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Nirmal Verma
पिछली रात रूनी को लगा कि इतने बरसों बाद कोई पुराना सपना धीमे कदमों से
उसके पास चला आया है। वही बंगला था,
अलग कोने में पत्तियों से घिरा हुआ....धीरे धीरे फाटक के भीतर घुसी
है...मौन की अथाह गहराई में लान डूबा है....शुरु मार्च की वसंती हवा घास को
सिहरा-सहला जाती है...बहुत बरसों के एक रिकार्ड की धुन छतरी के नीचे से आ
रही है...ताश के पत्ते घांस पर बिखरे हैं....लगता है शम्मी भाई अभी खिलखिला
कर हंस देंगे और आपा(बरसों पहले जिनका नाम जेली था) बंगले के पिछवाड़े
क्यारियों को खोदते हुये पूंछेंगी- रूनी जरा मेरे हांथों को तो देख,
कितने लाल हो गये हैं! हर शनिवार की प्रतीक्षा हफ्ते भर की जाती है।...वह जेली को अपने स्टाम्प एल्बम के पन्ने खोल कर दिखलाती है और जेली अपनी किताब से आंखे उठाकर पूंछती है-अर्जेन्टाइना कहां है? सुमात्रा कहां है?...वह जेली के प्रश्नों के पीछे छिपे फैली हुई असीम दूरियों के धूमिल छोर पर आ खड़ी होती है।...हर रोज़ नये-नये देशों के टिकटों से एल्बम के पन्ने भरते जाते हैं, और जब शनिवार की दोपहर को शम्मी भाई होटल से आते हैं, तो जेली कुर्सी से उठ खड़ी होती है, उसकी आंखो में एक घुली-घुली सी ज्योति निखर जाती है और वह रूनी के कंधे झकझोर कर कहती है- जा, जरा भीतर से ग्रामोफोन तो ले आ। रुनी क्षण भर रुकती है, वह जाये या वहीं खड़ी रहे? जेली उसकी बड़ी बहन है,उसके और जेली के बीच बहुत से वर्षों का सूना और लम्बा फासला है। उस फासले के दूसरे छोर पर जेली है, शम्मी भाई हैं, वह इन दोनों में से किसी को छू नहीं सकती। वे दोनों उससे अलग जीते हैं।...ग्रामोफोन महज एक बहाना है, उसे भेजकर जेली शम्मी भाई के संग अकेली रह जायेगी और तब....रूनी घांस पर अकेली भाग रही है बंगले की तरफ...पीली रोशनी में भीगी घांस के तिनको पर रेंगती हरी, गुलाबी धूप और दिल की धड़कन, हवा दूर के मटियाले पंख एरियल पोल को सहला जाते हैं सर्र सर्र, और गिरती हुई लहरों की तरह झाड़ियां झुक जाती हैं। आंखो से फिसलकर वह बूंद पलकों की छाह में कांपती है, जैसे वह दिल की धड़कन है, जो पानी में उतर आई है। शम्मी भाई जब होटल से आते हैं, तो वे सब उस शाम लान के बीचोंबीच कैन्वास की पैराशूट्नुमा छतरी के नीचे बैठते हैं। ग्रामोफोन पुराने जमाने का है। शम्मी भाई हर रिकार्ड के बाद चाभी देते हैं, जेली सुई बदलती हैऔर वह, रूनी चुपचाप चाय पीती है। जब कभी हवा का कोई तेज झोंका आता है, तो छतरी धीरे-धीरे डॊलने लगती है, उसकी छाया चाय के बर्तनों, टिकोज़ी और जेली के सुनहरे बालों को हल्के से बुहार जाती है और रूनी को लगता है कि किसी दिन हवा का इतना जबर्दस्त झोंका आयेगा कि छतरी धड़ाम से नीचे आ गिरेगी और वे तीनों उसके नीचे दब मरेंगे। शम्मी भाई जब अपने होस्टल की बातें बताते हैं, तो वह और जेली विस्मय और कौतुहूल से टुकुर-टुकुर उनके हिलते हुये होंठों को निहारती हैं। रिश्ते में शम्मी भाई चाहें उनके कोई न लगते हों लेकिन उनसे जान पहचान इतनी पुरानी है कि अपने पराये का अंतर कभी उनके बीच याद आया हो, याद नहीं पड़ता। होस्टल में जाने से पहले जब वह इस शहर में आये थे, तो अब्बा के कहने पर कुछ दिन उनके ही घर रहे थे। जब कभी वह शनिवार को उनके घर आते हैं, तो अपने संग जेली के लिये यूनीवर्सिटी की लायब्रेरी से अंग्रेजी उपन्यास और अपने दोस्तों से मांगकर कुछ रिकार्ड लाना नहीं भूलते। आज इतने बरसों बाद भी जब उसे शम्मी भाई के दिये हुये