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पहचानसातखालू जब तक बाहर रहते, खाला ज्यादातर अपने मैके में रहती थीं। खालू के गांव में पीने का पानी की तकलीफ़ थी। निस्तार के लिए तो गांव के बाहर तालाब मे लोग पहुंचते थे। गांव के बड़े गृहस्थ पटेल के घर एक कुंआ था। उसमे साल भर पानी रहता। खालू की फौज की कमाई से खालू की वृध्दा मां ने एक कुंआ खुदवाया था, जिसमें जेठ महीना छोड़ साल भर पानी रहता था। बुढ़िया ने सोचा था कि बहू आएगी तो उसे आराम रहेगा। लेकिन बहू को कहां थी सास की चिंता। वह तो सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए जिंदा थी। खालू छुट्टियों पर आते तो एक-दो दिन गांव में रहते, फिर उनका मन उचट जाता। फौज में परिवार की कमी तो खलती है, वरना फौज जैसा सुख और कहां? खालू किसी न किसी बहाने बूढ़ी मां को मना कर अपने ससुराल चले जाते। वहां जाकर खाला के मोहपाश में ऐसा बंधते कि फिर उन्हें दीन-दुनिया का होश न रहता। वे ये भी भूल जाते कि उन्हें फौज में वापस भी जाना है। खाला के रेशमी रूप का जादू और समर्पण की पेशेवराना अदा का मर्म खालू कहां समझ सकते थे। अकाल-ग्रस्त आदमी भूख की शिद्दत मे कहां तय कर पाता है कि दिया गया खाना जूठा है या बासी। वह तो ताबड़-तोड़ पेट की आग बुझाने में जुट जाता है। खालू की बूढ़ी मां इसी ग़म में असमय मर गईं कि उस रंडी, छिनाल बहुरिया ने उसके बेटे पर जाने कैसा जादू कर दिया है। उसके इकलौते बेटे पर उस जादूगरनी ने ऐसा टोना किया कि वह अपनी बूढ़ी मां को एकदम भूल गया। सनूबर का जन्म उसके ननिहाल में हुआ। कई दिन बाद बूढ़ी सास को सूचना मिली कि वह दादी बन गई हैं। उनकी बहू ने एक लड़की पैदा की है। ये खबर पाकर बुढ़िया ने अपना माथा पीट लिया था। फिर भी लोक-मर्यादा का लिहाज कर रिश्ते के एक भतीजे को साथ लेकर वह बहू के मैके गईं। खाला छठी नहा चुकी थीं। वे आंगन में खाट पर बैठी सनूबर के बदन की मालिश कर रही थीं। बुढ़िया सास को देख उनका माथा ठनका। फिर भी उन्होंने सलाम किया और दोनों को पैरा से बने मोढ़े पर बिठाया। घर में उनके भाई न थे। केवटिन भाभी भर थी। खाला ने उन्हें आवाज़ लगाई। खालू की बुढ़िया मां ने उन्हें किसी को बुलाने से मना कर दिया। वैसे भी उस घर में वे खाना-पानी नहीं पी सकती थीं, क्योंकि खाला के भाई ने एक कुजात को अपनी ब्याहता बनाकर रखा है। ऐसे घर का दाना-पानी हराम जो होता है। बस उन्होंने इतना ही कहा कि एक बार नवजात बच्ची को प्यार करेंगी और फिर चली जाएंगी। हां, यदि यहां कोई तकलीफ हो तो बहू भी चाहे तो साथ चल सकती है। सनूबर अपनी दादी की गोद में आकर खेलने लगी। दादी ने अपने भतीजे से पूछा-''किस पर गई है बच्ची?'' भतीजा कैसे निर्णय लेता कि बच्ची किस पर गई है। उसे तो बच्ची सिर्फ रूई का गोला लग रही थी। हां, फिर भी उसने उस बच्ची के चेहरे की कुछ विशेषता बुढ़िया को बताने लगा। तभी घर में ममदू पहलवान आ गया। भतीजे ने जो ममदू पहलवान को देखा तो उसे ऐसा लगा कि जैसे बच्ची के चेहरे की बनावट कहीं उस पहलवान से तो नहीं मिलती है? भतीजा अभी नादान था। उसने ऐसे ही कह दिया कि इन चच्चा जैसी तो दिखती है ये लड़की। खाला के चेहरे का रंग उड़ गया। ममदू पहलवान के तो जैसे पैरों तले ज़मीन निकल गई। भतीजे को क्या पता था कि उसने क्या कह दिया? बस, फिर क्या था। बुढ़िया सास ने अपने अंधेपन को कोसा और भतीजे से कहा कि तत्काल वापस चले। उन्होंने वहीं अपनी बहू को खूब खरी-खोटी सुनाई। बेटे को सारी बात बताने का संकल्प लिया। वह इतना नाराज़ न होतीं यदि उनकी छिनाल बहू ने पोता जना होता या उस नवजात शिशु के नैन-नक्श ददिहाल या ननिहाल किसी पर होते। बुढ़िया मां हमेशा ताने दिया करतीं कि उसके बेटे के साथ उस चुड़ैल बहू ने छल किया है। वह बदचलन है। वह बेवा बिचारी क्या करें, उस चुड़ैल ने तो उनके बेटे पर जादू किया हुआ है। उसके गबरू जवान बेटे को नज़रबंद करके रखा हुआ है। लेकिन ये भी सच है कि खालू को इतनी संतानों का पिता कहलाने का गौरव खाला ही ने तो उपलब्ध कराया है। इसी बात पर वह अपनी सास को प्रताड़ित किया करतीे-''अगर तुम्हारे बिटवा जैसे मउगे-फउजी के भरोसे रहती तो इस खानदान में ईंटा-पथरा भी न हुआ होता। फिर देखते कैसे चलता तेरा वंश!'' फौज का खाया-पिया जिस्म खाला के आगे बौना हो जाता। नतीजतन खालू जिस बच्चे को सामने पाते, पीट डालते। यूनुस सब जानता समझता था। वह ये भी जानता था कि दुधारू गाय की लात भी प्यारी होती है। खाला जो खालू की चोरी और कभी सीनाजोरी में अपने गरीब खानदान वालों की माली मदद करती हैं, उसके आगे लोग उनके गुनाह नज़रअंदाज़ कर देते हैं। इसी तरह खाला सभी की कोई न कोई मजबूरी