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लंबी कहानी

विष - वल्लरी

भाग - 2

चाचाजी आफिस चले जाते। शुरूआत में तो नई नई नतोह से मिलने दादी रोज आतीं। मगर ऐसे रोज रोज सबका आना चाचीजी की प्राईवेसी भंग होना था। इसलिये उन्होने अपना तटस्थ व्यवहार, जिसमें बिना कहे ही कह दिया जाता था कि “आप का ना आना अधिक अच्छा लगता है हमें” अपना लिया। तो कोई कितने दिन बेशरमी से जायेगा भला।

अब चाचीजी के साथ समस्या ये थी कि जब रूपाली भी दिन भर घर में रहेगी और संतोष चाचा भी दिन भर घर में रहेंगे, तो ऐसे कैसे चलेगा काम? खासकर वो काम जिसमें एकांत जरूरी है।

तो अब रूपाली में वो सारे अवगुण दिखाई देने लगे, जो कभी छोटी चाची में दिखाई देते थे। वो चाचाजी के खाने पर ध्यान नही देती थी (आखिर तो चाची जी का सारा का सारा समर्पण चाचा जी के लिये ही था ना, उनका अपना था ही क्या) देर रात तक जाने किससे बतियाती रहती थी। (वैसे तो बतियाती वो अंकित से ही थी, लेकिन भला दिन भर के थके अंकित के पास इतनी ऊर्जा बचती भी होगी कि वो इनसे दो दो बजे तक बतियायें) तो उसका मायके का कुछ चक्कर जरूर है।

उधर अंकित भी यही सोच रहे थे कि शायद रूपाली के दिन भर घर में रहने से मम्मी को कुछ संकोच हो और संतोष चाचा का आना जाना संयमित हो। लेकिन छोटी चाची ना कभी हारी थीं, ना अबकी हारीं। उन्होने दस तरह के आरोप और लांछन लगा कर चाचा जी को खूब खरी खोटी सुनाई "पहले तो इनकी अम्मा और बहनों की सही। फिर इनके भाई और भयहु की सही। और अब जब सारी उमर गुजार ली, तो इनके लड़के बहू की सहें। इनके मुँह में तो जाबा लगा है(घोड़ों के मुँह जो लगता है)। जुबान कोढ़िया गयी है। कहाँ से निकाले कुछ। हिजड़ों जैसे रहे हैं हमेशा, मर्दानगी तो बस हमारे लिये थी। लेकिन अब बस...अब हमसे भी नही होगा। मरो, चाहे सड़ो, हम कुछ नही कर पायेंगे। जिनके पीछे पीछे घूमे हो जिंदगी भर, उन्हे ही बुला लिया करो, जब हिलने की हिम्मत नही रह जाती।"

चाचाजी एक चुप हजार चुप। कैसे बर्दाश्त करते थे, क्यों बर्दाश्त करते थे? कुछ नही पता।

आखिर अंकित को फोन किया चाचाजी ने। "अंकित तुम्हारी बीवी के लक्षण अच्छे नही, इसे ले जाओ। ये यहाँ रहने लायक नही।"

रूपाली चली गयीं, चाचीजी का ये भी कंटक कटा।


एक दिन दादी का बी०पी हाई हो गया था, अचानक। आफिस खबर पहुँची अन्नू चाचा निकल रहे थे, तो हड़बड़ाहट में चाचाजी को भी बता दिया। दोनो जने सीधे दादी के पास पहुँचे। अब कार दोनो चाचाजी के पास थी। चाचाजी ने तुरंत अपनी कार निकाली दादी को अस्पताल ले जाने को। अस्पताल पहुँच के थोड़ा बहुत ट्रीटमेंट दिया गया और दादी को घर वापस भेज दिया गया।

चाचाजी, जब घर पहुँचे तो चाचीजी का पारा हाई था। " कितनी बार वो तुम्हारी बीमारी में आई हैं, या अन्नू आये हैं।"

"कितनी बार आई हैं, इसकी गिनती नहीं और अन्नू की भी गिनती नही। हम जब लखनऊ में भर्ती थे, तुम्हारे अफसरी वाले मायके का कोई नही था। अन्नू नौकरी से छुट्टी ले कर अकेले पड़े रहे थे हमारे साथ। जिस दिन बीमार होते हैं, हमें अन्नू को बुलाना नही पड़ता, अन्नू खुद ही खड़े हो जाते हैं गाड़ी ले कर आफिस ले जाने को। और माँ बाप की कोई बराबरी नही होती। उन्ही के कारण हैं हम। जितना करना था कर दीं। अब हमें करना है।"

"हाँ हाँ ! जितना करना था कर दीं। विरासत लिख गये हैं ना इनके बाप।"

"तुम्हारे बाप विरासत लिख गये हैं ना। वो तो कलक्टर थे, मगर छोटी बिटिया की शादी में हमी से कर्जा लिया और हमारे बाप कुछ दे गये या नही दे गये। ये सिर छुपाने को जगह मिली है ना, वो उन्ही के कारण है और ये जो नौकरी है ना, वो भी उन्होने ही दिलाई थी, जिसके लिये तुम्हारे नवाब बाप आये थे रिश्ता ले कर। हमारे बाप नही गये थे। और सुनो अब से रहना अपनी औकात में। बाप का नाम तो लेना नही हमारे। मान से जिये और मान से मरे किसी का खून नही पिया, सैकड़ों, हजारों लोगो का भला ही किया है उन्होने।"

आवाज़ें तेज़ थी। दादी का बी०पी० अभी थोड़ी देर पहले ही हाई हुआ था। उन्हे भी जाने क्या सूझा कि वो उठीं और सीधे चाचाजी के घर पहुँची "बीनू ! तू जउनो कईला हमरे लिये, ओकरी खातिर पहिले अपने मेहरारू के गोड़ धई के माफी माँगि ल औ एकरे बाद ई सुनि ल कि हम कहियो किरिया त देनी नाही, लेकिन हमार ई बात कसमै जाना कि आज से वह पार कहियो ना आया, चाहै हमार मौते काहें ना होई जाय।"

