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पहचान

चौदह

खाला का दबाव था, सो खालू को 'एक्शन' में आना ही था।

खालू उसे 'मदीना टेलर' के मालिक बन्ने उस्ताद के पास ले आए।

मस्जिद पारा में स्थित यतीमखाना के सामने अंजुमन कमेटी की तरफ से तीन दुकानें बनाई गई हैं। इन दुकानं से यतीमखाना के प्रबंध के लिए आय हो जाती है। ये सभी दुकानें मुसलमान व्यापारियों को ही दी जातीं। एक दुकान में आटा चक्की थी, दूसरे में किराने का सामान और तीसरी दुकान के माथे पर टंगा बोर्ड--मदीना टेलर,
         सूट-स्पेशलिस्ट

मदीना टेलर के मालिक थे बन्ने उस्ताद। बन्ने उस्ताद एक पारम्परिक दर्ज़ी थे। कहते हैं शुरू में वे लेडीज़ टेलर के नाम से जाने जाते थे। पैसे कमाकर स्वयं कारीगर रखने लगे
, और तब अचानक नाम वाले बन गए। आजकल शादी-ब्याह के अवसर पर मध्यम वर्गीय परिवार दूल्हे के लिए कोट-पैंट ज़रूर बनवाते हैं। शादी मे जो एक बार थ्री-पीस सूट लड़का पहन लेता है, फिर अपनी ज़िन्दगी में अपने खर्चे से वह कहां एक भी सूट सिलवा पाता है। यदि किस्मत से बेटे का बाप बना तो फिर भावी समधी के बजट पर बेटे की शादी में कोट सिलवा सके तो उसका भाग्य! बन्ने उस्ताद शहर से अच्छे कारीगर उठा लाए थे, जिसके कारण उनकी दुकान ठीक चला करती।

उनकी वेशभूषा बड़ी हास्यास्पद रहती। अलीगढ़ी पाजामे पर कढ़ाई वाला बादामी कुर्ता। आंखें इस तरह मिचमिचाते ज्यों बहुत तेज़ धूप में कहीं दूर की चीज़ को गर से देख रहे हों। हंसते-बोलते तो ऊबड़-खाबड़ मैले दांतों के कारण चेहरा चिम्पैंजी सा दिखाई देता।

यूनुस, बन्ने उस्ताद का हुलिया देख बमुश्किल-तमाम अपनी हंसी रोक सका।

खालू के सामने उन्होंने यूनुस को बड़े प्यार से अपने पास बुलाया। यूनुस ने उन्हें सलाम किया तो बन्ने उस्ताद ने मुसाफ़ा के लिए हाथ बढ़ाया।

यूनुस का हाथ अपने हाथों में लेकर बड़ी देर तक नसीहतों की बौछार करते रहे।

''दर्जीगिरी आसान पेशा नहीं बरखुरदार! टेढ़े-मेढे कपड़े सिलकर आज कोई भी दर्जी बन जाता हैहैना...! बड़ा मुश्किल हुनर है टेलरिंग, समझे। शहर के तमाम नामवर टेलर मेरे शागिर्द रहे हैं।   'पोशाक-टेलर्स' वाला मुनव्वर अंसारी हो या 'माडर्न-टेलर' वाले कासिम मियां, सभी इस नाचीज़ की मार-डांट खाकर आज शान से कमा-खा रहे हैं, हैना...''

खालू उनकी बात के समर्थन में सिर हिला रहे थे।

यूनुस का हाथ उस्ताद ने छोड़ा नहीं था, कभी उनकी पकड़ हल्की पड़ती कभी सख्त। यूनुस चाहता उसके हाथ पकड़ से आज़ाद हो जाएं, लेकिन उसने महसूस किया कि उसकी जद्दोजेहद को बन्ने उस्ताद भांप रहे हैं।

वे बड़ी व्यग्रता से अपना यशोगान कर रहे थे और यूनुस की हथेली पसीने से भींग गई। उसने खालू को देखा जो निर्विकार बैठे थे।

अचानक बन्ने उस्ताद ने उसे अपने समीप खींचा। यूनुस ने सोचा कि कहीं ये गोद में बिठाना तो नहीं चाहते।

उसके जिस्म ने विरोध किया।

उसके बदन की ऐंठन को उस्ताद ने महसूस किया और हाथ छोड़ यूनुस की पीठ सहलाने लगे--''देखो बरखुरदार, हां क्या नाम बताया तुमने अपना....हां यूनुस। यहां कई लड़के काम सीख रहे हैं, हैना... उनसे गप्पबाजी मत करना। जैसा काम मिले, काम करना। सिलाई मशीन चलाने की हड़बड़ी मत दिखाना। सीनियरों की बातें मानना। मुझे शिकायत मिली तो समझो छुट्टी हैना...। यदि लगन रहेगी तो एक दिन तुम भी नायाब टेलर बन जाओगे, हैना... ''

बन्ने उस्ताद की नसीहतें उसकी समझ में न आईं।

हां, उनके मुंह से निकलती पायरिया की बदबू से उसका दम ज़रूर घुटने लगा था।

यूनुस ने उस्ताद के हाथों को अपने जिस्म की बोटियं का हिसाब लगाते पाया। उसने देखा कि दुकान के कारीगर और लड़के मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं।

लिहाजा उसने 'मदीना टेलर' जाना शुरू कर दिया।

वह सुबह खाला के घर नाश्ता करके निकलता था। दुपहर दो से तीन बजे तक खाना खाने की मुहलत मिलती और रात आठ बजे लड़कों को छुट्टी मिलती। कारीगर ठेका के मुताबिक काफी रात तक काम में व्यस्त रहते। तीज-त्योहार या शादी-ब्याह के अवसर पर तो सारी रात मशीनें चलती रहतीं।

यूनुस का मन दुकान में रमने लगा था। धीरे-धीरे सहकर्मी लड़कों से उसे बन्ने उस्ताद के बारे में कई गोपनीय सूचनाएं मिलने लगीं।

दुकान में चार सिलाई मशीनें और एक पीको-कढ़ाई की मशीन थी। सामने एक तरफ बन्ने उस्ताद का काउण्टर था। मशीनों के पीछे फर्श पर दरी बिछी हुई थी, जिस पर शागिर्दों का अड्डा होता। यहां काज-बटन, तुरपाई और तैयार कपड़े पर प्रेस करने का काम होता।

तीनों शागिर्दों से यूनुस का परिचय हुआ। ये सभी बारह-तेरह बरस के कमसिन बच्चे थे।

नाटे क़द का बब्बू गठीले बदन का था और यतीमखाने में हाफ़िज़ बनने आया था। यतीमखाने की जेल और कठोर अनुशासन से तंग आकर वह बन्ने उस्ताद के यहां टिक गया।

दूसरे का नाम जब्बार था जो पास के गांव की विधवा का बेटा था।

तीसरा बड़ा हीरो किस्म का लड़का था। बिहार के छपरा जिले का रहने वाला। भुखमरी से तंग आकर अपने मामू के घर आया तो फिर यहीं रह गया। गोरा- चिकना खूबसूरत शमीम। बन्ने उस्ताद का मुंहलगा शागिर्द।

शमीम के पीठ पीछे जब्बार और बब्बू उसे 'बन्ने उस्ताद का लौंडा' नाम से याद करते और अश्लील इशारा करके खूब हंसते।

बब्बू से यूनुस की खूब पटती।

उसने यूनुस को अपनी रामकहानी कई खण्डों में बताई थी। उनके बीच में खूब निभती। बन्ने उस्ताद उन्हें सिर जोड़े देखते तो काउण्टर से चिल्लाते--''ए लौंडों! ग्प मारने आते हो का इहां?''

बब्बू झारखण्ड का रहने वाला था। उसके अब्बा बचपन में मर गए थे। वह पेशे से धुनिया थे। नगर-नगर फेरी लगाकर रजाई-गद्दे बनाया करते। उनका कोई पक्का पड़ाव न था। खानाबदोशों सी ज़िन्दगी थी।

अब्बा के इंतेकाल के दो साल बाद उसकी अम्मी ने दूसरी शादी कर ली। सौतेला बाप बब्बू और उसकी बहिन से नफ़रत करता। बहिन तो छोटी थी। उसे नफ़रत-मुहब्बत में भेद क्या पता? हां, बब्बू घृणा से भरपूर आंखों का मतलब समझने लगा था। अल्ला मियां से यही दुआ मांगा करता कि उसे इस दोज़ख से जल्द निजात मिल जाए।

तभी गांव आए मौलवी साहब ने उससे मध्यप्रदेश चलने को कहा। बताया कि वहां मुसलमानों की अच्छी आबादी है। एक यतीमखाना भी अभी-अभी खुला है। बच्चे वहां कम हैं। यतीमखाने में खाने-रहने की समस्या का समाधान हो जाएगा, साथ ही दीनी तालीम भी वह हासिल कर लेगा।

कहते हैं कि खानदान में यदि कोई एक व्यक्ति कुरआन मजीद को हिफ्ज़ (कंठस्थ) कर ले तो उसकी सात पुश्तों को जन्नत में जगह मिलती है। इससे दुनिया सध जाएगी और आख़िरत (परलोक) भी संवर जाएगी। बब्बू की अम्मा मौलवी साहब की बातों से प्रभावित हुईं और इस तरह बब्बू उनके साथ यहां आ गया।

मस्जिद की छत पर बड़े-बड़े तीन हाल थे।

एक हाल में मौलवी साहब रहा करते। दूसरे हाल में मदरसा चलाया जाता। तीसरा हाल यतीम बच्चों के लिए था।