जानती। उनसे जुड़े तमाम लोग उनके एहसानों के बोझ तले दबे हुए हैं। खालू को खाला एक पालतू जानवर बना कर रखतीं। खालू जब कभी गुस्साते तो बच्चों को मारते-पीटते। खाने की थाली पटकते। तमतमाए खालू घर से निकल जाते। लेकिन उनका गुस्सा ज्यादा देर तक टिकता नहीं। जल्द ही वह खाला की लल्लो-चप्पो करने लगते। आठ ऐसी बात नहीं है कि खालू की बूढ़ी मां कलकलहिन थी या कि खाला पर कोई झूठा इल्ज़ाम लगाया गया था। यूनुस को भी खाला की ग़ैर-ज़रूरी चंचलता पसंद न आती। उसे लगता कि एक उम्र के बाद इंसान को गम्भीर हो जाना चाहिए। खाला जब गैर मर्दों से ठिठोलियां करतीं तो यूनुस का दिमाग खराब हो जाता। यूनुस अक्सर खाला की दिनचर्या के बारे में सोचा करता। खाला ज़माने से बेपरवाह सिर्फ अपनी ही धुन में लगी रहतीं। लगता उन्हें किसी प्रकार की कोई चिन्ता ही न हो। सिर्फ अपने लिए जीना... सुबह उठते ही सबसे पहले खाला आईने के सामने आ खड़ी होतीं। होंठ पर बह आए लार और आंख की कीचड़ गमछे के कोर साफ करतीं। अपने बिखरे बालों को संवारतीं। चेहरे को कई कोणों से देखतीं। फिर आंगन में जाकर टंकी के पानी से कुल्ला करतीं और चेहरे पर पानी के छींटें मारकर तौलिए से रगड़कर चेहरा साफ करतीं। उसके बाद टूथ-ब्रश में ढेर सारा पेस्ट लगाकर बाहर आंगन में आ जातीं। टूथ-पेस्ट खालू मिलेटरी कैंटीन से लाया करते थे। बाहर फाटक के पास खड़े होकर अड़ोस-पड़ोस की झाड़ू बुहारती औरतों से गप्प का पहला दौर चलातीं। जिसमें बीती रात के मनगढ़ंत अनुभवों पर दांत निपोरा जाता। टूथ-पेस्ट से उत्पन्न झाग क्यारी में थूकते हुए खाला तेज़ आवाज़ में हंसतीं। खाला का सीना और कूल्हे भारी हैं। बिना अंतर्वस्त्रों के मैक्सी के लबादे में उनके जिस्म के उभार-उतार स्पष्ट दीखते। खाला का मैक्सी पहनना यूनुस को फूटी आंख न भाता। वैसे भी उनका जिस्म किसी ढोल के आकार का था। ऐसे जिस्म पर सलवार-कुर्ता या फिर साड़ी ठीक रहती। मैक्सी वैसे तो तन ढांपने का विकल्प होता है। ठीक है कि उसे रात में सोते समय पहना जाए या फिर घर के काम-काज करते हुए जिस्म पर डाल ले इंसान। किसी पराए मर्द के सामने या फिर घर से बाहर निकलने की दशा में इंसान को शालीन पोशाक पहनना चाहिए। या फिर मैक्सी ज़रूरी ही हो तो किसी के सामने आने से पूर्व दुपट्टा डाल लेना चाहिए। सनूबर को भी अपनी मम्मी का ये पहनावा पसंद न आता। वह अक्सर उन्हें टोका करती कि मम्मी मैक्सी पहन कर बाहर न निकला करो। मैक्सी तो बेडरूम-डे्रस होती है। लेकिन खाला किसी की सही सलाह मान लें तो फिर खाला किस बात की! मुंह धोने के बाद खाला किचन की तरफ जातीं, जहां सनूबर के संग नाश्ता बनाने लगतीं। नाश्ता-वास्ता के बाद सनूबर बर्तन धोने भिड़ जाती और खाला टंकी के पास टब भर कपड़े लेकर बैठ जातीं। कपड़े धोने के बाद वे वहीं नहाने लगतीं। खाला बाथरूम में कभी नहीं नहाया करतीं थी। नहा-धोकर खाला बेड-रूम आ जातीं। फिर श्रृंगार-मेज़ और आलमारी के दरमियान उनका एक घण्टा गुज़र जाता। इस बीच सनूबर बर्तन धोकर नहा लेती और स्कूल जाने की तैयारी करने लगती। तभी खाला की आवाज़ गूंजती-''अरे हरामी, हीटर में दाल चढ़ाई है या अइसे ही स्कूल भाग जाएगी?'' सनूबर स्कूल ड्रेस पहने बड़बड़ाती हुई किचन में घुसती और कूकर में दाल पकने के लिए चढ़ा देती। कूकर पुराना हो चुका है, उसका प्रेशर ठीक से बनता नहीं, इसलिए उसमें दाल पकने मे समय लगता है। सभी बच्चे स्कूल चले जाते और खाला बन-ठन कर बाहर निकल आतीं। तब तक एक-दो पड़ोसिनें भी खाली हो जातीं। फिर उनमें गप्पें होतीं तो समय जैसे ठहर जाता। एक-दो बच्चे हॉफ-टाईम पर घर आते तो भी खाला टस से मस न होतीं। बच्चे स्वयं खाने का सामान खोजकर खाते। दुपहर के एक बजे के आस-पास औरतों की सभा विसर्जित होती। घर आकर खाला भात के लिए अदहन चढ़ातीं और जल्दी-जल्दी चावल चुनने बैठ जातीं। चावल पसाकर फुर्सत पातीं, तब तक चिट्टे-पोट्टे स्कूल से लौटने लगते। दुपहर के खाने में सब्जी कभी बनी तो ठीक वरना अचार के साथ दाल-भात खाना पड़ता। देहाती टमाटर के दिनों में सनूबर जब स्कूल से लौटती तो खालू के लिए टमाटर की चटनी सिल में पीसती थी। दुपहर खाना खाकर खाला टीवी देखते-देखते सो जातीं। शाम को नींद खुलती तो फिर वही आईने के सामने वाला दृश्य दुहरातीं। फिर फ्रेश होकर साड़ी-ब्लाउज़ पहनतीं। साड़ी पहनने का उनका सलीका किसी अफसराईन की तरह का होता। चेहरे को पाउडर-लिपिस्टिक-काजल से सजातीं। तब तक उन्हीं की तरह उनकी कोई सहेली आ जाती और उसके साथ बाजार निकल जातीं। सब्जियां या अन्य सामान वह स्वयं खरीदा करतीं थीं। खालू तो गेहूं पिसवाने और चावल-दाल लाने जैसे भारी काम करते। सात-आठ बजे तक खाला लौटतीं। फिर