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खाइयाँ ड्राइवर आमतौर पर वैसे नहीं होते, जैसा वह था ! पूरे सफर के दौरान न तो उसने बेमतलब गालियां बकी, न ड्राइविंग के लटके-झटके दिखाये और न इधर-उधर की हांक कर हमें प्रभावित करने की कोशिश की। जहां पर हमें गाड़ी रूकवाने की जरूरत हुई, उसने बगैर ही-हूज्जत के रोक दी। ‘देर हो रही है, यहां पर नहीं रोकूंगा’ जैसी बातें तो हमने उसकी ओर से सुनी ही नहीं। वह ड्राइविंग का भरपूर आनंद उठा रहा था। जैसे यह उसके लिए रोजमर्रा का काम न होकर, उसे मिला हुआ कोई दुर्लभ अवसर हो। इतना सुलझा हुआ ड्राइवर मिलने पर हम लोग अपनी यात्रा के प्रति आश्वस्त थे और कई बार आपस में उसकी प्रशंसा कर चुके थे। हम पहली बार पहाड़ में इतने आगे तक जा रहे थे। पहले पिथौरागढ़, फिर मुनस्यारी ! एक ओर जहां हम, एक पहाड़ से दूसरे पर चढ़ते जाने, नई-नई जगहों के खुलते जाने, वहां के एकांत, घास के हरे-भरे ढलान, नदियों-घाटियों और पहाड़ में दूर-दूर बने हुए घरों को देखकर विस्मित होते जाते और एक-दूसरे से कई तरह के सवाल करने लगते थे। वहीं, रास्ते भर जगह-जगह सड़क के बगल में सैकड़ों-हजारों मीटर की गहरी खाइयों को देखकर कलेजा मुंह में आने को हो जाता। थोड़ा सा चूक हुई की जीवन लीला हमेशा के लिए समाप्त ! सच तो यह है कि पहाड़ों की सारी सुंदरता के बावजूद गहरी खाइयों का खौफ हमें अपने ऊपर मंडराता हुआ नज़र आ रहा था। सभी ने अपने-अपने तरीके से अपने भय को ड्राइवर तक पहुंचा दिया था। उसने हमें बेफिक्र होकर बैठे रहने और प्रकृति का आनन्द लेने को कहा। लेकिन जगह-जगह लगे बोर्डों जिनमें लिखा था- ‘दुर्घटना से देर भली !’ ‘आपके बच्चे आपका घर में इंतजार कर रहे हैं !’ हमें बेफिक्र होकर बैठने नहीं दे रहे थे। कभी हमें अपने मैदानी स्थानों की सीधी सपाट सड़कें याद आती तो कभी बीवी-बच्चों का चेहरा आंखों के आगे घूमने लगता। हम लोग घूम-फिरकर उन्हीं गहरी खाइयों की चर्चा करने लगते। ‘सर, पहाड़ के जीवन की यही विडम्बना हुई कि यहां बड़े शहरों की तरह हत्या, लूटपाट और गुंडागर्दी नहीं होने वाली हुई लेकिन हर साल सैकड़ों लोग भूस्खलन, प्राकृतिक आपदाओं तथा सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाने वाले हुए। भूस्खलन तथा प्राकृतिक आपदा का संबंध तो किसी खास मौसम से होने वाला हुआ, लेकिन सड़क दुर्घटनाओं का कोई भरोसा नहीं......साल में कभी भी कहीं से भी अप्रिय खबर आ जाने वाली हुई !’ उसने चर्चा में शामिल होते हुए कहा।
जब हम घाट से पिथौरागढ़ की ओर चढ़ रहे थे तो उसने बताया कि
इसी जगह से एक बार पूरी बस मय सवारियों के नदी में समा गयी थी। ऐसे ही
पिथौरागढ़ से आगे नैनीपातल नामक जगह में एक बार हुई दुर्घटना में एक पूरा
गांव ही खत्म हो गया। पहाड़ की हर रोड के साथ दुर्घटनाओं के ऐसे न जाने
कितने विवरण मौजूद हैं। उसने हमारे चेहरों पर उभरते हुए भय को देखते हुए
