।

यूनुस ने देखा कि चाय की मात्रा एक कप से ज्यादा है।

गिलास देते वक्त यूनुस ने महसूस किया कि महिला ने अपनी अंगुलियों का स्पर्श होने दिया है। वह मुस्कुराया।

इस बार की चाय ने उसे तृप्त किया।

उसने सोचा अब सिंगरौली स्टेशन की ठंड उसका बाल बांका नहीं कर सकती।

चाय के पैसे देने लगा तो छुट्टा वापस करते हुए पूछा-''कहां तक जाना है?''

यूनुस क्या बताता। हर बार तो वह ऐसे ही निकल पड़ता है, मंज़िल के बारे में जाने बिना। इस बार भी वह एक अंधी छलांग लगा रहा है। हां, ये ज़रूर है कि इस बार, ये छलांग वह बिना बैसाखी के लगाएगा। वह अपने पैरों से खुद ही दौड़ लगाएगा, जिस तरह लम्बी कूद से पहले धावक दौड़ता है। अब उसके दिमाग में किसी भी प्रकार की दुविधा नहीं है। वह इत्मीनान से उस निशान को देखेगा जिस पर पैर छुआकर कूदना पड़ता है। फिर एक लम्बा सांस भरकर वह पूरे आत्मविश्वास के साथ छलांग लगाएगा। अब ये उछाल कितनी लम्बी होगी ये तो वक्त ही बताएगा। उसे डर था कि कहीं ज़िन्दगी के मैदान में, वक्त क़ा बूढ़ा रेफ़री उसकी छलांग को 'फाऊल' न करार दे दे।

छुट्टा जेब के अंदर डालते हुए उसने महिला के प्रश्न का सहज उत्तर दिया-''कटनी!''

सच भी है।

पहले तो उसे कटनी ही जाना है।

उसके बाद ही आगे की गाड़ी पकड़नी होगी।

वह वापस स्टेशन लौट आया।

प्लेटफार्म पर रनिंग-स्टाफ रूम के बाहर जलाई गई आग के पास ही उसने खड़ा होना उचित समझा।

स्टाफ अब बतिया नहीं रहे थे। लगता है गप्पें मारते-मारते वे थक गए होंगे। अब वे ऊंघ रहे थे। उनके नीले ओवरकोट फर्श पर लिथड़ा रहे थे। उन्हें नींद सता रही थी।

यूनुस एक पेटी पर बैठ गया, जिसके साईड में लिखा था-''ए बी दास, गार्ड'

आंच में अब जान नहीं थी।

नया कोयला डालने पर ही कुछ ताप बढ़ता।

यूनुस ने स्वेटर के ऊपर विन्ड-शीटर पहन रखा था।

घर से निकला तब रात के नौ बजे थे। वातावरण काफी ठंडा हो गया था।

उसे हाथ और कानों में अधिक ठंड लगती थी।

बीना से औड़ी-मोड़ तक तो वह बस से आ गया। फिर औड़ी-मोड़ में उसे अगले साधन के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ी। सिंगरौली के लिए बनारस से बस आती है।

औड़ी-मोड़ इस इलाके की सबसे ठंडी जगह है।

उसे बस का बेसब्री से इंतजार था। वह चाहता था कि जल्दी से जल्दी खालू की पहुंच से दूर निकल जाए। कहीं उनका कोई साथी उसे यहां सफर करते रंगे-हाथ पकड़ न ले।

इसीलिए वह आर टी ओ चेक-पोस्ट के पास जाकर खड़ा हो गया। यहां बस रूकती है।

बस आई तो उसे कुछ राहत मिली।

यह उत्तर-प्रदेश राज्य परिवहन निगम की बस थी।

लगता है राबर्टसगंज डीपो की बस थी। तभी तो एकदम खड़खड़ा रही थी।

बस अंदर ठंड से बचने का सवाल न था। खिड़कियों के शीशे गायब थे। जिन खिड़कियों में शीशे थे भी तो वे ढंग से बंद न होते। पूरे बस में ठंडी हवा के तीर चल रहे थे।