चाचाजी सन्न...! दादी उल्टे पाँव लौट गईं। चाचाजी ने उन्हे रोका भी नही।

चाचीजी के पिताजी, जो कि अब तो इस दुनिया में थे भी नही, उनको क्या क्या कहा गया। वो अब जिंदा रहेंगी तो किस मुँह से। उन्होने मिट्टी का तेल उठाया और अपने ऊपर डाल लिया। संतोष चाचा ने हल्ला मचाया " अरे अरे ये क्या कर रही हो भाभी।"

चाचाजी के कान पर जूँ नही रेंगी। वो जैसे बैठे थे, बैठे रहे, जैसे उन्होने दादी को नही रोका था, वैसे चाचीजी को भी नही रोका। कमरा बंद होने जा रहा था। तभी संतोष चाचा कमरे के अंदर घुस गये़ कमरे की सिटकनी फिर भी चढ़ गई। अंदर से आवाजे आती रहीं, "अरे भाभी पागल हो गई हो क्या? अरे भाभी कुछ सोचो समझो। अरे भाभी...." और आखिर चाची जी मान गईं वर्ना तो आज चाची जी अपने को खतम कर कर ही दम लेतीं (शायद, वैसे विश्वास तो नही होता)

खैर, वो जो कुछ हल्ला गुल्ला मचा था, बस रात भर का था। सुबह से तो चाचीजी सुना सुना कर और अधिक प्रेम जता रही थीं चाचाजी से।

चाचाजी को भी लगा कि अच्छा ही हुआ कि अम्मा ने अपनी कसम दे दी, अम्मा की तरफ से भी मामला ठीक हो गया और पत्नी की तरफ से भी।

बीच में खबर आई थी कि अंकित की बहू के बच्चा होने वाला है। दादी निहाल थीं कि अब तो सोने की सीढ़ी लगेगी और उधर चाचीजी ने मुँह बना के कहा था कि "बड़े घमंड से गये हैं देखें सौरी कौन संभालता है।"

डिलीवरी के पहले ही कुछ समस्या आ गई थी। डाक्टर ने कहा कि आपरेशन कर के प्रिमैच्योर बेबी ना निकाला गया, तो बच्चा तो वैसे भी नही बचेगा, माँ भी खतम हो जायेगी।

छोटी बुआ और अंकित का अब भी वैसा ही प्रेम था। छोटी बुआ को खबर थी। अंकित ने कहा "पहले मम्मी से कहते हैं, कोई औरत तो चाहिये ही ना अनुभवी।"

अंकित ने चाचीजी को फोन किया और बातें बताई। चाचीजी ने जवाब दिया " काहें ? अब याद आ गई हमारी। अब तक तो हम सबसे खराब थे। हमसे ज्यादा खराब कोई था ही नही। अब जब स्वार्थ पड़ा तो आ गये तलवे चाटने। तुम्हारी बीवी जिये चाहे मरे, हमें इससे मतलब नही। हमसे उम्मीद ना रखो कोई। हम एक बार जिसको छोड़ देते हैं, उसे छोड़ ही देते हैं। थूक थूक के चाटना तुम्हारे बप्पा के खानदान मे होता है।"

रात में छोटी बुआ ने फोन किया, तो वो अंकित जो कभी किसी चोट पर नही रोया था। घर छोड़ने पर नही रोया था, फूट फूट कर रोने लगा और साथ में रोती रहीं छोटी बुआ। छोटा सा घर सब को सुनाई दिया सब कुछ।

छोटी चाचीजी ने अन्नू चाचा से कहा " हम जायेंगे, वहाँ बहू के पास।"
" तुम जाओगी तो जो रिश्ते बचे हैं, वो भी खतम हो जायेंगे।"
"बचा ही क्या है, जो खतम हो जायेगा ? कम से रूपाली की जान तो बच जायेगी।"
"चाचीजी ने एयर बैग में चार साड़ियाँ डालीं और बिना रिज़र्वेशन ट्रेन पकड़ ली।"

अन्नू चाचाजी जो कह रहे थे, वही हुआ। चाचाजी ने फोन कर दिया, अंकित के पास कि "अब से हमारा तुम्हारा कोई रिश्ता नही। हमारी जायदाद में तुम्हे एक कौड़ी नही मिलेगी। तुम्हारे जो सगे हैं, उन्ही से रिश्ता रखो"

चाचाजी बीच बीच में हॉस्पिटल एड्मिट हो जाते थे। अन्नू चाचा को खबर लगती, तो वो हॉस्पिटल पहुँच जाते। रात में वहीं सोते। चाचीजी भला कहाँ जाती हॉस्पिटल में। तो घर पर ही रहतीं। और अकेले रहतीं भी कैसे, तो संतोष चाचा घर पर ही रुकते उतनी रातों को। लीवर मे काफी खराबी आ गई थी।

दादी रोज उनके नाम पर माला जपती थीं। डॉक्टर ने उन्हे बैठने से मना कर रखा था। उनके स्पाईनल कॉड में कुछ समस्या आ गई थी। फिर भी वो माला जपना नहीं बंद की।

और एक दिन बिस्तर पर आ गईं। हाल फिर वही था। सभी आये चाचाजी नही आये। दादी ने खुद कसम दी थी, उस पार ना आने की, वो कसम कैसे तोड़ सकते थे?