बात को समेटते हुए कहा। ‘हां, ये सब दुर्घटनाओं में मारे गये लोगों के रिश्तेदारों ने उनकी याद में लगाए ठैरे !’ ‘क्या तुम्हारे साथ भी कभी ऐसा कोई वाकया हुआ ?’ हमारे एक मित्र ने उससे पूछा।
‘ऐसा हुआ होता तो आज मैं आप लोगों के
साथ कहां से होता ?’ उसने
हंसते हुए जवाब दिया। ‘हां, क्यों नहीं, सड़क पर चलते हैं तो कई बार बहुत कुछ देखने को मिलने वाला हुआ...............लेकिन एक बार की दुर्घटना, जो मैंने खुद अपनी आंखों से देखी और दुर्घटना से जुड़े सूबेदार पूरन चन्द्र पाण्डे को न तो मैं अभी तक भूल पाया हूं और न ही शायद कभी भूल पाऊंगा !’ ‘क्या थी वो दुर्घटना और कौन थे ये सूबेदार पूरन चन्द्र पाण्डे !’ मित्र ने तपाक से उस से पूछा। ‘अभी गाड़ी चलाते हुए नहीं.........खतरा हुआ...............लम्बा किस्सा है........पिथौरागढ़ पहुंचकर सुनाऊंगा !’ कहकर उसने टेप ऑन कर दिया। पिथौरागढ़ पहुंचने के बाद हम लोगों ने नहा-धोकर दिनभर की थकान मिटाई। डाक बंगले से दूर तक फैला हुआ जगमगाता शहर दिखाई दे रहा था। यकीन नहीं हो रहा था कि ऐसे दुर्गम रास्ते के बाद इतना भरा-पूरा शहर भी मिल सकता है। खाना खाने के बाद जब हम सब बैठक में आकर बैठ गये तो मित्र ने ड्राइवर को दिन की बात याद दिलाई। उसने भी शुरू करने में देर नहीं लगाई। आराम से बैठकर, किस्सा शुरू किया- ‘उस दिन अल्मोड़ा की कुछ सवारियों को छोड़ने के बाद मैं रात को वापस लौट रहा ठैरा। घाट तक चला आया था फिर गाड़ी को एक किनारे लगाकर सो गया। सुबह पौ फटने से पहले पिथौरागढ़ की ओर चल पड़ा। थकान के कारण नींद काफी अच्छी आई और मैं खुद को एकदम तरोताजा महसूस कर रहा था। आप जानते होगे, जब आदमी का मूड ठीक होता है तो सब कुछ अच्छा होता है। छोटी-मोटी बातों का आप पर असर नहीं पड़ता। उनसे आप आसानी से निबट लेते हैं। लेकिन ये बात तो खुद पर लागू होने वाली हुई। अपने अलावा अन्य चीजों पर हमारा बस कहां चलने वाला हुआ। तो मैं अपनी ही धुन में चला जा रहा था। मैंने गुरना मंदिर से पहले वाला मोड़ काटा तो मुझे सड़क से नीचे की ओर को काफी सामान बिखरा हुआ दिखा। सामान भी ऐसा जिसमें नये-नये कपड़े थे। पैर एकदम ब्रेक में चला गया। किसी अनहोनी की आशंका से हृदय कांप उठा। गाड़ी किनारे लगायी। चारों और सुबह की शांति थी। तभी एक बच्चे के रोने की आवाज सुनायी दी। अब निश्चित लग रहा था कि कोई बड़ी दुर्घटना हुई है। उसी समय गाड़ी स्टार्ट कर मैं सीधे गुरना मंदिर पहुंचा और वहां से मंदिर के पुजारी और दो दुकानदारों को लेकर उस जगह पर लौट आया। सब से पहले हमने रोते हुए बच्चे के पास पहुंचने की सोची। जगह एकदम ढलान में हुई। वहां पहुंचना आसान नहीं हुआ। लड़की एक जगह पर पेड़ों और घास के झुरमुट में फंसी थी। हमारे पहुंचने पर उसने काफी राहत महसूस की। वैसी जगह पर, उसका बचना भी किसी आश्चर्य से कम नहीं हुआ। उसे एक मामूली सी खरोंच भी नहीं आई थी। हो सकता है, गाड़ी के दुर्घटना ग्रस्त होते ही उसके मां-बाप या किसी और ने उसे गाड़ी से बाहर फैंक दिया