यूनुस के हाथ और कान ठंडाने लगे और उसे सनूबर की याद हो आई।

उसने तत्काल अपने विंड-शीटर के जेब की तलाशी ली।

वाकई, सनूबर के दिल में उसके लिए एक कोना सुरक्षित है। वह अपना कर्तव्य भूली न थी। विंड-शीटर के एक जेब में सनूबर के हाथों से बुना दस्ताना था, और दूसरे में मफ़लर।

उसने दास्ताने पहने और जब मफलर से कान लपेटे तो लगा कि सनूबर अदृश्य रूप में उसकी हमसफ़र है।

यूनुस भाग रहा था।

वह भाग रहा था, बहुत कुछ पाने के लिए और खो रहा था सनूबर को।

क्या ये सच नहीं है कि सनूबर की वजह से वह जिन्दा है। उसने ही यूनुस के दिल में ज़िन्दगी के चैलेंज को स्वीकार करने की इच्छा जगाई है।

सनूबर ने ही उसकी अंतरात्मा को ललकारा था कि यूनुस जागो! दुनिया में कुछ कर दिखाना है तो समाज में पहले अपनी 'कुछ हटके' पहचान बनाओ!

वरना एक समय तो वह इतना हताश हो गया था कि उसे जीवन से मोह नहीं रह गया था। उसे ऐसा लगता था कि इतनी कम उम्र में इतने अपमान, इतने दुख उठाने से अच्छा है कि वह आत्महत्या कर ले।

वह दोस्तों के बीच और कभी-कभी खाला के सामने अक्सर कहता भी था कि जी करता है मर जाऊं तो मुक्ति मिले।

मुक्ति...

लेकिन किससे ?

जीवन से या कि दिन-प्रतिदिन के उलाहनों-तानों से ?

लेकिन जीवन उसे सनूबर के रूप में अपने पास बुलाता-''तुम मेरे हो। तुम्हें मेरी खातिर जीवित रहना है।''

जाने कैसे सनूबर इतनी संजीदा बातें बोलना सीख गई है।

स्कूल जाती है न!

सहेलियों के बीच उठती-बैठती है।

घर में 'ब्लेक एण्ड व्हाइट' टीवी है। उसका चैनल बदल-बदल कर हिन्दी फिल्मों और धारावाहिकों से यही सब तो सीखते हैं कॉलोनी के बच्चे।

एक और डायलाग जो यूनुस को अच्छा लगता-''मैं तुम्हारा इंतेज़ार करूंगी! तुम्हें मेरी खातिर आना होगा यूनुस...''

वो मुहम्मद रफ़ी का गाया एक गाना है ना-

''हम इंतेज़ार करेंगें तिरा क़यामत तक

 खुदा करे कि क़यामत हो और तू आए।''

सनूबर की आंखें बड़ी-बड़ी हैं।

जब वह भावनाओं कि बहाव में डूब-उतरा रही हों तब आंखें अधखुली रहतीं।

खोई-खोई सी, शून्य में ताकती आंखें।

सनूबर अभी कक्षा आठ की छात्रा ही तो है। 

चौदह साल की उम्र में इतनी बड़ी बात...

'मेरी खातिर' और 'मैं तुम्हारा इंतेज़ार करूंगी!'

प्रेमातिरेक में डूबी भावुक बातें!