खैर डॉक्टर ने फुल बेड रेस्ट बताया। छोटी चाची ने पूरी सेवा की और दादीजी उठ बैठीं।

छोटी बुआ ने कीर्तन मान रखा था। दादी का ७५वाँ जनमदिन भी था। बुआ ने वही दिन सही समझा कीर्तन के लिये।

वो चाचाजी को कहने गईं "भईया ! अम्मा का ७५ वाँ जनमदिन भी है और हमने उनके लिये कीर्तन भी माना था। दीदी वीदी सबको बुला लिया है और तुम तो जानते ही हो, तुम्हारे बिना अम्मा की कोई खुशी पूरी नही हो सकती।"

"हाँ! तभी तो रोज आ जाती हैं देखने इन्हे।" चाचीजी की कर्कश आवाज़ गूँजी।
"भाभी ! हमें ज़रा भईया से बात कर लेने दो।" बुआ जी ने चाचीजी से कहा और फिर भईया की तरफ मुखातिब हो कर बोलीं " तुम भी ऐसा ही सोचते हो क्या भईया? तुम्हे पता है, कि अम्मा क्यों बिस्तर पर आईँ थीं? डॉक्टर के लाख मना करने पर भी वो दो दो घंटे तुम्हारे नाम की पूजा करती रहती थीं, इसलिये।"

" हमारा और अम्मा का प्यार बस दीवार के आर पार ही रह गया है अब बच्ची। ना इधर आ कर वो देखती हैं कि हम उनके लिये कितना परेशान हैं, न उधर जा के हम..."

"सूफी गाने तुम्ही ने सिखाये हैं ना भईया हमें, तुम तो भईया बिना मतलब में सुनते हो, वो सूफी गीत। प्रेम में अहं कहाँ? अहं तो प्रेम कहाँ? कैसा प्यार करते हो भईया? समझ ही नही पाती मैं तुम्हे।"

चाचाजी की आखें फिर आज गंगा जमुना बनी थी। वो कितना रोने लगे थे। रोता तो आदमी तब है ना, जब बहुत असहाय होता है। क्या चाचाजी अब बहुत ज्यादा असहाय हो गये थे ? क्या पता ? मगर उन्हे ऐसा होते देखा नही जाता था।

कीर्तन वाले दिन सब आये, सब ने पूछा विनय नही आये, दादी कहती रही "उनकर तबियत अब कहाँ ठीक कहाँ रहत हऊवे ? बिस्तर पर पड़ल हऊअन, हमही मना कई देहिली़। हम कहिन कि परसाद उहैं पहुँचा दि हैं"

"और विनय की दुलहिन ?"

" केहू उनके देखे बदे भी होवेके चाही ना ओंन्है, जाने कउन कार पड़ि जाये।"

" हाँ, ये तो सही ही है।" पड़ोसने सब जान बूझ कर भी मजबूर हो कर कह देतीँ।

ढोलक की थाप खूब ऊपर नीचे हुई। औरते एक स्वर में गीत उठाती, और फिर नीचे आतीं। पूरा मोहल्ला गूँज रहा था, तो बगल में चाचाजी का घर कैसे रह जाता?

चाचाजी ने कई बार कहा चाचीजी से "देवी दुर्गा का काम है चलो, चल चलते हैं।"
"हमारी देवी दुर्गा यहीं हैं, उस घर में हमारा कुछ नही है।"

चाचाजी शांत हो जाते। जयकारे हुए, आरती शुरू हो गई।

"अम्बे तू है, जगदम्बे काली,
जय दुर्गे खप्पर वाली,
तेरे ही गुण गायें भारती,
ओ मईया हम सब उतारें तेरी आरती।"

अचानक चाचाजी उठे और दीवार के इस पार आ गये और अम्मा के पैर छू कर उनके गले लग गये। "ईश्वर आपके बहुत लंबा उमर देवें अम्मा, अभि तोहार सउवाँ जनमदिन मनै औ हम तोहार अशीस अइसही पावत रहीं।"

अम्मा के गले में काँटे चुभने लगे आँसू रोकने के चक्कर में।

फट से आरती की थाली अपने बीनू के हाथ में थमा दी।

अन्नू चाचा सहित चारों बुआ भरे गले से गा रहे थे

"छोटा सा परिवार हमारा, सदा बनाये रखना,
मईया सदा बनाये रखना,
इस बगिया के फूल ओ मईया, सदा खिलाये रखना,
बिगड़ी बातें बनाने वाली, राह दिखाने वाली,
भगतों के घर में विराजतीं,
ओ मईया, हम सब उतारें तेरी आरती़"


चाचाजी का लीवर कमजोर हो गया था। अक्सर पेट की खराबी के कारण वो हफ्ते हफ्ते आफिस नही जाते थे। लेकिन जब भी ज़रा से ठीक होते और मैं उनके घर पहुँचता वो कभी पकौड़ी, कभी मुर्गा, कभी मछली, कभी खीर और दाल वाली पूड़ी खाते मिलते (ब्राह्मण होने का मतलब ये नही कि खाने पीने की कोई चीज छोड़ दी जाये, आखिर वो सब चीजें बनी किस दिन के लिये थीं) सिगरेट की तादात बढ़ा दी गई थी।

मैं चाची की तरफ देखता तो वो कहतीं " क्या करें मेरी एक सुनते नही। फिर कैसे छोड़ दें इन्हें भी आखिर इनकी हालत पर।"

और दिन भर बिस्तर पर पड़े रहते थे। उठें तो लगता था कि अभी गिर जायेंगे।

चाचीजी बड़ी सी बिंदी और मोटा सा काजल लगाये, सूती साड़ी में कलफ और सिंथेटिक साड़ी में पिन मारे वैसी की वैसी दिखाई देतीं।

मुझे समझ नही आ रहा था कि चाचाजी अपनी जिंदगी से ऊब चुके हैं या चाचीजी चाचाजी की जिंदगी से?

