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एक नई पहचानएक घण्टी की टनटनाहट के साथ प्लेटफार्म में हलचल मच गई। रात के ठिठुरते अंधियारे को चीरती पैसेंजर की सीटी नज़दीक आती गई और चोपन-कटनी पैसेंजर ठीक साढ़े बारह बजे प्लेटफार्म पर आकर रूकी। इक्का-दुक्का मुसाफिर गाड़ी से उतरे। पूरी गाड़ी अमूमन खाली थी। यूनुस जल्दी से इंजन की तरफ भागा। वह इंजिन के पीछे वाली पहली बोगी में बैठना चाहता था। यदि खालू आते भी हैं तो इतनी दूर पहुंचने में उन्हे समय तो लगेगा ही। पहली बोगी में वह चढ़ गया। दरवाज़े से लगी पहली सीट पर एक साधू महाराज लेटे थे। अगली लाईन में कोई न था। हां, वहां अंधेरा ज़रूर था। वैसे भी यूनुस अंधेरी जगह खोज भी रहा था। उसने अपना बैग ऊपर वाली बर्थ पर फेंक दिया और ट्रेन से नीचे उतर आया। वह चौकन्ना सा चारों तरफ देख रहा था। अचानक उसके होश उड़ गए। स्टेशन के प्रवेश-द्वार पर खालू नीले ओव्हर-कोट में नज़र आए। उनके साथ एक आदमी और था। वे लोग बड़ी फुर्ती से पहले गाड़ी के पिछले हिस्से की तरफ गए। यूनुस तत्काल बोगी पर चढ़ गया और टॉयलेट में जा छिपा। उसकी सांसें तेज़ चल रही थीं। ट्रेन वहां ज्यादा देर रूकती नहीं थी। तभी उसे लगा कि कोई उसका नाम लेकर आवाज़ दे रहा है-यू...नू....स! यू.......नू.....स! यूनुस टॉयलेट में दुबक कर बैठ गया। गाड़ी की सीटी की आवाज़ आई और फिर गाड़ी चल पड़ी। वह दम साधे दुबका रहा। जब गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली, तब उसकी सांस में सांस आई। बैग कंधे पर टांगे हुए ही वह खड़े-खड़े मूतने लगा। वाश-बेसिन के पानी से उंगलियों को धोते वक्त उसकी निगाहें आईने पर गईं। आईने के दाहिनी तरफ स्केच पेन से स्त्री-पुरूष के गोपन-सम्बंधों को बयान करता एक बचकाना रेखांकन बना हुआ था। यूनुस ने दिल बहलाने के लिए उस टॉयलेट की अन्य दीवारों पर निगाह दौड़ाई। दीवार में चारों तरफ उसी तरह के चित्र बने थे और साथ में अश्लील फिकरे भी दर्ज थे। यूनुस टॉयलेट से बाहर निकला, लेकिन वह चौकन्ना था। ट्रेन की खिड़की से उसने बाहर झांका। दो पहाड़ियों के बीच से गुज़र रही थी गाड़ी। आगे जाकर महदईया की रोशनी दिखाई देगी क्योंकि अगला स्टेशन महदईया है। सिंगरौली कोयला क्षेत्र का आखिरी कोना महदईया यानी गोरबी ओपन-कास्ट खदान। हो सकता है कि खालू ने खबर की हो तो महदईया स्टेशन में उनके मित्र उसे खोजने आए हुए हों। पहाड़ियां समाप्त हुईं और रोशनी के कुमकुम जगमगाते नज़र आने लगे। इसका मतलब स्टेशन क़रीब है। महदईया स्टेशन के प्लेटफार्म में प्रवेश करते समय ट्रेन की गति धीमी हुई तो यूनुस पुन: एक टॉयलेट में जा घुसा। वह किसी तरह के ख़तरे का सामना नहीं करना चाहता था। उसका अंदाज़ सही था। इस प्लेटफार्म पर भी उसे अपने नाम की गूंज सुनाई पड़ी। इसका मतलब ये सच था कि खालू ने यहां भी अपने दोस्तों को फोन कर दिया था। वह टॉयलेट में दुबक कर बैठा रहा और पांच मिनट बाद ट्रेन सीटी बजा कर आगे बढ़ ली। यूनुस ने राहत की सांस ली। टॉयलेट से वह बाहर निकला। उसने देखा कि साधू महाराज के पैर के पास एक स्त्री बैठी है। वह एक देहाती औरत थी। साधू महाराज के वह पांव दबा रही थी। यूनुस ने उस सीट के सामने ऊपर वाली बर्थ पर अपना बैग रखा। फिर खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ कर शीशे के पार अंधेरे की दीवार को भेदने की बेकार सी कोशिश करने के बाद अपनी बर्थ पर उचक कर चढ़ गया। उसे नींद आने लगी थी। एयर-बैग से उसने गर्म चादर निकाली और उसे ओढ़ लिया। एयर-बैग अपने सिरहाने रख लिया ताकि चोरी का ख़तरा न रहे। ट्रेन की लकड़ी की बेंच ठंडा रही थी। वैसे तो उसने गर्म कपड़े पर्याप्त मात्रा में पहन रखे थे, लेकिन ठंड तो ठंड ही थी। रात के एक-डेढ़ बजे की ठंड। उसका सामना के करने लिए औज़ार तो होने ही चाहिए। वह उठ बैठा और अपनी जेब से सिगरेट निकाल ली। सिगरेट सुलगाते हुए साधू महाराज की तरफ उसकी निगाह गई। देहाती स्त्री बड़ी श्रध्दा से साधू महाराज के पैर दबा रही थी। साधू महाराज यूनुस को सिगरेट सुलगाते देख रहे थे। दोनों की निगाहें मिलीं। यूनुस ने महसूस किया कि वह भी धूम्रपान करना चाहता है। यूनुस बर्थ से नीचे उतरा। उसने महाराज की तरफ सिगरेट बढ़ाई। साधू महाराज खुश हुआ। उसने सिगरेट सुलगाई और गांजा की तरह उस सिगरेट के सुट्टे मार कर बाकी बची सिगरेट स्त्री को दे दी। स्त्री प्रसन्न हुई। उसने सिगरेट को पहले माथे से लगाया फिर भोले बाबा का प्रसाद समझ उस सिगरेट को पीने लगी। स्त्री के बाल लटियाए हुए थे। हो सकता है कि वह सधुआईन बनने की प्रक्रिया में हो। उसके माथे पर भभूत का एक बड़ा सा टीका लगा हुआ था। उसकी आंखों में शर्मो-हया एकदम न थी। वह एक यंत्रचालित इकाई सी लग रही थी। तमाम आडम्बर से निरपेक्ष, साधू महाराज की सेवा में पूर्णतया समर्पित.... साधू महाराज ने पूछा-''कौन बिरादरी का है तू?'' यूनुस को मालूम है कि बाहर पूछे गए ऐसे प्रश्नों का क्या जवाब दिया जाए। जिससे माहौल न बिगड़े और काम भी चल जाए। एक बार उसने सच बोलने की ग़ल्ती की थी, जिसके कारण उसे बेवजह तकलीफ़ उठानी पड़ी थी। उसे कटनी में स्थित उस धर्मशाला का स्मरण हो आया, जहां वह एक रात रूकना चाहता था। तब सिंगरौली के लिए चौबीस घण्टे में एक ट्रेन चला करती थी। कोतमा से वह कटनी जब पहुंचा तब तक सुबह दस बजे चोपन जाने वाल पैसेंजर गाड़ी छूट चुकी थी। अब दो रास्ते बचे थे। वापस कोतमा लौआ जाए या फिर कटनी में ही रहकर चौबीस घण्टे बिताए जाएं। वैसे कटनी घूमने-फिरने लायक नगर तो है ही। कुछ सिनेमाघरों में 'केवल वयस्कों के लिए' वाली पिक्चर चल रही थीं। ट्रेन में ही एक मित्र बना युवक उससे बोला कि चलो, स्टेशन के बाहर एक धर्मशाला है। मात्र दस रूपए में चौबीस घण्टे ठहरने की व्यवस्था। खाना इंसान कहीं भी खा लेगा। हां, एक ताला पास में होना चाहिए। धर्मशाला में ताला नहीं मिलता। जो भी कमरा मिले उसमे ग्राहक अपना ताला स्वयं लगाता है। यूनुस ने कहा था कि ताला खरीद लिया जाएगा। वे लोग स्टेशन के बाहर निकले और सड़क के किनारे बैठे एक ताला-विक्रेता से यूनुस ने दस