हो। देर से रोने और डर के कारण उसका चेहरा काला पड़ा हुआ था। वह लगातार सुबक रही थी। नीचे तक बिखरे हुए कपड़े, बी्रफकेस तथा थैले उस जगह से साफ दिख रहे थे। पहाड़ पर गहरी रगड़ के निशान थे। हमने उस से कुछ पूछना चाहा तो वह सिर्फ हाथ से नीचे की ओर इशारा भर कर पाई। गहरी खाई में नीचे कुछ नहीं दिख रहा था। वहां तक पहुंचना तो और भी मुश्किल था। लड़की को लेकर जब हम सड़क पर पहुंचे तो वहां पर गाड़ियों के रूकने तथा आस-पास के गांवों के लोगों के जुट जाने से काफी भीड़ इकट्ठा हो चुकी थी। पंडितजी ने लड़की को पानी पिलाया, उसका मुंह धोया और उसे सड़क के किनारे बैठा दिया। लोग उसे उत्सुकता से देखने वाले हुए। फुसफुसा कर कहने वाले हुए कि गाड़ी में अब शायद ही कोई बचा होगा। कुछ लोग नीचे जाने को तैयार हो गये। आस-पास से नीचे की ओर जाने का कोई रास्ता नहीं हुआ। हम लोग कुछ नीचे की ओर जाकर घसियारों के रास्ते से खाई में उतरने लगे। यहां से कुछ नहीं दिख रहा था। सावधानी से उतरते हुए कुछ देर में हम उस जगह पर पहुंच गये, जहां पर पहुंचकर जीप अटकी थी। जीप के आस-पास लोगों की लाशें पड़ी थी। हमने अनुमान लगाया, जीप के चट्टान में इधर-उधर टकराने से सब लोग छिटक-छिटककर उस से बाहर निकल गये होंगे। बड़ा.............क्या कहते हैं उसे......वीभत्स दृश्य हुआ। बारह लोग थे। किसी के पैर की हड्डी निकली हुई थी। किसी का हाथ उखड़ा हुआ था। कोई जीप के नीचे दबा हुआ था। जानते हुए भी कि शायद अब किसी के बचे होने की कोई उम्मीद नहीं है। हमने एक-एक कर के किसी की नब्ज टटोली, किसी की धड़कनों की टोह लेने की कोशिश की पर सब व्यर्थ ! सभी मृत शरीर बुरी तरह तहस-नहस हो चुके थे। यह सब देखने के बाद हम लोग थोड़ा सा हटकर बैठ गये। हमारे पीछे-पीछे लोग आते जा रहे थे और हतप्रभ होकर आपस में बातें कर रहे थे। कोई कह रहा था, कैसी बीती होगी....इन सब पर जब नीचे को गिरते हुए......चोटें खाते हुए इन्होंने अंतिम सांसें ली होंगी। एक दूसरा कह रहा था, ‘किसी-किसी को तो आखिरी सांस भी नसीब नहीं हुई होगी ! कोई तीसरा दूसरे की शंका का समाधान करते हुए कह रहा था, ‘सदमे और गहरी चोटों से इन लोगों के प्राण पहले ही उड़ चुके होंगे !’ अब तक कितनी ही दुर्घटनाओं के बारे में सुन चुका था कि आज फलां जगह गाड़ी गिरने से, दो मर गए, तीन घायल हुए, पांच की हालत नाजुक है ! बात आई-गई हो जाने वाली हुई। कभी किसी घटना की भयावहता को महसूस नहीं किया। उस दिन अपनी आंखों से देखकर लग रहा था, दुर्घटना क्या होती है ? दिमाग में ख्याल आ रहा था, ऐसी अनहोनी अपनी ही आंखों से देखनी थी। सच तो यह है कि मेरा दिल बैठता जा रहा था और शरीर ठंडा पड़ने लगा था। धीरे-धीरे वहां पत्रकार, पुलिस वाले तथा प्रशासनिक अधिकारी भी पहुंचने लगे। फोटोग्राफर तमाम कोणों से फोटो खींचने लगे। जबकि पुलिस वाले तथा अधिकारी गाड़ी का मुआयना करने लगे। मैं भी दुबारा गाड़ी की ओर चला गया। इस बार मैंने गौर से उस मैक्स