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अंधेरों से आती आवाज़ें
मेरी आदत है कि मैं आम तौर पर अंजान नंबरों से आने
वाले फोन नहीं उठाता हूं। लेकिन फोन जब सरकारी हो तो क्या कर सकते हैं, हो
सकता है कोई कामकाजी फोन हो। घर आने पर भी फोन बजता ही रहता है। मोबाइल ने
दफ्तर को घर और बिस्तर तक फैला दिया है। इस वक्त रात के दस बजे हैं और
इसी नंबर से यह तीसरी कॉल है, पिछली दो कॉल मैंने अटेंड नहीं की। खीज में
हार कर मैंने फोन उठा ही लिया।
‘हलो’
’नमस्ते’
’जी नमस्ते‘
’मैं बोल रही हूं‘
’हां मैडम, कहिये‘
‘पहचानो तो सही कौन हूं मैं...’
’सॉरी, नहीं पहचान पा रहा हूं मैडम।‘
’मेरी आवाज़ पहली बार तो नहीं सुन रहे...‘
’आई एम रीयली सॉरी मैडम, नहीं पहचान पा रहा...’ कह कर मैंने अपना सिर सोफे
की पुश्त से लगाया और पांव सामने सेंटर टेबल पर फैला दिये। उधर कुछ देर
अबोला रहा, फिर आवाज़ आई, ‘हां, अब कैसे पहचानोगे ये आवाज़, दूरियां बरसों
की हों तो आवाज़ें भी अनजानी हो जाती हैं ना...’
मैं एकदम सकपका गया, लेकिन संयत होकर जवाब देने लगा, ‘जी हां, वक्त की मार
से आवाज़ें भी बदल जाती हैं।‘
‘लेकिन इतनी भी नहीं बदलती श्याम बाबू।‘
एक तेज़ झटका-सा लगा मुझे।
***
कर्फ्यू का सिलसिला ख़त्म हुए अब सात दिन बीत चुके थे। फिर भी पिछले सात
दिनों की तरह बस में बहुत भीड़ थी। जैसे-तैसे करके मैं भी चढ़ ही गया। सुबह
का वक्त होता ही ऐसा है कि आप कुछ नहीं कर सकते। ठसाठस बस में भी नौकरीपेशा
आदमी को सवार होना ही पड़ता है। पायदान से ऊपर खिसकने की जगह मिल जाए तो
गनीमत है। किस्मत से अगले ही स्टॉप पर कुछ सवारियां उतरीं तो ज़रा-सी जगह
बनी। मैंने राहत की सांस लेते हुए खिड़की के पास जगह तलाश की तो मिलती
दिखाई दी। आप जानते ही हैं कि इन सिटी बसों को बस मालिक अस्पताल की
एंबुलेंस जैसी बना देते हैं। दोनों तरफ़ दो लंबी तख्तैनुमा सीटें और एक
तख्त पीछे की ओर। बाकी रही खाली जगह में सवारियां ठूंस दी जाती हैं।
तो जहां जगह मिलती दिखाई दे रही थी, वहां खिड़की के पास एक लंबी छरहरी
महिला खड़ी थी। मैं वहां जैसे-तैसे खड़ा हो ही गया। उसके हाथों में ताज़ी
मेहंदी लगी थी और हिना की खुश्बू आ रही थी। भीड़ भरी बस में यह एक खुशनुमा
बात थी। सब एक दूसरे से इस कदर सटकर खड़े थे कि सांसों की गर्मी तक महसूस
कर सकते थे। दिसंबर की सर्दियों में यह बुरा ना मानने वाली बात थी और वो भी
तब जब शहर दंगा-फ़साद और कर्फ्यू के बाद फिर से पुरानी लय हासिल करने के
लिए हांफता-दौड़ता आगे बढ़ रहा हो। ख़ैर, मैं अब आराम से खड़ा था। मेहंदी
लगे हाथों वाली स्त्री की आंखें बहुत सुंदर थीं। इतनी सुंदर कि जैसे अब बोल
ही पड़ेंगी। उसकी लंबाई मुझसे आधा इंच ज्यादा ही रही होगी। अगर मैंने जूते
नहीं पहने होते तो वह मुझसे और लंबी लगती। लेकिन बंधेज की गुलाबी साड़ी में
वह लंबी ही लग रही थी। बस में रोज आने वाले सहयात्रियों को देखकर
मुस्कुराना एक आम रिवाज़ है। मेरी आदत में भी मुंह सुजाकर खड़ा होना शामिल
नहीं है, सो मैं आदतन मुस्कुराता हुआ उसे देख रहा था। वह भी जवाब में
मुस्कुराई। मैं इस डर से कि कहीं यह महिला मेरी मुस्कुराहट को ग़लत ना
समझ ले, अपना मुंह फेरकर कहीं और देखने लगा। हालांकि दिसंबर का यह महीना
मुस्कुराने का नहीं था। पूरे देश में जगह-जगह दंगे-फसाद हो रहे थे और
मुस्कुराहट को जैसे अभिशाप माना जा रहा था। इसीलिये ज्यादातर लोगों के
चेहरों पर कर्फ्यू की दहशत जैसी चुप्पी छाई हुई थी।
***
मेरे मुंह से बस इतना ही निकला, ‘कहां हो तुम...’
‘इसी जहां में’
‘कोई खोज-ख़बर नहीं मिली इतने बरसों में... वो नंबर बिल्कुल ग़लत निकले।‘
एक खिलखिलाहट-सी गूंजती चली गई उस पार।
‘मैंने तो कहा ही था कि मेरा कोई फोन नंबर नहीं है। वैसे भी नंबरों का
क्या है श्याम बाबू, बदलते रहते हैं, जैसे तुम्हांरे भी इस बीच कितने
नंबर बदल गये... है ना...’