नहाने-धोने के लिए मस्जिद के बाहर एक कुंआ था, जिसमें तकरीबन दस फुट नीचे पानी मिलता था। यह बारहमासा कुंआ था जो कभी न सूखता। सम्भवत: समीप के नाले के कारण ऐसा हो।

पेशाब और वज़ू के लिए तो मस्जिद ही में व्यवस्था थी, किन्तु पाखाने जाने के लिए डब्बा लेकर मस्जिद के उत्तर तरफ लिप्टस के जंगल की तरफ जाना पड़ता था। शुरू के कुछ दिन बब्बू का मन वहां खूब लगा, किन्तु वह गांव के उस आज़ाद परिंदे की तरह था जिसे पिंजरे में कैद रहना नापसंद हो।

वहां की यांत्रिक दिनचर्या से उसका मन उचट गया।

फजिर की अज़ान सुबह पांच बजे होती। अज़ान देने से पहले मुअज्ज़िन चीखते हुए किसी जिन्नात की तरह आ धमकता-''शैतान के बहकावे में मत आओ लड़कं। जाग जाओ।''

सुबह के समय ही तो बेजोड़ नींद आती है। ऐसी नींद में विध्न डालना शैतान का काम होना चाहिए। मुअज्ज़िन खामखां शैतान को बदनाम किया करता। उन मासूम बच्चों की नींद के लिए शैतान तो वह स्वयं बन कर आता।

मुअज्ज़िन मरदूद आकर जिस्म से चादरें खींचता, और बेदर्दी से उन्हें उठाता। बड़े हाफ़िज्जी के डर से लड़के विरोध भी न कर पाते। जानते थे कि यदि मुअज्ज़िन ने बड़े हाफिज्जी से शिकायत कर दी तो ग़ज़ब हो जाएगा।

किसी तरह मन मानकर लड़के उठते।

आंखें मिचमिचाते कोने में पर्दा की गई जगह पर जाकर ढेर सारा मूतते।

हुक्म था कि नींद में यदि कपड़े या जिस्म नापाक हो गया हो तो नहाना फ़र्ज है। नापाक बदन से नमाज़ अदा करने पर अल्लाह तआला गुनाह कभी माफ़ नहीं करते। ये गुनाह-कबीरा है। उसने किसी लड़के को सुबह उठने के साथ नहाते नहीं देखा था। हां, मुअज्ज़िन या हाफ़िज्जी ज़रूर किसी-किसी सुबह नहाया करते थे। इसका मतलब वे रात-बिरात नापाक हुआ करते थे।

उसे तो वज़ू करना भी अखरता था। कई बार उसने क़ायदे से आंख-मुंह धोए बगैर नमाज़ अदा की थी। बाद में दुआ करते वक्त वह अल्लाह तआला से अपनी इस ग़ल्ती के लिए माफ़ी मांग लिया करता था।

एक सुबह उसने पाया कि उसका पाजामा सामने की तरह गीला-चिपचिपा है। उसने अपने साथी महमूद को यह बात बतलाई थी। फिर उसी हालत में बिना नहाए उसने नमाज़ अदा की थी।

महमूद मुअज्ज़िन का चमचा था।

उसने मुअज्ज़िन को सारी बात बताई और मुअज्ज़़िन ने उसकी पेशी हाफ़िज्जी के सामने कर दी।

हाफ़िज्जी ने उसके बदन पर छड़ी से खूब धुलाई की।

वह खूब रोया।

उसने यतीमखाना से भाग जाने की योजना बनाई।

बन्ने उस्ताद की दुकान में लड़कों को काम करते देख वह 'मदीना-टेलर' गया। बन्ने उस्ताद ने उसे काम पर रख लिया। मौलवी साहब और हाफिज्जी ने बारहा चाहा कि बब्बू यतीमखाना लौट आए, किन्तु बब्बू ने उस मस्जिद में जाना क्या जुमा की नमाज़ प्ढ़ना भी बंद कर दिया। वह जुमा प्ढ़ने एक मील दूर की मस्जिद में जाया करता था।

वहां चार कारीगर थे। उनमें से तीन पतले-दुबले युवक थे, जो चौखाने की लुंगी और बनियाइन पहने सिर झुकाए मशीन से जूझते रहते। घण्टे-डेढ़ घण्टे बाद कोई एक बीड़ी पीने दुकान से बाहर निकलता। बाकी दो उसके लौटने का इंतज़ार करते। वे एक साथ दुकान खाली न करते। दुकान में काम की अधिकता रहती।

चौथा कारीगर सुल्तान भाई थे। इन्हें बन्ने उस्ताद फूटी आंख न सुहाते, लेकिन सुल्तान भाई बड़ी 'गुरू' चीज़ थे।

बन्ने उस्ताद की अनुपस्थिति में सुल्तान भाई के हाथों दुकान की कमान रहती।

जब बन्ने भाई दुकान में मौजूद रहते तब अक्सर सुल्तान भाई के लिए उस्तानी का घर से बुलावा आता। कभी बन्ने भाई स्वयं सुल्तान भाई को यह कह कर रवाना किया करते कि मियां घर चले जाओ, बेगम ने आपको याद किया है। हैना...

सुल्तान भाई तीस-पैंतीस के छरहरे युवक थे। हमेशा टीप-टाप रहा करते।

धीरे-धीरे यूनुस ने जाना कि सुल्तान भाई का बन्ने उस्ताद की बीवी के साथ चक्कर चलता है। बन्ने उस्ताद अपने चिकने शागिर्द छपरइहा लौंडे शमीम के इश्क में गिरफ्तार हैं और जागीर लुटाने को तैयार रहते हैं।

'मदीना टेलर' में तीन माह गुज़ारे थे उसने। इस अवधि मे उससे काज-बटन, तैयार कपड़ों में प्रेस और तुरपाई के अलावा कोई काम न लिया गया। काज-बटन लगाते और तुरपाई करते उसकी उंगलियां छिद गईं। सुई के बारीक छेद में धागा डालते-डालते आंखें दुखने लगीं, लेकिन उस्ताद उसे कैंची और इंची टेप पकड़ने न देते।

कारीगर सत्तर-अस्सी की रफ्तार में सिलाई मशीन दौड़ाते। जाने कितने मील सिलाई का रिकार्ड वे बना चुके होंगे। यूनुस का मन करता कि उसे भी 'एक्को बार' सिलाई मशीन चलाने का मौका मिल जाता।

ऐसा ही दुख उसे तब भी हुआ था जब तकरीबन साल भर दिल लगाकर फील्डिंग करवाने के बाद भी उन नामुराद लड़कों ने उसे बल्लेबाजी का अवसर प्रदान नहीं किया था।

हुआ ये कि मुहल्ले में मुगदर के बल्ले और कपड़े की गेंद से क्रिकेट खेलते-खेलते उसके मन में आया कि वह भी असली क्रिकेट क्यों नहीं खेल सकता है?

वह नगर के अमीर लड़कों की जी-हुजूरी करते-करते उनके साथ क्रिकेट खेलने जाने लगा था।

डॉक्टर चतुर्वेदी का लड़का बन्टी और दवा दुकान वाले गोयल का लड़का सुमीत क्रिकेट टीम के सर्वेसर्वा थे। बाहर से उन लोगों ने क्रिकेट का काफी सामान मंगवाया था। मैदान के पीछे चपरासी का घर था, जहां वे लोग खेल का सामान रखते थे। उन लोगों के पास असली बेट, बॉल, स्टम्प्स, ग्लब्स, हेलमेट और लेग गार्ड आदि सामान थे।

जब उसने साल भर के निष्ठापूर्ण खेल सहयोग के एवज़ में बल्लेबाजी का अवसर पाने की बात कही तो वे सभी हंस पड़े।

बंटी ने कहा कि यदि वह वाकई क्रिकेट के लिए सीरियस है तो उसे एक सौ रूपए महीने की मेम्बरशिप देनी होगी।

''झोरी में झांट नहीं सराए में डेरा''--यही तो कहा था सुमीत ने।

मन मसोस कर रह गया था यूनुस।

वहां बल्लेबाजी करने को न मिली और यहां बन्ने उस्ताद के सख्त आदेश के कारण सिलाई मशीन पर हाथ साफ करने का मौका न मिल पा रहा था।

घर में हाथ से चलने वाली सिलाई मशीन है। अम्मा को सिलाई आती नहीं थी। अब्बू ही कभी सिलाई करने बैठते तो यूनुस या बेबिया से हैंडल घुमाने को कहते। उस मशीन में सिलाई बहुत धीमी गति से होती। पैर से चलने वाली मशीन यूं फ़र्र...फ़र्र... चलती कि क्या कहने!