टैक्सी पर नजर डाली तो मैं चैंक उठा ! यह तो वही हत्यारिन गाड़ी थी जो अपने मालिक को तबाह करने के लिए पहले से बदनाम हो चुकी थी। एक के बाद एक झटके देने के बाद आज कैसा दिन दिखा दिया इसने सूबेदार पूरन चन्द्र पाण्डे को ! कितनों ने सूबेदार से कहा था, इस गाड़ी को बेच दे। तेरी किस्मत में नहीं है। पर वह भी पूरा फौजी था, जो कदम उठा दिया सो उठा दिया। हमारे वहां लोग कहने वाले हुए, लोहा जिसकी किस्मत में होता है, उसको कहां से कहां पहुंचा देता है और जिसकी किस्मत में नहीं होता उसे कहीं का नहीं छोड़ता ! वैसे भी हमारे वहां काम-धंधों के ज्यादा विकल्प नहीं हुए। आजीविका चलाने लायक खेती-बाड़ी कम ही लोगों के पास हुई। जमा-जमाया व्यापार है तो ठीक वरना, किसी न किसी तरह की नौकरी करो या ट्रांसपोर्ट लाईन में जाओ ! गाड़ी का काम शुरू-शुरू में अच्छा था। कम गाड़ियां थी। आराम से सवारियां मिल जाती थी। अब तो हालत यह है कि दस-पन्द्रह रूपये के लिए सवारियों के पैर पकड़ो। पुलिस वालों की गाली खाओ। आर0टी0ओ0 से बचते फिरो। ऐसे में कमा वही पाते हैं जो खुद अपनी गाड़ी चलाते हैं। सड़क पर पहुंचकर पता चला कि ये गाड़ी भी उसी मारा-मारी में गिरी, जिससे ड्राइवर को बचने को कहा जाने वाला हुआ। सवारियों को एक विवाह समारोह में भाग लेना था। ड्राइवर दिनभर का थका था। उसे रात को टनकपुर में आराम कर के सुबह पिथौरागढ़ की ओर को चलना था। लेकिन सवारियों के मिलने पर वह उन्हें दो टूक उत्तर नहीं दे पाया। लालच में पड़ गया। अब जब पड़ ही गया था तो उन्हें लाकर बीच में कहीं सो जाता। चलता रहा बेवकूफ ! न तो रूपये कमा पाया और न वो सब लोग शादी में शामिल हो सके ! आप सोच रहे होगे, बात इतनी ही है। इतनी बातें तो समाचारों से भी पता चल जाती हैं। जो पता नहीं चल पाता वैसा ही किस्सा है सूबेदार पूरन चन्द्र पाण्डे का.....हर आदमी अपने और अपने परिवार के जीवन को लेकर तरह-तरह के सपने देखने वाला हुआ। उसे संुदर रूप देने की कोशिश करने वाला हुआ। सूबेदार भी ऐसा ही कुछ चाहने वाला हुआ। लेकिन वो फौज और सिविल के जीवन के अंतर को समझकर उसके अनुरूप खुद को ढाल नहीं सका। वो सिविल में आकर भी फौजी बना रहा। उसने हुक्म और अमल की फौजी परिपाटी यहां आकर भी नहीं छोड़ी। जो काम होना है तो होना है। जो उसने तय कर दिया तो कर दिया ! फौज में तो फिर भी वह सूबेदार हुआ। उस से ऊपर और भी कई लोग हुए। पर यहां तो कमांडर इन चीफ, सीओ, और क्या कहते हैं वो सर्वोच्च कमान सब कुछ वही हुआ। इसलिए उसके आदेश पर पूरा घर और आस-पड़ौस तक हिल जाने वाला हुआ। प्लानिंग को खूब महत्व देने वाला हुआ। इसलिए घर आते ही उसने तराई में खटीमा की ओर दो एकड़ जमीन ले ली और वर्षों से बेरोजगार भाई को वहां का जिम्मा सौंप दिया। इसके बाद दो बेटियों की शादी की। कब खेतों में खाद डाली जानी है, सिंचाई कैसे होनी है, कब बुवाई होगी, कटाई कैसे होगी। इन सब चीजों के लिए भाई को उसके निर्देशों का इंतजार करना पड़ता। एक