‘हां, तबादलों ने कहां-कहां नहीं घुमाया मुझे... लेकिन आप कहां हैं
आजकल...’
‘जब एक बार कह दिया तुम तो फिर ये आप बीच में क्यों ले आते हो श्याम
बाबू...’
‘ओके, कहां हो तुम...’
‘गुजरात...’
मेरे मुंह से कुछ नहीं निकला, कुछ देर तक मेरी चुप्पी को भांप कर उसने कहा,
‘गुजरात में जिंदा हूं, यही सोच रहे हो ना...’ और उसके इतना कहते ही दस बरस
पहले का गुजरात मेरी आंखों के सामने आ गया। उन दिनों मैं भी सूरत में था।
उन दो बरसों में मैंने जैसे एक पूरी सदी देख ली थी। लेकिन उसके जवाब में
मैं फोन पर कुछ नहीं कह पाया, बस ‘हुंह’ करके रह गया।
***
लेकिन वहां उस बस में जगह ही कितनी थी जो गर्दन घुमाकर कहीं और देखा जा
सकता। बस उन रास्तों से गुज़र रही थी, जहां जले हुए टायरों के निशान मैंने
कल देखे थे और जिनकी तस्वींरें अखबारों में छपी थीं, टीवी पर दिखाई गई थीं।
मुझे वापस वहीं बस में लौटना पड़ा। उसके हाथों में लाख की चूडियां थीं,
लाल, हरी और पीली। मैंने अपने मुस्कु।राते होंठों को दबाते हुए देखा, वह
दबी मुस्कान में चूडियों से खेल रही थी। एकाएक उसने खेल बंद कर दिया और
मेरी ओर देखने लगी। उसका देखना कुछ इस तरह का था कि मैं अपनी दबी
मुस्कुराहट को बाहर लाने के लिए मज़बूर हो गया। उसकी चमकतीं-बोलती आंखें
कुछ और खिल गईं। इस बार उसकी मुस्कुरराहट में उन्मुक्तता थी। एक बेलौस और
बिंदास मुस्कान। मैं एक बार तो बिल्कुल झेंप ही गया। फिर मैंने देखा कि
वह शायद मेरी झेंप का मज़ा ले रही है, इस पर मैं हौले-से मुस्कुराया तो
उसकी आंखों से जैसे रोशनी का एक बड़ा फैलता हुआ दायरा मुझे अपने आगोश में
लेता चला गया। मोहक मुस्कान के जादू में मैंने ख़ुद को संभाले रखने के लिए
दांये हाथ से बस की छत से लगा डंडा पकड़ रखा था। पता नहीं क्यों मैंने
एकाएक उसे छोड़कर बांये हाथ से खिड़की की सलाख़ पकड़ ली। इस बार मैंने ग़ौर
से देखा उसकी देह बहुत पतली-दुबली थी। उसके गहरे कत्थाई पुलोवर के बटन खुले
हुए थे, जिनकी वजह से उसका सरकारी स्कूल की मास्टीरनियों जैसा, नाभि से
नीचे तक देह को ढंकता हुआ पीला ब्लारउज दिख रहा था। जहां अक्सर पुरुषों की
नज़र जाती है, वहां कुछ ख़ास नहीं था, जो उसके सौंदर्य या कि आकर्षण में
इजाफा करे। लंबा अंडाकार चेहरा था और सांवली रंगत। सुतवां नाक और पतले
होंठ, जैसे चंपा के फूल की पंखुडियां। उसके दांत कुछ लंबे थे या कहें कि
जबड़ा हल्का-सा बड़ा था। बावजूद इसके उसकी सुंदरता में कोई कमी नहीं थी।
ऐसा होता है ना कि चेहरे या देह का कोई अंग चाहे कुछ अलग ही क्यों न हो,
ख़ास वजहों से कई बार अजीब नहीं लगता है। इस स्त्री के मामले में शायद
इसका कारण उसकी आंखें रही होंगी या कि नाक और होंठ, ठीक-ठीक कुछ नहीं कहा
जा सकता।
***
उधर फोन पर बड़ी देर तक अबोलापन छाया रहा। लगा जैसे सिसकियां सुनाई दे रही
हैं चुपचाप। मैं उठकर बेडरूम में चला आया। खामोश सिसकियों ने मुझे अंधेरे
में ही बिस्तर पर धकेल दिया। आंखें बंद कर मैं दो तकियों को सिरहाने लगाकर
अधलेटा हो गया। चुप्पी को तोड़ते हुए मैंने ही कहा, ‘सुनो, मुझसे तुम्हारी
सिसकियां नहीं सुनी जातीं...’
कुछ देर की ख़ामोशी के बाद बस हुंह की आवाज़ आई।
ज़रा देर के लिए लगा जैसे चूडियां खनक रही हैं, फिर बारी-बारी से एक
दरवाजा खुलने और बंद होने की आवाज़ सुनाई दी।
‘ओह सॉरी... कितनी पुरानी बातें याद आ गईं श्याम... खुद को रोक नहीं पाई
मैं... आंसुओं के साथ बहुत कुछ बह निकला... लेकिन तुम परेशान मत होना...’