सनूबर कई बातों में अपने खानदान से कुछ हट के नज़र आती।

गोरी-चिट्टी सनूबर वाकई अपने भाई-बहनों के बीच अलग दीखती। उसके नैन-नक्श अपनी मां पर हैं। गोलाकार चेहरा, संतुलित बनावट, माथा कम चौड़ा और लम्बे बाल।

खालू की परछाईं भी नहीं पड़ी ज़रा सी।

यदि वह खालू या उनके खानदान के किसी का साया पड़ा होता तो उसकी बड़ी-बड़ी आंखों की जगह अंदर की ओर धंसी हुई गोल कटोरियां होतीं।

पतले होंठों की जगह खालू की तरह मोटे और ऊपर की तरफ़ पल्टे हुए बेढंगे से होंठ होते।

सनूबर खाला-खालू की पहली संतान थी।

खालू भारतीय सेना की नौकरी पर थे तब सनूबर का जन्म हुआ था।

सैनिकों के बीच वयस्क मज़ाक हुआ करते। यदि सैनिक यूपी-बिहार का है और उसके बाप बनने की ख़बर आती तो हल्ला होता कि फलां ने अपना लंगोट गांव भेज दिया था, सो बच्चा हो गया है।

यदि वह इन दोनों प्रांत छोड़ किसी अन्य प्रांत का है तब कहा जाता कि सैनिक को 'पत्र-पुत्र' की प्राप्ति हुई है।

यानी घर से पत्र द्वारा सूचना आना कि फलां सैनिक बाप बन गया है।

खालू तब राजस्थान बार्डर पर थे, जब उन्हें पत्र द्वारा सूचना मिली कि वे पहली संतान के पिता बन गए हैं।

लेकिन ये बात खालू बखूबी जानते थे कि सनूबर के रूप में 'पत्र-पुत्री' ही तो मिली है।

यूनुस को इन सबसे क्या? वह जानता था कि सनूबर एक अच्छी लड़की है। देखने-सुनने में ठीक है। पढ़-लिख रही है। घर का काम-काज ठीक-ठाक निपटा लेती है। कुरआन पाक की तिलावत कर लेती है। रमज़ान माह में उन ख़ास दिनों के अलावा बाकी के रोज़े पूरे रखती है। नमाज़ यदा-कदा पढ़ लेती है।

रिश्ते में सनूबर और यूनुस भाई-बहिन थे।

ख़ालाज़ाद भाई-बहिन!

यूनुस ये भी जानता था कि इस्लामी-समाज में ये रिश्ता प्रेम या शादी के लिए बाधक नहीं!

छ:

यूनुस ने अपनी अम्मा के मुंह से खाला के बारे में कई बातें सुनी हैं।

खाला तब तेरह बरस की थीं, जब उनका ब्याह हुआ था।

यूनुस की अम्मा खाला से दो-तीन साल बड़ी थीं।

यूनुस का ननिहाल बेहद ग़रीबी में अपने दिन काटा करता था। असुविधाओं और घोर अभावों के बीच खाला और अम्मा पली-बढ़ीं।

उनके पिता मूलत: चरवाहा थे।

अपने गांव और आस-पास के एक-दो गांव-वालों की बकरियां चराते थे।

यूनुस के नाना का नाम था जहूर मियां।

पतली-दुबली काया, हाथ-पैर किसी पेड़ की टहनी जैसे टेढ़े-मेढ़े, पिचके गालों पर झुर्रियां, ठुड्डी पर थोड़े से काले-सफेद बाल, मूंछें सफाचट, और गंजे सिर पर लपेटा गया गमछा। वह गमछा हमेशा उनके साथ रहता। बदन पर वह एक लट्ठे के कपड़े की बंडी और नीचे चौखाने वाला तहमद पहनते। जहूर मियां के कपड़े सप्ताह में दो बार धुलते।

खाला का नाम सकीना था।

यूनुस की अम्मा का नाम अमीना।

अम्मा बताती हैं कि खाला बचपन से ही बड़ी झगड़ालू थीं। वह गांव के लड़कों को पीट दिया करती थीं। लड़के उनसे सीधा-सीधा लड़ने से घबराते। बोलते ये सकीना मुसल्ली बड़ी बदमाश है। उससे निपटना हो तो उस पर चोरी से वार करो। लड़के मंसूबे बनाते रह जाते और अक्सर पिट जाते।