बन्ने उस्ताद कभी मूड में होते तो बताते कि बड़े शहरों में आजकल बिजली के मोटर से 'एटोमेटिक' मशीनें चलती हैं। ऐसी-ऐसी दुकानें हैं जहां सैकड़ों मशीनें घुरघुराती रहती हैं।

यहां जैसा नहीं कि एक दिन में एक कारीगर दो जोड़ी कपड़े सिल ले, तो बहुत। वहां एक आदमी एक बार में कोई एक काम करता है। जैसे कुछ लोग सिर्फ कालर सिलते हैं। कुछ आस्तीन सिलते हैं। कुछ आगा तैयार करते हैं। कुछ पीछा तैयार करते हैं। कुछ कारीगरों के पास आस्तीन जोड़ने का काम रहता है। कुछ के पास कालर फिट करने का काम। कुछ कारीगर 'फाईनल टच' देकर कपड़े को तैयार माल वाले सेक्शन भेज देते हैं। जहां कपड़े पर प्रेस किया जाता है और उन्हें डबबों में बंद किया जाता है। एकदम किसी फेक्ट्री की तरह होता है सारा काम।

यूनुस इच्छा ज़ाहिर करता कि कपड़ा कटिंग का काम मिल जाए या सिलाई मशीन में ही बैठने दिया जाए।

बन्ने उस्ताद हिकारत से हंसकर जवाब देते--''अभी तो मंजाई चल रही है मियां, इतनी जल्दी उस्तादी सिखा दी तो मेरी हंसाई होगी। लोग कहेंगे कि बन्ने उस्ताद ने कैसा शागिर्द तैयार किया है।''

इसके अलावा बन्ने उस्ताद की एक आदत उसे नापसंद थी। बन्ने उस्ताद काम सिखाते वक्त उसकी जांघ पर चिकोटियां काटते, पीठ थपथपाते और उनका हाथ कब बहककर कमर के नीचे पहुंच जाता उन्हें ख्याल ही न रहता।

उनकी अनुपस्थिति में लड़के उस्ताद की हरकतों पर खूब मज़ाक किया करते।

चुंधियाई आंखों और मैले दांतों वाले बन्ने उस्ताद के मुंह से बदबू फूटा करती थी।

जल्द ही बन्ने उस्ताद की शागिर्दी से उसने स्वयं को आजाद कर लिया। उसने जान लिया था कि टेलर-मास्टर कभी लखपति बनकर ऐश की ज़िंदगी नहीं गुज़ार पाता। वह तो ताउम्र 'टेलरई' ही करता रह जाता है।

इससे कहीं अच्छा है कि यूनुस मन्नू भाई से स्कूटर, मोटर-साइकिल की मिस्त्रीगिरी सीखे।

पंद्रह

यूनुस की विद्यालयीन पढ़ाई ही खटाई में पड़ी थी, किसी विश्वविद्यालय का मुंह देखना उसके नसीब में कहां था?

वैसे भी हर किसी के मुक़द्दर में विश्वविद्यालयीन पढ़ाई का 'जोग' नहीं होता।

फुटपथिया लोगों का अपना एक अलग विश्वविद्यालय होता है, जहां व्यवहारिक-शास्त्र की तमाम विद्याएं सिखाई जाती हैं।

हां, फ़र्क बस इतना है कि इन विश्वविद्यालयों में 'माल्थस' की थ्योरी पढ़ाई जाती है न डार्विन का विकासवाद।

छात्र स्वमेव दुनिया की तमाम घोषित, अघोषित विज्ञान एवम् कलाओं में महारत हासिल कर लेते हैं।

प्राध्यापकीय योग्यता के लिए शिक्षा और उम्र का बंधन नहीं होता। वे अनपढ़ हो सकते हैं, बुजुर्ग या बच्चे भी हो सकते हैं। कभी-कभी तो पशुओं के क्रिया-व्यापार से भी ये फुटपथिया विद्यार्थी ज्ञान अर्जित कर लेते हैं।

ये अनौपचारिक प्राध्यापक अपने विद्यार्थियों को जीने की कला सिखाते हैं।

जो विद्यार्थी जितना तेज़ हुआ, वह उतनी जल्दी व्यवहारिक ज्ञान ग्रहण कर लेता है। संगत के कारण विद्यार्थी निगाह बचा कर ग़लत काम करने, बहाना बनाने और बच निकलने का हुनर सीख जाता है। यहां सिखाया भी तो जाता है कि जो पकड़ा गया वही चोर। जो पकड़ से बचा वह बनता है गलियों का बेताज बादशाह।

इन विश्वविद्यालयों की कक्षाएं उजाड़-खण्डहरात में, गैरेजों में, सिनेमा-हाल और चाय-पान की गुमटियं में लगती हैं।

'प्रेक्टिकल-ट्रेनिंग' के लिए नगर के आवारा-लोफ़र, गंजेड़ी-भंगेड़ी, दुराचारी-बलात्कारी, युवकों की संगत ज़रूरी होती है।

बस-ट्र्रक चालकों और खलासियों से भूगोल, नागरिक शास्त्र और भारतीय दंड-विधान का सार सरलता से उनकी समझ में आ जाता है।

मोटर गैरेज में काम सीख कर मेकेनिकल-इंजीनियरिंग और आटो-मोबाइल इंजीनियरिंग का कोर्स पूरा किया जाता है।

दर्जियों की दुकान में बैठकर 'ड्रेस-डिज़ाइनर' और 'फैशन-टेक्नोलॉजी' की डिग्री मिल जाती है।

नाई की दुकान से 'ब्यूटी पार्लर' का डिप्लोमा मिल जाता है।

सिविल ठेकेदार के पास मुंशीगिरी कर लेने के बाद आदमी आसानी से सिविल इंजीनियर जितनी योग्यता प्राप्त कर लेता है।

विद्युत ठेकेदार के पास काम सीखने पर इलेक्ट्रीशियन का डिप्लोमा मिला समझो।

काम-शास्त्र के सैध्दांतिक पक्ष से वे कमसिनी में ही वाकिफ हो जाते हैं और प्रेक्टीकल का अवसर निम्न-मध्यम वर्गीय समाजों में उन्हें सहज ही मिल जाता है। चचेरे-ममेरे भाई-बहिन, चाचा-मामा, बुआ-चाची-मामी, नौकर-नौकरानी, पिता या अध्यापक, इनमें से कोई एक या अधिक लोग उन्हें व्यस्क अनुभवों से मासूम बचपन ही में पारंगत बना देते हैं।

राजनीति-शास्त्र सीखने के लिए कहीं जाने की ज़रूरत नहीं। आजकल हर चीज में 'पोलिटिक्स' की बू आती है।

यूनुस और उसके जैसे तमाम सुविधाहीन बच्चे ऐसी ही विश्वविद्यालयों के छात्र थे।

बड़े भाई सलीम की असमय मृत्यु से ग़मज़दा यूनुस को एक दिन उसके आटोमोबाईल इंजीनियरिंग के प्राध्यापक यानी मोटर साइकिल मिस्त्री मन्नू भाई ने गुरू-गम्भीर वाणी में समझाया था--''बेटा मैं पढ़ा-लिखा तो नहीं लेकिन 'लढ़ा' ज़रूर हूं। अब तुम पूछोगे कि ये लढ़ाई क्या होती है तो सुनो, एम्मे, बीए जैसी एक डिग्री और होती है जिसे हम अनपढ़ लोग 'एलेलपीपी' कहते हैं। जिसका फुल फार्म होता है, लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर, समझे। इस डिग्री की पढ़ाई फ़र्ज-अदायगी के मदरसे में होती है जहां मेहनत की कापी और लगन की कलम से 'लढ़ाई' की जाती है।''

यूनुस मन्नू भाई की ज्ञान भरी बातें ध्यान से सुना करता।

असुविधाओं से भरपूर अव्यवस्थित घरेलू माहौल में स्कूली शिक्षा की किसे फ़िक्र!

वह अच्छी तरह जानता था कि अकादमिक तालीम उसके बूते की बात नहीं।

उसे भी अब इस 'लढ़ाई' जैसी कोई डिग्री बटोरनी होगी।

इसीलिए वह मन्नू उस्ताद की बात गिरह में बांध कर रक्खे हुए था।

मन्नू भाई की छोटी सी मोटर-साइकिल रिपेयर की गैरेज थी।

नगर के बाहर पहाड़ी नाले के पुल को पार करते ही दुचकिया, तिनचकिया, चरचकिया, 'चकिया जैसी तमाम गाड़ियों की मरम्मत के लिए गैरेज हैं। टायरों मे हवा भरने वाले बिहारी मुसलमानं की दुकानें भी इधर ही हैं।

मन्नू भाई की गैरेज पुल पार करते ही पहले मोड़ पर है।

बन्ने उस्ताद के दर्जीगिरी वाले अनुभव से मायूस यूनुस को गैरेज का माहौल ठीक लगा।

गैरेज के अंदर एक लकड़ी का बोर्ड था, जिस पर क्रम से पाना-पेंचिस आदि सजा कर टांग दिए जाते। यूनुस का काम होता, सुबह मन्नू भाई के घर जाकर उनसे गैरेज की चाभी ले आता। एक बित्ते का एक झाड़ू था, जिससे वह पहले गैरेज के बाहर सफाई करता। फिर गैरेज का शटर उठाता। अंदर रिपेयर के लिए आई स्कूटर-मोटर साइकिलें बेतरतीबी से रखी रहतीं। एक-एक कर तमाम गाड़ियों को वह गैरेज से बाहर निकालता। फिर गैरेज के अंदर झाड़ू लगाता। इस बीच कोई नट-बोल्ट, वाशर या कोई अन्य पार्ट गिरा मिलता तो उसे उठाकर यथास्थान रख देता। मन्नू भाई के आने से पूर्व यदि कोई कस्टमर आता तो वह उनकी समस्या सुनता और उसके लायक रिपेयर का काम होता तो कर देता।

इस छोटी-मोटी रिपेयरिंग से अपना जेब-खर्च बनाता।

रात गैरेज बंद होने से पहले वह तमाम पाना-पेंचिस को जले मोबिल से धोता, पाेंछता और फिर उन्हें दीवार पर टंगे बोर्ड पर क्रमानुसार सजा देता।

मन्नू भाई और यूनुस मिलकर मरम्मत के लिए तमाम गाड़ियों को गैरेज के अंदर ठूंसते।

यूनुस जब घर जाने के लिए सलाम करता तो मन्नू भाई उसे रोकते और फिर कभी दस, कभी बीस रूपए का नोट पकड़ा देते।

अपनी इस छोटी-मोटी कमाई से यूनुस बहुत खुश रहता।  

नन्हा यूनुस बड़ा जहीन था...