***
मेरा बांया हाथ अब खिड़की की छड़ को पकड़े हुए दौड़ती बस में देह का संतुलन
बना रहा था। वैसे इतनी भीड़ में इसकी कोई संभावना नहीं होती कि आप गिर
सकें, लेकिन किसी और पर नहीं गिर पड़ें इसके लिए संतुलन बनाकर रखना होता
है। दंगे, दहशत और दंद-फंद के इस माहौल में इतना संतुलन नहीं रखें तो पूरा
शहर जल जाये। कई महिलाएं इसे जानबूझकर की गई शरारत मान बैठती हैं, इसलिए
ख़ास ध्यान रखना होता है। आधा घंटे का सफ़र कई बार ऐसे हालात में जिंदगी
भर का सबक बन जाता है। बसों में कभी-कभार यात्रा करने वाले इस बात को नहीं
जानते और गालियों के साथ मार भी खा बैठते हैं। मेरी पीठ के ऐन पीछे एक मोटी
स्त्री बैठी थी, जिसका ध्यान रखना जरूरी था, वरना वह ज़रा-सा स्पर्श
होते ही तूफान मचा सकती थी। मेरे जैसे रोज़ के यात्री इस बात से पूरी तरह
परिचित थे। मैंने कनखियों से देखा कि मेहंदी लगा एक हाथ भी अब खिड़की की
सलाख थाम चुका था। बाहर बहुत ठंड थी। हम दोनों जिस तरह खड़े थे, उससे
खिड़की के बाहर कुछ नहीं दिख रहा था, बस ठंडी हवा अंगुलियों को जैसे सहला
रही थी। मैंने महसूस किया कि थोड़ी देर बाद ही मेरी अंगुलियों पर एक
खुरदुरी गर्माहट तैर रही थी। बस के अंदर उसकी आंखें चमक रही थीं। झिझकते
हुए मैंने अपना हाथ वहां से हटाकर भीतर ले लिया। एक स्टॉप पर कुछ और
सवारियां भीतर दाखिल हो गईं। जगह लगातार कम पड़ती जा रही थी। उसने मेहंदी
रचा अपना हाथ साड़ी में लपेटा और मेरे ठंडे हाथ के नजदीक ले आई। दोनों हाथ
अब उसके पर्स के पीछे थे, उसने आराम से मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया।
जैसे दहशतगर्दी के माहौल में किसी ख़ौफ़ज़दा इंसान को पनाह मिल गई हो। वह
चुपचाप मुस्कुरा रही थी और उसकी आंखों की चमक बढ़ती जा रही थी। मैंने कोई
प्रतिरोध नहीं किया। बंधेज का टेक्च्र और उसके हाथों का खुरदुरापन अब
बहुत मृदु लग रहा था। उसने अपनी अंगुलियां अब मेरी अंगुलियों में स्नेह से
जकड़ ली थीं, जैसे चुपके-से हाथ मिलाने की कोशिश की जा रही हो। कामयाबी में
उसने मेरे हाथ की अंगुलियों में अपनी अंगुलियां लपेटते हुए जैसे दो पंजों
का शिकंजा कस दिया था।
***
अक्टूबर के महीने में आधी रात से कुछ पहले का वक्त था यह और मौसम में
हल्की सर्दी की दस्तकें साफ महसूस की जा सकती थीं। उसने थोड़ी देर में बात
करने के लिए कहकर फोन काट दिया था। मैं सिरहाने रखा पतला कंबल लेकर अंधेरे
में ही लेट गया था। बीस साल के जिन गुमशुदा अंधेरों से उसकी आवाज़ सुनाई दे
रही थी, वहां मेरे कमरे की रोशनी का कोई अर्थ नहीं था। आग, वहशत, दहशत,
जलते हुए असंख्यं अमानवीय दृश्यों के बीच मेरे आसपास जैसे हिना की खुश्बू
के भंवर तैरने लगे थे और दोनों एकमेक होकर एक अजीब चिरायंध पैदा कर रहे थे।
मैं खाना खा चुका था, लेकिन इस फोन से जैसे सब कुछ एक झटके में बदल गया था।
अजीब-सी बेचैनी और घबराहट छाई हुई थी। कमरे के भीतर के अंधेरे में जैसे आग
की लपटों में जलते हुए गुजरात-गोधरा के दृश्य मेरे सामने भयानक दानवी
अट्टहास करते नज़र आ रहे थे। डर और बेचैनी के मारे मैंने हाथ बढ़ाकर नाइट
लैंप जलाया। हल्का पीला प्रकाश अपनी पूरी उदासी के साथ मेरे वजूद में तैर
गया।
मैं उठा और चुपचाप अलमारी खोलकर वोदका की बोतल निकाल ली। एक गिलास में
थोड़ी उंडेलने के बाद बोतल वापस रख दी। पानी मिलाया और कंबल खींचकर फिर से
अधलेटी मुद्रा में पसर गया। गिलास हाथ में लेकर सिप करने लगा। दिमाग में
कितना कुछ जमा था बीस बरसों का, सब ऊपर-नीचे होने लगा। भीतर के अंधेरे इतने
गहरे थे कि रोशनी सहन नहीं हो रही थी। इसीलिये वोदका का सहारा लेते हुए
मैंने नाइट लैंप बुझा दिया।
***
जल्दी ही मेरा स्टॉप आने वाला था। मैंने हौले से हाथ छुड़ाया और
मुस्कुराया। जहां मुझे उतरना था, वहां बस लगभग पूरी तरह खाली होने वाली
थी। बस रुकने पर हम दोनों मुस्कुहराते हुए आगे पीछे उतरे।
मैं उतरकर आगे बढ़ा तो वह साथ चलने लगी। उसने बिना किसी संबोधन या
औपचारिकता के कहा, ‘आंखें बहुत बुरा करती हैं, किसी का कोई दोष नहीं
इसमें।‘ मैं बस मुस्कुरा दिया। उसने पूछा, ‘कहां जाना है?’ मैंने कहा,
‘दिल्ली गेट’ और वह मुस्कुरा दी। मैं आम तौर पर बस से उतरकर रिक्शा करता
हूं और आधा किमी दूर अपने ऑफिस पहुंचता हूं। कई बार समय हो तो पैदल चल देता
हूं। आज पता नहीं क्यों पैदल ही चले जा रहा था। अब मेरे कदम उसके साथ
कदमताल कर रहे थे। मैंने उसका नाम पूछा तो जवाब मिला ‘आशा’। मैंने भी अपना
नाम बता दिया, ‘श्याम’। मैंने सवाल किया, ‘आप किस स्कूरल में पढ़ाती हैं?’
