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प्रगल्भा
“मेम, हमें नाम लिखवाना है.”
घनानन्द की आंसुओं में डूबी कविताओं वाली क्लास खत्म हुई ही है. मैंने
स्टाफ रूम में आ कर अभी राहत की साँस भी नहीं ली है कि ये सिरदर्द सिर पर आ
खड़ी हुई. लेकिन सांस्कृतिक समिति की संयोजक हूँ सो यूथ वीक करवाना ओर उसकी
कॉम्पिटिशन्स के लिए नाम लिखना भी जिम्मेदारी है. अब आने वाला सप्ताह इसी
धांय-धूंय में गुजरने वाला है.
“सुनो स्वाति, तुमने पहले कभी डांस किया है?" अंजू ने लपक कर मेरी बात संभाली. “यस मेम, हम स्कुल के प्रोग्राम में डांस करते थे.” लड़की का चेहरा सितारा देवी बना हुआ है. “क्लासिक करोगी या पापुलर?” अंजू अब उसके मजे ले रही है, लेकिन स्वाति को शायद समझ नहीं आ रहा. “मेम, हम डांस तो क्लासिक ही करेंगे लेकिन आप मेरा नाम पापुलर केटेगरी में ही लिखना, हम ट्रेंड डांसर नहीं हैं न” हांय, क्लासिक!! मुझे फिर झटका लगा. सामने नाम लिखाने को अंगद का पैर बनी खड़ी स्वाति की सादगी और गर्व दर्शनीय है, अंजू और भी कुछ कहती लेकिन मैंने आँखों से अंजू को बरजा ओर लिस्ट में उसका नाम लिख लिया. “जाओ, ठीक से तैयारी करना, सीडी या पेन ड्राइव जो भी लाओ सही सेटिंग से लाना और नाम आने के साथ ही ग्रीन रूम से स्टेज पर पहुँच जाना. रूल्स ठीक से पढ़ लेना और...” “और इन बालों को ठीक से सेट कर के
आना वरना उलझ के गिर पडोगी.”
“क्लासिक...इटस क्रेजी.” अंजू खिसिर-खिसिर कर के हंसे जा रही है और अख़बार में चेहरा गडाए झा सर भी अपनी दुर्लभ मुस्कान छुपा रहे हैं. “बस कर, चल चाय पीकर आते हैं.” मैं
झा सर के सामने नहीं हंसना चाह रही हूँ. ’इतनी देर में ड्रेस कैसे चेंज करोगी?’ का बहुत सीधा उत्तर आता है ‘एक ही ड्रेस में कर लेंगे न.’ पर मेरी, अंजू और रीना तीनों की बोलती बंद हो गई जब एक लड़की ने इसका उपाय सुझाया- “मेम, हम क्लासिक के वक्त जींस पर चुन्नी लपेट लेंगे न, फिर वो साड़ी ही तो लगेगी.” “ओ लड़की, भेजा फिर गया है तेरा....” अंजू ऐसे अवसर पर हाइपर हो जाती है जिसे रीना सम्भालती है. डांस के लिए जैसे गीत लड़के-लडकियाँ चुन के ला रहे हैं न, तौबा! और मज़ा ये कि उनके चुने गीत पर ‘डांस क्यूँ नहीं हो सकता’ भी ये अपने ही तर्क से समझना चाहते हैं या आलोक, अंजू की धमकी से समझते हैं. मुझे तो सिवा माथा सहलाने के कुछ नहीं सूझता ऐसे में. क्या जमाना आ गया है, या शायद हम ही जूने पड़ने लगे हैं. "आउट डेटेड.!"
“देखना, सम्भाल के...ध्यान रहे.” प्रिंसिपल कई बार डरा चुका है. “मेडम, प्रिंट ओर इलेक्ट्रोनिक मीडिया में ठीक से कवरिंग होनी चाहिए.” कॉलेज मेनेजमेंट के सेक्रेट्री को टीवी कवरिंग और पेज थ्री से मतलब है. आडिटोरियम की लाईट सुबह से झप-झप कर रही है, खुदा खैर करे. आलोक अपनी किलिंग इंस्टिक्ट को दबाए काम से जूझ रहा है. पार्टिसिपेंट लडकियाँ मेक’प किट, ड्रेस और आर्नामेंट्स से लदी-फदी ग्रीन रूम को सिर पर उठाए हुए हैं. और लड़के किसी भी जुगत से ग्रीन रूम एरिया में एंट्री पाने के लिए जान की बाज़ी लगा दे रहे हैं लेकिन केशव सेन जैसे छः फुटे पीटीआई और उससे भी ऊँचे निकलते रामलाल चपरासी के आगे बेबस हो रहे हैं. कॉलेज ऑडिटोरियम जो लेक्चर, सेमिनार के दिनों में लगभग अकेला सा ऊँघता रहता है, आज शहर का मोस्ट हेपनिंग प्लेस बना इतरा रहा है. नीचे हाल की कुर्सियां ही नहीं ऊपर बाल्कोनी भी अपनी क्षमता से दोहरी संख्या में बच्चों को सम्हाले चरमरा रही है. शोर, हँसी, सीटियाँ, फब्तियाँ, घुड़कियाँ, झिडकियाँ, विनती, चिरोरी, डाँट, वर्जना के बीच रीना की कोयल सी आवाज़ में कूकती उद्घोषणा इस समय नक्कार खाने में तूती सिद्ध हो रही है.