सनूबर के साथ बैठकर रात के खाने की तैयारी में लग जातीं। इस बीच कोई मिलने वाला या वाली आ जाए तो फिर पूछना ही क्या? बच्चे पढ़ें या फिर उधम-बाजी करें, खाला पर कोई असर न पड़ता। उन्हें तो हामी भरने वाला मिल जाए तो आन-तान की हांकती रहेंगी। सनूबर इसीलिए बड़बड़ाया करती कि मम्मी के कारण घर में इतना हल्ला-गुल्ला मचा रहता है कि पढ़ाई में दिल नहीं लग पाता। गप्पें हांकने के क्रम में खाला घर आए लोगों को चाय-नमकीन भी कराया करतीं। जिसके लिए सनूबर को परेशान होना पड़ता। ऐसे घर में अनुशासन की कल्पना भी व्यर्थ थी। नौ यूनुस याद करने लगा अपनी ज़िन्दगी का वह मनहूस दिन, जब जमाल साहब उसके जीवन में आए और एक निश्चित दिशा में चलती उसकी जीवन की गाड़ी पटरी से उतर गई.... उसे अच्छी तरह याद है वो जुमा का दिन था, क्योंकि उस दिन घर में गोश्त-पुलाव पका था। होता ये कि जुमा की नमाज़ अदा करके घर आने पर सब एक साथ बैठकर खाना खाते। यूनुस नमाज़ के बाद पढ़े जाने वाले सलातो-सलाम में शामिल न होता। उसमें इतना धैर्य कहां होता। वहर् फज़ नमाज़ पढ़कर मस्जिद से सबसे पहले भागने वालों में शामिल रहता। वैसे भी वह भूख बर्दाश्त नहीं कर सकता था। गर्मी के कारण उसे गोश्त-पुलाव के साथ प्याज़ खाने का मन हुआ। इसलिए घर आकर यूनुस ने सबसे पहले सब्ज़ी की टोकंरी से एक प्याज़ उठाया। फिर उसे काटने के लिए छूरी खोजने रसोई में घुसा। सनूबर स्कूली ड्रेस पहने हुए किचन में उकड़ू बैठकर चपड़-चपड़ गोश्त-पुलाव खा रही थी। यूनुस को देख वह मुस्कुराई और अपने प्लेट से गोश्त की एक बोटी उठाकर यूनुस की ओर बढ़ाई। यूनुस ने उसकी बड़ी-बड़ी आंखों मे शरारत और मुहब्बत के मिले-जुले भाव देखे। यूनुस ने बोटी मुंह के हवाले की। एक दम रसगुल्ले की तरह मुंह में पिघल गया था गोश्त...वाक़ई रहमत चिकवा खालू के नाम पर अच्छा गोश्त देता है। सनूबर ने यूनुस के हाथ में प्याज़ देखकर उससे प्याज़ मांग लिया। खाना खत्म कर प्लेट में ही हाथ धोकर सनूबर एक तश्तरी में प्याज़ क़ाटने लगी। प्याज़ के पतले-पतले गोल टुकड़े। तभी खाला किचन की तरफ आईं। यूनुस के मुंह को चलता देख उन्होंने पूछा-''गोश्त कैसा बना है?'' यूनुस ने रहमत चिकवा की बड़ाई करते हुए कहा-''एक नम्बर का माल है खाला! रहमतवा खालू के नाम पर माल ठीक देता है।'' वाकई पैसे भी दो और माल भी ठीक न मिले, कितना तकलीफ़ होता है। कूकर में गलाते-गलाते मर जाओ। गोश्त भी इतना बदबूदार निकल आए कि घिन हो जाए। आदमी गोश्त खाने से तौबा कर ले। खाला ने कहा-''अल्लाह का फ़ज़ल है कि रहमतवा ठीकै गोश्त देता है।'' अमूमन जुमा और इतवार के दिन रहमत चिकवा की दुकान से तीन पाव गोश्त मंगवाया जाता। यूनुस ही गोश्त लेने जाता। कालोनी के बाहर रेल्वे लाईन के उस पार नाले के एक तरफ कसाईयों की दुकानें प्रतिदिन सजतीं। रेल्वे की ज़मीन पर अवैध रूप से क़ब्ज़ा करके चिकवा लोगों ने गोश्त बेचने की दुकानें और रहने के लिए घर बना लिए थे। कहते हैं कि आरपीएफ वाले आकर वसूली कर जाते हैं। रेल्वे वालों से मिली भगत है सब। उस अघोषित मुहल्ले को कसाई-टोला कहा जाता। रहमत चिकवा खालू के गांव का था, इसलिए अस्सी रूपए किलो का माल उनके घर साठ रूपए के हिसाब से आता। यूनुस कभी सोचता कि इतने काम सीखे उसने लेकिन कसाई का काम न सीखा। वैसे घर में बकरीद के मौके पर होने वाली कुरबानी में बाहर से कसाई न बुलवाया जाता। अब्बू और सलीम भईया बकरे को ज़िबह कर खालपोशी कर लेते तो यूनुस बोटियां बना लेता था। असली कलाकारी तो खाल को सही-सलामत बकरे के जिस्म से अलग करने में है। उस खाल को स्थानीय मदरसे में भेजा जाता। जिसकी नीलामी होती और प्राप्त पैसे से मदरसे की आमदनी हो जाती। गोश्त लेने खाला यूनुस को सुबह सात बजे दौड़ा देतीं। कहतीं कि चिकवा ससुरे सुबह ठीक माल दिए तो ठीक वरना बाद में दो-नम्बरिया माल मिलता है। सात बजे रहमत अपनी दुकान सजा नहीं पाता था। इसलिए यूनुस सीधे उसके घर चले जाता। घर के बाहर ही तो गोश्त की दुकान थी। रहमत चिकवा की एक बेटी थी। सांवली सी नटखट लड़की। नैन-नक्श तीखे। सांवली रंगत। यूनुस को देख जाने क्यों वह मुस्कुराती। रहमत की बीवी उसे 'बानू' कह कर पुकारती। वह देहाती जुबान में बातें करती। उसमें एक ही ऐब था। उसके पीले-मटमैले टेढ़े-मेढ़े दांत। जब वह हंसती या कुछ बोलती तो उसके दांत बाहर निकल आते और सारा मज़ा किरकिरा हो जाता। वह जब भी रहमत के घर जाता, वहां टट्टर की चारदीवारी के अंदर बकरियों के मिमियाहट गूंज रही होती और 'बानू' आंगन में झाड़ू लगाते मिलती। जब वह झुकती तो कुर्ते के कटाव से उसके उभार छलक-छलक आते। यूनुस को यकीन है कि 'बानू' जानबूझ कर उसे यह दर्शन-सुख देना चाहती