ओर यहां पहाड़ में अपना परिवार, दूसरी ओर भावर की खेती-बाड़ी। वह काफी व्यस्त हो गया। लेकिन दोनों नावों को कुशलता से चलाने वाला हुआ। वह जब भावर में होता तो घर वालों को उसके कड़क शासन से कुछ समय के लिए राहत मिल जाने वाली हुई। सब खुली हवा में सांस लेने लगते। उठने, खाने, पढ़ने आदि में समय की सख्त पाबंदियां टूट जाने वाली हुई। महेश अर्थात सूबेदार साहब के लड़के पर इस सब का अलग ही असर हुआ। दो बहनों का अकेला भाई होने के कारण वह घर में सब का दुलारा हुआ। पिता के फौजी शासन में कुछ ज्यादा ही दिक्कत महसूस करने लगा और हर बार उनकी गैरमौजूदगी को जश्न की तरह मनाने लगा। फलतः पढ़ाई से दूर होने लगा। तो सूबेदार ने महेश को ढंग का इंसान बनाने की काफी कोशिश की पर वह इस में सफल नहीं हुआ। दरअसल ढंग के इंसान की पूरी तस्वीर खुद उसको स्पष्ट नहीं हुई। उसकी नजर में ढंग का इंसान वह हुआ, जिसके उठने-बैठने, सोने-जागने, खाने-पीने, काम में आने-जाने का समय निश्चित हो। अब उसे कौन समझाये कि इतने भर से किसी को ढंग का इंसान नहीं बनाया जा सकता। इस से किसी को सैनिक भर बनाया जा सकता है। बच्चों के लिए अपने दोस्तों के साथ खेलना, मनोरंजन, घूमना-फिरना तथा अच्छी किताबों को पढ़ना भी आवश्यक हुआ। कक्षा दस में आकर महेश की गाड़ी ने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया। वह लगातार तीन बार फेल हुआ। इसके बाद सूबेदार ने उसे फिर फार्म नहीं भरने दिया। अनुभवी आदमी हुआ। समझ गया, यह काम अब इसके बस का नहीं है। कहां सूबेदारी की ठसक ! और कहां लड़के के ऐसे लक्षण ! आगे इम्तहान दिलवाया तो हर बार हंसी करवाता रहेगा। इससे अच्छा है यहीं पर रोक लगा दो ! उसकी गतिविधियांे और किसम-किसम के यार-दोस्तों को देखते हुए सूबेदार सोचने लगा कि उसे किस काम में उलझाऊं ताकि वह हाथ से न निकल जाये। उसने कई विकल्प सोचे, पर कोई नहीं जमा ! महेश से पूछा तो उसने मौज-मस्ती को ध्यान में रखते हुए गाड़ी की बात कह दी। आखिरकार उसने उसे गाड़ीबाजी में ही उलझाने का विचार बनाया। उन दिनों छोटी गाड़ियों को धड़ल्ले से टैक्सी के परमिट मिल रहे थे। पहाड़ों में आवागमन के मामले में क्रांति हो रही थी। जिन जगहों में दिन-दिनभर बैठे रहने के बावजूद आने-जाने का साधन नहीं मिलता था, उन सब जगहों पर छोटी गाड़ियां पहुंच रही थी। सूबेदार ने एक मैक्स गाड़ी खरीदकर मय ड्राइवर के महेश के हवाले कर दी। अपने शुभचिंतकों की राय को मानते हुए उसने यह भी तय किया कि वह इस काम में गैरजरूरी हस्तक्षेप नहीं करेगा। इसके बाद महेश को सुबह-शाम समय से उठते-बैठते गाड़ी के पीछे लगते हुए देखकर उसे काफी संतोष हुआ। उसे लगा उसका निर्णय ठीक रहा। टैक्सी टनकपुर-पिथौरागढ़ के बीच दौड़ने लगी। चार-पांच दिन में महेश आमदनी के रूपये सूबेदार के हाथ में रख देता। सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन पत्नी ने उससे कहा कि रिश्तेदारों के अनुसार हम ने गाड़ी लेने में जल्दबाजी कर दी। पंडितजी से राय तक नहीं ली। सूबेदार ने कहा-‘फौज में मेरा पल्ला लोहे से ही था। लोहे ने मुझे कभी धोखा नहीं दिया। सब साले जलते हैं ! हमारी कामयाबी उन से पचती नहीं !’ उधर लड़का जिस तल्लीनता से काम में जुटा था, उससे सूबेदार का अपने ऊपर भरोसा और भी बढ़ गया था। ‘क्या हुआ जो पढ़ नहीं सका.........सभी पढ़ने वाले थोड़ा हो जाते हैं ! फिर समाज में सौ तरह के काम हैं, उनको करने वाले भी तो चाहिए......उन में मन लगाकर आदमी अपना जीवन सफल कर सकता है !’ महेश जब सूबेदार को हिसाब सौंपता तो उसकी आंखें भर आने को होने वाली हुई। लेकिन वह बेटे के सामने कमजोर नहीं दिखना चाहने वाला हुआ, इसलिए अपनी मुद्रा कड़क बनाए रखने वाला ठैरा। ऐसे ही एक साल बीत गया। सूबेदार की आदत में काफी बदलाव आ चुका था। उसने पत्नी और बच्चों से पहले जैसी दूरी और साहबों जैसा व्यवहार काफी कम कर दिया था। उधर पिता को ढीला पड़ता हुआ देखकर महेश यार-दोस्तों के बीच मस्त रहने लगा। पिता को हिसाब देने का समय भी उसने हफ्ते से खिसकाते हुए महीने तक पहुंचा दिया। मौका देखकर ड्राइवर भी अपना रंग दिखाने लगा। गाड़ी भरवाते समय अगर महेश होता तो ठीक वरना दो-तीन सवारियों के पैसे मार जाता। उल्टा उसी के ऊपर एहसान जताते हुए कहता-‘क्या बताऊं मालिक साहब स्टेशन में एक भी सवारी नहीं थी। कई गाड़ी वाले तो खाली लौट गए। मैंने सोचा इतनी जल्दी जाने के बजाय कम से कम तेल का खर्चा तो निकाल ही लेना चाहिए। इधर-उधर हाथ-पांव मारकर तीन सवारी बैठा ही लाया।’ महेश उसकी बातों में आ जाने वाला हुआ। इधर बाप-बेटा अपनी-अपनी दुनिया में मग्न थे, उधर ड्राइवर इस छूट का आनंद उठाने लगा। वह कमाई के नए-नए तरीके खोजने लगा। उसने कभी गाड़ी के पुर्जे टूटने, कभी पंचर होने तो कभी पुलिस वालों या आरटीओ द्वारा गाड़ी पकड़ने का बहाना बनाना शुरू कर दिया। ‘मालिक साहब, मैं ही जानता हूं कि आज गाड़ी को कैसे वापस लाया। वो तो जान-पहचान के कारण पार्ट्स मिल गए वरना भगवान जाने क्या हाल होता ?’ हर बार वह एहसान जताते हुए कहने वाला ठैरा। ड्राइवर महेश के साथ खेल, खेल रहा था। उधर महेश उन रूपयों पर भी हाथ साफ करते हुए सूबेदार को थमा देता। उनकी उदासीनता देखकर ड्राइवर का हौंसला बढ़ता जा रहा था। मौका देखकर एक दिन उसने गाड़ी को नंबर दो के काम में चलवा दिया। पकड़े जाने पर अपना लाइसैंस जब्त करवाने के बजाय गाड़ी के कागजात फंसवा दिये तथा छुड़ाने के लिए गाड़ी में कमी दिखाकर सूबेदार को पांच हजार की चपत लगा दी। सूबेदार का दिमाग खटका। हालांकि यह खटकना महेश के द्वारा लगातार कम होते जा रहे रूपयों से शुरू हो चुका था। कुछ शुभचिंतकों ने ड्राइवर के बारे में पहले ही आगाह कर दिया था, लेकिन उन्हें देखते ही वह मालिक साहब की टेर लगाते हुए गर्दन कुछ ऐसे अंदाज में झुका देता कि सूबेदार फूल कर कुप्पा हो जाने वाला हुआ। सूबेदार सोचने वाला हुआ, कोई तो है जो सूबेदारी की इज्जत करना जानता