उसने आश्चर्य से कहा, ‘आपको कैसे मालूम?’ मैंने कहा, ‘मास्टरनियों के ही
ब्लाजउज आजकल लंबे होते हैं, वरना कौन पहनता है ऐसे...।’ सुनकर उसके होंठों
पर मुस्कान तैर गई। हम चलते हुए ही बातें करते जा रहे थे, क्योंकि मुझे
ऑफिस पहुंचने की जल्दी थी। बातों ही बातों में मालूम हुआ कि यहां उसका
पीहर है और वह किसी शादी में आई हुई है। मेरा ऑफिस आ गया था। मैंने कहा,
‘अगर आपके पास वक्त है तो कुछ देर रुकें। मैं बस अंदर जाकर हाजिरी लगाकर
वापस आता हूं, फिर साथ बैठकर चाय पियेंगे।‘ उसने मेरा प्रस्ताव मंजूर करते
हुए कहा, ‘ठीक है, मैं इंतजार करती हूं।‘ वह वहीं भीड़ भरी सड़क पर खड़ी
रही और मैं भीतर चला गया।
***
मैंने वोदका का छोटा ही पैग बनाया था और बहुत धीमे सिप कर रहा था, फिर भी
मेरा पैग खत्म, होने जा रहा था। मैंने अनुमान लगाया कि उसने दुबारा फोन
करने के लिए कहा था तो उस बात को गुज़रे भी करीब आधा घंटा हो चुका है।
मैंने मोबाइल देखा, रात के सवा ग्यारह बजे थे। खुद फोन करूं कि नहीं करूं
की मनस्थिति में ही कई मिनट खर्च कर दिये। कई बार सोचा लेकिन हर बार
हिम्मत जवाब दे जाती। पता नहीं कौन उठा ले, इतनी रात गये किसी महिला को
फोन करना और वो भी ऐसी महिला को, जिससे कोई संबंध ही नहीं... और है भी तो
बताया नहीं जा सकता।
***
मैं चाहता तो उसे कैंटीन में बिठा सकता था, लेकिन ऑफिस वालों का क्या
भरोसा, कुछ का कुछ समझ बैठें, जबकि सच में कुछ हुआ ही नहीं है अभी तक तो।
मैं गया, हाजिरी लगाई और बॉस को यह कहकर निकला कि कोई मिलने वाले आए हैं,
इसलिये थोड़ी देर में उन्हें चाय-पानी करवाकर आता हूं। यह एक सामान्य बात
है और इस पर कोई ध्यान नहीं देता। बॉस ने बस इतना कहा कि सुबह-सुबह ही
मिलने वाले आ गये, खैर कोई बात नहीं। मैं बाहर आया तो वह फुटपाथ पर खड़ी
थी। मैंने उसके पास जाकर कहा, ‘आइये।‘ मैं उसे लेकर सड़क के उस पार ज़रा-सी
दूरी पर बने एक रेस्टोरेंट में ले गया। अभी वहां आमदरफ्त शुरु नहीं हुई
थी, पूरा रेस्टोरेंट खाली पड़ा था। वह मेरे सामने बैठी थी। पानी आया और वह
चुपचाप पानी पीने लगी। मैंने भी उसके सामने कुछ दिखाने के अंदाज में पानी
को चुस्कियां लेकर पिया। जैसे कोई पनाह में आया हुआ शख्स डरते हुए पानी
पीता है।
***
मैं चाहता तो एक और पैग बना सकता था। इस अकेले घर में मुझे रोकने वाला तो
कोई नहीं, लेकिन मन नहीं माना। हां, एक पैग से कुछ अजीब किस्म का
आत्मविश्वास आ गया था। बांये हाथ का अंगूठा उसके नंबर को कई बार डायल
करने के बाद काट चुका था। जेहन में जैसे बस ‘श्याम बाबू’ का ही स्वर तैर
रहा था।
सिवा उसके किसी ने मुझे जीवन में श्याम बाबू नहीं कहा। इसलिए यह संबोधन
सुनते ही मेरी चेतना के तार झनझना उठे थे।
बहुत इंतज़ार के बाद हारकर मैंने सारी हिम्मत जुटाई और उसका फोन डायल कर
ही दिया। बहुत देर तक घंटी जाती रही, लेकिन किसी ने उधर से फोन रिसीव नहीं
किया।
***
बातों का सिलसिला उसने ही शुरु किया। ‘आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा।‘ मैंने
भी खुशी जाहिर की। उसने बताया कि शादी बचपन में ही हो गई थी। वह शहर में
रहती थी, इसलिये पढ़ती रही और उधर पति पहले तो खेती में लगा रहा, फिर कुवैत
चला गया। पति के वापस आने तक उसकी स्कूल में नौकरी लग चुकी थी। अब वह अपने
दसवीं फेल पति के साथ शहर से करीब 60 किमी दूर ससुराल के अपने गांव में
रहती है और पड़ौस के ही गांव में उसकी पोस्टिंग है। पति ने कमाये हुए पैसों
से और जमीन खरीद ली है, अब वह पूरी तरह खेती में लगा रहता है। एक बेटा और
एक बेटी है, दोनों पढ़ रहे हैं। अजीब बात है कि हमारी बातचीत में एक बार भी
दंगे-फ़साद का जिक्र नहीं आया। जबकि उसने अपना पीहर जिस इलाके में बताया
था, वहां बहुत कुछ होने की ख़बरें मिलती रही थीं। हम दोनों ही शायद उस दहशत
और गर्दो-गुबार से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे, जिसमें पूरा शहर ही
नहीं देश भी मुब्तिला था। ऐसा होता ही है, मनुष्य यंत्रणा से बाहर निकलने
के रास्ते जहां खोज लेता है, वहां से उसी दुश्चक्र में नहीं जाना चाहता।
***
मैं अजीब निराशा में घिरा जा रहा था। उम्मीद छोड़कर मैंने सोने की कोशिश
की। कंबल को खींचकर गर्दन तक ले आया। हसरत से मोबाइल बिस्तर के कोने में
रखा और दो में से एक तकिये को अपनी बाजू में सटा लिया। मैं उसके ख़यालों
में ही डूबा सोने की कोशिश में था कि मोबाइल बजा। उसी का फोन था।
‘हलो... हां, सॉरी श्याम बाबू... बहुत से काम निपटाने थे घर के। तुम बहुत
चिंता में रहे होंगे ना...’