थी। फिर रहमत के लिए चाय या पानी लेकर आती तो यूनुस भी उसमें शामिल हो जाता। चाय के कप या गिलास पकड़ाते समय वह आसानी से अपने हाथों का स्पर्श उसके हाथ से होने देती। कप पकड़े वह उसका चेहरा निहारता। बस, यहीं गड़बड़ हो जाती। आंखें मिलते ही 'बानू' मुस्कुराती। उसके होंठ पलट जाते और खपरैल से मटमैले दांत बाहर निकल आते। खूबसूरती का तिलस्म टूट जाता। यूनुस को ऐसा महसूस होता जैसे उसने रहमत की दुकान के कोने में पड़े, बकरों के कटे सिर देखे हों, जिनके दांत इसी तरह बाहर निकले रहते हैं। रहमत चिकवा खस्सी के नाम पर कैसा भी गोश्त काट कर बेचने के लिए बदनाम है। ऐसी-वैसी बकरी काट कर रहमत बड़ी सफाई से उसके मादा अंगों की गवाही निकाल देता। फिर उस जगह किसी बकरे के नर-अंग बड़ी सफाई से 'फिट' कर देता। फिर चीख-चीख कर ग्राहकों को बुलाता-''अल्ला कसम भाईजान, खस्सी है खस्सी! एक नम्बर का माल!'' मियां भाई तो अंदाज़ लगा लेते कि मामला क्या है, लेकिन चोरी-छिपे मटन खाने वाले हिन्दू ग्राहक क्या समझते! वे तो वैसे ही नज़र बचाकर मटन खरीदने आते या फिर उनके चेले आते। उन्हें बेवकूफ़ बनाना तो रहमत के बाएं हाथ का खेल था। वे आसानी से उसके झांसे में आ जाते। खालू से अच्छे सम्बंधों के कारण रहमत चिकवा उन्हें सही माल देता।
दस किस्सा कोताह ये कि जुमा की नमाज़ पढ़कर जब खालू घर आए तो वह अकेले न थे। उनके साथ एक युवक था। खालू ने उन्हें पहले कमरे में प्लास्टिक की कुर्सी पर बिठाया। फिर पसीना पोंछते हुए अंदर आवाज़ लगाई-''पीछे वाला कूलर बंद है का?'' खाला अंदर से बड़बड़ाई-''बाहर आग बरसन लाग है त मुआ कूलर केतना ठंडक करी?'' वाकई उस बरस गर्मी बहुत पड़ी थी। फिर खालू ने यूनुस को आवाज़ देकर घड़े से दो गिलास ठण्डा पानी मंगवाया। यूनुस पानी लेकर आया। देखा कि आगंतुक एक सुदर्शन युवक है। खालू ने उसे इस तरह घूरते देख डांटा-''सलाम करो।'' यूनुस ने सलाम किया। खालू उस व्यक्ति से बतियाने लगे-''साढ़ू का बेटा है। यहीं 'एमसीए' में पेलोडर चलाता है। आज कल मुसलमानों का हुनर ही तो सहारा है। नौकरी में तो 'मीम' की कटाई तो आप देखते ही हैं।'' यहां खालू का 'मीम' से तात्पर्य अरबी के 'मीम' वर्ण से था। मीम माने हिन्दी का 'म'। दूसरे शब्दों में मीम माने मुसलमान। आगंतुक के माथे पर बल पड़ गए-''ग़ल्त बात है भाईजान, हक़ीकतन ऐसा नहीं है। मियां लोग 'एजूकेशन' पर कहां ध्यान देते हैं। अपने पास घर हो न हो, कपड़े-लत्ते हों न हों, बच्चों की किताब-कापी हो न हो लेकिन थोड़ी कमाई आई नहीं कि नवाब बन जाएंगे। गोश्त-पुलाव उड़ाएंगे। बच्चे धड़ाधड़ पैदा किए जाएंगे। अल्ला मियां हैं ही रिज्क़-रोज़ी देने के लिए।'' उन साहब ने जैसे यूनुस के मन की बात की हो। यही तो सच है। खाली-पीली अपने हिन्दू भाईयों को कोसना कहां तक उचित है। इंसान को पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। कहां कमी है? ये नहीं कि माईक उठाया और लगे कोसने ग़ैरों को। तब तक खाला भी कमरे में आ गईं। खालू ने आगंतुक से खाला का परिचय, जमाल साहब के नाम से कराया। बताया उनके नए साहब हैं। नागपुर के रहने वाले। खाला ने उन्हें सलाम किया। खाला वहीं तख्त पर बैठ कर जमाल साहब का जाएज़ा लेने लगीं। वह बत्तीस-तैंतीस साल के जवान थे। सांवली रंगत और चेहरे पर मोटी मूंछ। कुछ-कुछ संजय दत्त की तरह की हेयर-स्टाईल। जमाल साहब से खाला ने आदतन पूछा-पाछी शुरू की। पता चला कि उनके वालिद वेस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड की किसी खदान में कार्मिक प्रबंधक हैं। जमाल साहब की शादी नहीं हुई है, इसीलिए उन्होंने क्वाटर एलॉट नहीं करवाया था। वह आफीसर्स-गेस्ट रूम में रहते हैं। गर्मी के मारे जैसे जान निकली जा रही हो। खाला अपने आंचल से पंखे का काम लेने लगीं, जिससे उनके पेट का कुछ हिस्सा और छाती दिखने लगी। जमाल साहब ने जो समझा हो, लेकिन यूनुस को यह सब बहुत बुरा लगा। खाला जमाल साहब से बेतकल्लुफ़ हुईं और उन्हें खाने का न्योता दिया। फिर क्या था। वहीं तख्त पर दस्तरख्वान बिछाया गया। किचन में सनूबर ने जो सलाद के लिए प्याज़ काटा था, उसे मेहमान के लिए पेश किया जाने लगा। खालू और जमाल साहब ने साथ-साथ खाना खाया। बीच में एक बार सालन घटा तो सनूबर को आवाज़ देकर खालू ने बुलाया था। सनूबर एक कटोरी सालन पहुंचा आई थी। सनूबर का सालन पहुंचाना यूनुस को अच्छा नहीं लगा। खाला ने सनूबर का परिचय जमाल साहब से कराया-''बड़की बिटिया है। नवमी में पढ़ती है।'' सनूबर ने जमाल साहब को सलाम किया तो खाला ने टोका-''गधी, खाते समय सलाम नहीं करते हैं न!'' सनूबर झेंप कर भाग गई।