अजीब-अजीब नाम याद आते हैं, तो हंसी आये बिना नहीं रहती। उनकी नौकरानी मेहरू के नाम को चार चांद लगाकर शम्मी भाई ने कब सदियों पहले की सुकुमार राजकुमारी मेहरुन्निसा बना दिया, कोई नहीं जानता। वह रेहाना से रूनी बन गई आपा पहले बेबी बनी, उसके बाद जेली आइसक्रीम और अखिर में बेचारी सिर्फ जेली बनकर रह गई। शम्मी भाई के नाम इतने बरसों बाद भी , लान की घास और बंगले की दीवारों से लिपटी बेल-लताओं की तरह, चिरन्तन और अमर है। ग्रामोफोन के घूमते हुये तवे पर फूल पत्तियां उग आती हैं, एक आवाज़ उन्हें अपने नरम, नंगे हांथों से पकड़कर हवा में बिखेर देती है, संगीत के सुर झाडियों में हवा से खेलते हैं, घांस के नीचे सोई हुई भूरी मिट्टी पर तितली का नन्हा सा दिल धड़्कता है...मिट्टी और घांस के बीच हवा का घोंसला कांपता है...कांपता है...और ताश के पत्तों पर जेली और शम्मी भाई के सिर झुकते हैं, उठते हैं, मानो वे चार आंखो से घिरी झील में एक दूसरे की छायायें देख रहे हों। और शम्मी भाई जो बात कहते हैं, उस पर विश्वास करना न करना कोई माने नहीं रखता। उनके सामने जैसे सब कुछ खो जाता है...और कुछ ऎसी चीज़ें हैं जो मानो चुप रहती हैं और जिन्हें जब रूनी रात को सोने से पहले सोंचती है, तो लगता है कहीं गहरा, धुंधला सा गड्ढा है, जिसके भीतर वह फिसलते-फिसलते बच जाती है, और नहीं गिरती तो मोह रह जाता है न गिरने का। ...और जेली पर रोना आता है, गुस्सा आता है। जेली में क्या कुछ है, जो शम्मी भाई जो उसमें देखते हैं , वह रूनी में नहीं देखते? और जब शम्मी भाई जेली के सांग रिकार्ड बजाते हैं, ताश खेलते हैं, ( मेज के नीचे अपना पांव उसके पांव पर रख देते हैं) तो वह अपने कमरे की खिड़्की के परदे के परे चुपचाप उन्हें देखती रहती है, जहां एक अजीब सी मायावी रहस्मयता में डूबा, झिलमिल सा सपना है और परदे को खोलकर पीछे देखना, यह क्या कभी नहीं हो पायेगा? मेरा भी एक रहस्य है जो ये नहीं जानते, कोई नहीं जानता। रूनी ने आंखे मूंदकर सोंचा, मैं चाहूं तो कभी भी मर सकती हूं, इन तीन पेड़ों के झुरमुट के पीछे, ठन्डी गीली घांस पर, जहां से हवा में डोलता हुआ एरियल पोल दिखाई देता है। हवा में उड़ती हुई शम्मी भाई की टाई...उनका हांथ, जिसकी हर उंगली के नीचे कोमल सफेद खाल पर लाल-लाल से गड्ढे उभर आये थे, छोटे-छोटे चांद से गड्ढे, जिन्हें अगर छुओ, मुट्ठी में भींचो, ह्ल्के-ह्ल्के से सहलाओ, तो कैसा लगेगा? सच कैसा लगेगा? किन्तु शम्मी भाई को नहीं मालूम कि वह उनके हांथों को देख रही है, हवा में उड़ती हुई उनकी टाई, उनकी झिपझिपाती आंखो को देख रही है। ऎसा क्यों लगता है कि एक अपरिचित डर की खट्टी-खट्टी सी खुशबू अपने में धीरे-धीरे घेर रही है, उसके शरीर के एक एक अंग की गांठ खुलती जा रही है, मन रुक जाता है और लगता है कि वह लान से बाहर निकलकर धरती के अंतिम छोर तक आ गई है और उसके परे केवल दिल की धड़कन है, जिसे सुनकर उसका सिर चकराने लगता है( क्या उसके संग ही ये सब होता है या जेली के संग भी)।
-तुम्हारी
ऎल्बम कहां है?-
शम्मी भाई धीरे से उसके सामने आकर खड़े हो गये। उसने घबराकर शम्मी भाई की ओर
देखा। वह मुस्कुरा रहे थे।
शम्मी भाई ने नीला लिफाफा मेज पर रख दिया और उसमें से टिकट निकालकर मेज पर