चाचाजी अपने बारे में सब जानते थे, फिर भी जिस तरह उनका खाना पीना चलता था, उससे ये लगता था कि चाचाजी जीना नही चाहते और उस दिन जब मैं चाचाजी को देखने उनके घर गया तो चाची जी का कहना "हमारी जिंदगी बीत गई इसी कुटनी पिसनी में। हमेशा तो बीमार रहे ये। २७ साल के थे, जब से जो बीमार हुए तो अब बावन साल के होने तक.... हमारे शरीर ने तो इनके शरीर का सुख जाना ही नही, हमेशा, बुकनी, चूरन पीसते और दवा के पर्चे देखते उम्र निकल गई"


उस दिन अचानक हल्ला मचा। मैं उनके ही घर बैठा था। तो हल्ला दादी के घर तक पहुँच गया, वर्ना तो चाचीजी का अहम् उन्हे दादी के घर तक खबर भी ना करने देता। चाचाजी अचानक बेहोश हो गये थे।दादी को कोई कसम याद नही रही। वो भाग के पहुँच गई बीनू के पास। अन्नू चाचा ने तुरंत कार निकाली। हॉस्पिटल जाने पर पता चला कि शुगर बहुत बढ़ी हुई है। खैर उस समय शुगर कंट्रोल की गई और चाचाजी घर वापस आ गये।

अंकित को खबर कर दी गयी और वो आनन फानन में बनारस पहुँच गये रूपाली के साथ ।

अंकित ने प्रॉपर चेकअप की बात की। पता चला कि सीरम क्रेटेनिन 5 पर पहुँच गया है। लीवर डैमेज हो रहा है।

बहुत ज्यादा परहेज की जरूरत थी। चाचाजी खुद समझदार थे। सारी बीमारियों के लक्षण, उनके इलाज उनका अंजाम ये सब उन्होने खुद पढ़ रखा था। उन्हे कौन समझाता कि उन्हे क्या क्या परहेज करने हैं? सिगरेट उन्होने छोड़ी नही थी, बल्कि बढ़ा दी थी।

डॉक्टर का कहना था तुरंत डायलिसिस शुरू की जाये। लेकिन वो मान नही रहे थे। दादी हिलक हिलक के रो आईँ। छोटी बुआ देखते ही रो पड़ीँ "भईया ! हमारे दो भाई हैं, दो ही रहने दो।"

किसी तरह वो डायलिसिस को तैयार हुए और डायलिसिस की प्रक्रिया से निकलते ही पास के होटल से तंदूरी चिकेन मँगाते और खाने बैठ जाते। घर से शाही पनीर, जिसमे तेल तैरता हो, मँगा लेते और चाचीजी बना के भेज भी देती।

शाम के समय चाची जी सजी धजी खाना ले कर संतोष चाचा के साथ हॉस्पिटल पहुँचतीं और उन्ही के साथ मोटर सायकिल से वापस आ जाती। अस्पताल में अंकित और रूपाली रुकते।

आखिर वो भी दिन आया, जब चाचाजी अचानक बेहोश हो गये और आनन फानन में वेंटिलेटर पर डाल दिये गये।

बहुत चाचा और अंकित का डेरा हॉस्पिटल में जम गया था। रूपाली भी बस खाना लेने और जरूरी सामान लेने ही आती थी।

पहला दिन बीता, दूसरा दिन, तीसरा दिन चाचाजी बेहोश ही थे। बुआ लोग ड़कट्ठा हो गईं। वो लोग हॉस्पिटल गईं। दादी हस्पिटल गईं। लेकिन चाचीजी अस्पताल नही गईं। क्यों नही गई ? ये उन से संबंधित उन गूढ़ रहस्यों में था, जिसे कभी पता नही लगाया जा सका। उनका कहना था कि वो क्या देखने जायें वहाँ ? वो जा कर करेंगी भी क्या? वो तो वेंटिलेटर पर पड़े हैं, कोई सेवा शुश्रुसा भी नही करनी, तो क्या जबर्दस्ती जायें? वो लोग जायें, जिन्हे दिखाना है कि उन्हे बड़ा मोह है। हाँ लेकिन चाचीजी का जी बहुत घबड़ा रहा था। तभी तो उन्होने संतोष चाचा से कहा "तीन दिन से वहाँ अस्पताल की खबर सुने सुनते हमारा जी खराब होता चला जा रहा है। बी०पी० भी लो हो गया है। अगर अब हम कहीं बाहर नही निकले तो हमारा दम घुट जायेगा।"

और वो संतोष चाचा की मोटर सायकिल पर पीछे बैठ कर खुली हवा में निकल गईं। और किसी रेस्टोरेंट में खाना खाते खुद उनके भाई ने उन्हे देखा। घर लौटने पर उन्होने दुखी स्वर में कहा " पम्मी ! कम से कम समाज का तो खयाल किया होता।"
"समाज का खयाल कर के हमें खुद को पागल नही करना है भईया। जो हो सकता है सब हो रहा है। अब हमारे घर में बैठने या उनका नाम जपने से कुछ अलग नही हो जाना है।" कह कर चाची मुँह बना कर अंदर चली गई।

डॉक्टर का कहना था कि चाचाजी की स्थिति अप डाउन हो रही है, वैसे अब उनका होश में आना संभव नही है, मगर यदि होश आ जाता है, तो स्थिति शायद संभाली जा सके, मगर होश में आना ही एक चमत्कार होना है।

और अचानक चाचाजी को होश आ गया। घर में खुशी की लहर दौड़ गई। बहुत चाचा का गला खुशी के मारे ऐसा रुँध गया कि ये खबर वो दादी को बता भी नही पा रहे थे। दादी ने तुरंत सवा किलो घी के लड्डू ये कहते हुए घर के मंदिर वाले हनुमान जी को चढ़ाये कि अभी, तो बस शुभ समझो भगवान हमारे बीनू घर आ जायें, तो कोई चौखट नही छोड़ेंगे।