ग्यारह फिर जमाल साहब खाला के घर अक्सर आने लगे। खालू घर में हों या न हों, खाला उनकी खूब खातिर-तवज्जो करतीं। जमाल साहब आते तो टीवी खोलकर बैठ जाते। घर में उर्दू का एक अख़बार आता था। खालू सनूबर से उनके लिए भजिए-पकौड़ी तलवातीं। जमाल साहब कड़ी पत्ती और कम चीनी वाली चाय बड़े शौक से पीते। घर में अच्छे कप न थे। खाला ने बर्तन वाले की दुकान से बोन-चायना वाला कीमती कप-सेट खरीदा था। जमाल साहब का प्रमोशन हुआ तो वह मिठाई का डिब्बा लेकर आए। यूनुस उस दिन घर पर ही था। रसमलाई की दस कटोरियां थीं। बनारसी-स्वीट्स की ख़ास मिठाई। खाला ने तो रसमलाई खाकर ऐलान कर दिया कि अपने इस जीवन में उन्होंने ऐसी उम्दा मिठाई कभी न खाई थी। खालू ठहरे कंजूस। छेना की मिठाई कभी लाते नहीं। फातिहा-दरूद के लिए वही मनोहरा के होटल से खूब मीठे पेड़े ले आते। कभी कोई आया या किसी के घर गए तो खोवा की मिठाईयां या बिस्किट वगैरा से स्वागत होता। रसमलाई जैसी मिठाई उन्होंने कभी न खाई थी। रसमलाई का रस जो कटोरी में बचा था, वे उसे सुड़कते हुए पीने लगीं। जमाल साहब हंस दिए। सनूबर, छोटकी और अन्य बच्चों के साथ यूनुस ने भी पूरा स्वाद लेते हुए रसमलाई खाई। खाला अपनी देहाती में उतर आईं जिसका लब्बोलुआब था कि वाकई दुनिया में एक से एक लज़ीज़ चीज़ें हैं। इस तरह जमाल साहब उस परिवार में एक सदस्य की तरह शामिल हो गए। जब उनका मन गेस्ट-हाउस के खाने से ऊब जाता तो वे बिना संकोच खाला के घर आ जाते। वो चाहे कैसा समय हो, खाला और सनूबर, उनके लिए तत्काल कुछ न कुछ खाने की व्यवस्था अवश्य कर देतीं। जमाल साहब के सामने कभी-कभी खाला सनूबर को डांटने लगतीं या गरियाने लगतीं तो सनूबर नाराज़ हो जाती। इस आवाज़ में सुबकती कि जमाल साहब तक उसके नाक सुड़कने की आवाज़ पहुंच जाए। फिर जमाल साहब खाला को समझाते कि इतनी सुघड़-समझदार बिटिया को इस तरह नहीं डांटा-मारा करते। सनूबर तो घर-रखनी है। सभी का ख्याल रखती है। सनूबर उन्हें जमाल अंकल कहती। यूनुस उन्हें साहब की कहता। पूरे घरवालों में जमाल साहब की बढ़ती जा रही लोकप्रियता से उसे चिढ़ होने लगी। चिढ़ का एक और कारण ये भी था कि जमाल साहब के आ जाने से सनूबर अब यूनुस का खास ख्याल नहीं रख पाती। यूनुस ठेकेदारी मज़दूर ठहरा! उसकी डयूटी का टाईम बड़ा अटपटा था। कभी अलस्सुबह जाना पड़ता और कभी रात के बारह बजे बुलौवा आ जाता। कभी रात के बारह-एक बजे घर वापस लौटता। कपड़े मैले-कुचैले हो जाते। कपड़ों में ग्रीस-मोबिल के दाग लगे होते। पहले आदतन वह कपड़े स्वयं धोता था। फिर सनूबर मेहरबानी करके उसके कपड़े धोने लगी। अब ये यूनुस का अधिकार बन गया कि सनूबर ही उसके कपडे धोए। जमाल अंकल के कारण सनूबर को अब किचन में कुछ ज्यादा समय देना पड़ता था। खाला तो सिर्फ हा-हा, ही-ही करती रहतीं। कभी पापड़ तलने को कहेंगी, कभी चाय बनाने का आदेश पारित करेंगी। खालू आ जाते तो वह भी पूछा करते कि साहब की ख़िदमत में कोई कसर तो नहीं रह गई है। यूनुस ने यह भी ग़ौर किया कि खाला जमाल साहब के सामने सनूबर को कुछ ज्यादा ही डांटती हैं। इससे जमाल साहब उन्हें ऐसा करने से मना करते हैं। कहते हैं कि बच्चों को प्यार से समझाना चाहिए। अक्सर इस बात पर सनूबर सुबकने लगती। जमाल अंकल उसे अपने पास बुलाते और बिठाकर समझाते कि मां-बाप की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए। साथ ही साथ वह खाला को भी समझाते कि बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार करें। फिर वह दिन भी आया कि जमाल साहब ने आफीसर्स गेस्ट-हाउस के मेस में खाना बंद कर दिया और खालू के घर में उनका खाना बनने लगा। जीप आती और सुबह का नाश्ता करके वह खदान चले जाते। दुपहर के खाने का पक्का नहीं रहता। यदि देर हो जाती तो वे वहीं कहीं केंटीन वगैरा में कुछ खा-पी लेते। रात का खाना वह खालू के घर ही खाते। उन्होंने संकोच के साथ कुछ पैसे भी देने चाहे, लेकिन खाला ने मना कर दिया। इसके बदले वह स्वयं कभी गोश्त और कभी अन्य सामान के लिए जेब से पैसे निकालकर देते। कुल मिलाकर वह भी घर के स्थाई सदस्य बन चुके थे। रात के दस-ग्यारह बजे तक वह घर में डंटे रहते। कभी टीवी देखते और कभी बच्चों को पढ़ाने लगते। बच्चों के साथ वह हंसी-मज़ाक बहुत करते, जिससे बच्चों का मन लगा रहता। अड़ोसियों-पड़ोसियों के सामने खाला-खालू का सीना चौड़ा होता रहता कि एक अधिकारी उनका रिश्तेदार है। खाला जमाल साहब को अपना दूर का रिश्तेदार बतातीं, उधर खालू उन्हें अपना रिश्तेदार सिध्द करते। वैसे वह उन दोनों के रिश्तेदार किसी भी कोण से हो नहीं सकते थे क्योंकि खाला-खालू तो एमपी के थे और जमाल साहब नागपूर तरफ के रहने वाले। लोगों को इससे क्या फ़र्क पड़ता। आप अपने घर में जिसे