अंजू माइक छीनते हुए फुसफुसाई. “स्टूडेंट्स प्लीज बी सीटेड कामली, अब हम कॉम्पिटिशन के जजेज को इनवाईट कर रहे हैं, हमारे बीच हैं डॉ रमा सुन्दरम और डॉ नरिंदर कुकरेजा...बोथ फ्रॉम डांस डिपार्टमेंट, एनीबेसेंट कॉलेज. जोरदार तालियों से स्वागत करें.” अंजू की दमदार, रोबीली आवाज का असर का तो क्या असर होना था पर हाँ, डांस कॉम्पटीशन स्टार्ट होने की घोषणा का हुआ. अब हाल में लगभग शांति है. सरस्वती पूजन की औपचारिकता के बाद सबसे पहले ग्रुप डांस और उसके बाद क्लासिकल नृत्य प्रतियोगिता रखते हैं. जिनमें बमुश्किल चार-पाँच नाम आते हैं. ज्यादा माथापच्ची नहीं होती, फटाफट निपट जाता है. इस बार भी ग्रुप में तीन और क्लासिक में चार नाम आए हैं, सब जानते हैं इस बार भी एमए हिस्ट्री की प्राजक्ता दिवसे ही फर्स्ट आने वाली है, वो कत्थक सीख रही है और कई प्रतियोगिता भी जीत चुकी है.
अंजू फुर्ती से अगला नाम पुकार रही
है- अब ‘नं सिक्स ....स्वाति शर्मा...ये आपके सामने देवदास फिल्म के ‘काहे
छेड़े छेड़ मोहे..’ गीत पर नृत्य प्रस्तुत करेंगी, मिस स्वाति’ और मुझे वो
झल्ली सी लड़की याद आ गई, मैं और अंजू बमुश्किल अपनी मुस्कान रोके हुए हैं.
हाल में भी शांति सी है, शायद इसे कम ही लोग जानते हैं. हमारी नजर ग्रीन
रूम से आने वाले दरवाजे पर है, आम तौर पर इतनी देर में एंट्री हो जाती है,
कहाँ रह गई मुटल्लो . शायद नाम लिखा कर ही रह गई हो, यहाँ तक आने की भी
हिम्मत चाहिए, वो लडकी तो वैसे ही...
‘ मालती गुंदाय केश कारे
घुघवारे, ‘काहे छेड़े छेड़ मोहे..’ बोल के साथ उसका एक हाथ जो उर्ध्वगामी हुआ तो जैसे नटराज को साथ लेकर लौटा है. अब स्वाति का नृत्य नहीं, नृत्य में स्वाति और स्वाति में नृत्य है...लास्य है...राग है... दही की मटकी संभाले, बीच डगर में कंकरी की मार से ठिठकती-चलती राधिका है... कितना कोमल पद संचालन, कितनी गरिमा है इसकी फिरकी में...और ये सधाव से कान्हा को बरजते हाथों की मुद्राएँ... नायिका की मृणाल सी कलाइयों पर माणिक्य जड़ी सी अंगुलियाँ चकित हो कर स्वयम के चुम्बित मुख को छू कर देख रही है.. देह के नकार के साथ मुग्धा नायिका के चपल नेत्रों का आमन्त्रण... बंद कजरौटी सी ऑंखें नवोढ़ा प्रेमिका के विस्फारित नेत्रों में बदल गई हैं. कहाँ गया सारा शोर और हूटिंग ...अब यहाँ सर्वत्र बस नृत्य है, नृत्य जो स्वाति की स्थूल देह से ऊपर है, जो उसके बचकाना वस्त्रों, आभूषणों और हास्यास्पद प्रसाधन से ऊपर है. इस क्षण में कोई देह नाच ही नहीं रही है जिस के वस्त्राभूषण या प्रसाधन देखा जाए. इस मुक्ताकाशी मंडल पर परम प्रकृति नाच रही है, उस अविनाशी परम पुरुष की प्रिया, उससे अभिसार को जाती, आलते से रंगे कमल-कोमल, मिलन को व्याकुल, उल्लास में धरा को मृदु आघात देते पग तत्परता से उठते, सहम कर थमते.. प्रिय की नटखट अटखेलियों में जिसकी काली कुटिल केशराशि खुल-खुल, बिखर-बिखर के उसके प्रगल्भ मुख को बार बार चूम ले रही है. रस की मटकी को सँभालते उसके हाथों से कभी घुंघट छुटता है तो कभी गागर छलक जाती है...कोई नहीं है उस क्षण में...एक नन्द का ढीठ छोकरा कृष्ण है और एक उस पर रीझती-खीझती मुग्धा षोडशी राधा है, जिसकी ताल, मुद्रा, भाव, शब्द सब नर्तन में है, एक फिरकी..दो फिरकी...पाँच फिरकी...पंद्रह फिरकी...सारा ब्रह्मांड फिरकियाँ खा रहा है. दिगंत को छू कर आती हथेलियाँ कान्हा के परस से कोमल होकर हो कर कभी ह्रदय को छूती हैं तो कभी गालों को...कलाई की सारी चूड़ियाँ तो इस जोराजोरी में चटक गई.. हाथ जिन्हें गुहार करती राधिका कभी दिखाती है तो कभी छुपाती है...ओ माईई...एकाकार है चिदंबरा पृकृति ओर परम पुरुष.. कहाँ गई सारी सीटियाँ, वो हुटिंग, वो जोकरों जैसा प्रसाधन, वो चूहा कुतरे से तेल चुआते बाल, वो विचित्र वेशभूषा, वो नाटा कद और पृथुल देह, स्वाति के अप्रतिम नृत्य और भाव मुद्राओं के बीच ...इस निर्व्याज प्रस्तुति में सब शब्दातीत हो गया है ...प्रगल्भ धारा ये किस रेगिस्तानी नदी से फूटी?
डॉ.
लक्ष्मी शर्मा
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