खबर आई कि चाचाजी ने इशारे में चाचीजी से मिलने की इच्छा जाहिर की है।

अब इच्छा ज़ाहिर की थी, तो जाना ही था, चाचीजी ने अपनी अठन्नी भर की बिंदी और २ सेंटीमीटर चौड़ा काजल लगाया और महरून साड़ी पहन कर पहुँची बीमार चाचाजी को देखने।

चाचाजी की नाक और मुँह में आक्सीजन लगा हुआ था। चाचीजी को देखते ही वो कुछ बोलने की छटपटाहट में आ गये। उन्हे जल्दी से जल्दी कुछ बोल देना था। वो मुँह से वो मास्क हटाने लगे। अऽ पऽ.... वार्ड ब्वाय दौड़ पड़े। " अरे अरे, ये क्या कर रहे हैं आप ? अभी आपकी स्थिति ऐसी नही। जो भी कहना है, इशारे में कहिये" कहते हुए सारे एक्विपमेंट्स सही जगह पर किये।

चाची जो अब तक निर्विकार खड़ी थीं, बिना कुछ कहे बाहर निकल आईं। मामाजी (चाचीजी के भाई) ने पूछा "क्या कहे विनय बाबू।"
" कुछ नही, बस अजीब अजीब हरक़त करने लगे।"
"अजीब अजीब हरकत?"
"हम्म्म... वहाँ के लड़कों ने कहा कि बाहर निकल जाओ।"
"पता नही क्या कहना चाह रहे होंगें वो पम्मी ? हम जा के समझा कर आते हैं, फिर तुम जाओ। ३५ साल का साथ है, तुम तो इशारे में कही बात भी समझ जाओगी उनकी।" कह कर मामाजी आईसीयू की तरफ बढ़े, तो चाचीजी ने हाथ पकड़ लिया।

"क्या कहला लोगे भईया अब ? जो कहना सुनना था, वो बहुत कुछ कह सुन चुके, पहले ही... अब जो उनकी किस्मत में होगा, वो होगा, बिना मतलब में......।"

सारा घर आईसीयू के बाहर खड़ा था। चाचाजी को होश आ गया था। हर व्यक्ति मिल लेना चाह रहा था। देख लेना चाह रहा था। अपनी आँखों को विश्वास दिला लेना चाह रहा था। कुछ सुन लेना चाह रहा था, कुछ कह लेना चाह रहा था।

मगर चाचाजी जिससे कुछ कहना, कुछ सुनना चाह रहे थे, उसकी झुर्री पड़ी काजल लगी आँखों में कोई भाव नही थे। कोई डर नही था, कोई लालसा नही थी।

अंकित और बहुत चाचा आई सीयू में गये। अंकित ने कहा " पापा डॉक्टर ने कहा था कि बस आपको होश आ जाये, फिर सब ठीक हो जायेगा। अब सब ठीक हो जायेगा पापा।"

चाचाजी ने मुस्कुराते हुए ना में सिर हिलाया और अपने पेट की तरफ इशारा कर के प्रकट किया कि अब इसमें कुछ नही बाकी है।

बहुत चाचा ने कहा " तुम्हे अपने भाई पर भरोसा है ना।"

चाचाजी ने हाँ में सिर हिला दिया।

"तो भरोसा रखो, हम पैसे की कोई कमी नही होने देंगे, जितना पैसा लगेगा लगायेंगे। लेकिन तुम्हे कुछ नही होने देंगे भईया।"

चाचाजी ने फिर एक बार मुस्कुरा कर सिर ना में हिला दिया। और फिर इशारा किया कि अब कुछ बाकी नही है।

और फिर अँगूठा उठा कर हिम्मत रखने का इशारा किया और ये भी कि हमेशा एक रहना।

उन दोनो की आँख में आँसू थे। लेकिन दोनो संभाल रहे थे। " तुम चिंता ना करो परिवार हमेशा एक रहेगा।"

ये सारे इशारे जो अंकित और अन्नू चाचा समझ रहे थे, वो चाचीजी भी समझतीं, लेकिन पता नही क्यों नही समझना चाहा। या फिर उन्हे ये डर हो कि जीते जी, जो पर्दा पड़ा रहा, वो कहीं आज उठा ना देना चाहता हो कोई।

चाचा जी दो दिन होश में रहे। अधिकतर दवाओं के कारण नींद में ही रहे, बाकि जब भी किसी को लगता कि कुछ जगे हैं, वो मिलने जाते रहे। उन्होने एक चिट लिख कर अपने किसी जिगरी दोस्त को बुलवाया और उससे जो कुछ भी कहा सुना हो, ये देखने कोई उन दोनो के बीच नही गया।

चाचाजी होश में तो आ गये थे लेकिन धीरे धीरे समझदार लोगो को ये समझ में आने लगा कि अगर चाचाजी ठीक हो कर कुछ दिन को घर आ भी जाते हैं तो भी उनकी साँसें कुछ ही दिन की हैं अब। दो दिन बाद चाचाजी फिर बेहोश हो गये और लगभग कोमा में चले गये।

दादी को छोड़ अब सबको पता था कि चाचाजी अब किसी भी दिन दुनिया छोड़ देंगे। दादी को इसलिये नही कि माँ की आस कभी टूटती नही। वो रोज पूजा करती और कहतीं "हे भोले बाबा तू त मुर्दा आदमी में भी जान फूँक देवेला, हम जानत हई कि तू एक दिन हमरे बीनू के एक दम भला चंगा कई देबै।"

और उस दिन अचानक फोन आया। अन्नू चाचा बस अभी आ के बैठे ही थे, उन्ही के मोबाइल पर कोई खबर आई। अन्नू चाचा ने सुना और शांत हो गये। " ठीक है।" कह के फोन रख दिया। और एक पल को बस ढीला छोड़ दिया खुद को।