ऐसी दुष्ट लड़की थीं खाला।

सलवार-कुर्ता साल में एक बार बनता, ईद के मौके पर। एक जोड़ी कपड़ा पिछले साल का और एक नए साल का। बस यही दो जोड़ी कपड़े हुआ करते थे। हां, दो बहनों के नए-पुराने कपड़ों को अगर एक कर दिया जाए तो इस तरह चार जोड़ी कपड़े हो जाते थे। नहाने-धोने के लिए पिता का तहमद बदन लपेटने के काम आ जाता।

गांव में तीन कुंए थे। एक तो बामनों का था। एक कुर्मियों का और  तीसरे कुंए का पानी मुसलमान और छोटी जाति के लोग इस्तेमाल करते। फिर प्राथमिक विद्यालय के प्रांगण में एक हेंड-पम्प भी लग गया था।

पीने का पानी कुंए से आता और नहाने-धोने के लिए वे गांव के बाहर से बहने वाली पहाड़ी नदी जाया करते थे। जहां आराम से खाला और अम्मा अपनी सहेलियों के संग नहाया करतीं।

यूनुस की नानी बीमार रहा करतीं। उन्हें खून की उल्टियां होतीं। गांव मे टीबी जैसी बीमारी का नाम लोग मुंह में न लाते। भूत-जिन्न-चुड़ैल के प्रकोप ही सारी बीमारियों के कारण हुआ करते। सयाने हर विपत्ति का हल गंडे-तावीज़, तंत्र-मंत्र और रिध्दि-सिध्दि के ज़रिए करते। गांव में जगह-जगह देवताओं के चौतरे बने थे।

पिता जहूर मियां जड़ी-बूटियों के स्वयंभू विशेषज्ञ थे। जंगल में बकरियां चराते-चराते उन्हें न जाने कितनी जड़ी-बूटियों की जानकारी हो गई थी। वह सांप-बिच्छी काटने का मंत्र भी जानते थे। अपनी पत्नी के इलाज के लिए वह अजीबो-गरीब जड़ियां घर लाते। उन्हें स्वयं कूटते-छानते। उनका अर्क निकालते और पत्नी का इलाज करते।

जुमा की नमाज़ पढ़ने कस्बे जाते तो बड़े हाफिज्जी से मिन्नतें करके पत्नी के लिए तावीज़ ले आते। इन सब टोने-टोटकों के कारण या फिर आयु-रेखा के कारण मां की तबीयत कभी नरम होती कभी गरम। वह असमय मर गईं।

कहने को तो मां ने पांच बच्चे जने, लेकिन बचे सिर्फ तीन ही।

यूनुस की अम्मा बतातीं-''अम्मा जादे दिन नहीं जिंदा रहीं। नहीं तो हम लोग ऐसे यतीम न होते।''

यूनुस के एकमात्र मामा गंजेड़ी-शराबी निकल गए।

अपने आंगन में गांजा के पौधे रोपने के अपराध में जेल भी काट आए हैं। उन्होंने विधिवत शादी-ब्याह किया नहीं। गांव की एक केवटिन को संग रखे हैं, सो उनसे बहनों ने रिश्ता तोड़ लिया है। जात-बिरादरी से उन्हें 'बैकाट' कर दिया गया है। कहते हैं केवटिन के पहले मर्द से हुए बच्चों को वही पालते हैं। उनके घर में मुसलमानों का कोई परब-त्योहार नहीं मनाया जाता। हां, दीवाली, होली, खुजलईयां, रामनवमी आदि परब मनाए जाते हैं।

यूनुस के नाना जहूर मियां के मरने के बाद यूनुस की अम्मा और खाला एक बार उनके चहल्लुम के अवसर पर गांव गई थीं।