रूपए वाला एक सस्ता सा ताला खरीद लिया। वे दोनों धर्मशाला पहुंचे। पीली और गेरूआ मिट्टी से पुती हुई एक पुरानी इमारत का बड़ा सा प्रवेश-द्वार। जिस के माथे पर अंकित था-''जैन धर्मशाला''। वे अंदर घुसे। अंदर द्वार से लगा हुआ प्रबंधक का कमरा था। उस समय वहां कोई भी न था। सहयात्री ने कहा कि चलो, धर्मशाला देख तो लो। वे दोनों अंदर की तरफ पहुंचे। दुतल्ला में चारों तरफ कमरे ही कमरे बने थे। बीच में एक उद्यान था। उद्यान के अंदर एक मंदिर। पानी का कुंआ, हैंड-पम्प, और नल के कनेक्शन भी थे। वे वापस आए। प्रबंधक महोदय आ चुके थे। वह एक कृशकाय वृध्द थे। चश्मे के पीछे से झांकती आंखें। उन्होंने रजिस्टर खोल कर लिखना शुरू किया-''नाम?'' सहयात्री ने बताया-''कमल गुप्ता'' -''पिता का नाम?'' -''श्री विमल प्रसाद गुप्ता'' -''कहां से आना हुआ और कटनी आने का उद्देश्य?'' -''चिरमिरी से कटनी आया, रेडियो का सामान खरीदने।'' -''ताला है न?'' कमल गुप्ता ने बताया-''हां!'' प्रबंधक महोदय ने रजिस्टर में कमल से हस्ताक्षर करवाकर उसे कमरा नम्बर पांच आबंटित किया। फिर उन्होंने यूनुस को सम्बोधित किया। -''नाम?'' -''जी, मुहम्मद यूनुस।'' स्वाभाविक तौर पर यूनुस ने जवाब दिया। प्रबंधक महोदय ने उसे घूर कर देखा। उनकी भृकुटि तन गई थी। चेहरे पर तनाव के लक्षण साफ दिखलाई देने लगे। लम्बा-चौड़ा रजिस्टर बंद करते हुए बोले-''ये धर्मशाला सिर्फ हिन्दुओं के लिए है। तुम कहीं और जाकर ठहरो।'' सहयात्री कमल गुप्ता नहीं जानता था कि यूनुस मुसलमान है। सफ़र में बातचीत के दौरान नाम जानने की ज़रूरत उन दोनों को महसूस नहीं हुई थी, शायद इसलिए वह भी उसे घूरने लगा। यूनुस के हाथ में एक नया ताला था। वह कभी प्रबंधक महोदय के दिमाग में लगे ताले को देखता और कभी अपने हाथ के उस ताले को, जिसे उसने कुछ देर पहले बाहर खरीदा था। उसने अपनी ज़िन्दगी के व्यवहारिक-शास्त्र का एक और सबक हासिल किया था। वह सबक था कि देश-काल-वातावरण देखकर अपनी असलियत ज़ाहिर करना। उसने जाने कितनी ग़ल्तियां करके, जाने कितने सबक याद किए थे। सलीम भाई के पास ऐसी सहज-बुध्दि न थी, वरना वह ऐसी गल्तियां कभी न करता और गुजरात के क़त्ले-आम में यूं न मारा जाता। इसीलिए जब साधू महाराज ने उसकी बिरादरी पूछी तो वह सचेत हुआ और तत्काल बताया-''महाराज, मैं जात का कुम्हार हूं।'' साधू महाराज के चेहरे पर सुकून छा गया। चेहरा-मोहरा, चाल-ढाल, कपड़ा-लत्ता और रंग-रूप से उसे कोई नहीं कह सकता कि वह एक मुसलमान युवक है, जब तक कि वह स्वयं ज़ाहिर न करे। उसे क्या ग़रज कि वह बैठे-बिठाए मुसीबत मोल ले। वह इतना चालाक हो गया है कि लोगों के सामने 'अल्ला-कसम' नहीं बोलता, बल्कि 'भगवान-कसम' या 'मां-कसम' बोलता है। 'अल्ला जाने क्या होगा' की जगह 'भगवान जाने' या फिर 'राम जाने' कह कर काम चला लेता है। अगर कोई साधू या पुजारी प्रसाद देता है तो बाकायदा झुक कर बाईं हथेली पर दाहिनी हथेली रखकर उस पर प्रसाद लेता है और उसे खाकर दोनों हाथ सिर पर फेरता है। जबकि वही सलीम भाई हिन्दुओं से पूजा-पाठ आदि का प्रसाद लेता ही नहीं था। यदि गल्ती से प्रसाद ले भी लिया तो फिर उसे खाता नहीं था, बल्कि चुपके से फेंक देता था। यूनुस को यदि कोई माथे पर टीका लगाए तो वह बड़ी श्रध्दा-भाव प्रकट करते हुए बड़े प्रेम से टीका लगवाता और फिर उसे घण्टों न पोंछता। ऐसी दशा में उस पर कोई संदेह कैसे कर सकता है कि वह हिन्दू नहीं है। वैसे भी अनावश्यक अपनी धर्म-जाति प्रकट कर परदेश में इंसान क्यों ख़तरा मोल ले। बड़ा भाई सलीम अगर यूनुस की तरह सजग-सचेत रहता। खामखां, मिंया-कट दाढ़ी, गोल टोपी, लम्बा कुर्ता और उठंगा पैजामा न धारण करता तो गुजरात में इस तरह नाहक न मारा जाता... साधू महाराज ने यूनुस को आशीर्वाद दिया- ''तू बड़ा भाग्यशाली है बच्चा! तेरे उन्नत ललाट बताते हैं कि पूर्वजन्म में तू एक पुण्यात्मा था। इस जीवन में तुझे थोड़ा कष्ट अवश्य होगा लेकिन अंत में विजय तेरी होगी। तेरी मनोकामना अवश्य पूरी होगी।'' यूनुस साधू महाराज के चेहरे को देख रहा था। उसके चेहरे पर चेचक के दाग़ थे। दाढ़ी बेतरतीब बढ़ी हुई थी। उसकी आयु होगी यही कोई पचासेक साल। चेहरे पर काईंयापन की लकीरें। साधू महाराज के आशीर्वाद से यूनुस को कुछ राहत मिली। वह पुन: अपनी जगह पर चला गया और बैग से लुंगी निकालकर उसे बर्थ पर बिछा दिया ताकि लकड़ी की बेंच की ठंडक से रीढ़ की हड्डी बची रहे। बर्थ पर चढ़ कर उसने जूते उतारकर पंखे पर अटका दिए। अब वह सोना चाहता था। एक ऐसी नींद कि उसमें ख्वाब न हों। एकदम चिन्तामुक्त सम्पूर्ण निद्रा.... जबकि यूनुस जानता है कि उसे नींद आसानी से नहीं आया करती। नींद बड़ी मान-मनौवल के बाद आया करती है। उसने उल्टी तरफ करवट ले ली और सोने की कोशिश करने लगा। खटर खट खट.....खटर खट खट ट्रेन पटरियों पर दौड़ रही थी। सुबह छ: बजे तक ट्रेन कटनी पहुंच जाएगी। फिर सात-साढ़े सात बजे बिलासपुर वाली पैसेंजर मिलती है। उससे बिलासपुर तक पहुंचने के बाद आगे कोरबा के लिए मन पड़ेगा तो ट्रेन या बस पकड़ी जाएगी। बिलासपुर में स्टेशन के बाहर मलकीते से मुलाकात हो जाएगी। मलकीते के पापा का एक ढाबा कोतमा में हुआ करता था। सन् चौरासी के सिख-विरोधी दंगों में वह होटल उजड़ गया। सिख समाज में ऐसा डर बैठा कि आम हिन्दुस्तानी शहरी दिखने के लिए सिख लोगों ने अपने केश कटवा लिए थे। मलकीते तब बच्चा था। अपने सिर पर रूमाल के ज़रिए वह केश बांधा करता था। वह गोरा-नारा खूबसूरत लड़का था। यूनुस को याद है कि लड़के उसे चिढ़ाया करते थे कि मलकीते अपने सिर में अमरूद छुपा कर आया करता है। उसके पापा एक रिश्तेदारों से मिलने रांची गए थे और इंदिरा-गांधी की हत्या हो गई। वे उस समय सफर कर रहे थे। सुनते हैं कि सफर के दौरान ट्रेन में उन्हें मार दिया गया था। उस कठिन समय में मलकीते ने अपने केश कटवा लिए थे। मलकीते के बारे में पता चला था कि सन् चौरासी के बाद मलकीते की माली हालत खराब हो गई थी। तब मलकीते की मम्मी अपने भाई यानी मलकीते के मामा के पास बिलासपुर चली गई थीं। वहीं मामा के होटल में मलकीते मदद