‘हां, चिंता तो थी ही। मैंने फोन किया तो कोई जवाब नहीं मिला।‘
‘हां, मैं मोबाइल यहां कमरे में ही छोड़ गई थी। किचन और बाकी काम यानी
दरवाज़े बंद करने वगैरह में काफी वक्त लग गया।‘
‘क्यों घर में कोई नहीं है क्यां...’
‘हां, तुम्हारे घर में कौन है इस वक्त....’
‘कोई नहीं, अकेला हूं बस’
‘हम भी अकेले तुम भी अकेले... मजा आ रहा है कसम से... हाहाहा’
पहली बार उसकी खिखिलाहट अच्छी लगी।
***
खाली रेस्टोरेंट में जब तक चाय आई वह अपनी संक्षिप्त कथा सुनाती रही। चाय
आने के बाद उसने मेज पर टिका मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया और कहा,
‘दोस्ती मत तोड़ना।‘ मैंने कहा, ‘नहीं तोड़ेंगे।‘ इस पर उसने मेरा हाथ
कसकर दबा दिया। अब मैं ठीक से उसके हाथों का खुरदुरापन महसूस कर रहा था।
गांव की गृहस्थी में उसके लंबे पतले हाथ सारी नजाकत खो चुके थे। मेहंदी और
नेल पॉलिश के बावजूद एक सरकारी स्कूल मास्टंरनी की ग्रामीण गृहस्थी के
सारे दाग-धब्बे उसके हाथों की लकीरों में चस्पां थे। लेकिन उन हाथों में
गहरी ऊष्मा थी, जिंदगी की गरमास से चमकती आंखों में जैसे कोई तड़प थी।
मुझे गांव में अपनी पत्नी और मां के हाथ याद आ गये, जो उतने ही खुरदुरे
थे।
***
‘अब मैं आराम से लाइट बंद कर बिस्त़र पर लेटी हूं। तुमसे कितनी बातें करनी
हैं मुझे। सुनो तुम्हें बुरा तो नहीं लग रहा मेरा बात करना...’
‘बुरा क्यों लगेगा...’
‘कि ये अचानक कहां से आ गई बीस साल बाद... वो हॉरर फिल्म याद है ना...’
‘हां, याद है’
‘तुम्हें डर तो नहीं लगा मुझसे, हाहाहा...’
‘नहीं, बस चौंक गया था मैं’
‘अच्छा और चौंकने के बाद क्या किया... व्हिस्की पी, है ना...’
‘नहीं वोदका...’
‘हुंह, ओहदे के साथ ब्रांड बदल लिया...’
‘नहीं, घर में थी ही वोदका...’
‘तो अकेले-अकेले वोदका गटक गये...’
‘तुम तो पता नहीं कहां चली गई थी...’
‘अब आ गई ना, बोलो क्या सुनना चाहोगे...’
‘जो तुम चाहो...’
’लेकिन पहले अपनी सुनाओ...’
***
उसने मेरे बारे में पूछा। अकेला रहता हूं, एक सरकारी फ्लैट मिला हुआ है।
पत्नी गांव में है और मां-बापू के साथ खेती-गृहस्थी संभालती है। दो बेटे
हैं, जो उधर ही पढ़ते हैं। गांव यहां से बहुत दूर है, इसलिये महीने में
दो-एक बार गांव चला जाता हूं। ऑफिस में बहुत काम है, इसलिए देर तक रुकना
होता है। कई बार छुट्टी के दिन भी आकर काम करना पड़ता है। उसने मेरा फोन
नंबर मांगा। यह मोबाइल के आने से पहले के दिनों की बात है, मैंने अपना ऑफिस
का नंबर दे दिया। मेरे घर पर फोन नहीं है। उसने अपने घर का फोन नंबर देते
हुए कहा कि शाम को सात बजे के आसपास ही करना। उस वक्त मैं ही फोन उठाती
हूं। मैंने फोन नंबर तो ले लिया। मैं जानता था कि मैं उसे कभी फोन नहीं
करूंगा। उसने पूछा कि अब कब मिलेंगे? मैंने कहा, ‘अगर वक्त हो तो शनिवार
को मिल सकते हैं। उस दिन यूं तो छुट्टी रहती है, लेकिन दो-चार घंटे ऑफिस
आना पड़ता है। दंगों और कर्फ्यू के कारण बहुत काम अभी अपडेट किया जाना है।
लंच के वक्त मिल सकते हैं।‘ शनिवार को आने में अभी चार दिन थे। मैंने सोचा
कि चार दिन में तो बहुत कुछ बदल जाता है। पता नहीं इसका मूड भी बदल जाए।
लेकिन उसने कहा कि शादी में अभी कई दिन हैं और वह अगले दो सप्ताह तक शहर
में ही रहेगी, इसलिए शनिवार को मिलने में कोई दिक्कत नहीं। चाय पीकर हम
बाहर निकले तो दोस्ती जैसा एक संबंध बन चुका था। उसे अपने स्कूल के किसी
काम से नजदीक ही शिक्षा विभाग में जाना था। मैंने उसे रिक्शे में बिठाया
और अपने ऑफिस में घुसकर काम में जुट गया।
***
‘लगता है जैसे सब कुछ खत्म हो गया...’