बिखेर दिये। जेली, जो माली के फावड़े से क्यारी खोदने में जुटी थी, उनके पास आकर खड़ी हो गई और अपनी हथेली हवा में फैलाकर बोली-देख रूनी, मेरे हांथ कितने लाल हो गये हैं! रूनी ने अपना मुंह फेर लिया।...वह रोयेगी, बिल्कुल रोयेगी, चाहें जो कुछ हो जाय... चाय खत्म हो गई थी। मेहरुन्निसा ताश और ग्रामोफोन भीतर ले गई और जाते-जाते कह गई कि अब्बा उन सबको भीतर आने के लिये कह रहे हैं। किन्तु रात होने में अभी देर थी, और शनिवार को इतनी जल्दी भीतर जाने के लिये किसी को कोई उत्साह नहीं था। शम्मी भाई ने सुझाव दिया कि वे कुछ देर के लिये वाटर रिजर्वायर तक घुमने चलें। उस प्रस्ताव पर किसी ने कोई अपत्ति नहीं थी। और वे कुछ ही मिनटों में बंगले की सीमा पार करके मैदान की ऊबड़ खाबड़ जमीन पर चलने लगे। चारों ओर दूर-दूर तक भूरी सूखी मिट्टी के ऊंचे-नीचे टीलों और ढूहों के बीच बेरों की झाड़ियां थीं, छोटी-छोटी चट्टानों के बीच सूखी धारा उग आई थी, सड़ते हुये सीले हुये पत्तों से एक अजीब, नशीली सी, बोझिल कसैली गंध आ रही थी, धूप की मैली तहों पर बिखरी-बिखरी सी हवा थी।
शम्मी भाई सहसा चलते-चलते ठिठक गये। वे दोनों चुप हैं...शम्मी भाई पेड़ की टहनी से पत्थरों के इर्द गिर्द टेढी-मेढी रेखायें खींच रहे हैं। जेली एक बड़े से चौकोर पत्थर पर रुमाल बिछाकर बैठ गई है। दूर मैदान के किसी छोर से स्टोन कटर मशीन का घरघराता स्वर सफेद हवा में तिरता आता है, मुलायम रुई में ढकी हुई आवाज की तरह, जिसके नुकीले कोने झार गये हैं।
-तुम्हें
यहां आना बुरा तो नहीं लगता?-
शम्मी भाई ने धरती पर सिर झुकाये धीमे स्वर में पूंछा। वे बंगले की तरफ चलने लगे- ऊबड़ खाबड़ धरती पर उनकी खामोश छायायें ढलती हुई धूप में सिलटने लगीं।...ठहरो! बेर की झाड़ियों के पीछे छिपी हुई रूनी के होठ फड़क उठे, ठहरो, एक क्षण! लाल भुरभुरे पत्तों की ओट में भूला हुआ सपना झांकता है, गुनगुनी सी सफेद हवा, मार्च की पीली धूप, बहुत दिन पहले सुने रिकार्ड की जानी-पहचानी ट्यून, जो चारों ओर फैली घांस के तिनकों पर बिछल गई है...सब कुछ इन दो शब्दों पर थिर हो गया है, जिन्हें शम्मी भाई ने टहनी से धूल कुरेदते हुये धरती पर लिख दिया था, 'जेली...लव' जेली ने उन शब्दों को नहीं देखा। इतने सालों के बाद आज भी जेली को नहीं मालूम कि उस शाम शम्मी भाई ने कांपती टहनी से जेली के पैरों के पास क्या लिख दिया था। आज इतने लम्बे अर्से बाद समय की धूल उन शब्दों पर जम गई है। ...शम्मी भाई, वह और जेली तीनों एक दूसरे से दूर दुनिया के अलग- अलग कोनों में चले गये हैं, किन्तु आज भी रूनी को लगता है कि मार्च की उस शाम की तरह वह बेर की झाडियों के पीछे छिपी खड़ी है, (शम्मी भाई समझे थे कि वह वाटर-रिजर्वायर की तरफ चली गई थी) किन्तु वह सारे समय झाड़ियों के पीछे सांस रोके , निस्पन्द आंखो से उन्हें देखती रही थी, उस पत्थर को देखती रही थी, जिस पर कुछ देर पहले शम्मी भाई और जेली बैठे रहे थे।...आंसुओं के पीछे सब कुछ धुंधला-धुंधला सा हो जाता है...शम्मी भाई का कांपता हांथ, जेली की अध मुंदी सी आंखे, क्या वह इन दोनों की दुनिया में कभी प्रवेश नहीं कर पायेगी? कहीं सहमा सा जल है और उसकी छाया है, उसने अपने को देखा है, और आंखे मूंद ली हैं। उस शाम की धूप के परे एक हल्का सा दर्द है, आकाश के उस नीले टुकड़े की तरह, जो आंसू के एक कतरे में ढरक आया था। इस शाम से परे बरसों तक स्मृति का उद्भ्रान्त पाखी किसी सूनी पड़ी हुई उस धूल पर मंडराता रहेगा, जहां केवल इतना भर लिखा है..'जेली ..लव'
उस रात जब उनकी नौकरानी मेहरुन्निसा छोटी बीबी के कमरे में गई,
तो स्तम्भित सी खड़ी रह गई। उसने रूनी को पहले कभी ऎसा न देखा था। Tags: niनिर्मल वर्मा |
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