करने लगा था। स्टेशन के बाहर एक शाकाहारी और मांसाहारी होटल है-'शेरे पंजाब होटल'। यही तो पता है उसका। इतने दिनों बाद मिलने पर जाने वह पहचाने या न पहचाने, लेकिन मलकीते एक नम्बर का यार था उसका! यूनुस ने फुटपाथी विश्वविद्यालय की पढ़ाई के बाद इतना अनुमान लगाना जान लिया था कि इस दुनिया में जीना है तो फिर खाली हाथ न बैठे कोई। कुछ न कुछ काम करता रहे। तन्हा बैठ आंसू बहाने वालों के लिए इस नश्वर संसार में कोई जगह नहीं। अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इंसान को परिवर्तन-कामी होना चाहिए। लकीर का फ़कीर आदमी का जीना मुश्किल है। जैसा देस वैसा भेस.... कठिन से कठिन परिस्थिति में भी इंसान को घबराना नहीं चाहिए। कोई न कोई राह अवश्य निकल आएगी। इसीलिए तो वह अम्मी-अब्बू, घर-द्वार, भाई-बहिन, रिश्ते-नाते आदि के मोह में फंसा नहीं रहा। अपना रास्ता स्वयं चुनने की ललक ही तो है कि आज वह लगातार जलावतनी का दर्द झेल रहा है। इसी उम्मीद में कि इस बार की छलांग से शायद अल्लाह की बनाई इत्ती बड़ी कायनात में उसे भी कोई स्वतंत्र पहचान मिल ही जाए... दो यूनुस ने सोचा कि सुबह कटनी पहुंच कर नाश्ता करने के बाद बिलासपुर वाली गाड़ी पकड़ी जाएगी। कटनी का ख्याल दिमाग में आया तो यूनुस को बड़की आपा याद हो आई। कहते हैं कि बड़की कटनी में कहीं रहती है। खाला भी तो बता रही थीं कि अम्मा एक बार चोरी-छिपे उससे मिल आई हैं। चूंकि उसने हिन्दू धर्म अपना लिया है, इसलिए उसे अब बिरादरी में मिलाया तो नहीं जाएगा। यूनुस सोच रहा था कि उनके घर में एक भी औलाद ठीक न निकली? इसका कारण क्या है? उसने बचपन की तमाम घटनाओं को सूत्र-बध्द करना चाहा। ज्ञात हुआ कि उसके अब्बा वंश-वृध्दि के पावन कर्तव्य को प्राथमिकता देते हैं। इस पावन यज्ञ से फुर्सत पाने के बाद उनकी चिन्ता का केंद्र नौकरी हुआ करती। अब्बा दिन भर में एक कट्टा बीड़ी और एक रूपए की खैनी हज़म कर जाते। चाय अमूमन घर में ही पीते। इसके बाद भी यदि समय बच जाता तो स्थानीय कादरिया-मस्जिद कमेटी के लोगों के बीच उठते-बैठते। उनके एक और हमदर्द दोस्त थे नन्हू भाई, जिन्हें यूनुस नन्हू'च्चा कहा करता। अब्बा ने अपनी बेशुमार आल-औलाद की तालीम-तरबीयत, कपड़ा-लत्ता और खान-पान के बारे में कभी ध्यान नहीं दिया। बच्चे चाहे जैसे अपना जीवन गुजारें, स्वतंत्र हैं। अम्मा भी अब्बा के क़दम से क़दम मिलाकर चलती रहीं। उन्होंने प्रति तीन बरस पर एक संतान के औसत को बरकरार रखा। बच्चा अपने प्रयास से स्तन खोज कर मुंह में ठूंस ले तो ठीक, वरना अम्मा के भरोसे रहा तो भूखा ही रह जाएगा। अम्मा ज्यादातर अपनी खाट में पसरे रहा करतीं थीं। ठंड के दिनों मे अब्बा या कि बड़की खाट के नीचे बोरसी में आग डाल कर रख दिया करते। यूनुस उस खाट में कभी-कभी सोता था। बोरसी की आंच से गुदड़ी गरमा जाती और पीठ की अच्छी सिंकाई हो जाती थी। अम्मा अपने सुख-दुख या फिर अपनी हारी-बीमारी की चिंता किया करती थीं। हां, दिन भर चाहे जिस हालत में रहें, शाम होते ही अच्छे से चेहरा धो-पोंछकर स्नो-पाउडर लगा लेतीं। आंखों में काजल और मांग 'अफसन' से भरतीं। जिस्म फैल-छितरा गया है तो क्या, बनना-संवरना तो इंसान की फितरत होती है। हां, लिपिस्टिक की जगह होंठ पान की लाली से रंगे हुआ करते। अम्मा को भी अब्बा की तरह अपनी ढेर संतानों की कोई चिन्ता कभी नहीं रही। इस अव्यवस्था का परिणाम ये हुआ कि यूनुस की बड़ी बहिन बड़की अभी ठीक से जवान हो भी न पाई थी कि घर से भाग गई। यूनुस को याद है कि बड़की उसे कितना प्यार किया करती थी। यूनुस तब चार-पांच बरस का होगा। बस जब देखो तब अपनी बड़की आपा के पास मंडराता रहता। अम्मा को तो बच्चों की सुध ही न रहती थी। पड़ोस में एक सिंधी फलवाला रहता था। सिंधी फलवाला सुबह नौ-दस बजे ठेले पर फल सजाया करता। वह नगर में घूम-घूम कर फल बेचा करता था। नौ बजे घर के सामने वाला सार्वजनिक नल खुला करता था। आधा-पौन घण्टा भीड़ रहा करती, फिर जब लोग कम हो जाते तब बड़की बाल्टी लेकर पानी भरने निकलती। यूनुस भी अपनी बड़की आपा के पीछे एक डब्बा या डेगची लेकर पानी भरने चला आता। बड़की आपा पानी भरने लगती और सिंधी फलवाले को देख मुस्कुराया करती। तब फलवाला यूनुस को इशारे से अपने पास बुलाता। यूनुस फल की लालच में दौड़ा चला जाता। सिंधी फलवाला उसे दो केले देता। कहता, एक अपनी आपा को दे देना। यूनुस को बड़े शौक से अपने हिस्से का केला खाता और बड़की आपा के हिस्से का केला उसे दे देता। बड़की आपा केला हाथ में पकड़ती तो उसके गाल शर्म से लाल हो जाते। यूनुस को क्या पता था कि इस केले के माध्यम से उन दोनों के बीच किस तरह का 'कूट-संवाद' सम्पन्न होता था। वह तो चित्तीदार केले का मीठा स्वाद काफी देर तक अपनी जुबान में बसाए रखता था। रात के नौ बजे बड़की आपा यूनुस का हाथ पकड़ कर टहलने निकलती। तब सिंधी फलवाला फेरी लगाकर वापस लौट आता था। बड़की आपा से जाने क्या इशारे-इशारे में वह बातें किया करता। यूनुस को पुचकारकर पास बुलाता। कोई सड़ा सेब या केला उसके हाथ में पकड़ा देता। यूनुस खुश हो जाता। यूनुस रात में बड़की आपा के पास ही सोया करता था। बड़की आपा उसे अच्छी तरह सीने से चिपका कर सुलाया करती और बहुत प्यार किया करती। कभी-कभी सिंधी फलवाले का आपा के साथ किया गया व्यवहार नन्हे यूनुस को अच्छा नहीं लगता था। चूंकि बड़की आपा बुरा नहीं मानती थी और लजाकर हंस देती थी, इसलिए यूनुस सिंधी फलवाले की हरकतों को चुपचाप हज़म कर जाया करता था। एक दिन यूनुस के दोस्त छंगू ने उसे बताया कि यार, अगर तू बुरा न माने तो एक बात कहूं। यूनुस ने उसे डपट दिया कि ज्यादा भूमिका न बांधते हुए मुद्दे पर आ जाए। छंगू बिचारा कहने में संकोच कर रहा था कि कहीं यूनुस उसे पीट न दे, इसलिए उसने एक बार फिर यूनुस से गछवा लिया कि भाई मेरे, तू बुरा तो नहीं मानेगा। खीज कर यूनुस ने उसकी गर्दन पकड़ कर हिला दिया। छंगू की आंखें बाहर निकलने को हो आईं, तब उसने कहा-''छोड़ दे बे, बताता हूं....