मेरी बातें सुनकर वह आहें भर कर बोली, ‘ओह, इतना कुछ हो गया और तुम्हें
मेरी याद तक नहीं आईं...’
’याद करता था, लेकिन तुम तो रहस्य की तरह आई और रहस्य की तरह ही गायब भी
हो गई।‘
‘हां, जिंदगी कई बार अपने आप में ही रहस्य हो जाती है ना... जैसे हमारा
मिलना और बिछुड़ना...’
‘तुम कहां रही इस बीच...’
‘वो भी एक लंबी कहानी है श्याम... जिस्मानी रोगों ने तुमसे इतना सब छीन
लिया और मुझसे समाजी रोगों ने...’
उसके इतना कहते ही जैसे एक लंबी खामोशी छा गई।
***
मैं केंद्र सरकार के सांख्यिकी विभाग में वरिष्ठ. सहायक हूं। मेरे सेक्शन
में मेरे साथ सबसे बड़े बॉस यानी निदेशक बैठते हैं। हम दोनों दूसरी मंजिल
पर बने एक कमरे में बैठते हैं। यहीं बॉस का केबिन है, जिसमें लगे फोन का एक
एक्टेंन मेरे पास है। बॉस की गैर मौज़ूदगी में मैं ही सारे फोन सुनता
हूं। कहने के लिए हम दोनों के पास एक चपरासी है, लेकिन वह आम तौर पर नीचे
ही रहता है, क्यों कि उसके पास रिकार्ड का भी अतिरिक्त कार्यभार है। जब
साहब उसकी रिमोट घंटी बजाते हैं, वो अवतरित हो जाता है। दिन में लंच के समय
एक फोन आया, उस वक्त् बॉस खाना खाने गये हुए थे और मैं टिफिन सेंटर से आया
अपना खाना खा चुका था, इसलिए फोन मुझे ही उठाना था। मैंने दो-तीन बार ‘हलो’
किया, लेकिन कोई आवाज़ नहीं आई। मैं थक कर फोन रखने ही जा रहा था कि एक
स्त्री -स्वर में ‘हलो’ सुनाई दिया। मैंने आदतन कहा कि मैडम, साहब खाना
खाने गये हैं, बाद में बात कीजियेगा। लेकिन उधर से जैसे एक खिलखिलाहट
गूंजी, ‘हमें तो आपसे बात करनी है, साहब से नहीं।‘ मैं चौंक गया था। दरअसल
मेरे लिए ऑफिस में फोन बहुत कम आते हैं। मुश्किल से कभी गांव से बेटे का
किसी सामान के लिए फोन आ जाए तो अलग बात है, वरना नहीं। इसलिए मुझे
आश्चार्य हुआ और मैं दफ्तरी काम के दबाव में कल्पना ही नहीं कर सका कि
मेरे लिए किसी महिला का फोन भी आ सकता है। फोन पर गूंजती खिलखिलाहट ने ही
कहा, ‘क्या सुबह की बात भी भूल गये श्याम बाबू...।‘ मेरा माथा ठनका, ‘ओह
तो ये आशा है।‘ मैंने ‘सॉरी’ कहते हुए बात जारी रखी। उसने बताया कि शिक्षा
विभाग के काम से वह अब फ्री हुई है। मैंने उसे समझाया कि वैसे तो कोई बात
नहीं, लेकिन अगर वह चाहे तो सिर्फ लंच के दौरान या फिर शाम को छह बजे बाद
फोन करे, उस वक्त आराम से बात हो सकती है। बॉस के आने से बस ज़रा देर पहले
उसने फोन काटा और कहा कि शाम को बात होगी।
उस दिन शाम को फिर उसका फोन आया और वह इधर-उधर की बहुत सारी बातें करती
रही। एक दिन में दो फोन और एक मुलाकात में वह मेरे बारे में बहुत कुछ जान
चुकी थी। जैसे कि मैं बहुत आत्मकेंद्रित आदमी हूं, दुनिया-जहान के लफड़ों
में नहीं पड़ता। कॉलेज के दिनों में दोस्तों की संगत में संगीत सुनने का
जो चस्का लगा था, वो बहुत आगे तक बढ़ चुका है, जिसमें अब अपनी ख़ुद की
रूचि का और इजाफा हो चुका है। इसके साथ ख़बरें सुनने, पढ़ने के अलावा ऑफिस
की लाइब्रेरी में आने वाली पत्रिकाएं पढ़ लेता हूं। सुबह का नाश्ता और शाम
का खाना ख़ुद बनाता हूं, लंच में खाना बाहर से मंगवाता हूं, क्योंकि बरसों
पहले एक निराश्रित विधवा ने यह टिफिन सेंटर अपना स्वावलंबी जीवन जीने के
लिए शुरु किया था, तभी से उसके यहां से दोपहर का गर्म खाना आ रहा है।...