बुलाओ, बिठाओ, खिलाओ-पिलाओ या सुलाओ। इससे मुहल्ले वालों की सेहत में क्या फ़र्क पड़ सकता है। बस, फुर्सत में सभी उस घर में पनप रहे किसी नए रिश्ते की, किसी नई कहानी के पैदा होने की उम्मीद टांगे बैठे थे। यूनुस को जमाल साहब का इस तरह घर में छा जाना बर्दाश्त नहीं हो रहा था। वह देख रहा था कि खाला भी जमाल साहब के सामने खूब चहकती रहती हैं। सनूबर के भी हाव-भाव ठीक नहीं रहते हैं। सभी जमाल साहब को लुभाने की तैयारी में संलग्न दिखते हैं। एक दिन यूनुस ने खाला के मुंह से सुना कि वह जमाल साहब को अपना दामाद बनाना चाह रही हैं। अरे, ये भी कोई बात हुई। कहां जमाल साहब और कहां फूल सी लड़की सनूबर। दोनों के उम्र में सोलह-सत्रह बरस का अंतर... क्या ये कोई मामूली अंतर है? खाला कहने लगीं-''जब तेरे खालू से मेरा निकाह हुआ तब मैं बारह साल की थी और तेरे खालू तीस बरस के जवान थे। क्या हम लोग में निभ नहीं रही है?'' यूनुस क्या जवाब देता। सनूबर ने भी तो उस मंसूबे का विरोध नहीं किया था। कहीं उसके मन में भी तो अफसराईन बनने की आकांक्षा नहीं। यूनुस के पास खानाबदोश ज़िन्दगी का वादा और असुविधाओं-अभावों की मिल्कियत है, जबकि जमाल साहब का साथ माने पांचों ऊंगलियां घी में होना।
बारह तभी दूसरी घण्टी बजी। टनननन टन्न टनन... सिंगरौली के एक स्टेशन पहले से गाड़ी छूटने का सिग्नल। यानी अगले पंद्रह मिनट बाद गाड़ी प्लेटफार्म पर आ जाएगी। यात्रीगण मुस्तैद हुए। यूनुस के अंदर घर बना चुका डर अभी खत्म न हुआ था। खालू कभी भी आ सकते हैं। उनके सहकर्मी पाण्डे अंकल इन सब मामलात में बहुत तेज़ हैं। खालू कहीं उनकी बुल्लेट में बैठ धकधकाते आ न रहे हों। एक बार गाड़ी पकड़ा जाए, उसके बाद 'फिर हम कहां तुम कहां!' प्लेटफार्म परं वह ऐसी जगह खड़ा था, जहां ठंड से बचने के लिए रेल्वे कर्मचारियों ने कोयला जला रखा था। इस जगह से मुख्य-द्वार पर आसानी से नज़र रखी जा सकती थी। उसने सोच रखा था यदि खालू दिखाई दिए तो वह अंधेरे का लाभ उठाकर प्लेटफार्म के उस पार खड़ी माल गाड़ी के पीछे छिप जाएगा। इस बीच यदि पैसेंजर आई तो चुपचाप चढ़कर संडास में छिप जाएगा। फिर कहां खोज पाएंगे खालू उसे। उसे मालूम नहीं कि अब वह घर लौट भी पाएगा या अपने बड़े भाई सलीम की तरह इस संसार रूपी महासागर में कहीं खो जाएगा। यूनुस को सलीम की याद हो आई... उसे यही लगता कि सलीम मरा नहीं बल्कि हमेशा की तरह घर से रूठ कर परदेस गया है। किसी रोज़ ढेर सारा उपहार लिए हंसता-मुस्कुराता सलीम घर ज़रूर लौट आएगा। सलीम, यूनुस की तरह एक रोज़ घर से भाग कर किसी 'परदेस' चला गया था। 'परदेस' जहां नौजवानों की बड़ी खपत है। 'परदेस' जहां सपनों को साकार बनाने के ख्वाब देखे जाते हैं। वह 'परदेस' चाहे दिल्ली हो या मुम्बई, कलकत्ता हो या अहमदाबाद। उच्च-शिक्षा प्राप्त लोगों का 'परदेस' वाकई परदेस होता है, वह यूएस्से, यूके, गल्फ़ आदि नामों से पुकारा जाता है। यूनुस अपने गृह-नगर की याद कब का बिसार चुका है। उस जगह में याद रहने लायक कशिश ही कहां थी? मध्यप्रदेश के पिछड़े इलाके का एक गुमनाम नगर कोतमा... आसपास के कोयला खदानों के कारण यहां की व्यापारिक गतिविधियां ठीक-ठाक चलती हैं। नगर-क्षेत्र में बाहरी लोग आ बसे और नगर की सीमा के बाहर मूल शहडोलिया सब विस्थापित होते गए। यहां रेल और सड़क यातायात की सुविधा है। एक-दो पैसेंजर गाड़ियां आती हैं। पास में अनूपपुर स्टेशन है, जहां से कटनी या फिर बिलासपुर के लिए गाड़ियां मिलती हैं। कोतमा इस रूट का बड़ा स्टेशन है। लोग कहते हैं कि सफ़र के दौरान कोतमा आता है तो यात्रियों को स्वमेव पता चल जाता है। कोतमा-वासी अपने अधिकारों के लिए लड़-मरने वाले और कर्तव्यों के प्रति लापरवाह किस्म के हैं। हल्ला-गुल्ला, अनावश्यक लड़ाई-झगड़े की आवाज़ से यात्रियों को अन्दाज़ हो जाता है कि महाशय, कोतमा आ गया। रेल में पहले से जगह पा चुकी सवारियां सजग हो जाती हैं कि कहीं दादा किस्म के लोग उन्हें उठा न फेंकें। कोतमा मे हिन्दू-मुसलमान सभी लोग रहते हैं किन्तु नगर के एक कोने में एक उपनगर है लहसुई। जिसे कोतमा के बहुसंख्यक 'मिनी पाकिस्तान' कहते हैं। जिसके बारे में कई धारणाएं बहुसंख्यकों के दिलो-दिमाग में पुख्ता हैं। जैसे लहसुई के वाशिन्दे अमूमन ज़रायमपेशा लोग हैं। ये लोग स्वभावत: अपराधी प्रवृत्ति के हैं। इनके पास देसी कट्टे-तमंचे, बरछी-भाले और कई तरह के असलहे रहते हैं। लहसुई मे खुले आम गौ-वध होता है। लहसुई के निवासी बड़े उपद्रवी होते हैं। इनसे कोई ताकत पंगा लहीं ले सकती। ये बड़े संगठित हैं। पुलिस भी इनसे घबराती है। लहसुई और कोतमा के बीच की जगह पर स्थित है यादवजी का मकान। उसी में किराएदार