कल रात घर के पिछवाड़े मैंने देखा था कि वो सिंधी फलवाला तेरी दीदी को चुम्मू ले रहा है।'' यूनुस का खून खौल उठा-''तो?'' छंगू घबरा गया-''इसीलिए मैं बोल रहा था कि बुरा न मानना।'' यूनुस ने उसे कुछ न कहा। उसने स्वयं अपनी आंखों से ऐसा ही एक प्रतिबंधित दृश्य देखा था। वाकई बड़की हद से आगे बढ़ रही है। अम्मा और अब्बा को तो बच्चे पैदा करने से फुर्सत मिलती नहीं कि वे बच्चों के बारे में सोचें। एक दिन यूनुस पिछवाड़े आंगन में खड़े-खड़े मूत रहा था तब उसने अमरूद के पीछे देखा था कि सिंधी फलवाला और बड़की काफी देर तक एक दूसरे से चिपके खड़े थे। यूनुस की समझ में न आया कि वह तत्काल क्या करे। उसने एक पत्थर उठाया और सिंधी फलवाले की पीठ पर दे मारा। फलवाले ने बुरा नहीं माना, बल्कि मार खाकर वे दोनों बड़ी देर तक हंसते रहे थे। सिंधी फलवाला यूनुस को साला कहा करता और एक मुहावरा उछाला करता-'सारी खुदाई एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ!' उस गुप-चुप चलती प्रेम कहानी की जानकारी सिर्फ यूनुस को थी। सलीम भाई घर से ज्यादा मतलब न रखता लेकिन उसे बड़की की कारस्तानी का अंदाज़ा हो रहा था। उसने अम्मा से बताया भी था कि नालायक बड़की को डांटिए कि उस सिंधी फलवाले से दूर रहे। लेकिन अम्मा को कहां फुरसत थी...उस समय छोटकी पेट मे थी। वे तो अपनी सेहत को लेकर ही परेशान रहा करती थीं। कहते हैं कि सलीम भाई ने एक बार अपने दोस्तों के साथ उस फलवाले को डराया-धमकाया भी था। उसके दोस्तों ने सिंधी फलवाले के ठेले पर बचे हुए फल लूट लिए थे और उसे चेतावनी दी थी कि अपनी आदतों से बाज़ आए। जब सिंधी फलवाले और बड़की ने देखा कि उनके प्रेम-व्यापार के दुश्मन हज़ार हैं तो एक दिन बड़की आपा उस सिंधी फलवाले के साथ कहीं भाग गई। कहते हैं कि वे लोग कटनी चले गए हैं। कटनी तो सिंधियों का गढ़ है गढ़.... इसीलिए यूनुस को कटनी से चिढ़ है। बड़की के घर से भाग जाने के बाद जिसका मन सबसे ज्यादा हताहत हुआ वह सलीम भाई था। जाने क्यों अव्यवस्था का वह धुर विरोधी हुआ करता था। वह अपने दोस्तों में, अपने समाज में, अपनी और अपने परिवार की इज्ज़त बढ़ाने का प्रयास किया करता था। बड़की ने घर से भाग कर जैसे सरे-बाज़ार उसकी नाक कटा दी हो। सलीम भाई अपने दोस्तों के साथ कई दिनों तक सिंधी फलवाले और उसके घरवालों की टोह लेता रहा था। यदि इस बीच वे मिल गए होते तो पक्का है कि फौजदारी हो जाती और बाकी जिन्दगी सलीम भाई जेल में काटते। बड़े ज़िद्दी स्वभाव का था सलीम भाई। सुनता सबकी लेकिन करता अपने मन की। होश सम्भालते यूनुस के बड़े भाई सलीम ने देखा कि इस घर के रंग-मंच में अब ज्यादा दिन का रोल उसके लिए नहीं। अम्मा और अब्बा जिस तरह से घर चला रहे थे, उसमें सलीम को अपना भविष्य अंधकारमय लगा। बड़की आपा के घर से भागने के बाद सलीम ने दोस्तों का साथ छोड़ दिया। कुछ दिन वह घर में कैद रहा। एकदम अज्ञातवास का जीवन.... अम्मा-अब्बा सभी उसकी हालत देख परेशान रहने लगे थे। फिर एक दिन वह फजिर की अज़ान सुनकर जामा-मस्जिद की तरफ चला। वहां उसे नमाज़ पढ़ने के बाद तब्लीगी-जमात वालों के मुख से तक़रीर सुनने को मिली। दिल्ली से जमात आई हुई थी। तब्लीगी-जमात वालों के रहन-सहन और जीवन-दर्शन से उसे प्रेरणा मिली। उसके अशांत दिलो-दिमाग को सुकून मिला। उन लोगों से वह इतना प्रभावित हुआ कि उस दिन घर न लौटा। तब्लीग वालों के साथ ही मस्जिद में क़याम किया। शाम को अस्र की नमाज़ के बाद जमात के लोग स्थानीय स्तर पर लोगों से सीधे सम्पर्क करने के लिए गश्त पर निकले। वह भी उनके साथ गश्त पर निकला। अमीरे-जमात किस तरह अपरिचित कलमा-गो लोगों को दीन-ईमान की दावत दिया करते हैं, उसने देखा। फिर मग़रिब की नमाज़ के बाद ज़िक्र और ईशा की नमाज़ के बाद अल्लाह की तस्बीह और याद और गहरी नींद का ईनाम.... सलीम भाई तब नियमित रूप से जामा-मस्जिद में नमाज़ पढ़ने जाने लगा। कभी-कभी चंद विदेशी मुसलमान भी धर्म-प्रचार और आत्मोत्थान के उद्देश्य से आया करते थे। अब्बा तो कट्टर बरेलवी विचारों के थे। वे तब्लीग़ियों को 'मरदूद वहाबी' कहा करते और अक्सर एक तुकबंदी पढ़ा करते थे- मरदूद वहाबी की यही निशानी उठंगा पैजामा, टकला सिर और काली पेशानी बरेलवी लोगों की पोशाक देवबंदियों के ठीक विपरीत हुआ करती। देवबंदी जहां अपने सिर के बाल सफाचट करवाते हैं वहीं बरेलवी लोगों के बाल कान के ऊपर बढ़े होते हैं। देवबंदियों की मूंछें सफाचट रहेंगी जबकि बरेलवी लोग पतली-तराशी हुई मूंछे रखते हैं। बरेलवियों का पैजामा या शलवार टखनों के नीचे तक रहती है। उनकी टोपियां काली रहती हैं। सफेद टोपियां हों तो कुछ आसमान की तरफ अतिरिक्त उठी हुई रहेंगी। उनके कंधे पर शतरंजी डिज़ाईन का गमछा हुआ करता है। यूनुस ने देवबंदी और बरेलवी दोनों तरह के मुसलमान क़रीब से देखे हैं। उसे आज तक समझ में नहीं आया कि बरेलवी लोगों के माथे पर बार-बार सिजदा करने से किसी तरह का दाग़ नहीं बनता है, जबकि इसी के उलट देवबंदी अभी महीने भर का पक्का नमाज़ी बना नहीं कि उसकी पेशानी पर गोल काला धब्बा उभर आता है। ये ऐसी बुनियादी पहचान है जिसे दोनों अकीदे के लोग अपना अलग-अलग 'ड्रेस-कोड' बनाए हुए हैं। इसी पहनावे और अन्य आउट-लुक से मुसलमान जान जाते हैं कि मियां किस अकीदे का है। शिक्षित तबके का ओहदेदार मुसलमान जो इन सब लफड़ों में नहीं पड़ना चाहता उसके अकीदे के बारे में जानना मुश्किल होता है। इसमें तो इतनी मुश्किल पेश आती है कि कोई ये भी न जान सकें कि वह हिन्दू है या मुसलमान... यूनुस ने अपनी जीवन-यात्रा में इतना जान लिया था कि हिन्दुस्तान में रहना है तो वन्दे मातरम् कहना होगा.... सो उसे देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वह एक मुस्लिम युवक है। अब्बा, सलीम भाई के तब्लीग़ी लोगों में उठने-बैठने का विरोध करते। सलीम हर वह काम करता जिससे अब्बा को दुख पहुंचता। वह उन्हें तकलीफ़ पहुंचाकर सुकून हासिल किया करता था। जाने क्यों सलीम भाई इतना परपीड़क बन गया था। तब्लीग़ी जमातें जब नगर में आतीं, अमीरे-जमात वज़ीर भाई सलीम को बुलवा भेजते। सलीम भाई उन जमात वालों का स्थानीय मददगार हुआ करता। वह आने वाली जमात का इस्तेकबाल