करीब बीस मिनट बात करने के बाद उस दिन उसने शाम की बात ख़त्म की।
***
उसका फोन कट गया था। मैंने मिलाने की कोशिश की तो कपंनी का संदेश सुनाई
दिया कि आउट ऑफ कवरेज एरिया अथवा स्विच ऑफ है। विचित्र-सी झुंझलाहट हो रही
थी कि आखिर यह सब हो क्या रहा है।
***
वापसी में घर जाते हुए बस में सुबह की सारी घटना याद आती रही और अजीबोगरीब
ख़याल आते रहे। मन को आज़ादी मिले तो वह कल्पना के ना जाने कितने घोड़े
दौड़ाने लगता है। कई किस्म के ख्वाबों में डूबता-उतराता मैं घर के नज़दीक
वाले स्टॉप पर उतरा तो कदम ख़ुद-ब-ख़ुद शराब की दुकान की ओर बढ़ते गये।
मैं कभी-कभार ही शराब पीता हूं और घर पर रखता भी हूं लेकिन आज .... एक पूरी
बोतल व्हिस्की की खरीदी और रास्ते से अंडे वगैरह खरीदते हुए घर पहुंचा।
नये-पुराने फिल्मी गीत और ग़ज़लों के मुखड़े जुबां पर आ रहे थे।
खुशकिस्मती से हमारा इलाका दंगों से बचा हुआ था, इसलिये मेरा मन ऐसी बातें
कर रहा था। एक नशा-सा तारी था जेहन पर, जिसमें मदमाता मैं अपने घर पहुंचा
था।
अपने दो कमरे के फ्लैट में पहुंचकर मैं सबसे पहले अलमारी में लगे आदमकद
आइने के सामने जा खड़ा हुआ। किसी आत्ममुग्ध नायिका की तरह ख़ुद को निहारा
तो लगा कि शक्ल-सूरत इतनी बुरी भी नहीं है कि कोई पसंद ही ना करे। उसने
आंखों के लिए कुछ कहा था, मैंने पहली बार गौर किया कि मेरी आंखें सच में
कुछ-कुछ आकर्षक हैं। लेकिन कमाल है पहली बार किसी अंजान महिला ने इस पर
ध्यान दिया। यूं गांवों में इस किस्म की शहरी बातों का वक्त ही कहां
होता है, जो कोई किसी को कुछ कहे। खैर, कपड़े बदलकर सबसे पहले फ्रिज खोलकर
देखा कि क्या बनाया जा सकता है? अंडे देखकर लालच आ गया कि आज सिर्फ अंडे
ही खायेंगे। सुबह का गूंदा हुआ आटा रखा था। काम चल जाएगा। हरी मिर्च,
प्याज, अदरक और हरा धनिया निकाला और अंडे लेकर रसोई में गया। तेज गति से
हाथ चलाये और आशा की आशाएं संजोते हुए अंडा करी बनाई और चार चपातियां सेंक
कर बाहर आ गया। फ्रिज से ठंडे पानी की बोतल निकाली और एक पैग बनाया। टीवी
पर चैनल बदलते हुए धीरे-धीरे चुस्कियां लेता रहा। देश में ही नहीं,
पाकिस्तान और बांग्ला देश तक में दंगे फैले हुए थे। हर समाचार चैनल पर वही
ख़बरें थीं। मैंने हार कर टीवी को म्यूट कर दिया और अपना म्यूजिक प्लेयर
चालू कर दिया। कुछ राहत महसूस हुई। सुबह जो कैसेट लगी हुई थी, वही आगे चल
पड़ी। अहमद हुसैन और मोहम्मेद हुसैन बंधु दानिश अलीगढ़ी की ग़ज़ल पेश कर
रहे थे। यूं महसूस हुआ जैसे ग़ज़ल मेरे ही दिल का हाल बयां कर रही थी।
दो जवां दिलों का ग़म दूरियां समझती हैं
कौन याद करता है हिचकियां समझती हैं।
ग़ज़ल के अशआर और सुरीली गायकी में तैरते हुए पहला पैग खत्म किया और दूसरा
बनाया। मन में पता नहीं क्या-क्या उमड़ रहा था। वही ग़ज़ल फिर से रिबाइंड
कर दी। मुझे अपने हाथ पर उस खुरदुरी गर्माहट का अहसास बार-बार महसूस हो रहा
था। उसकी काया अब शराब के नशे के साथ ‘कनक छड़ी-सी कामिनी’ का अहसास दे रही
थी। खुद को गालियां देने का मन कर रहा था कि जब वो ख़ुद अपना हाथ दे रही थी
तो कंबख्त उसे एक बार भी क्यों नहीं दबाया। बेवकूफ कहीं के, गंवार आदमी।
उसे मेहंदी, बंधेज की साड़ी और लाख की चूडियों के बावजूद किसी तरह का कोई
नैतिक संकट नहीं था, लेकिन तुम...। इसी उहापोह में नौ बज गये और तीसरा पैग
भी ख़त्म हो गया। उठकर रसोई में गया और खाना लगाया। पागल मन ने जैसे पहला
कौर आशा को खिलाना चाहा और बदले में आशा ने मुझे ही खिला दिया। अब शनिवार
बहुत दूर लग रहा था। मन गाये जा रहा था, ‘हमारी सांसों में आज तक वो हिना
की खुश्बू महक रही है...।‘
***
मैं समझ गया था कि उसके मोबाइल की बैटरी जवाब दे चुकी है इसलिये अब शायद ही
बात हो पाए। मैंने देखा कि रात के साढे बारह बज चुके हैं, इसलिये अब सोने
में ही भलाई है। मैं एक बार फिर सोने की कोशिश करने में जुट गया। अगले दिन
दशहरे का अवकाश था इसलिए इस बात की कोई चिंता नहीं थी कि सुबह उठकर ऑफिस
जाना है। वोदका का नशा था कि दिन भर की दिमागी माथापच्ची या कहें कि उससे
दुबारा बात होने की आश्वास्ति, नींद दस्तक देने लगी थी।
एक ख्वाब की ओर नींद लिये जा रही थी कि मोबाइल फिर बज उठा।
‘हलो, हमें नींद चुराकर सोने वाले की नींद हराम करनी है... क्या आप तैयार
हैं इसके लिए...’