कहा भी जाता है कि ये सिक्खड़े-सरदार और म्लेच्छ-मुसल्ले बड़े हुनरमन्द होते हैं।  तकनीकि दक्षता में इनका कोई सानी नहीं।

मेहनत और मरम्मत के काम ये कितनी सफाई से करते हैं। नाई, दर्जी और सब्जियों की दुकानें अधिकांशत: मुसलमानों की हैं।  अण्डा, मुर्गा, मछली और गोश्त की दुकानों पर भी मुसलमानों का क़ब्ज़ा है।

बाबरी-मस्जिद गिराए जाने के बाद नगर में हिन्दू कसाइयं ने 'झटका' वाली दुकानें लगाईं। हमीद चिकवा बताता है कि उन लोगों ने अपनी मीटिंग में फैसला लिया है कि 'गर्व से कहो हम हिन्दू हैं' का नारा लगाने वाले राष्ट्रीय हिन्दू यदि मांसाहारी हैं तो वे मुसलमान चिकवों से गोश्त न खरीदें, बल्कि 'झटका' वाली दुकानों से गोश्त खरीदें।

इससे मुसलमानों के इस एकक्षत्र व्यवसाय पर कुछ तो प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

सिक्खड़ों को तो सन् चौरासी में औकात बता दी गई थी। मुसल्लों को गोधरा के बहाने गुजरात में तगड़ा सबक़ सिखा दिया गया।

सिख तो समझ गए और मुख्यधारा में आ गए, लेकिन इन म्लेच्छ-मुसलमानों को ये कंाग्रेसी और कम्यूनिस्ट चने के झाड़ पर चढ़ाए रखते हैं। और वो जो एक ठो ललुआ है, वो चारा डकार कर मुसलमानों का मसीहा बना बैठा है।

यूनूस ने कम-उम्र में ही जान लिया था कि उसके अस्तित्व के साथ ज़रूर कुछ गड़बड़ है।

चौक के तिलकधारी मुनीमजी कहा करते--''अगर ये हमारे छद्म धर्मनिरपेक्षवादी नपुंसक हिंदू शांत रहें तो 'आर-पार' की बात हो ही जाए। सेकूलर कहते हैं ये शिखण्डी साले खुद को।''

उनके हमख़याल चौबेजी हां में हां मिलाते--''हिंदू हित की बात करने वाले को ये चूतिए साम्प्रदायिक कहते हैं। हमें अछूत समझते हैं।''

शिशु मंदिर के प्रधानपाठक विश्वकर्मा सर कहां चुप रहते, वैसे भी उन्हें गुरूर था कि वह इस कस्बे के सर्वमान्य बुध्दिजीवी हैं, किन्तु  राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित मुनीमजी और चौबेजी उन्हें ज्यादा अहमियत नहीं देते--''अब समय आ गया है कि हम अपना 'होमलैण्ड' बना लें। इन मुसल्लों को द्वितीय नागरिकता मिले और इन्हें मताधिकार से वंचित किया जाए। तुष्टिकरण की सारी राजनीति स्वमेव खत्म हो जाएगी।''

अपने समय की चुनौतियों से बाख़बर और बेखबर यूनुस, मन्नू भाई को काम करते बड़े ध्यान से देखा करता।

उनकी हरेक स्टाइल की नक़ल किया करता।

मन्नू भाई चाय बहुत पीते थे।

कोई ग्राहक आया नहीं कि आर्डर कर देते--''यूनुस, तनि भाग कर चारठो चाय ले आ।''

वहीं यूनुस को चाय की आदत पड़ी।

मन्नू भाई को अल्सर हो गया था।  

सुनत हैं कि अब वह इस दुनिया में नहीं है। 

सोलह

मोटर साइकिल मिस्त्री मन्नू भाई के बाद उसे एक और उस्ताद मिला-'डॉक्टर'।  यह कोई एमबीबीएस या झोला छाप डॉक्टर का ज़िक्र नहीं, बल्कि सरदार शमशेर सिंह डोज़र ऑपरेटर का किस्सा है।

सरदार शमशेर सिंह कहा करता--''सर दर्द, कमर दर्द, बुखार की दवा लिखने वाला जब डॉक्टर कहलाता है तो तमाम रोगों को दूर भगाने वाली दारू की सलाह देने वाले को डॉक्टर क्यों नहीं कहा जाता?''

दूसरे डॉक्टर वह होते हैं जो किसी खास विषय पर शोध करते हैं और विश्वविद्यालय से उन्हें 'डॉक्टरेट' की डिग्री मिलती है। अधिकांश लोगों को यह डिग्री गहन अध्ययन के पश्चात मिलती हैं और कुछ लोगों को उनकी विलक्षण प्रतिभा के कारण विश्वविद्यालय स्वयं 'डी लिट' की मानद उपाधि से सम्मानित करता है।

सरदार शमशेर सिंह को दारू के क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त थी, इसलिए फुटपथिया विश्वविद्यालय के कुलपतियों ने उसे मानद 'डॉक्टरेट' की उपाधि से सम्मानित किया था। डॉक्टर की शागिर्दी में यूनुस 'बुलडोज़र' और 'पेलोडर' चलाना सीख गया। 'पोकलैन' भी वह बहुत बढ़िया चलाता।

'पोकलैन' हाथी की सूंड की तरह का एक खनन-यंत्र है, जिसके 'बूम' और 'बकेट' का 'मूवमेंट' ठीक हाथी की सूंड के जैसा है। जिस तरह से कोई हाथी अपनी सूंड की मदद से ऊंचे-ऊंचे पेड़ों से हरी-भरी डालियां तोड़कर उसी सूंड की सहायता से ग्रास अपने मुंह में डालता है, उसी तरह से 'पेलोडर' मशीन काम करती है।

शायद दुनिया के तकनीशियनों, अभियंताओं, सर्जकों और वास्तुकारों ने प्राकृतिक तत्वों और जीव-जंतुओं की उपस्थिति से प्रेरणा प्राप्त कर अपनी कुशलता और दक्षता में वृध्दि की है।

कोयला की खुली खदानों और धरती की काया-कल्प कर देने वाली परियोजनाओं की जान हैं ये भीमकाय उपकरण। चाहे विशालकाय पहाड़ कटवा कर चटियल मैदान बना दें या बड़ी-बड़ी नहरें खोद डालें।

यूनुस के हुनर की सभी तारीफ़ करते। वह 'डॉक्टर' का चेला जो ठहरा!

'डॉक्टर' अब रिटायर हो चुका है।

अपने खालू का यूनुस इसीलिए अहसान माना करता कि उन्होंने 'डॉक्टर' से उसके लिए सिफारिश की।  'डॉक्टर' के कारण ठेकेदारों में आज उसकी अपनी 'मार्केट-वैल्यू' है।

खाला ने उसे काफी समझाया था कि वह अपनी ज़िंदगी को खुद एक नए सांचे में ढाले। अपने बड़े भाई सलीम की तरह हड़बड़ी न करे।

जो भी काम सीखे पूरी लगन और ईमानदारी के साथ सीखे। खाला कहा करती थी-''सुनो सबकी, लेकिन करो मन की। दूसरों के इशारे पर नाचना बेवकूफी है।''

इसीलिए काम सीखने के लिए यूनुस ने खाला की सलाह मानी।

उसने 'डॉक्टर' की दारू या अन्य ऐब नहीं बल्कि उसके हुनर को आत्मसात किया। यही यूनुस की पूंजी थी।

यूनुस ने कोई कसर न छोड़ी काम सीखने में।

'डॉक्टर' को स्वीकार करना पड़ा कि उसने आज तक इतने चेले बनाए किन्तु इस 'कटुए' जैसा एक भी नहीं। बहुत से शागिर्द बने, जिनने उससे शराब पीनी सीखी। नशे में धुत रहना सीखा। रंडीबाजी सीखी किन्तु काम न सीखा।

इसीलिए यूनुस को वह कहा करता-''ये बड़ा लायक चेला निकला।'' यूनुस को अब भी सिहरन होती है, जाड़े की उन कड़कड़ाती अंधेरी रातों को यादकर। जब कोयले की ओपन-कास्ट खदान के 'डम्पिंग-एरिया' में वह डॉक्टर के साथ काम सीखने जाया करता था।

सिंगरौली क्षेत्र मे कोयले की बड़ी-बड़ी खुली खदानें हैं।

मध्यप्रदेश और उत्तर-प्रदेश की सीमा पर कोयले का अकूत भण्डार है सिंगरौली क्षेत्र में। रिहन्द नदी पर बांधा गया विशालकाय बांध। कोयला और पानी के योग से बिजली बनाने के बड़े-बड़े विद्युत-गृह। लाखों टन कोयले से बनने वाली हज़ारों मेगावाट बिजली। इस बिजली की राष्ट्रीय पूर्ति में सिंगरौली क्षेत्र की पर्याप्त हिस्सेदारी है।

सिंगरौली क्षेत्र देश का एक प्रमुख ऊर्जा-तीर्थ है।

एक बार में एक सौ बीस टन कोयला ढोकर चलने वाले भीमकाय डम्पर।  सैकड़ों टन बारूद की ब्लास्टिंग से चूर-चूर चट्टानों का पहाड़ अपनी पीठ पर उठाए, अलमस्त हाथी की तरह झूम-झूम कर चलते डम्पर। उन डम्परों के चलने से ऐसा शोर होता ज्यों सैंकड़ों सिंह दहाड़ रहे हो।  एक-एक डम्पर एक बड़ी फैक्टरी के बराबर हैं।