"क्या हुआ ?" "क्या हुआ ?" की गुन सुन सब में फैल गई। दादी कम ही सुनती थीं। लेकिन जाने कैसे सुन लीं। अन्नू चाचा उठ के जाने लगे। "का हुआ अन्नू।" दादी ने आज एकदम बेचैन हो कर पूछा। "कुछ नही, भईया की तबीयत कुछ ज्यादा खराब है।"

" नाही नाही खराब नाही.... अब खराब होखे के का बचल हा...सब खतम....! "

बुआ लोग समझाने लगीं "नही नही अम्मा, धीरज रखो, अभी कोई ऐसी खबर नही आई।"

" अरे अब कौनो खबर ना आई। अब हमै केहू ना समझावै। लगत ह हमार कलेजा निकरि जाई। अरे हमार बीनू ना ह अब।"

आश्चर्य की बात ये थी कि अभी अन्नू चाचा के पास बस ये खबर आई थी कि चाचाजी की हालत बहुत गंभीर है, शायद अब अंतिम समय आ गया उन्हे हार्ट अटैक आया है और पंपिंग की जा रही है। अन्नू चाचा को अस्पताल पहुँचने में लगभग १५ मिनट तो लगे ही होंगे और तब तक डॉ० अपनी कोशिश में लगे थे।

लेकिन वो दादी जो आज तक अशुभ न हो इस कारण आँसू आते ही पी लेती थीं। आज लगातार कहे जा रही थीं कि "ना ना ! हमार बीनू हमै छोड़ के चलि गईले, अरे बीनू हमे केके सहारे छोड़त हऊवा? अरे उमा हमे ना समझावा। कामिनी हमरे के झूठा कउनो दिलासा ना द। हमार बीनू हमै अकेलै छोड़ी के चलि गईलै।"

थोड़ी देर में लाश ढोने वाली गाड़ी घर के सामने खड़ी थी। सब की क्या हालत थी, बताने की जरूरत नही। औरतों को तो बस सिर पटक के रोना होता है, आदमियों को तो तुरंत इतने सारे आने वाले लोगो की व्यवस्था भी संभालनी होती है। तो अंकित और अन्नू चाचा आँसू बहाते हुए फोन पर सारी व्यवस्था भी कर रहे थे। दादी कभी चेहरा छू रही थीं, वो चेहरा, जो कि जैसे कुछ बोलते बोलते रह गया हो और कभी हाथ पैर....! बुआ लोग अलग खड़ीं थीं।

चाचीजी अंदर थीं, किसी तरह उन्हे बाहर लाया गया। उनकी आँख में एक बूँद आँसू नही था। वो बस चुप चाप देख रही थीं। सबको लगा चाचीजी को सन्निपात हो गया। हमको भी यही लगा़ कि चाचाजी के जाने का सदमा बर्दाश्त नही कर पाईं शायद। हमने उन्हे झकझोरा। चाचीजी देखिये क्या हो गया ये। देखिये चाचाजी कैसे पड़े हैं। लेकिन वो चुप रहीं। हमने दोबारा झकझोरा, तो उन्होने कहा कि "सो रहे हैं, अभी जग जायेंगे।" ओह अब तो पक्का था कि उन्हे सदमा लग गया था। अंकित आये। उन्होने बुरी तरह झकझोरा, तो चाचीजी ने अंकित के कंधे पर सिर छुपा लिया और एक मिनट बाद सिर हटा कर कहा "कोई बात नही। किसी का साथ जीवन भर का नही होता। जितना साथ था, बहुत था। अब इन्हे विदा करो।"

तब कहीं जा कर हमें समझ में आया कि ये सदमा नही, नाटक था, खुद को इतना दुखी दिखाने का कि आँसू तक नही आ रहे, दुख में।

छोटी चाची बेहोश हो गईं।लोग उनमें लग गये। अब चाचीजी के तो आँसू तक नही आ रहे थे, भला वो करें तो क्या करें। इसलिये वो अंदर चली गयीं। अंदर जा कर सबसे पहले उन्होने ड्रेसिंग में लगे शीशे में अपना चेहरा देखा, आँखें थोड़ा सा फाड़ के आँख का काजल देखा। बिंदी सही की और वो बाल जो पहले से ही सँवरे हुए थे, उन पर एक हाथ मार कर थोड़ा सा और ठीक किया।

छोटी चाचीजी बेहोश थीं, होश में आने पर अंदर लाई गईं। चाचीजी ने कहा " अरे हम तो हैं, सब लोग क्यों परेशान हो रहे हो?" और अफसोस भी व्यक्त किया कि "बेचारी अम्मा की किस्मत सबसे खराब है। पहले आदमी चला गया और अब लड़का।"

मतलब कि जब दादी के पति खतम हुए थे तब भी उन की ही किस्मत से और अब जब चाचीजी के पति खतम हुए हैं, तो भी उन की ही किस्मत से।

खैर चाचा जी का शरीर सोया पड़ा था, मुखाकृति ऐसी थी कि जैसे कुछ बोलते बोलते रह गये। दादीजी, बुआ, मेरी माँ, पिताजी, अन्नू चाचा, अंकित सब चाचाजी के शरीर के पास बैठे थे और चाचीजी अंदर थीं। कोई प्रिय महिला जो शायद उन्ही के स्वाभाव से मेल खाती थी, वो उनके पास बैठी थी और चाचीजी का भाषण जारी था " हमारे भर को तो बहुत पैसा छोड़ गये हैं वो। और हमसे ये भी कह गये हैं कि देखों पम्मी एक चीज का ध्यान रखना कि पैसे के मामले में किसी पर विश्वास ना करना। जितना भी पैसा आये सब अपने हाथ में रखना और दूसरी बात कि हमको अगर कुछ हो भी जाता है, तो भी तुम वैसी ही रहना, जैसी मेरे सामने रहती थी। कोई भी श्रृंगार अगर तुमने उतारा तो हमारी आत्मा को बहुत कष्ट होगा।"