था यूनुस का परिवार। इमली गोलाई के नाम से जाना जाता है वह क्षेत्र। यादवजी कोयला खदान में सिक्यूरिटी इंस्पेक्टर थे। वे बांदा के रहने वाले थे। घर के इकलौते चिराग़। शायद इसीलिए नाम उनका रखा गया था कुलदीप सिंह यादव। सो गांव में धर्म-पत्नी खेत और घर की देखभाल किया करतीं। यादवजी इसी कारण परदेस में अकेले ही ज़िन्दगी बसर करने लगे। शुरू में थोड़े अंतराल के बाद छुट्टियां लेकर घर जाया करते थे। फिर कोयला खदान क्षेत्र में आसानी से मुंह मारने का जुगाड़ पाकर उनके देस जाने की आवृत्ति कम होती गई। कुलदीप सिंह यादव जी स्वभाव से चंचल प्रकृति के थे। देस में 'बावन बीघा पुदीना' उगाने वाले यादवजी का, इधर-उधर मुंह मारते-मारते, एक युवा-विधवा के साथ ऐसा टांका भिड़ा कि उनकी भटकती हुई कश्ती को किनारा मिल गया। वह विधवा पनिका जाति की स्त्री थी। उसने भी कई घाट का पानी पिया था। लगता था कि जैसे वह भी अब थक गई हो। दोनों ने वफ़ादारी की और आजन्म साथ निभाने की क़समें खाई। पनिकाईन, यादवजी के नाम से खूब गाढ़ा सिंदूर अपनी मांग में भरने लगी। यादवजी भी छिनरई छोड़कर उस पनिकाईन के पल्लू से बंध गए। धीरे-धीरे उनका छटे-छमाहे देस जाना बंद हुआ और फिर देस में भेजे जाने वाले मनी-आर्डर की राशि में भी कटौती होने लगी। यादवजी के प्रतिद्वंदियों ने यादवजी की अपने परिजनों से विरक्ति की खबर देस में यादवाईन तक पहुंचाई। यादवाईन बड़ी सीधी-सादी ग्रामीण महिला थी। उसने घर में मेहनत करके बाल-बच्चों को पाला-पोसा था। गांव-गिरांव के गाय-गोबर, कीचड़-कांदों और बिन बिजली बत्ती की असुविधाओं को झेला था। यादवजी की बेवफाई उसे कहां बर्दाश्त होती। उसने अपने जवान होते बच्चों के दिलों में पिता के खिलाफ़ नफ़रत के बीज बोए। बच्चे युवा हुए तो उन्हें नकारा बाप को सबक सिखाने कोतमा भेजा। बच्चे कोतमा आए और उन्होंने अपने बाप को नई मां के सामने ही खूब मारा-पीटा। जब यादवजी लड़कों से दम भर पिट चुके तब कोयला-खदान में बसे उनके जिला-जवारियों ने आकर बीच-बचाव किया। इस घटना से यादवजी की खूब थू-थू हुई। मज़दूर यूनियन के नेतागण, खदान के कर्मचारीगण और यादवजी के बच्चों के बीच पंचइती हुई। यादवजी की वैध पत्नी के त्याग और धैर्य की तारीफ़ें हुईं। यादवजी के चंचल चरित्र और नई पत्नी की वैधता पर खूब टीका-टिप्पणी हुई। फिर सर्वसम्मति से निर्णय हुआ कि बैंक में यादवजी के खाते से प्रत्येक महीने तीन हज़ार रूपया बांदा में उनकी पत्नी के खाते में स्थानांतरित होगा। यदि यादवजी इससे इंकार करेंगे तो फिर अंजाम के लिए स्वयं जिम्मेदार होंगे। लड़के जवान हो ही गए हैं। पनिकाईन छनछनाती रह गई। यादवजी ने इन नई परिस्थितियों से समझौता कर लिया। यादवजी सोच रहे थे कि ये बला कैसे भी टले, टले तो सही। बैंक मैनेजर ने व्यवस्था बना दी। तनख्वाह जमा होते ही तीन हजार रूपए कोतमा से निकलकर बांदा में उनकी पत्नी के खाते में जमा होने लगे। इस तरह सारे भावनात्मक सम्बंध खत्म करके बच्चे गांव वापस चले गए। यादवजी बाल काले न कराएं तो एकदम बूढ़े दिखें। दांत टूट जाने के कारण गाल पिचक गए हैं और चेहरा चुहाड़ सा नज़र आता है। बनियाईन-चड्डी में मकान के बाहर बने खटाल में गाय-भैंस को घास-भूसा खिलाते रहते हैं। पानी मिले दूध के व्यापार की देखभाल स्वयं करते हैं। पनिकाईन की जवानी अभी ढल रही है। कहते हैं कि स्त्री अपनी अधेड़ावस्था में ज्यादा मादक होती है। यह फार्मूला पनिकाईन पर फिट बैठता है। पांच फुट ऊंची पनिकाईन। ज़बरदस्त डील-डौल। भरा-भरा बदन। दूध-घी सहित निश्चिंत जीवन पाकर पनिकाईन कितना चिकना गई है। कहते हैं कि यादवजी को एकदम 'चूसै-डार' रही है ये नार! यूनुस जब बच्चा था तब उसने उन दोनों को खटाल में बिछी खाट पर विवस्त्र गुत्थम-गुत्था देखा था। ये था यूनुस के फुटपाथी विश्वविद्यालय में कामशास्त्र का व्यवहारिक पाठयक्रम...
तेरह कोतमा और उस जैसे नगर-कस्बों में यह प्रथा जाने कब से चली आ रही है कि जैसे ही किसी लड़के के पर उगे नहीं कि वह नगर के गली-कूचों को 'टा-टा' कहके 'परदेस' उड़ जाता है। कहते हैं कि 'परदेस' मे सैकड़ों ऐसे ठिकाने हैं जहां नौजवानों की बेहद ज़रूरत है। जहां हिन्दुस्तान के सभी प्रान्त के युवक काम की तलाश में आते हैं। ठीक उसी तरह, जिस तरह महानगरों के युवक अच्छे भविष्य की तलाश में विदेश जाने को लालायित रहते हैं। सुरसा के मुख से हैं ये औद्योगिक-मकड़जाल। बेहतर जिंदगी की खोज में भटकते जाने कितने युवकों को निगलने के बाद भी सुरसा का पेट नहीं भरता। कभी उसका जी नहीं अघाता। उसकी डकार कभी किसी को सुनाई नहीं देती। तभी तो हिन्दुस्तान के सुदूर इलाकों से अनगिनत युवक अपनी फूटी किस्मत जगाने