डम्पर के चलने के लिए चौड़ी सड़के बनाई जाती हैं। इन्हें हॉल-रोड कहा जाता है। हॉल-रोड पर डम्पर चलने के पूर्व पानी के टेंकर से जल-सिंचन किया जाता है ताकि धूल के बादल न उठें। बालुई पत्थर की धूल फेफड़े के लिए नुकसानदेह होती है। फेफड़े के छिद्रों में कोयला और पत्थर की धूल के असुरक्षित सेवन से खदान-कर्मियों को न्यूमोकोनियोसिस, सिलकोसिस जैसी बीमारियां हो जाती हैं।

सिंगरौली क्षेत्र की कोयला खदानों में बड़ी-बड़ी ड्रेगलाईनें हैं। जमीन की सतह से डेढ़ सौ फिट तक गहरे से मिट्टी खोदकर तीन सौ फिट की दूरी पर ले जाकर 'डम्प' करने वाला यंत्र 'ड्रेगलाईन'। यूनुस बड़े शौक़ से उस भीमकाय यंत्र को चलते हुए देखा करता, एकदम मंत्रमुग्ध होकर। रस्सों के सहारे 'बकेट' का संचालन। लम्बे-लम्बे 'बूम' पर घिर्रियों के सहारे रस्सों का अद्भुत खेल। 'डॉक्टर' उर्फ शमशेर सिंह एक दिन यूनुस को ड्रेगलाईन दिखाने ले गए। पास जाकर उसे डर लगा था। रात का समय। सैकड़ों बल्बों के प्रकाश से ड्रेगलाईन का चप्पा-चप्पा प्रकाशमान था। इतनी रोशनी कि आंखें चुंधिया जाएं। इतने बल्ब कि गिना न जा सके। मार्चिंग पैड से लेकर बूम के टॉप तक तेज़ रोशनी के सर्चलाईटें। 'डॉक्टर' उसे एक जीप में बिठाकर ड्रेगलाईन तक ले गया था। जीप पांच सौ मीटर की दूरी पर रोक दी गई। वहां से अब पैदल जाना था। उतनी बड़ी ड्रेगलाईन के समक्ष इंसान कितना बौना नज़र आता है।  हाथी के समीप चींटी की सी हैसियत। ड्रेगलाईन एक घण्टे में एक हज़ार मज़दूरों के एक माह काम के बराबर मिट्टी हटाती है। इसे मात्र एक आदमी चलाता है। ड्रेगलाईन-आपरेटर। जिसका वेतन खदान के सभी श्रमिकों से ज्यादा होता है।

ड्रेगलाईन के पीछे दो डोज़र लगातार चल रहे थे। वे ड्रेगलाईन की अगली 'सीटिंग' के लिए समतल जगह बना रहे थे।

डॉक्टर ने यूनुस से कहा कि घूमती हुई ड्रेगलाईन में चढ़ना होगा। ड्रेगलाईन का मार्चिंग-पैड ही ज़मीन से बीस फुट ऊंचा था। उस पर सीढ़ी लगी थी। डॉक्टर उचक कर उस सीढ़ी पर चढ़ गया और जल्दी-जल्दी ऊपर चढ़ने लगा। यूनुस ने भी उसका पीछा किया। अब वे मार्चिंग-पैड पर थे। ड्रेगलाईन अपनी जगह पर बैठे-बैठे घूम-घूम कर मिट्टी उठाकर फेंक रहा था। फिर डॉक्टर पचास फुट ऊंचे मशीन-रूम की तरफ जाने वाली सीढ़ी पर चढ़ने लगा। यूनुस भी पीछे-पीछे चढ़ गया। मशीन-रूम से गरम हवा निकल रही थी, जिससे अब ठंड लगनी कम हो गई थी। मशीन-रूम का दरवाज़ा बंद था। डॉक्टर ने धक्का मारकर दरवाज़ा खोला तो यंत्रों के चलने से उत्पन्न भयानक शोर से लगा कि कान के पर्दे फट जाएंगे। यूनुस ने कान हाथों से बंद कर लिए। मशीन-रूम में बड़े-बड़े मोटर, जेनेरेटर और जाने कितने उपकरण लगे थे। जिनके चलने से वहां शोर था।

डॉक्टर युनुस को ड्रेगलाईन की क्रियाविधि के बारे में बताने लगा। डम्प-रोप को घुमाने के लिए ड्रम लगा हुआ है। ड्रेग-रोप घुमाने के लिए ड्रम किधर है। यूनुस ने जाना कि आठ-दस फैक्टरियों के बराबर ड्रेगलाईन में मोटर-जेनेरेटर लगे हैं।

फिर वे लोग आपरेटर केबिन की तरफ गए। दो दरवाज़ा खोलने पर एक कारीडार मिला। जिसपर कालीन बिछा हुआ था। यहां तकनीशियन आराम कर रहे थे। डॉक्टर ने यहां अपना जूता उतारा। यूनुस ने भी जूते उतारे। फिर एक कांच का दरवाज़ा खोल कर वे आपरेटर केबिन में जा पहुंचे। एकदम वातानुकूलित कमरा। कांच का घर। पीछे तरफ वायरलैस-सेट। बीच में आपरेटर की सीट। जिसपर एक सरदारजी आराम से बैठकर हाथ और पैर के संचालन से ड्रेगलाईन चला रहे थे। यूनुस को लेकर डॉक्टर सामने की तरफ आ गया। यहां से नीचे कोयले की परत दिखलाई दे रही थी। जिसके ऊपर के ओभर-बर्डन को ड्रेगलाईन की बकेट से उठाकर सरदारजी तीन सौ फुट दूर किनारे डाल रहे थे। इस फेंकी हुई मिट्टी का एक नया पहाड़ बनता जा रहा था। बड़ी लय-ताल बध्द क्रिया थी ड्रेगलाईन की।

ड्रेगलाईन-आपरेटर के सामने और दोनों तरफ जाने कितने लीवर, बटन और सिग्नेलिंग-लाईट्स लगे हुए थे। बीच-बीच में सरदारजी कंट्रोल-रूम से वायरलैस के ज़रिए बात करता जाता था। फिर सरदारजी ने डॉक्टर की फरमाईश पर असिस्टेंट से कहा कि डॉक्टर को 'पांगड़ा' सुनवा दे यारा!

यूनुस ने उस दिन वहां चाय भी पी। आपरेटर की सुख-सुविधा का वहां पूरी व्यस्था थी। यदि वह थक जाए या उसे हाजत लगी हो तो असिस्टेंट मौजूद रहता, जो ड्रेगलाईन आपरेशन ज़ारी रखता।

ऐसी ही एक और हैरत-अंगेज़ मशीन है ड्रीलिंग-मशीन। ये ज़मीन में एक सौ पचास फुट गहरे और एक फुट व्यास के छेद करती है। जिनमें डेढ़ से दो टन बारूद डालकर ब्लास्टिंग की जाती है। एक बार में चार-पांच सौ टन बारूद की ब्लास्टिंग होती है। आस-पास का इलाका दहल जाता है। धूल और रंग-बिरंगी गैसों के बादल काफी देर तक छाए रहते हैं। कहते हैं कि सिंगरौली क्षेत्र में खदान खुलने से पहले हर तरह के जंगली जानवर रहा करते थे। यह एक अभ्यारण्य की तरह था। खदान खुलने से जंगलात कम हुए। नगर बसे। जानवर जाने कहां गायब हो गए। आज भी सियार, मोर, लोमड़ी और बनमुर्गियां यहां नज़र आते हैं। कई लोग बाघ आदि देखने का दावा भी करते हैं।

धरती के गर्भ में सदियों से छिपी है कोयले की मोटी परतें।

कोयले की परत के ऊपर सख्त बालुई परतदार तलछट चट्टानें हैं।

यूनुस ने ओभरमैन मुखर्जी दा से एक बार पूछा था कि दादा, ये कोयला बना कैसे?

बांग्लादेश से रांची आकर बसे मुखर्जी दा के सामने के दो दांत टूटे हुए हैं। वह कुछ भी कहें 'हत् श्शाला' कहे बिना अपनी बात पूरी न करते।

उन्होंने बताया कि करोड़ों बरस पूर्व यहां घने जंगल हुआ करते थे। फिर महाजलप्लावन हुआ होगा और वे सारे जंगलात पानी में डूब गए होंगे। पेड़-पौधे, वन्य-जन्तु, वनस्पतियां आदि सड़-गलकर कार्बनिक पदार्थों में तब्दील हो गए। कालांतर में उन पर बालू-मिट्टी की परतें जमती चली गईं। धीरे-धीरे उच्च-ताप और दाब सहते-सहते जंगलात कोयले में बदल गए होंगे। इसीलिए अभी भी इन कोयले की परतों में वृक्षों के फासिल्स यानी जीवाश्म पाए जाते हैं।

कोयला कहीं-कहीं धरती की सतह के काफी नीचे मिलता है। उसकी क्वालिटी अच्छी होती है। उसक कोयले को निकालने के लिए सुरंगें बनाई जाती हैं या चानक खोदे जाते हैं। ऐसी खदानों को अण्डर-ग्राउण्ड खदानें कहा जाता है।

जिन स्थानों में कोयले की परत धरती की सतह से थोड़ा-बहुत नीचे मिलती है, उन कोयले की परतों का खनन 'ओपन-कास्ट' विधि से किया जाता है। ऐसी खदानें ओपन-कास्ट माईन या खुली खदानें कहलाती हैं।

ब्लास्टिंग के बाद चूर्ण हुई चट्टानों को शावेल जैसे उत्खनन यंत्र खोदकर डम्परों पर लाद देते हैं। इन चट्टानों के चूर्ण को खनन-शब्दावलि में 'ओभर-बर्डन' कहा जाता है। ओभर-बर्डन को डम्परों के ज़रिए डम्पिंग-एरिया में भेजा जाता है। 'डम्पिंग एरिया' में ओभर-बर्डन डम्प होते-होते एक पहाड़ सा बन जाता है। 