करता। उन्हें मस्जिद के एक कमरे में ठहराता। उन्हें कहां खाना पकाना है, कहां नहाना है और कहां पैखाने जाना है, पीने के पानी की व्यस्था कहां से होगी, सभी जानकारी वह उपलब्ध कराता। तब्लीग़ जमात के लोग अत्यधिक अनुशासन में रहा करते। अमीरे-जमात के हुक्म का अक्षरश: पालन किया करते। जमात वालों की बड़ी सख्त दिनचर्या हुआ करती थी। घड़ी देखके तमाम काम... यूनुस भी कभी-कभी सलीम भाई के साथ वहां जाया करता था। जब नगर का सबसे भव्य मंदिर एक छोटे से चबूतरा था। जब यहां पुलिस थाना और रेल्वे स्टेशन के अलावा कोई पक्की इमारत न थी। तब नगर में मस्जिद के नाम पर बन्ने मियां की परछी हुआ करती थी। बन्ने मियां की आल-औलाद न थी। उन्होंने अपनी ज़मीन अंजुमन कमेटी को वसीयत कर दी थी। बन्ने मियां ने एक पक्की मस्जिद के लिए स्वयं अपने हाथों से संगे-बुनियाद रखी थी। अल्लाह उनको करवट-करवट जन्नत बख्शे। फिर स्थानीय स्तर पर चंदा करके वहां एक छोटा सा पक्का हॉल बना। मस्जिद के आंगन में एक कुंआ था। उस कुंए का पानी बड़ा मीठा था। गर्मियों में भी पानी खत्म न होता। कमेटी वालों ने उस पर कव्हर लगा दिया। रस्सी-बाल्टी के लिए छोटा सा छेद था। कुंआ के एक तरफ दो कमरे थे, जिन्हें गुसलखाना कहा जाता था। दूसरी तरफ पिछवाड़े में इस्तिंजा (पेशाब) के लिए मूत्रालय था। फिर एक सीट वाला बैतुल-खुला यानी कि 'सेप्टिक-टेंक' पैखाना था। उस मस्जिद के पेश-इमाम बड़े क़ाबिल बुजुर्ग़ थे। संयमित जीवन वाले, नेक, परहेज़गार और आध्यात्मिकता के हिमायती। लम्बा क़द, पतली-दुबली काया, लम्बी सी सफेद दाढ़ी। बोलते तो मुंह पर हाथ रख लिया करते। कहते हैं कि उनके पास काफ़ी रूहानी ताक़त थी। वे गण्डा-तावीज़ आदि नहीं दिया करते थे। हां, दुआएं कसरत से दिया करते और उनकी दुआएं 'अल्लाह रब्बुल इज्ज़त' की बारगाह में कुबूल हुआ करती थी। वे कुरान-शरीफ़ का इतना मधुर पाठ किया करते कि सुनने वाला मंत्रमुग्ध सुनता रहे। एकदम शुध्द अरबी का उच्चारण। गले की बेहतरीन लयकारी। क़िरत ऐसी कि बस सुनते चले जाइए। यूनुस कभी-कभी जुमा की नमाज़ पढ़ने उसी मस्जिद में जाता। सलीम भाई वहां के एक तरह से अवैतनिक मुअज्ज़िन बन चुका था। मुअज्ज़िन की अनुपस्थिति में वह मस्जिद का काम सम्भाला करता था। इसी कारण सलीम भाई किसी तरह का काम नहीं सीख पाया। यूनुस धर्म पर आश्रित न था, बल्कि स्वाद-परिवर्तन के लिए धर्म के पास आया करता था। जैसे कि स्वाद-परिवर्तन करने के लिए पिक्चर देखना, कव्वाली सुनने जाना, फुटबाल मैच खेलना, बिजय भईया के साथ आर एस एस की शाखा में जाना या फिर गप्पें मारना... सलीम भईया इसी तरह तब्लीग़ जमात वालों के साथ रहते-रहते जमात में चालीस-चालीस दिन के लिए बाहर निकल जाया करता था। अब्बा पर उनके बरेलवी मौलानाओं से फ़तवा मिल चुका था कि ऐसा व्यक्ति जो देवबंदियों के अक़ीदे में विश्वास करे, उनके साथ उठे-बैठे, उसका बहिष्कार कर देना चाहिए, भले से वह अपना बेटा, बेटी, मां या बाप या भाई-बहिन क्यों न हो! अब्बा के पास आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खां द्वारा बताई निदेशिका थी, जिसे वह पहले कमरे की दीवार में लगाए हुए थे। उसकी कुछ बातें आज भी यूनुस को याद हैं। वहाबियों, देवबंदियों से नफ़रत करो। वहाबियों, देवबंदियों के मौलवियों के पीछे नमाज़ पढ़ना मना है। उसकी नमाज़ न होगी और नमाज़ पढ़ने वाला गुनहगार भी होगा। अगर कोई मुसलमान अपना निकाह या अपने बेटी-बेटे का निकाह, वहाबी या देवबंदी से करेगा तो निकाह हरगिज़ न होगा। वहाबियों, देवबंदियों को दावत खिलाना, उनकी दावत खाना दोनों बातें नाजायज़ हैं। सलीम भाई की गतिविधियां किसी से छिपी न थीं। वैसे भी वह जगह थी ही कितनी बड़ी कि बातें दबी रह सकें। नगर के एक कोने में छींकिए तो दूसरे कोने तक आवाज़ चली जाए। बरेलवी मौलानाओं, स्थानीय मदीना मस्जिद की कमेटी के मेम्बरान की समझाईश से तंग आकर अब्बा ने ऐलान कर दिया था कि सलीम उनकी औलाद नहीं। वे सलीम भाई को अपनी औलाद मानने से इंकार कर चुके थे। इतने प्रतिबंधों से परेशान होकर सलीम भाई घर से भाग कर सिंगरौली खाला के पास चले गया। वहां खालू ने सलीम भाई को बैढ़न में एक टीन के चादर से पेटियां बनाने वाले कारखाने में काम दिलवा दिया था। वैसे खालू भी देवबंदियों से चिढ़ते थे। वह एक कट्टर सुन्नी थे और बरेलवी अक़ीदे को मानते थे, लेकिन खाला के हस्तक्षेप के कारण वह सलीम भाई की उपस्थिति घर में बर्दाश्त किया करते थे। शुरू में सलीम भाई बरेलवियों वाली मस्जिद में नमाज़ पढ़ता था, क्योंकि जिसके यहां वह काम सीखा करता था वह कट्टर स्वभाव का था। तब्लीग़ियों और देवबंदियों से बेतरह चिढ़ा करता था। जब सलीम भाई काम अच्छे से सीख गया तो वह एक दूसरे कारखाने में चला गया। ये भी एक मुसलमान का ही कारखाना था लेकिन ये जनाब देवबंदी ख्यालात के इंसान थे। वे जानते थे कि सलीम भाई के खालू बरेलवी हैं, फिर भी उन्होंने सलीम भाई को अपने यहां कारीगर रख लिया। अब सलीम भाई बैढ़न की देवबंदियों वाली मस्जिद में नमाज़ पढ़ने जाने लगा। ये बात खालू को मालूम हुई तो उन्होंने खाला से साफ़-साफ़ कह दिया कि वे वहाबियों को अपने घर में सहन नहीं कर पाएंगे। खाला ने सलीम भाई को समझाया-बुझाया। उसे दुनियादारी की बातें सिखाना चाहीं। सलीम भाई कहां मानने वाला था। इस बीच खालू आ गए तो सलीम उन्हें ही तब्लीग़ करने लगा। ''क़ब्रों की पूजा ठीक नहीं। अस्ल चीज़ है नमाज़, रोज़ा, हज और ज़कात। दीन में राई-रत्ती का जोड़ने वाला बिदअती (देवबंदी लोग बरेलवियों को बिदअती कहते हैं और बरेलवी देवबंदियों को वहाबी! ) कहलाता है। हुजूर सरकारे दो आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के लिए यदि सच्ची मुहब्बत है तो एक सच्चे मुसलमान को हक़ पर चलना चाहिए। बिदअतियों से बचना चाहिए।'' इतना नसीहत सुनकर फौजी खालू तो जैसे आपे से बाहर हो गए। उन्होंने खाला का लिहाज छोड़ सलीम भाई को तत्काल घर-निकाला का फ़रमान दे दिया था। फिर सलीम भाई बैढ़न में कारखाने में ही रहने लगा था। वहीं उसका रंग-रूप बदल गया था। अब वह कमीज़-पैंट पहनना छोड़कर