तब जब किसी के मुँह से कुछ भी निकलने की स्थिति नही थी, तब चाचीजी के वक्तव्य ये बता हे थे कि उन्हे इस समय सिर्फ दो चीजों की चिंता है, एक तो ये कि चूँकि एक आफिस में काम करने के कारण अब फंड ग्रेच्युटी आदि अन्नू चाचा ही निकलवायेंगे, तो उन पर विश्वास तो करना नही है और न ही ये कि पैसा अंकित के हाथ में चला जाये और दूसरा ये कि ये जो श्रृंगार उन्होने जीवन भर किया है, वो कहीं छूट ना जाये।

रात बिता कर सुबह अंतिम यात्रा निकलनी थी। लोगों के चीत्कार आसमान फाड़ दे रहे थे।लेकिन ऐसे कितने समय आये जब चाचीजी को देख कर सब कलप उठे लेकिन चाचीजी ने सामान्य तरीके से उसे संपादित किया। जैसे जब सिंदूर रखने का सिंघोरा गया तो सारी जनता बिलख पड़ी, औरत यही ले कर पति से जुड़ती है और वही ले कर पूर्वांचल में पति चला जाता है, लेकिन चाचीजी ने शांत भाव से कहा कि गौरी गणेश निकाल लेना उस से। जब चूड़ी टूटनी हुई, उसके एक दिन पहले से दादी बेचैन थीं कि कैसे देखेंगी वो ये सब?लेकिन चाचीजी ने सामान्य रूप से चूड़ी तोड़ी और पीछे जिधर फेंकी जाती है, फेंक दी और दूसरी चूड़ी नाउन से माँग कर पहन ली।

इस के बीच में संतोष चाचा का आना और चाची जी का मन बहलाने के लिये हँसी मजाक करना, ये तो था ही। अंकित ने एक दिन कहा भी कि " मम्मी इधर उधर आवाजें जाती हैं, अच्छा नही लगता।" तो उन्होने साफ जवाब दिया कि जो खतम हुआ उसे सब अच्छा लगता था।

मायके पक्ष से ये भी कहा जाने लगा कि हमारी सास कह रही हैं कि अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है जो तुम साज श्रृंगार छोड़ोगी और ससुराल पक्ष में कहा गया कि अंकित का कहना है मम्मी हम तुम्हें उसी रूप में देख पायेंगे, जैसे आज तक देखा है।

तेरही के एक दिन पहले चाचीजी ने अपने बालों में कलर लगाया और उस दिन के फंक्शन में चमाचम कढ़ी हुई लाल साड़ी पहनी। उसके पीछे तर्क ये था कि चाचाजी को लाल रंग बहुत पसंद था और वो उन्ही की पसंद का काम करना चाहती थीं।

और दूसरे दिन से वो अठन्नी भर की बिंदी, एक इंच चौड़ा काजल और यहाँ तक कि मंगल सूत्र और बिछिया तक के साथ चाचीजी पहले जैसी चाचीजी हो गईं।

सब कुछ हो चुका था, भाई का भात हो गया गाँव की रिश्तेदारी, पट्टीदारी, बिरादरी, सभी चले गये थे।

टी०वी० पर एम टी०वी० चैनल लगा था, आवाज़ बगल में घर तक जा रही थी, शायद और भी अगल बगल जा रही होगी, यही कुछ सोच कर छोटी बुआ उठी और दीवार पार चाचाजी के घर जिसमें अब बस वो नही थे बाकी सब वही था, चली गयीं।

ड्राइंगरूम में सामने ही मुस्कुराते हुए चाचाजी की फोटो माला डली पड़ी थी। देखते ही अजब हूक उठी उनके अंदर जो छल्ल से आँखों से बह पड़ी। अभी उस दिन जब रो के कहा था कि " भईया हमारे दो भाई हैं, दो ही रहने दो।" तौ कैसे कहा था कि तुम चिंता ना करो और फिर बात करते करते कैसे भावुक हो गये थे " बच्ची हम आज भी बाबूजी की फोटो भर निगाह नही देख पाते। और ना हमने अपने घर में उनकी माला लगी फोटो लगाई। यही सोचते हैं कि अब हमारे ना रहने पर ही लगेगी, उनकी फोटो।"

बुआ जी और रोने लगीं थीँ "अब तुम यही सब बात करना भईया, अपने ठीक होने की ना सोचना, अपने इलाज की सोचो।"

बुआ जी अपनी कहे जा रही थीं और चाचाजी थे कि बिना सुने, बस अपनी " बच्ची हम सोचते हैं कि बाबूजी का दुख तो हम आज तक ना भूल पाये अम्मा को कुछ होगा तो हम कैसे सहेंगे।"

चाचाजी की कही ये बात याद करते ही छोटी बुआ के गर्म आँसू और तेजी से निकलने लगे। वो ड्राइंग रूम में पहुँची, जहाँ टी०वी० चल रही था, सामने लंबे वाले सोफे पर संतोष चाचा और चाचीजी बैठे हुए थे। छोटी बुआ ने रिमोट उठाया और टी०वी० बंद कर दिया।

चाचीजी से कुछ कहने की जगह उन्होने संतोष चाचा से कहा। "१५ दिन तो पितरों के लिये भी शोक मना लिया जाता है संतोष भइया, आप को तो उन्होने बोनू भईया से ज्यादा अपना मान कर सारे घर से झगड़ा लिया, कुछ दिन तो शोक मना लो, चाहे हमें दिखाने को ही सही।"