सदियों पुराने पहाड़ कटकर ओभर-बर्डन के नए पहाड़ों में बदल जाते हैं। ओभर-बर्डन के पहाड़ इंसान के हाथ की रचना हैं। इन नए पहाड़ों की चोटियों को समतल कर उन पर वृक्षारोपण किया जाता है।

क्ोयला निकल जाने के बाद बाकी बचे गङ्ढे को कृत्रिम झील में बदल दिया जाता है। इसी डम्पिंग-एरिया में बुलडोज़र चला करते हैं, जो डम्पर द्वारा लाई गई चट्टानों को 'डोज़' कर समतल बनाता है, ताकि उन पर दुबारा डम्पर आकर ओभर-बर्डन की डम्पिंग कर सकें।

यूनुस उसी बुलडोज़र की आपरेटरी सीखने खदान आया करता।

डम्प्ािंग-एरिया में शेर की तरह दहाड़ते डम्पर आते तो उन्हें देख कलेजा दहल जाता। डम्पर आपरेटर जब रिवर्स-गियर लगाता तो उसका आडियो-विजुअल अलार्म बजने लगता-पीं पां पीं पांकृ

डम्पर पीछे चलकर बुलडोजर से बनाई गई मेड़ पर आकर रूकता। फिर डम्पर आपरेटर 'डम्प लीवर' उठाता और ओभर-बर्डन का ढेर भरभराकर सैकड़ों फिट नीचे गहराई में गिर जाता। कुछ माल मेड़ पर बच जाता जिसे डोजर-आपरेटर, डोजर की सहायता से साफ करता। ताकि अगला डम्पर उस जगह पर आकर सुरक्षित 'अनलोड' कर सके।

डम्पिंग क्षेत्र में किनारे की मेड़ बनाना ही असली हुनर का काम है। उस मेड़ को 'बर्म' कहा जाता है। अगर ये बर्म कमजोर बनें तो डम्पर के अनियंत्रित होकर नीचे लुढ़कने का खतरा बना रहता है। असुरक्षित डम्पिंग-क्षेत्र में कई दुर्घटनाएं घट चुकी हैं।

इससे करोड़ों रूपए की लागत से आयातित डम्पर दुर्घटनाग्रस्त होते हैं और कई बार आपरेटर की जान भी जाती है। बुलडोजर से डोजिंग करना एक तरह की कला है। जिस तरह मूर्तिकार छेनी-हथोड़ी से बेजान पत्थरों पर जान फूंकता है, उसी तरह कुशल डोज़र-आपरेटर, डोजर की ब्लेड के कलात्मक इस्तेमाल से ऊबड़-खाबड़ धरा का रूप बदल देता है।

यूनुस अपनी बेजोड़ मेहनत और लगन से जल्द ही इस हुनर में माहिर हो गया।

इससे उसके पियक्कड़ उस्ताद 'डॉक्टर' का भी लाभ हुआ।

सेकण्ड-शिफ्ट की डयूटी में शाम घिरते ही यूनुस को बुलडोज़र पकड़ा कर 'डॉक्टर' दारू-भट्टी चला जाता।

कोयला खदान के श्रमिकों और कुछ अधिकारियों के मन में ये धारणा है कि दारू-शराब फेफड़े में जमी कोयले की धूल को काट फेंकती है। साथ ही एक नारा और गूंजता कि दारू के बिना खदान का मज़दूर ज़िंदा नहीं रह सकता।

इसीलिए कोयला-खदान क्षेत्र में दारू के अड्डे बहुतायत में मिलते हैं।

लोक कहते कि मरने के बाद कोयला खदान के मजदूरों को जलाने में लकड़ी कम लगेगी, क्योंकि उनके फेफड़े में वैसे भी कोयले की धूल जमी होगी, जो स्वत: जलेगी।

मुखर्जी दा कहते-''ये आदमी भी श्शाला गुड-क्वालिटी का कोयला होता है।''

यूनुस ने कभी दारू नहीं पी।

हो सकता है इसके पीछे खाला-खालू का डर हो, या मन में बैठी बात कि मुसलमानों के लिए शराब हराम है। ठीक इसी तरह यूनुस बिना तस्दीक के बाहर गोश्त नहीं खाता। उसे पक्का भरोसा होना चाहिए कि गोश्त हलाल है, झटका नहीं।  दोस्तों के साथ पार्टी-वार्टी में वह मछली का प्रोग्राम बनवाता या फिर शाकाहारी खाना खाता।

ओपन कास्ट कोयला खदान की हैवी मशीनों को चलाना सीखने के बाद उसमें आत्मविश्वास जागा।

सरकारी नौकरी तो मिलने से रही, हां अब वह बड़ी आसानी से किसी प्राईवेट नौकरी में तीन-चार हजार रूपए महीना का आदमी बन गया था।

खालू ने यूनुस के लिए कोयला-परिवहन करने वाली कम्पनी 'मेहता कोल एजेंसी' यानी 'एमसीए' के मैनेजर से बात की।

मैनेजर ने जवाब दिया कि जगह खाली होने पर विचार किया जाएगा।

खालू जान गए कि प्राईवेट में भी हुनर के बदौलत नौकरी का जुगाड़ कर पाना उनके बस की बात नहीं, इसलिए वह हार मान गए।

लेकिन खाला कहां हार मानने वाली थीं।

मज़दूर यूनियन के नेता चौबे जी से खाला की अच्छी बोलचाल थी। चौबेजी उनके मैके गांव के थे। कॉलरी में इस तरह के सम्बंध काफी महत्व रखते हैं।

खाला के निमंत्रण पर चौबेजी एक दिन क्वाटर आए तो यूनुस दौड़कर उनके लिए दो बीड़ा पान ले आया। पान चबाते हुए चौबेजी ने कहा था-''सबेरे दस बजे मेहतवा के आफिस पर लइकवा को भेज दें। आगे जौन होई तौन ठीकै होई।''

और वाकई, चौबेजी की बात पर उसे अस्थाई तौर पर काम मिल गया। 

'परमानेंट' के बारे चौबेजी को विश्वास दिलाया गया कि काम देखकर जल्द ही बालक को परमानेंट कर दिया जाएगा।

एक बात ज़रूर यूनुस को सुना दी गई कि कम्पनी अपनी आवश्यकतानुसार, काम पड़ने पर अपने कर्मचारियों को देश के किसी भी हिस्से में काम करने भेज सकती है। एमसीए का कारोबार बिहार, बंगाल, झारखण्ड, एमपी और छत्तीसगढ़ में फैला है। इनमें से किसी भी प्रान्त में उन्हें भेजा जा सकता है।

मरता क्या न करता, यूनुस ने तमाम शर्तें मान लीं।

इसके अलावा कोई चारा भी तो न था।

भीमकाय सरकारी डम्परों में लदकर कोयला कोल-यार्ड तक पहुंचता।

जहां उनमें से शेल-पत्थर आदि को छांटा जाता है। कोल-यार्ड को पहली निगाह में कोई बाहरी आदमी कोयला-खदान ही समझेगा। सैकड़ों एकड़ में फैले विस्तृत-क्षेत्र में कोयले के टीले। इन्हें अब प्राईवेट दस-टनिया डम्परों में भरकर रेल्वे साईडिंग तक पहुंचाने का काम एमसीए का था। इन दस-टनिया डम्परों से सीधे ग्राहकों तक भी कोयला पहुंचाया जाता।

कोयला-यार्ड में पेलोडर मशीन से दस-टनिया डम्परों में कोयला भरा करता था यूनुस। उसकी कार्यकुशलता, लगनशीलता, कर्मठता और मृदु-व्यवहार के कारण मुंशी-मैनेजर उसे बहुत मानते थे। कोई उसे छोड़ने को तैयार नहीं था।

न जाने क्यों ऐसे हालात बने कि उसे खाला का घर छोड़ने को निर्णय लेना पड़ गया।

वैसे भी उसे लग रहा था कि उसका दाना-पानी अब उठा ही समझो। वो तो अच्छा हुआ कि बडे भाई सलीम की तरह अकुशल श्रमिकों की श्रेणी में उसकी गिनती नहीं थी। उसकी एक 'मार्केट वैल्यू' बन चुकी है। उसे मालू था कि इस बहुत कुछ पाने के लिए वह ढेर सारा खो भी रहा है। यानी तपती-चिलचिलाती धूप में घनी आम की छांह जैसी अपनी सनूबर को...

वह सनूबर को दिल की गहराईयों से प्यार करता था।

फिल्म 'मुकद्दर का सिकंदर' का एक मशहूर गाना वह अक्सर गुनगुनाया करता-''ओ साथी रे, तेरे बिना भी क्या जीना।' बिग बी अमिताभ की तर्ज पर इसे यूं भी कहा जा सकता है-'सनूबर के बिना जीना भी कोई जीना है लल्लू, अंय...'

क्या अब वह सनूबर से कभी मिल पाएगा?

यूनुस जानता है कि वह सनूबर के लायक नहीं।

मखमल में टाट का पैबंद, यही तो खाला ने उसके बारे में कहा था।

खाला जानती थी कि वह सनूबर को चाहता है। सनूबर भी उसे पसंद करती है, लेकिन सिर्फ एक-दूसरे को चाह लेने से कोई किसी की जीवन-संगिनी तो बन नहीं सकती।

यूनुस के पास सनूबर को खुश रखने के लिए आवश्यक संसाधन कहां?

'माना कि दिल्ली मे रहोगे, खाओगे क्या ग़ालिब?'

अब सनूबर उसकी कभी न हो पाएगी!