‘हाहाहा, तुम भी ना कमाल करती हो...’
‘क्यों क्या हुआ...’
‘कभी काम आ जाता है तो कभी तुम्हारी बैटरी खत्म हो जाती है...’
‘ऐ सुनो, बैटरी मेरी नहीं मोबाइल की खत्म हुई है। मेरी तो जानते ही हो ना
तुम...’
’हां, पता है...’
‘हाहाहा... क्या कर रहे हो... सो गये थे ना...’
‘हां’
‘क्या सोचकर सोए थे कि अब उसका फोन नहीं आएगा... अरे जालिम तुम्हें नींद
कैसे आ गई...’
‘जैसे बीस बरस बाद तुम्हें मेरी याद आ गई’
’हां, ये हुआ ना नहले पे दहला’
‘अच्छा एक बात बताओ, तुम्हें मेरा नंबर कैसे मिला...’
‘आज के जमाने में किसी सरकारी अफसर का नंबर मिलना कोई मुश्किल काम तो है
नहीं’
‘फिर भी...’
‘तुम्हारे ऑफिस की वेबसाइट से’
‘तो तुमने वेबसाइट से खोजा मेरा नंबर...’
‘हां, इसमें चौंकने की क्या बात है...’
’तुम कंप्यूटर, वेबसाइट ये कब से जानने लगी गंवार मास्टरनी...’
‘ऐ सुनो, अब मैं वो गंवार मास्टरनी नहीं हूं लंबे ब्लाउज वाली...’
‘तो क्या अब स्ली वलैस टॉपर और जींस पहनने लगी हो...’
‘नहीं, उससे भी आगे चली गई हूं...’
‘कितनी आगे...’
‘सोचके देखो...’
‘हुंह’
‘क्या हुआ यार...सोच जवाब दे गई क्या...’
‘नहीं, कुछ याद आ गया...’
‘हां, वो तो याद आएगा ही... सुनो...’
‘हां, बोलो’
‘एक बार बोलो ना...’
‘क्या...’
‘वही...’
***
दूसरे दिन फिर दोपहर में लंच के दौरान उसका फोन आया। उसने पहले मेरा हालचाल
पूछा तो मैंने कहा, ‘मैं ठीक हूं, आप बताइये क्या हाल हैं?’
‘मैं भी ठीक हूं।‘
’गुड और क्या...’
’बाकी सब ठीक है। एक बात बताइये, आपको बिल्कुल भी याद नहीं आई क्यां
मेरी... मुझे तो बहुत याद आई... पूरी रात जागती रही, एक पल भी नींद नहीं
आई... आप तो खर्राटे मार सोते रहे होंगे... है ना...’
’जी, ऐसी बात नहीं है... बहुत याद आई आपकी और उसी याद में आपने सपनों में
बुला लिया और...’
‘और क्या... बताइये ना...’ उसने चिहुंक कर पूछा तो मैं चुप लगा गया। मेरी
ख़ामोशी से चिढ़कर उसने कहा, ‘आप बहुत जालिम हो।‘
’क्यों, ऐसा क्या कर दिया मैंने’, मेरा सवाल था।
‘अरे, मुझे ख्वाबों में बुलाकर पूरी रात जगाये रखते हो और पूछते हो कि
क्या किया..’ उसकी जोरों की हंसी गूंजी।
‘नहीं, मैंने कहां बुलाया था, आप तो खुद-ब-खुद चली आईं।‘
‘तो क्या करती... दिल ने ऐसा मज़बूर किया कि आना ही पड़ा।‘
‘तो सारा कुसूर दिल का है, मुझे क्यों दोष देती हैं आप...’
’यार दोष तो आपकी ज़ालिम आंखों का है... वही खींचकर लिए जाती हैं और मैं
दीवानी-सी चली आती हूं।‘
‘और मैं हिना की खुश्बू में लिपटा हुआ हूं।‘
’कसम से...’
’हां, कसम से’
’तो एक दिन आपको इस खुश्बू में नहला देंगे।‘
कहकर वह खिलखिलाती बातें करती रही और मैं उसका साथ देता रहा। शनिवार को
मिलने के वादे के साथ बात खत्म हुई।
रोज़ बिला नागा दिन में दो बार उसके फोन आते रहे। एक बार तो हम झगड़ भी
पड़े। हुआ यूं कि उसने मुझसे कहा कि मैं ज़ोर से उसे ‘आई लव यू’ कहूं तो वो
मान जाएगी कि सच में मैं उससे प्रेम करता हूं। अब ये सब सरकारी दफ्तर के
फोन पर कैसे कहा जा सकता है, सोचिये.....। मैंने कहा कि कभी-भी कोई भी ऊपर
आ सकता है, लोग क्या कहेंगे। लेकिन वो नहीं मानी। हार कर मैंने उसे हल्के
से कहा तो उसने जिद पकड़ ली कि इतने हल्के से कहा है तो अब एक फोन-किस दो,
अच्छा-सा। मरता क्या न करता, उसकी बात मानी और जिंदगी में पहली बार किसी
को फोन पर किस दिया। अब तक ऐसे दृश्य सिर्फ सिनेमा में ही देखे थे।
***
-प्रेमचंद गांधी
भाग -2
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