तब मामा और उस केवटिन मामी ने उनकी खिदमत तो दूर यूनुस के अब्बा और खालू की भी कोई आव-भगत न की। खालू वैसे भी क्रोधी स्वभाव के व्यक्ति ठहरे। मिलिटरी के सैनिक। इतना गुस्साए कि खाला को तलाक देने की धमकी तक दे डाली। वो तो अब्बा के एक दोस्त बगल के गांव में रहते थे। वह मिल गए और खालू को अब्बा वहीं ले गए। तब जाकर कहीं उनका गुस्सा ठंडाया था। फिर भी उन्होंने जीते जी उस गली में दुबारा क़दम न रखने की क़सम खा ही ली थी। किसी तरह चहल्लुम की फातिहा कराकर वे लोग जो वहां से लौटे तो फिर दुबारा उधर का रूख न किया।

मामा मरे चाहे चूल्हे में जाए।

यूनुस की अम्मा की शादी कोतमा में हुई। यूनुस के अब्बा तब घूम-घूम कर अखबार बेचा करते थे। जहूर मियां को बड़े हाफिज्जी ने इस रिश्ते की जानकारी दी थी। बताया था कि लड़का यतीम ज़रूर है किन्तु पढ़ा-लिखा है। उसमें कोई ऐब नहीं। न कहो कभी बीड़ी पी लेता है। हां, खुद्दार है। स्वयं कमाता है। वहीं मदरसे में पला-बढ़ा है।

फिर बड़े हाफिज्जी ने मश्विरा दिया-''तुम कहो तो वहां के इमाम से इस मंसूब के लिए बात करूं। अल्लाह चाहेगा तो बात बन भी सकती है।''

नाना ने हामी भर दी।

और इस तरह बात पक्की हुई और फिर उनका निकाह भी हो गया।

शादी के बाद पुरूष की किस्मत बदलती है।

यह बात अब्बा पर भी चरितार्थ हुई।

उन्हें सिंचाई विभाग में अस्थाई चपरासी की नौकरी मिली।

उनमें पढ़ने की लगन तो थी ही।

प्राईवेट तौर पर हाई-स्कूल की परीक्षा में बैठे।

उस साल परीक्षा केंद्र में जम कर नकल हुई।

अब्बा पास हो गए और इस पढ़ाई के बदौलत वहीं तरक्की पाकर बाबू बन गए।

'डिस्पेच-क्लर्क'

ठेकेदार के मुंशी वगैरा आते और चिट्ठी-पत्री पाने के लिए खर्चा करते।

इससे थोड़ी बहुत ऊपरी आमदनी भी हो जाती थी।

राज्य-सरकार की नौकरी में वैसे भी तनख्वाह काफी कम थी।

कहते हैं कि अम्मा की शादी के बाद खाला भी पिता जहूर मियां को अकेला छोड़कर कोतमा अपनी बड़ी बहिन के ससुराल आ गईं।

शायद इसीलिए अब्बा मूड में रहते हैं तो कहते हैं कि एक ठो साली के अलावा मुझे दहेज में कहां कुछ मिला। ठग लिया ससुरे ने।

यूनुस ने अपनी अम्मा के मुंह से सुना कि खाला रोया करतीं और अल्लाह से दुआ मांगती कि अल्लाह मियां, या तो हमें अपने पास बुला लो या फिर हमरा निकाह करवा दो।

अब्बा और अम्मा के प्रयासों से पास के गांव की विधवा के इकलौते बेटे से खाला का निकाह हुआ।

खालू फौज में नौकरी करते थे।

खालू की अंधी-बूढ़ी विधवा मां कतई नहीं चाहती थी कि उनका लख्ते-जिगर, नूरे-नज़र, कुलदीपक पुत्र फौज में भरती होकर जान जोखिम में डाले।