दुनिया में कुछ इंसान भाग्यवश स्वर्ग के सुख भोगते हैं और कुछ इंसानों के छोटे-छोटे स्वप्न, तुच्छ सी इच्छाएं भी पूरी नहीं हो पाती हैं.......क्यों?

ऐसे ही कितने सवालों से जूझता रहा यूनुस.... 

स्त्रह

प्लेटफार्म के मुख्य-द्वार पर एक लड़की दिखी।

यूनुस चौंक उठा।

कहीं ये सनूबर तो नहीं।

वैसी ही पतली-दुबली काया।

उस लड़की के पीछे एक मोटा आदमी और ठिगनी औरत थी, जो शायद उसके मां-बाप हों।

वे प्रथम-श्रेणी के प्रतीक्षालय की तरफ जा रहे थे।

यूनुस सनूबर को बड़ी शिद्दत से याद करने लगा।

उसे याद आने लगीं वो सब बातें, जिनसे शांत जीवन में हलचल मची।

जमाल साहब का खाला के घर में प्रभाव बढ़ता गया। हरेक मामलात में उनकी दखलंदाजी होने लगी।

रमज़ान के महीने में वह रात को खाला के घर में ही रूकने लगे। रमज़ान में सुबह सूरज उगने से पूर्व कुछ खाना पड़ता है, जिसे सेहरी करना कहते हैं। गेस्ट-हाउस में कहां ताज़ा रोटी रात के दो-तीन बजे बनती। इसलिए खाला की कृपा से ये जमाल साहब शाम को जो घर आते तो फिर सुबह फजिर की नमाज़ के बाद ही वापस गेस्ट-हाउस जाते।

ईद में वह नागपुर जाते, लेकिन खाला और खालू की ज़िद के कारण वह अपने माता-पिता और भाई-बहनों के पास नहीं जा पाए।

जाने कैसा जादू कर रखा था खाला ने उन पर...

असली कारण तो यूनुस को बाद में पता चला।

हुआ ये कि इस बीच एक ऐसी बात हुई कि यूनुस को खाला के घर अपनी औकात का अंदाज़ा हुआ।

उस दिन उसने जाना कि यदि यहां रहना है तो अपमानित होकर रहना होगा।

उसने जाना कि पराधीनता क्या होती है?

उसने जाना कि ग़रीबी इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन है।

उसने जाना कि पराश्रित होकर जीने से अच्छा मर जाना है।

और उसी समय उसके मन में अपने परों के भरोसे अपने आकाश में उड़ने की इच्छा जागी।

हुआ ये कि सनूबर ने यूनुस के कपड़े बिना धोए यूं ही फींच-फांच कर सुखा दिए थे। कपड़ों में साबुन लगाया ही नहीं था।

ग्रीस-तेल और पसीने की बदबू कपड़े में समाई हुई थी।

यूनुस का पारा सातवें आसमान में चढ़ गया।

उसने आव देखा न ताव, सनूबर की पिटाई कर दी।

सनूबर चीख-चीख कर रोती रही।

खाला ने यूनुस को जाहिल, गंवार, खबीस, राच्छस, भुक्खड़, एहसान-फरामोश और भगौड़ा आदि जाने कितनी उपाधियों से नवाज़ा।

यूनुस उस दिन डयूटी गया तो फिर घर लौटकर न आया। उसने कल्लू के घर रहने की ठान ली थी। जैसे अन्य लड़के जीवन गुज़ार रहे हैं, वैसे वह भी रह लेगा। खाला के घर में हुई बेइज्ज़ती से उसका मन टूट चुका था।

दूसरे दिन जब वह घर न लौटा तो खालू स्वयं एमसीए की वर्कशाप में आए। उन्होंने यूनुस को घूरकर देखा।

फिर पूछा-''घर काहे नहीं आता बे!''

यूनुस खालू से बहुत डरता था।

उसकी रूह कांप गई।

उसने कहा-''ओभर-टाईम कर रहा था। आज आऊंगा।''

खालू मुतास्सिर हुए।

उसकी जान बची।

शाम डयूटी से छूटने पर उसने मनोहरा की होटल से गर्मागर्म समोसे खरीदे। साथ में इमली की खटमीठी चटनी रखवाई। सनूबर को समोसे बहुत पसंद हैं।

वाकई, उसे किसी ने कुछ न कहा।

सभी ने दिल लगाकर समोसे खाए।

खाला के कहने पर सनूबर ने दो समोसे अपने जमाल अंकल के लिए रख दिए।

उस रात सभी ने लूडो खेली।

जमाल अंकल, खाला, सनूबर और यूनुस।

यूनुस के बगल में सनूबर थी और उसके बगल में जमाल अंकल। टी-टेबिल के चारों तरफ बैठे थे वे।

यूनुस ने खेल के दरमियान महसूस किया कि टेबिल के नीचे एक दूसरा खेल ज़ारी है। जमाल अंकल के पैर सनूबर के पैर से बार-बार टकराते हैं। ऐसे सम्पर्क के दौरान दोनों बात-बेबात खूब हंसते हैं।

उसके पल्टे हुए गुलाबी होंठ जब हंसने की मुद्रा में होते तो यूनुस को दीवाना बना जाते थे, लेकिन आज उसे वे होंठ किसी चुड़ैल के रक्त-रंजित होठों की तरह दिखे।

उसे सनूबर की बेवफाई पर बड़ा गुस्सा आया।

उस रात खालू की नाईट-शिफ्ट थी।

खालू खाना खाकर डयूटी चले गए।

जमाल साहब भी जाना चाहते थे कि टीवी पर गुलाम अली की ग़ज़लों का कार्यक्रम आने लगा।

'चुपके-चुपके रात-दिन आंसू बहाना याद है

हमको अब तक आशिकी का वो ज़माना याद है'

मुरकियों वाली खनकदार आवाज़ में गुलाम अली अपनी सुरों का जादू बिखेर रहे थे। यूनुस भी गुलाम अली को पसंद करता था, लेकिन जमाल साहब की रूचि जानकर उसे जाने क्यों गुलाम अली की आवाज़ नकियाती सी लगी। आवाज़ ऐसे लगी जैसे पान की सुपारी गले में फंसी हुई हो।

जैसे जुकाम से नाक जाम हो।

वह टीवी के सामने से हट गया।

अंदर किचन में उसका बिस्तर बिछता था।

चटाई के साथ गुदड़ी लिपटी रहती। सुबह चटाई लपेट दी जाती और रात में वह सोने से पूर्व चटाई बिछा लेता। ओढ़ने के लिए एक चादर थी। तकिया वह लगाता न था।

किचन की लाईट बंद हो तब भी बाहर आंगन की रोशनी खिड़की से छनकर किचन में आती। उसे उस धुंधली रोशनी में सोने की आदत थी।

टीवी वाले कमरे से ठहाके गूंज रहे थे।

यूनुस के कान में कुछ अफ़वाहें पड़ चुकी थीं कि जमाल साहब बड़ा शातिर आदमी है। नागपुर में 'डोनेशन' वाले इंजीनियरिंग कॉलेज से पढ़ कर निकला है जमाल साहब। सुनते हैं कि वहां वह गुण्डा था गुण्डा।

उसकी खूब चलती थी वहां।

बाहरी लड़कों से महीना वसूली करता था जमाल साहब।

खालू ने उसे घर घुसा कर अच्छा नहीं किया है।

एक के मुंह से यूनुस ने सुना कि जमाल साहब की नज़र खुली बोरी और बंद बोरी की शक्कर, दोनों में है।

खुली बोरी और बंद बोरी की बात यूनुस समझ सकता था, क्योंकि फुटपाथी विश्वविद्यालय के कोर्स के मुहावरों में ये भी था।

खुली बोरी यानी खाला और बंद बोरी माने सनूबर!

यूनुस को नींद नहीं आ रही थी।

गुलाम अली की आवाज़ किसी तेज़ छुरी की तरह उसकी गर्दन रेत रहे थे-

'तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किसका था

 न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किसका था'

 'वफ़ा   करेंगे   निबाहेंगे    बात    मानेंगे

 तुम्हें भी याद है कि ये कलाम किसका था'

सनूबर की खिलखिलाहट सुनकर यूनुस का दिल रो रहा था।

उसने करवट लेकर अपने कान को कुहनी से दबा लिया।

आवाज़ मध्दम हो गई।

नींद लाने के लिए कलमे का विर्द करने लगा-

'ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह।'

पता नहीं उसे नींद आई या नहीं, लेकिन रात अचानक उसे अपना पैजामा गीला लगा।

हाथ से टटोला तो गीली-चिपचिपी हो गईं उंगलियां, यानी.....