रिमोट उन दोनो के सामने पड़ी टेबल पर रख कर वो अंदर चली गयीं जहाँ अंकित और रूपाली बैठे थे। छोटी बुआ को देख कर रूपाली बेड से उठ गई। बुआ अंकित के बगल में जा कर उसके कंधे पर सिर रख कर बैठ गईं। उनके आँसू, अंकित के कंधे और अंकित के आँसू छोटी बुआ के ऊपरी बाल भिगोने लगे।

"पापा हम दोनो के लिये कुछ दे गये हैं, उस दिन उन्होने राघवेन्दर चाचा को चिट लिख के बुलवाया था ना ! उन्ही को दिया और कहा कि मै जब मैं न रहूँ, तब अंकित को दे देना।"

अंकित ने वैसे ही बैठे बैठे बेड के बगल में पड़ी रैक खोल कर उस से बड़ा सा लिफाफा निकाला। छोटी बुआ वैसे ही उसके कंधे पर सिर रखे रहीं। अंकित ने उसमें से एक एक्स रे निकाला, जो कि फेफड़ों का एक्सरे था। उसमें एक तरफ एकदम खाली था। मतलब एक फेफड़ा बिलकुल खतम दिख रहा था एक्स रे में। ये चाचाजी के फेफड़ों का एक्स रे था। उसी लिफाफे से उसने एक चिट निकाली जिसमें लिखा था " अंकित ! तुम सब सोच रहे होगे कि मैं सब कुछ जानते हुए भी इतनी बदपरहेजी क्यों कर रहा हूँ और एक बात जो तुम लोगों को नही पता वो मुझे पता है कि मेरा एक फेफड़ा बिलकुल काम करना बंद कर चुका है। फिर भी कभी कभी झुँझला के हाथ से सिगरेट छीन के फेंक देने के बावजूद मैं फिर क्यों वही काम करता हूँ। मुझे मालूम था कि मेरा क्या होना है ? और मुझे ये भी मालूम था कि अब कुछ लोग मेरी जिंदगी से ऊब चुके हैं। तो मै बस वो जो होना था, उसे जल्द से जल्द अंजाम दे देना चहा रहा था।

तुम खुश रहना, एक पिता का बहुत सारा प्रेम, जो वो जिंदा रहते अपने बेटे को नही दे सका।"

फिर अंकित ने एक दूसरी चिट निकाली जो शायद किसी रजिस्टर का पन्ना था और उसकी इबारत थी " आज फिर अंकित झुँझलाया हुआ था। अब तो वो मुझे भी कुछ नही कहता। रूपाली ने जब उस से कहा " पापाजी की ये हालत और मम्मी को मैने आज खुद अपनी आँख से संतोष चाचा के साथ जैसे देखा....उफ..." तो अंकित झुँझला गया उस पर " तो क्या करूँ ? तुम किस से कम हो, जो इस समय भी इसी पंचायत में लगी हो। क्या करूँ जा कर बवाल कर दूँ, इसी बात पर ?" अंकित को कैसे समझाऊँ कि जो सारे लोग दो दिन में समझ जाते हैँ, वो क्या मैं पम्मी और संतोष के साथ २४ घंटे रह कर नही समझता। लेकिन अंकित या किसी और को ये कैसे बताऊँ कि डायविटीज़ के आफ्टर एफेक्ट में जो चीजें जाती हैं उनमें से एक चीज जो मुझमे से गई है, वो स्वीकार करना किसी पुरुष के लिये मर जाने जैसा ही है। क्या करूँ ....? अगर पम्मी और संतोष को स्वतंत्र ना छोड़ूँ तो क्या करू ? पम्मी को उन सुखों से वंचित कर दूँ ? कैसे कर दूँ ?

छोटी उस दिन कह रही थी कि "तुम तो भईया बिना मतलब में सुनते हो, वो सूफी गीत। प्रेम में अहं कहाँ? अहं तो प्रेम कहाँ?" उसे कैसे बताता कि पम्मी अच्छी नही बहुत बुरी है, लेकिन जाने क्यों, जाने कैसे मै उसे बहुत प्यार करता हूँ। और प्यार तो बस देना जानता है रे छोटी। तो सारी बातों पर खुद मैने पर्दा डाल कर पम्मी को वो दे दिया, जिसमे उसकी खुशी थी।

" खुद की बरबादी पे खुश हूँ कि सुना है जब से, वो जिसे अपना समझते हैं मिटा देते हैं" घर खानदान की इज्जत देखता कि पम्मी का सुख।"

अंकित और छोटी बुआ अब भी जस के तस बैठे थे। आँसू अब भी वैसे ही एक का कंधा और एक के बाल भिगो रहे थे। ड्राइंग रूम में एम टी०वी० पर एम टी०वी० रोडीज़ डंके की चोट पर फिर चल पड़ा था और अंकित और छोटी बुआ के आँख के सोते उफान मार मार कर बहने पर तुले थे । अचानक छोटी बुआ फुसफुसाती सी खुद से बोलीं। "विष वल्लरी"....
"अ...?? कुछ कहा तुमने?" अंकित ने भरे गले से पूछा
"हम्म्म...विष वल्लरी....जानते हो इस बेल की क्या खासियत होती है अंकित ? ये जिस भी पेड़ से लिपटती है उसे सुखा देती है लेकिन खुद हमेशा हरी भरी रहती है।"

परदे से दिखाई दे रहा था शायद चाची संतोष चाचा के लिये चाय या पानी लेने जा रहीं थीं। सितारों जड़ी साड़ी, बड़ी सी वही बिंदी, छमछम करती पायल, बिछुए..!!
अंकित की नज़र पड़ी और वो भी खुद से ही दोहरा गया "विष वल्लरी”

समाप्त

कंचन सिंह चौहान
जनवरी 2015
 

विष - वल्लरी भाग - 1





 

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