कुर्ता-शलवार पहनने लगा था। चूंकि उसका बदन गठा हुआ था और क़द दरमियाना था, सो उस पर घुटनों के नीचे झूलता कुर्ता और टखनों से उठी शलवार खूब जमती थी। सिर पर वह सफेद गोल टोपी लगाने लगा था। वह एक परम्परागत मुसलमान दिखता था। जैसे कि देवबंद के दारूल-उलूम के छात्र दिखा करते हैं। खाला जब कभी बैढ़न जातीं तो सलीम भाई से मिला करतीं। उन्हें सलीम भाई से बड़ी मुहब्बत थी। सलीम भाई ने अपनी कमाई से खाला के लिए कई साड़ियां खरीदी थीं। फिर सुनने में आया कि किसी तब्लीग़ जमात के साथ सलीम गुजरात की तरफ चला गया है। गुजरात के बड़ोदरा से एक-दो ख़त बैढ़न के कारखाने में आए थे। जिसमें खाला के लिए सलीम भाई अलग से खत लिखा करता था। सलीम भाई के आख़िरी ख़त से पता चला था कि वह एक तब्लीगी परिवार में घर-जमाई बन गया है। अच्छे खाते-पीते लोग हैं वे। फिर एक दिन गुजरात के दंगों में उसके मारे जाने की ख़बर आई। सलीम भाई का पहनावा और रहन-सहन गोधरा-काण्ड के बाद के गुजरात में उसकी जान का दुश्मन बन गया था.... तीन खटर खट् खट्, खटर खट् खट्... ठंड से ठिठुरती हुई ट्रेन की एक लम्बी चीख़... ट्रेन की पटरियों के बदलने की आवाज़ के साथ ब्रेक की चीं...चां... और ट्रेन रूक गई। खिड़कियों के बाहर रोशनी की झलक नहीं। इस लाईन के अधिकांश स्टेशन तो बिना बिजली-बत्ती वाले हैं। सम्भावना है कि आउटर पर ट्रेन रूकी होगी या फिर कोई स्टेशन ही हो। चोपन से सिंगरौली के बीच सिंगल-लाईन है। वैसे तो रात की ये पैसेंजर फास्ट-पैसेंजर के नाम से चलती है और छोटे-मोटे स्टेशन में रूकती नहीं लेकिन क्रासिंग के नाम पर इसे रोका ही जाता है। चाय-पानी के लिए रात के सफर में ब्योहारी ही एक स्टेशन है, जहां कुछ आशा की जा सकती है। दिन में सरई-ग्राम और खन्ना बंजारी स्टेशन में चाय-नाश्ता मिलता है। गार्ड, ड्राइवर और मुसाफिर ऐसी जगहों पर टूट पड़ते हैं। यूनुस को नींद नहीं आ रही थी। उसने नीचे की सीट पर निगाह दौड़ाई। देखा कि साधू महाराज कम्बल ओढ़े पड़े हैं। उनके पैर उस स्त्री की गोद में हैं। स्त्री गहरी नींद में है। उसके वक्ष पर आंचल हटा हुआ है। भरी-भरी छातियां और चेहरे पर सुकून के लक्षण... यूनुस ने सोचा कि कितना मस्त जीवन है ये भी! आत्म-विस्मृति का जीवन! कमाने-खाने की कोई चिन्ता नहीं। लोक-लाज की फ़िक्र नहीं। व्यक्तिगत धन-सम्पत्ति का मोह नहीं। बस, एक अंतहीन यात्रा में चलता जीवन..... बड़े भाई सलीम ने ऐसी ही राह अपनाई थी। उसने सोचा था कि इसी तरह तब्लीग (धर्म-प्रचार) क़रते-करते वह दुनिया के साथ-साथ आख़िरत (परलोक) के इम्तिहानात में कामयाब रहेगा। उसने स्वयं को पूर्ण-रूपेण उस धार्मिक आंदोलन के लिए समर्पित कर रखा था। और एक आस्थावान, धार्मिक प्रवृत्ति का साधारण युवक सलीम गुजरात के दंगों की भेंट चढ़ गया था। यूनुस सलीम भाई की याद में खो गया था.... उसे आज भी याद है वो दिन जब आधी रात घर की सांकल बजी थी। घर में यूनुस और बेबिया भर थे। अब्बा आफिस के काम से शहडोल गए थे। अम्मा पड़ोसी मेहताब भाई के साथ गढ़वा पलामू गई हुई थीं। मेहताब भाई की मंगनी होने वाली है। उसने स्वयं अम्मा को अपने साथ ले चलने की ज़िद की। अंधे को क्या चाहिए दो आंख। अम्मा को तो घर छोड़ने का कोई न कोई बहाना चाहिए। बेबिया और यूनुस तो हैं ही घर के कुत्ते। भौंक-भौंक कर घर की रखवाली यही लोग तो करते हैं। बाकी लोग तो मालिक ठहरे। दुबारा सांकल बजी तो यूनुस ने आवाज़ लगाई-''कौन?'' लगा नन्हू'च्चा की आवाज़ है-''मैं हूं भाई, नन्हू....!'' यूनुस को आश्चर्य हुआ कि नन्हू'च्चा और इस समय! बेबिया अंदर वाले कमरे में घोड़ा-हाथी बेच कर सो रही थी। यूनुस ने जल्दी से चड्डी पर गमछा लपेटा और दरवाज़ा खोला। नन्हू'च्चा ही तो थे। पतली-दुबली काया, लुंगी और कुर्ता पहने, सिर पर दुपल्ली टोपी। बेतरतीब सी खिचड़ी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोले-''गुल्लू का फोन आवा है....तुहरे अब्बा कहां हैं?'' यूनुस ने उन्हें सलाम किया और अंदर आने को कहा। नन्ह'च्चा बेहद घबराए हुए थे-''अब्बा-अम्मा कौनो नहीं हैं का?'' यूनुस मन ही मन डर गया। जाने क्या बात है कि नन्हू'च्चा ऐसे घबरा रहे हैं। उसने जिगर कड़ा कर पूछा-''का बात हो गई च्चा?'' नन्हू'च्चा की आंखें नम हो आईं। ''कुछ न पूछो, बस अपने अब्बा या अम्मा से बात करा दो बचवा!'' ''दोनों नहीं हैं घर में, अब्बा तो शहडोल गए हैं, किसी भी समय आ सकते हैं लेकिन अम्मा बिहार गई हुई हैं। आप हम्में बताइए न का बात है?'' नन्हू'च्चा के बेटे गुल्लू यानी पीर गुलाम ने ही एक बार बताया था कि यूनुस का बड़ा भाई सलीम गुजरात के बडोदा शहर में रहता है। वह तब्लीगी-जमात वालों के साथ गुजरात चला गया था। वहीं एक तब्लीगी मियां भाई इस्माईल सिद्दीकी ने उसे अपना घर-जमाई बना लिया। इस्माईल सिद्दीकी की छोटी-मोटी दुकानदारी है। इकलौती बेटी के लिए नेक दामाद सलीम। सलीम वहीं मज़े में है। पीर गुलाम जब भी बडोदा से कोतमा आता, सलीम भाई का संदेश लेकर आता। उसने एक बार बताया था कि अभागे सलीम ने ससुराल वालों के सामने अपने सगों को मरा हुआ मान लिया है। अब वह कभी लौटकर इधर नहीं आएगा। उसने अपने जीवन का मकसद जान लिया है। सलीम सरेआम ऐलान करता है कि उसने अल्लाह की बनाई इस कायनात में अपने नए मां-बाप पाए हैं। उसकी मुमताज महल बीवी उसे अपना बादशाह, शहंशाह और सरताज मानती है। उनके एक बेटा भी है शाहजादा सलीम की तरह.... अम्मा की ढेर सारी संतान हैं फिर भी वह पहलौठी औलाद सलीम को भूल न पातीं। उनका सलीम से लगाव कुछ ज्यादा ही था। वह जितना सलीम भाई के बारे में उल्टी-सीधी सूचनाएं पातीं, उनका दुख बढ़ता जाता। वह ज़ार-ज़ार आंसू बहातीं और अल्लाह-रसूल से उसके लिए दुआएं मांगा करतीं। पीर गुलाम से अम्मा ने सलीम की चोरी से बहू और बच्चे की फोटो भी मंगवाई थी। उस तस्वीर में सलीम भाई किसी मौलाना सा दिखलाई दे रहा था और उसकी बीवी बुर्के का घूंघट पलट कर चेहरा बाहर निकाले थी। उनका बच्चा ऐसा दिख रहा था जैसे रूई का गोला हो। अम्मा अपनी संदूकची में उस तस्वीर को सम्भाल कर रखती है। यूनुस ने नन्हू'च्चा से पूछा-''क्या ख़बर आई है?'' यूनुस के सामने केबिल टीवी के माध्यम से प्रसारित की जा रही गुजरात की दिल दहलाने वाली घटनाएं कौंध गईं। गोधरा-काण्ड के बाद गुजरात में मार-काट मची हुई है। तमाम अख़बार और टीवी के न्यूज़ चैनल गुजरात के दंगों को आम-जन के सामने लाने में भिड़े हुए है्र। एक से बढ़कर एक न्यूज़ रिपोर्टर कैमरा टीम के साथ जहां-तहां पिले पड़ रहे हैं ताकि दंगों का लाईव-कवरेज बना सकें। ताकि उनके चैनल की टी आर पी अचानक बढ़ जाए। ताकि उनके रिपोर्ट्स से मीडिया में तहलका मच जाए। 