महानगरों की ओर भागे चले आते हैं। अपनी जन्मभूमि, गांव-घर, मां-बाप, भाई-बहन, संगी-साथी और कमसिन प्रेमिकाओं को छोड़कर। उन युवकों को दिखलाई देता है पैसा, खूब सारा पैसा। इतना पैसा कि जब वे अपने गांव लौटें तो उनके ठाट देखकर गांव वाले हक्के-बक्के रह जाएं। आलोचक लोग दांतों तले उंगलियां दबाकर कहें कि बिटवा, निकम्मा-आवारा नहीं बल्कि कितना हुशियार निकला! लेकिन क्या उनके ख्वाब पूरे हो पाते हैं। हक़ीकतन उनके तमाम मंसूबे धरे के धरे रह जाते हैं। रूपया कमाना कितना कठिन होता है, उन्हें जब पता चलता तब तक वे शहर के पेट की आग बुझाने वाली भट्टी के लिए ईंधन बन चुके होते हैं। शुरू में उन्हें शहर से मुहब्बत होती है। फिर उन्हें पता चलता है कि उनकी जवानी का मधुर रस चूसने वाली धनाढय बुढ़िया की तरह है ये शहर। जो हर दिन नए-नए तरीके से सज-संवरकर उन पर डोरे डालती है। उन्हें करारे-करारे नोट दिखाकर अपनी तरफ बुलाती है। सदियों के अभाव और असुविधाओं से त्रस्त ये युवक उस बुढ़िया के इशारे पर नाचते चले जाते हैं। बुढ़िया के रंग-रोगन वाले जिस्म से उन्हें घृणा हो उठती है, लेकिन उससे नफ़रत का इज़हार कितना आत्मघाती होगा उन्हें इसका अंदाज़ रहता है। उन्हें पता है कि देश में भूखे-बेरोजगार युवकों की कमी नहीं। बुढ़िया तत्काल दूसरे नौजवान तलाश लेगी। शहर में रहते-रहते वे युवक गांव में प्रतीक्षारत अपनी प्रियतमा को कब बिसर जाते हैं, उन्हें पता ही नहीं चल पाता है। उनकी सम्वेदनाएं शहर की आग में जल कर स्वाहा हो जाती हैं। वे जेब में एक डायरी रखते हैं। जिसमें मतलब भर के कई पते, टेलीफोन नम्बर वगैरा दर्ज रहते हैं, सिर्फ उसे एक पते को छोड़कर, जहां उनका जन्म हुआ था। जिस जगह की मिट्टी और पानी से उनके जिस्म को आकार मिला था। जहां उनका बचपन बीता था। जहां उनके वृध्द माता-पिता हैं, जहां खट्ठे-मीठे प्रेम का 'ढाई आखर' वाला पाठ पढ़ा गया था। जहां की यादें उनके जीवन का सरमाया बन सकती थीं। हां, वे इतना ज़रूर महसूस करते कि अब इस शहर के अलावा उनका कोई ठिकाना नहीं। पता नहीं, शहर उन्हें पकड़ लेता है या कि वे शहर को जकड़ लेते हैं। एक भ्रम उन्हें सारी ज़िन्दगी शहर में जीने का आसरा दिए रहता है कि यही है वह मंज़िल, जहां उनकी पुरानी पहचान गुम हो सकती है। यही है वह संसार जहां उनकी नई पहचान बन पाई है। यही है वह जगह, जहां उन्हें 'फलनवा के बेटा' या कि 'अरे-अबे-तबे' आदि सम्बोधनों से पुकारा नहीं जाएगा। जहां उनका एक नाम होगा जैसे- सलीम, श्याम, मोहन, सोहन....... यही है वह दुनिया, जहां चमड़ी की रंगत पर कोई ध्यान नहीं देगा। आप गोरे हों या काले, लम्बे हों या नाटे। महानगरीय-सभ्यता में इसका कोई महत्व नहीं है। यही है वह स्थल, जहां वे होटल में, बस-रेल में, नाई की दुकान की दुकान में, सभी के बराबर की हैसियत से बैठ-उठ सकेगे। यहीं है वह मंज़िल, जहां उनकी जात-बिरादरी और सामाजिक हैसियत पर कोई टिप्पणी नहीं होगी, जहां उनके सोने-जागने, खाने-पीने और इठलाने का हिसाब-किताब रखने में कोई दिलचस्पी न लेगा। जहां वे एकदम स्वतंत्र होंगे। अपने दिन और रात के पूरे-पूरे मालिक। लेकिन क्या यह एक भ्रम की स्थिति है? क्या वाकई ऐसा होता है? फिर भी यदि यह एक भ्रम है तो भी 'दिल लगाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।'। इसी भ्रम के सहारे वे अन्जान शहरों में जिन्दगी गुज़ारते हैं। आजीवन अपनी छोटी-छोटी, तुच्छ इच्छाओं की पूर्ति के लिए संघर्षरत रहते हैं। कितने मामूली होते हैं ख्वाब उनके! एक-डेढ़ घण्टे की लोकल बस या रेल-यात्रा दूरी पर मिले अस्थाई काम। एक छोटी सी खोली। करिश्मा कपूर सा भ्रम देती पत्नी। अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते बच्चे। टीवी, फि्रज़, कूलर। छोटा सा बैंक बैलेंस कि हारी-बीमारी में किसी के आगे हाथ न पसारना पड़े। विडम्बना देखिए कि उन्हें पता भी नहीं चलता और एक दिन यथार्थ वाली दुनिया बिखर जाती । उस स्वप्न-नगरी के वे एक कलपुर्जे बन जाते। गांव-गिरांव से उन्हें खोजती-भटकती खबरें आकर दस्तक देतीं कि बच्चों के लौट आने की आस लिए मर गए बूढ़े मां-बाप। खबरें बतातीं कि छोटे भाई लोग ज़मींदार की बेकारी खटते हैं और फिर सांझ ढले गांजा-शराब में खुद को गर्क कर लेते हैं। खबरें बतातीं कि उनकी जवान बहनें अपनी तन-मन की ज़रूरतें पूरी न होने के कारण सामन्तों की हवस का सामान बन चुकी हैं। खबरें बतातीं कि उनकी मासूम महबूबाओं की इंतज़ार में डूबी रातों का अमावस कभी खत्म नहीं हुआ। इस तरह एक दिन उनका सब-कुछ बिखर जाता। ये बिखरना क्या किसी नव-निर्माण का संकेत तो नहीं ?
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