उसका दिमाग खराब हो गया।

नींद उचट गई।

पेशाब का दबाव मसाने पर था।

वह उठा।

खिड़की के पल्लों से छनकर पीली रोशनी के धब्बे कमरे में फैले हुए थे। ठीक उसके पैजामा में उतर आए धब्बों की तरह।

उसे कमज़ोरी सी महसूस हो रही थी। जाने क्यों स्वप्न में हुए स्खलन के बाद उसकी हालत पस्त हो जाती है।

उठने की हिम्मत न हुई।

वह कुछ पल बैठा रहा।

तभी उसके कान खड़े हुए।

पहले कमरे से फुसफुसाने की आवाज़ आ रही थी। तख्त भी हौले-हौले चरमरा रहा था।

यूनुस ने किचन से लगे बच्चों के कमरे में झांका। वहां सनूबर अपने अन्य भाई-बहनों के साथ सोई हुई थी।

इसका मतलब पहले कमरे में खाला हैं। फिर उनके साथ कौन है? खालू की तो नाईट शिफ्ट है।

यूनुस के मन में जिज्ञासा के साथ भय भी उत्पन्न हुआ।

वह दबे पांव पहले कमरे के दरवाज़े की झिर्रियों से अंदर झांकने लगा।

पहले कमरे में भी अंधेरा ही था।

हां, रोशनदान के ज़रिए सड़क के खम्बे से रोशनी का एक बड़ा टुकड़ा सीधे दीवाल पर आ चिपका था।

अंधेरे की अभ्यस्त उसने तख्त पर निगाहें टिकाईं।

देखा खाला के साथ जमाल साहब आपत्तिजनक अवस्था में हैं।

उसकी टांगें थरथराने लगीं।

उसका कंठ सूख गया।

हाथ में जुम्बिश होने लगी।

दिल की धड़कनें तेज़ क्या हुईं कि उसका मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया।

इसी उहा-पोह में वहां से भागना चाहा कि उसके पैरों की आहट सुनकर खाला की दबी सी चीख़ निकली।

यूनुस तत्काल अपने बिस्तर पर आकर लेट गया।

पहले कमरे की गतिविधि में विध्न पैदा हो चुका था। वहां से आने वाली आहटें बढ़ीं। फिर बाहर का दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई। फिर स्कूटर के स्टार्ट होने की आवाज़ आई और लगा कि फुर्र से उड़ गई हो स्कूटर।

यूनुस को काटो तो खून नहीं।

आंखें बंद किए, करवट बदले वह अब खाला की हरकतों का अंदाज़ा लगाने लगा।

लगता है खाला ने पहले बच्चों के कमरे की लाईट जलाकर वहां का जाएज़ा लिया है।

अब वह किचन की तरफ आ रही हैं।

लाईट जलाकर यहां भी वह यूनुस के पास कुछ देर खड़ी रहीं।

उनका शातिर दिमाग माज़रा समझना चाह रहा था।

फिर वह पुन: पहले कमरे में चली गईं।

यूनुस की जान में जान आई।

वह उसी तरह पड़ा रहा जबकि पेशाब के ज़ोर से मसाने फटने को थे।

जमाल साहब और खाला की हक़ीक़त, सनूबर का जमाल साहब की तरफ झुकाव और सनूबर के साथ जमाल साहब के रिश्ते को लेकर खाला-खालू के ख्वाब...

पूरी पहेली यूनुस के सामने थी।

उस पहेली का हल भी उसके सामने था।

लेकिन उसमें यूनुस का कोई रोल न था...

इस स्थिति से निपटने के लिए यूनुस के दिमाग में एक बात आई।

क्यों न सनूबर को वस्तुस्थिति से अवगत कराया जाए! उसके बाद जो होगा, सो होगा।

अठारह

जब यूनुस डयूटी से घर लौटा, उस समय दिन के बारह बजे थे।

खाला घर में नहीं थीं। हस्बेमामूल खाला पड़ोसियों के घर बैठने गई हुई थीं।

सनूबर लगता है स्कूल नहीं गई थी और किचन में चावल पका रही थी।

यूनुस आजकल सनूबर से ज्यादा बातें नहीं करता। बस, काम भर की बातें। वह सीधे आंगन में पानी की टंकी की तरफ हाथ-मुंह धोने चला गया।

गमछे से मुंह पोंछते हुए वह पहले कमरे में चला गया। पर्दा उठा हुआ था। बाहर से रोशनी अंदर आ रही थी। शायद बिजली नहीं थी, वरना इस घर में टीवी कम ही बंद रहता है।

यूनुस तख्त पर लेट गया।

उसने आंखें बंद कर लीं।

उसके माथे पर गहरी लकीरें थीं।

सनूबर कब आकर दरवाज़े के पास खड़ी हुई उसे पता न चला। जब सनूबर ने दरवाज़ा खोला तो चूं... की आवाज़ से उसकी तंद्रा भंग हुई।

उसने सनूबर के चेहरे को ध्यान से देखा।

उसे लगा कि सनूबर उससे कुछ कहना चाह रही है।

यूनुस उठ बैठा।

उसने सनूबर के पलटे हुए होंठ और भारी पलकों में कैद उदास आंखों को बड़ी हसरत से देखा। कितना प्यार था सनूबर से उसको।

सनूबर तख्त के पास कुर्सी पर बैठ गई।

यूनुस को लगा कि उसके दिल की गहराईयों से आवाज़ गूंजी हो-''सनूबर....!''

सनूबर कुछ न बोली।

''सनूबर, तुम्हें मालूम है, तुम्हारे साथ धोखा हो रहा है।''

यूनुस की बहकी-बहकी बातें सुनकर सनूबर डरी हुई लग रही थी।

''डरो नहीं, ये सच है....तुम्हारे साथ तुम्हारी मम्मी एक खेल खेल रही हैं।''

सनूबर ने अपने कान पर हाथ रख लिए-''क्या बक रहे हो यूनुस..?''

''सच सनूबर, तुम्हें जमाल साहब से हुशियार रहना चाहिए। वह बड़ा धोखेबाज है। मैं कैसे कहूं कि जमाल अंकलवा कितना कमीना है।''

तभी दीवाल घड़ी टनटनाई-'टन्न!'

सनूबर ने घड़ी देखी-''एक बज गए, मम्मी आती होंगी।''

यूनुस की समझ में न आ रहा था कि बीती रात की दास्तान को वह किन लफ्ज़ों में बयान करे।

फिर भी हिम्मत करके वह बोला-''सनूबर! वो जमाल सहबवा तुमसे हमदर्दी का दिखावा करता है और जानती हो वो कितना कमीना है कि सुनोगी तो... अच्छा किसी से बताओगी तो नहीं न!''

सनूबर इतने में झुंझला गई।

''नहीं बाबा, किसी से नहीं कहूंगी, तुम बताओ तो सही।''

''तो सुनो, कल रात मैंने अपनी आंखों से देखा। अल्ला-कसम, कलाम-पाक की कसम जो झूठ बोलूं मुझे मौत आ जाए। मैंने जमाल साहब और खाला को कल रात एक साथ एक बिस्तर पर देखा है सनूबर.... तुम्हें विश्वास हो या न हो ये सच है सनूबर...''

सनूबर ने अपने कान बंद कर लिए।

वह रोने लगी।

''कल रात वो हालात देखने के बाद कहां सो पाया हूं सनूबर!''

यूनुस का मन तो हल्का हुआ लेकिन सनूबर तो जैसे बेजान हो गई।

खाला आईं तो यूनुस आंखें बंद किए सोने का नाटक करता रहा।

सनूबर अपने कमरे में लेटी रही।

खाला यूनुस के पास कुर्सी पर बैठ कर चीखीं -''कहां मर गई कुतिया...''

सनूबर ने जवाब न दिया तो उठ कर अंदर गईं और सनूबर को झिंझोड़कर उठाते हुए बोलीं-''कैसे पसरी है महारानी, खाना-वाना बनेगा या आज हड़ताल है? इसीलिए उनसे कहती हूं कि लड़कियन को पढ़वाईए मत, लेकिन सुनें तब न! आजकल अपने जमाल अंकल की शह पाकर हरामजादी जबान लड़ाना सीख गई है।''

सनूबर कुछ न बोली और उठ बैठी।

यूनुस ने भी आवाज़ सुनकर नींद खुलने का अभिनय किया।

तब तक चिट्टे-पोट्टे स्कूल से घर आ गए और संयोग से लाईट भी आ गई। छुटकी जमीला ने बस्ता यूनुस की गोद पर पटककर टीवी ऑन किया।

टीवी से चिपककर घण्टों वह कार्टून प्रोग्राम देखा करती है।

यूनुस ने देखा कि सनूबर गाली खाकर भी न उठी तो खाला स्वयं किचन में घुसीं।

खाना तो वैसे तैयार ही था।

बस दाल छौंकना बाकी था।

दुपहर में सब्जी बनती न थी। दाल-भात अचार वगैरा के साथ खाया जाता। खालू 'हरियर मिर्च' के साथ खाना खा लेते थे।

दाल छौंक कर खाला ने यूनुस को आवाज़ दी।

यूनुस उठा और किचन के पास दालान में अपनी सोने की जगह नंगे फर्श पर बैठ गया।

सनूबर वैसे ही गुमसुम लेटी रही और खाला के संग यूनुस ने खाना खा लिया।

यूनुस जानता था कि सनूबर इतनी आसानी से उसकी बात पर विश्वास करेगी नहीं। वह अपने तईं छानबीन ज़रूर करेगी।

पता नहीं उसने क्या छानबीन की और उससे उसे क्या हासिल हुआ लेकिन अगली सुबह यूनुस ने अपने बिस्तर पर अपनी बगल में गर्माहट पाई तो जाना कि सनूबर उसकी बगल में लेटी है।

वह घबरा कर उठ बैठा।

सनूबर ने उसका हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा।

यूनुस ने पहले कमरे और अंदर वाले कमरे  की तरफ देखा। आहट लेने की कोशिश की। दीवाल घड़ी पांच बार टनटनाई।

इसका मतलब सभी सो रहे हैं।

खालू तो डयूटी गए हुए हैं।

वह सनूबर की बगल में लेट गया।

सनूबर ने उसे बाहों में भर लिया।

पतली-दुबली सनूबर का नर्म-गुनगुना आलिंगन....

सनूबर उसके कानों में फुसफुसाई-''मुझे भगा कर ले चलो इस जहन्नुम से यूनुस...!''

उस दिन उसे एहसास हुआ कि वह कितना कमज़ोर आदमी है।

उस दिन उसने फैसला किया कि अब वह अपने लिए एक नई ज़मीन तलाशेगा.....

एक नया आसमान बनाएगा.....

एक नए सपने को साकार करेगा.....

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