'ये देखिए, हाथ में पेट्रोल से भरी बोतलें लिए औरतें आगे बढ़ रही हैं। ये देखिए हरे रंग में पुता एक खास जाति के लोगों का मकान, पर्दे की ओट से झांकतीं बुर्का ओढ़े औरतें, छत पर पत्थर ईंट इकट्ठा करते बच्चे, नमाज़ें अदा करते बुजुर्ग़, और ये देखिए किस तरह तड़ातड़ बोतलें फेंकी जा रही हैं.... यह एक्सक्लूसिव कवरेज सिर्फ इसी चैनल में आप देख रहे हैं...ये देखिए हमारे संवाददाता के साथ जनता कैसा बर्ताव कर रही है....लोग हमारा कैमरा तोड़ कर फेंक देना चाहते हैं... इस सड़क पर देखिए पुलिस के सिपाही मौन खड़े भीड़ को अवसर दे रहे हैं....वो देखिए एक गर्भवती महिला किस तरह भागना चाह रही है.... किस तरह त्रिशूल और लाठियां लिए, माथे पर गेरूआ पट्टी बांधे युवक उस महिला को चारों तरफ से घेर कर खड़े हो गए हैं...और...और... ये रहा उस महिला के पेट का त्रिशूल की नोक से चीरा जाना...देखिए किस तरह त्रिशूल की नोक पर अजन्मा बच्चा भीड़ के सिरों पर खुले आकाश में लहराया जा रहा है....याद रखिए ये लाईव-कवरेज हमारे चैनल पर ही दिखलाया जा रहा है...हमारे जाबांज रिपोर्टरों ने अभी कुछ दिन पहले अफगानिस्तान में अमरीकी हमले के दौरान अमरीकी सैनिकों की बहादुरी और आतंकवादियों के सफाए का आंखों देखा हाल आप लोगों तक पहुंचा कर मीडिया की दुनिया में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया था...और अब गुजरात में क्रिया के बाद की स्वाभाविक प्रतिक्रिया को पूरी ईमानदारी के साथ आप लोगों तक पहुंचाया जा रहा है। रात नौ बजे पूरे घटना-क्रम पर फिर एक बार निगाह डालता हमारा दंगा-विशेष देखना न भूलें। इस कार्यक्रम के प्रायोजक हैं हीरे-जवाहरात के व्यापारी, चरस-हीरोईन के स्मगलर, जूता, साबुन, कण्डोम और नेपकिन्स के निर्माता.... न्यूज़ के दूसरे-तीसरे चैनल भी यही सब दिखा रहे हैं। सभी दावा कर रहे हैं कि ये जो टीवी पर दिखाया जा रहा है, वह सब पहली बार उन्हीं के चैनल वालों ने दिखाया है। कि पूरे घटनाक्रम पर लगातार नज़र रखी जा रही है। कि हमारे संवाददाता अपनी जान जोखिम पर डालकर दंगे की विश्वसनीय एवम् आंखों देखी ख़बरें लगातार भेज रहे हैं। कि सिर्फ हमारा चैनल प्रस्तुत कर रहा है खसखसी दाढ़ी वाले मुख्य-मंत्री और कवि-प्रधानमंत्री से सीधी बातचीत। मुख्य-मंत्री, गृह-मंत्री और प्रधान-मंत्री कटघरे में। एकदम एक्सक्लूसिवली आपके लिए....जिसे प्रायोजित कर रहे हैं चड़डी-बनियान, शीतल-पेय और बीयर के निर्माता... विपक्ष में बैठे लोग, जिनके दामन में जाने कितने दंगों के दाग़ लगे थे, जिन्होंने अपने शासनकाल में बाबरी-मस्जिद शहीद होने दी थी, घड़ियाली आंसू बहा रहे थे। गुजरात के सुलगती आग में उनके गैर-साम्प्रदायिक कार्यकर्ता कहां थे, ऐसे कठिन समय में उनका रोल क्या था? क्या वे कभी इन सवालों का जवाब दे पाएंगे? पक्ष-विपक्ष संसद में आपस में नोंक-झोंक कर रहे थे कि विपक्षियों के कार्यकाल में कितने दंगे हुए। सन् चौरासी का सिख-दंगा के आंकड़ों के आगे तो गुजरात में कुछ ज्यादा नहीं हुआ है। साम्प्रदायिक दंगों का इतिहास पलट लें, हर दंगों में स्त्रियों के साथ बलात्कार हुए हैं। मौजूदा सरकार के कार्यकाल में हुए इस 'सहज-प्रतिक्रियात्मक' कार्य में आंकड़ा उतना ज्यादा नहीं है। बहुसंख्यकों के आक्रोश का दमन स्थिति को और भयावह बना सकता था, इसलिए सरकार ने उन्हें थोड़ा सा मौका ही तो दिया था कि वे अपनी भावनाओं पर काबू पा लें। अभी तो कम ही हादसात हुए हैं। मिलेटरी आदेश की प्रतीक्षा में कैम्पों में दण्ड पेल रही थी। पुलिस ऐसे समय में मूक-दर्शक बनने की ऐतिहासिक भूमिका का तत्परता से पालन कर रही थी। टीवी पर आती ख़बरों से फिर गुजरात धीरे-धीरे गायब होता गया कि नन्हू'च्चा ये कैसी ख़बर लेकर आ गए। पीर गुलाम ने फोन पर क्या बात कही कि नन्हू'च्चा रात के बारह बजे समाचार पहुंचाने चले आए.. यूनुस का मन किसी अनहोनी की आशंका से विचलित हो रहा था। नन्हू'च्चा चारपाई पर बैठे रहे। फिर उन्होंने यूनुस से पानी मांगा। लगता है कि बेबिया की नींद खुल गई थी। वह भकुआई उठी थी। यूनुस ने उससे च्चा के लिए पानी लाने को कहा। तभी दरवाज़े की सांकल पुन: बजी। लगता है कि अब्बा हैं, शायद ट्रेन से लौटे हों। यूनुस ने लपक कर दरवाज़ा खोला, वाकई अब्बा ही थे। नन्हू'च्चा ने उन्हें सलाम किया और फिर अब्बा के लिए भी एक गिलास पानी मंगवाया। अब्बा ने जब पानी पी लिया तो नन्हू'च्चा ने खंखारकर गला साफ किया और अब्बा के गले लगकर रो पड़े-''अपना सलीम नहीं रहा....वो दंगे में मारा गया!'' यूनुस को काटो तो ख़ून नहीं। बेबिया तो दहाड़ मार कर रो पड़ी। ये अचानक कैसी ख़बर सुन रहा था परिवार... एकदम अप्रत्याशित ख़बर... अब्बा की आंखें भी नम हो गईं-''साफ-साफ बताएं कि क्या बात है?'' नन्हू'च्चा के आंसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे-''इधर जब से गुजरात सुलगा हुआ था, मेरे बेटे पीर गुलाम की भी कोई ख़बर नहीं मिल पाई थी। बाद में पीर गुलाम का फोन मिला कि वह ठीक है। मामला जब ठंडाया तो पीर गुलाम डरते-डरते आपके बेटे सलीम के मुहल्ले गया था। वहां उसे पता चला कि सलीम तब्लीग-जमात में चिल्ला काट कर लौटा था। जमात के लोग स्टेशन से अलग-अलग ऑटो बुक कराकर अपने-अपने घरों को लौट रहे थे। सलीम दंगाईयों के बीच फंस गया था। सलीम को आटो-सहित जला कर मार डाला गया। तब्लीगी-जमात वालों ने ही घटना की ख़बर उसकी ससुराल में पहुंचाई थी। ससुराल वाले इस उम्मीद में थे कि शायद सलीम जान बचा कर कहीं छुपा होगा और मामला ठंडाने पर लौट आएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वह ख़बर सही थी। उस आटो के साथ सलीम भी जल कर ख़ाक हो गया था।'' यूनुस को पीर गुलाम की बात याद हो आई जो सलीम भाई को 'लादेन' के नाम से याद किया करता। तब्लीगी-जमात से जुड़ा होने के कारण सलीम भाई का गेट-अप एकदम ओसामा बिन लादेन की तरह दिखता था। यूनुस को उसके लिबास और उसकी पहचान ने ले डूबा। एक बार यूनुस खालू के इलाज के लिए पीजीआई लखनऊ गया था। वहां एक मौलवी नुमा बुजुर्ग दिखे तो आदतन उसने उन्हें सलाम किया। वे बहुत नाराज़ दिखलाई दे रहे थे। कैसा ज़माना आ गया। हद हो गई भाई। ये डॉक्टर जिन्हें फ़रिश्ता भी कहा जाता है, मुसलमान मरीज़ों से चिढ़ते हैं। जान जाते हैं कि मरीज़ मुसलमान है तो फिर इलाज में लापरवाही करते हैं। सारे काफिर डॉक्टर आरएसेस के एजेंट हैं। वे चाहते हैं कि 'मीम' का सही इलाज न होने पाए। थोड़ी सी हुज्जत की नहीं कि इलाज ऐसा कर देंगे कि रिएक्शन हो जाएगा, दवा कोई फायदा न करेगी। यूनुस ने उन मौलवी साहब की बात का खण्डन किया-''अरे नहीं मौलवी साहब, एकदम ग़ल्त कह रहे हैं आप! भला बताईए, हम भी तो मुसलमान हैं, लेकिन हमने तो ऐसा कोई भेदभाव यहां नहीं होते देखा। डॉक्टर बिचारे भरसक मरीज़ को तंदरूस्त करने में लगे रहते हैं।'' फिर उसने मौलवी साहब का मन बदलने के लिए पूछा-''आप कहां के रहने वाले हैं?'' उन्होंने कहा-''जौनपुर जिले का रहने वाला हूं।'' ''ठीक है, लेकिन आपकी ये शिकायत वाजिब नहीं कि डॉक्टर मरीज़ों से भेदभाव करते हैं। बीमारी जितनी बड़ी होगी, डॉक्टर उतने सीरियस रहते हैं।'' ''दुनिया देखी है मैंने बेटे, तुम मुसलमान ज़रूर हो, लेकिन तुम्हारा रहन-सहन एक आम हिन्दू शहरी की तरह है। इसलिए तुम हिन्दुओं के बीच खप जाते हो। हमें देखकर कोई भी जान लेता है कि हम मुसलमान हैं। वे हमसे नफ़रत करने लगते हैं। सोचता हूं कि इस मुल्क के उलेमा ये फ़तवा ज़ारी कर दें कि मुसलमानों को दाढ़ी रखने की सुन्नत से छूट मिल जाए।'' यूनुस उन बुजुर्ग की बात सुनकर कांप गया था। चारपंकज उधास की गाई ग़ज़ल का एक शे'र यूनुस को याद हो आया- दुनिया भर की यादें हमसे मिलने आती हैं शाम ढले, इस सूने घर में मेला लगता है दीवारों से, मिलकर रोना, अच्छा लगता है हम भी पागल, हो जाएंगे, ऐसा लगता है ज़िंदगी के इस पड़ाव पर दुनिया भर की यादें यूनुस का पीछा कर रही थीं। अब्बा, अम्मा, खाला, खालू, सलीम भाई, बड़की, सिंधी फलवाला, सनूबर, मलकीते, छंगू, जमाल साहब, डॉक्टर, बन्ने उस्ताद, मन्नू भाई मिस्त्री, यादवजी, बानो और भी न जाने कितने जाने-अन्जाने चेहरे, हर चेहरे की एक अलग दास्तान.... उसकी नींद उचट चुकी थी। चोपन-कटनी पैसेंजर किसी स्टेशन पर रूकी। बर्थ पर पसरे-पसरे उसने झुककर खिड़की के बाहर झांका। तभी साधू महाराज बड़बड़ाए-''लागत है ब्योहारी आ गवा।'' यूनुस उठ बैठा। ब्योहारी में पैसेंजर कुछ देर रूकती है। सिंगरौली और कटनी के बीच ब्योहारी ही वह जगह है जहां चाय-पानी का बंदोबस्त हो सकता है। वह ट्रेन से नीचे उतरा। सामने ही चाय मिल रही थी। ठंड यहां भी काफी थी। वह कांपते-ठिठुरते चाय के अड्डे तक पहुंचा। टीटीई, गार्ड और ड्राइवर चाय सुड़क रहे थे। पोलिथीन के कप में उसने भी चाय ली। अपने हाथों को उस गर्म चाय के कप में सेंका और चाय सुड़कने लगा। चाय पीकर उसने सिगरेट सुलगा ली और अपनी बोगी की तरफ चल पड़ा। बोगी में चढ़कर वह टॉयलेट में घुस कर बाकी बची सिगरेट पीने लगा, दीवारों पर लिखी इबारतों को ध्यान-पूर्वक पढ़ते हुए पेशाब किया। वापस अपनी बर्थ पर आकर वह बैठ गया। साधू महाराज की बगल में स्त्री लम्बलेट हो चुकी थी। साधू-महाराज बैठे-बैठे सो रहे थे। दोनों एक ही कम्बल में थे। यूनुस ने एयर-बैग खोलकर अपनी डायरी निकाली। डायरी के पहले पन्ने पर सनूबर की हस्तलिपि में यूनुस का नाम हिन्दी और अंग्रेजी में दर्ज था। साथ में बहुत सारी व्यक्तिगत जानकारी लिखी हुई थी। जैसे पता के स्थान पर खालू के क्वाटर का पता। गाड़ी नम्बर के स्थान पर खालू के स्कूटर का नम्बर। टेलीफोन नम्बर की जगह पाण्डे पीसीओ का फोन नम्बर। दूसरे पन्ने पर यादगार तिथियों के लिए जगह थी। उसमें सनूबर ने यूनुस की और अपनी जन्मतिथि लिखी हुई थी। यूनुस : 1 जुलाई 1980 सनूबर : 20 अक्टूबर 1987 डायरी के एक पन्ने पर सनूबर ने अपने बारे में विस्तार से लिखा था। पसंद का रंग : पिंक पसंद का खाना : चिकन-बिरयानी पसंद की मिठाई : रसमलाई पसंद का टीवी कार्यक्रम : अंताक्षरी किससे नफ़रत करती हो : धोखेबाजों से किसे प्यार करती हो : 'माई' से यूनुस जानता है कि 'माई' का मतलब क्या है? 'माई' सनूबर का कोड-वर्ड है। माई याने एम और वाय। एम से मोहम्मद और वाय से यूनुस। आजकल की लड़कियां कितनी चालाक होती हैं। यूनुस हंस पड़ा। फिर उसने कई पन्ने पलटे। कहीं कोई गाना लिखा था, कहीं नात-शरीफ़, कहीं कव्वाली और कहीं शेरो'शायरी। डायरी के आखिर में एक लिफाफा रखा था। जिस पर लिखा पता उसने एक बार पुन: पढ़ा- टू, मेसर्स मेहता कोल एजेंसी ट्रांसपोर्ट नगर, कोरबा, छत्तीसगढ़ और भेजने वाले के पते की जगह लिखा था- पुनीत खन्ना मैनेजर मेहता कोल एजेंसी सिंगरौली, सीधी, म.प्र. लिफाफा के अंदर पुनीत खन्ना साहब ने एमसीए की कोरबा यूनिट के मैनेजर के नाम एक सिफारशी ख़त लिखा था-
महोदय, पत्रवाहक मोहम्मद यूनुस, पेलोडर और पोकलैन आपरेटर है। वह सिंगरौली यूनिट का एक ईमानदार, टेकनीकली-ट्रेंड, कमर्शियली बेस्ट वर्कर है। पारिवारिक कारणों से मो. यूनुस, अपना ट्रांसफर कोरबा चाह रहा है। इसलिए आप इसे कोरबा-यूनिट में काम दे सकते हैं। आपका पुनीत खन्ना
यूनुस इस ख़त को पहले भी कई बार पढ़ चुका था। उसे गर्व हुआ कि अल्लाह के रहमो-करम से अब उसकी अपनी एक स्वतंत्र पहचान बन चुकी है। उसने ख़त को डायरी में रखा और करवट बदल कर लेट गया। गार्ड की व्हिसिल की आवाज़ आई और फिर ट्रेन की सीटी गूंजी। ट्रेन चल पड़ी। खटर खट खट खटर खट खट सुबह तक कटनी पहुंचेगी ट्रेन... यूनुस
को नींद ने कब अपनी आगोश में ले लिया,
उसे पता न चल
सका.... - अनवर सुहैल
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