इसीलिए खालू ने अपनी मां से चोरी-छिपे भरती-अभियान में भाग लिया।

कद-काठी तो ठीक थी ही।

गांव का खेला-खाया जिस्म।

उनका चयन कर लिया गया था।

वे जानते थे कि मां राज़ी न होंगी, सो उनसे बिना बताए नौकरी ज्वाइन कर ली।

जब ट्रनिंग के लिए बुलावा आया तो मां को पता चला।

बेटे की ज़िद के आगे मां झुकी।

बूढ़ी विधवा ने बेटे को घर से बांधने के लिए युक्ति सोची। लगी अपने चांद से बेटे के लिए कोई हूर-परी सी बहू।

इधर-उधर बात चलाई।

फिर जहूर मियां के बेटी के बारे यूनुस के अब्बा से जानकारी मिली तो जैसे उनकी मन की मुराद पूरी हुई।

सोचा गरीब घर की लड़की है। दिखावा न करेगी और बेटे की गृहस्थी की गाड़ी को ढंग से खींच ले जाएगी।

सो उन्होंने हामी भर दी।

खाला की उम्र तब तेरह-चौदह की होगी और खालू की चौबीस-पच्चीस।

वैसे क़ायदे से देखा जाए तो जोड़ी बेमेल थी।

लेकिन गांव-गिरांव की लड़कियां अल्पायु में ही वैवाहिक जीवन की बारीकियां जान-समझ जाती हैं।

अरहर के खेत, नदी-नाले के घाट, पनघट-पगडंडी आदि में वे यौन-विज्ञान के गूढ़ सबक सीखने लगती हैं।

बकरियां चराते-चराते खाला भी कुछ ज्यादा उच्छृंखल हो चुकी थीं।

कहते हैं कि उनके कई आशिक थे।

वह बहुत होशियार थीं।

लाईन सभी को देती थीं, किन्तु एक सीमा तक......बस्स!

हां, ममदू पहलवान की मुहब्बत के आगे उनकी एक न चलती, खाला इस तरह पिघलतीं, जैसे आग के आगे बर्फ।

विवाह के बाद खालू कुछ दिन गांव में रहे।

खाला के तब दिन दशहरा और रात दीवाली हुआ करती थी।

फिर जैसे ही छुट्टियां खत्म हुईं, खाला की आंखों में आंसू देकर खालू फौज में वापस लौट गए। उन्होंने सुहागरात में खाला से कई वादे करवाए।

जैसे कि अपनी विधवा मां की देखभाल के लिए खालू ने विवाह किया है, इसलिए मां की देखभाल में कोई चूक न हो।

जैसे कि वे घर में इकलौते हैं, गांव में तमाम खेती योग्य भूमि है, उसे इस्तेमाल लायक बनाया जाए ताकि फौज से रिटायरमेंट लेकर जब वह लौटें, तब आराम से खेती-किसानी करके दिन गुजारे जाएंगे।

जैसे खालू को अपनी और घर की इज्ज़त से प्यार है, खाला से ऐसा कोई क़दम न उठे, जिससे इस घर की मर्यादा पर बट्टा लगे।

खाला प्रेम के पींगे झूलती हर बात पर 'हां' कह देतीं।

उन्हें क्या मालूम था कि वादा करना आसान है और उसे निभाना कितना कठिन होता है।

खालू के फौज में वापस लौटते ही उनका मन ससुराल में न लगा।

मन लगता भी कैसे?

बूढ़ी अंधी सास बड़ा हुज्जत करती।

बात-बात पर टोकती।

वैसे भी खाला एक आजाद पंछी की तरह अपने मैके में पली-बढ़ी थीं। उन्हें किसी का अंकुश या लगाम कहां बर्दाश्त होता।

सास की कल-कल से तंग आकर एक दिन वे अपने मैके चली गईं।

खालू की अनुपस्थिति में उनके अधिकतर दिन मैके में ही गुज़रे। विवाह हो जाने के बाद ममदू पहलवान से उनका इश्क अब बेधड़क चल निकला। उनके प्रेम की गाड़ी पटरी या बिना पटरी के भी धकाधक दौड़ने लगी।

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