है। जब उसने लोन पर बैंक द्वारा लगाये गये ब्याज तथा जमा किये गये धन की तुलना की तो उसे अपने नीचे की जमीन खिसकती हुई मालूम हुई। गाड़ी करीब साठ हजार के घाटे में चल रही थी। उसने तत्काल दोनों को हाजिर होने का आदेश दिया। ड्राइवर बीमारी का बहाना बनाकर गायब हो गया। धोखा खाने के बाद, सूबेदार ने नई रणनीति बनाई। पहला यह कि ड्राइवर के भरोसे काम नहीं चल सकता। इसलिए गाड़ी खुद चलानी होगी। दूसरा, गाड़ी का रखरखाव, बैंक की किस्त आदि सब की जिम्मेदारी महेश की होगी। अब वे बैंक में जाकर जमा करने का काम भी नहीं करेंगे ! सिर्फ माॅनीटरिंग करेंगे ! जैसे फौज में साहब लोग किया करते थे और उस पर बड़ा जोर दिया करते थे। शुरूआत में महेश को गाड़ी में इधर-उधर घूमना अच्छा लगा था, पर एक साल में ही वह इस सब से उकता गया था। ‘न सुबह का चैन, न रात का आराम। आदमी गधे से भी बदतर हो जाता है !’ गाड़ीबाजी के बारे में अब उसकी यह राय थी। ‘मुझे ये काम पसंद नहीं है। मैं ड्राइविंग नहीं करूंगा ?’ उसने पिता के निर्णय पर आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा। ‘पढ़ाई में तो तूने झंडे गाड़ दिये। अब कहां से लाऊं तेरे लिए लाट साहब की कुर्सी ? बाप का पैसा फ्री का है, जो चाहे लूट ले जाए। ये नहीं करेगा तो और क्या करेगा ?’ पिता के सवाल का उसके पास कोई जवाब नहीं था।’ इस में जो लाखों रूपये फंस चुके हैं, उनको भी तो निकालना है ! ड्राइवरों के हवाले करने का हाल तू देख चुका है !’ वे झुंझलाहट में कहते जा रहे थे। ‘इस में बचता तो कुछ है नहीं ! ऊपर से न खाने का समय न सोने का समय !’ ‘जब उसका मन नहीं है तो क्यों जिद कर रहे हो ? गाड़ी किसी से चलवा लो या बेच दो ! अकेला लड़का है....फिर कामों की कोई कमी है !’ पत्नी ने डरते हुए मामले के बीच में हस्तक्षेप किया था। ‘तू अपना दिमाग बीच में मत डाल ! एक काम में तो बड़े तीसमारखां साबित हो गये जो मुझे लुटवाने के लिए दूसरे काम की बात कर रही है। गाड़ी बेचने की बात कोई भी जना कभी मेरे सामने नहीं करेगा। मैंने जिन्दगी मैं कभी पीठ दिखाकर भागना नहीं सीखा है !’ उस ने सख्ती से अपनी बात कही। कुछ दिनों बाद एक नये ड्राइवर के साथ गाड़ी फिर से सड़क पर दौड़ने लगी। महेश को ड्राइविंग सिखाने के एवज में सूबेदार ने उसे अलग से ईनाम देने का वादा किया था। मन मारकर महेश भी गाड़ी के साथ जाने लगा। ड्राइविंग एक ऐसा नशा हुआ जो हर किसी को अपनी ओर आकर्षित कर लेने वाला हुआ। नया ड्राइवर भी ज्यादा से ज्यादा उसे मौका देने लगा। धीरे-धीरे स्टियरिंग, क्लच, बे्रक तथा गेयर पर उसका अधिकार होने लगा। अब कई बार ड्राइवर के होते हुए भी महेश गाड़ी चला रहा था। बात बरसात के दिनों की थी। सड़कों पर जगह-जगह पानी फूटने के साथ मलवा और पत्थर गिरे हुए थे। कई जगहों पर तो मिट्टी के ऊंचे-ऊंचे ढेर इकट्ठा हो गये थे। गीली और फिसलन भरी ऐसी जगहों से गाड़ी को निकालना आसान नहीं होता था। उस दिन वे लोग धारचूला से सवारियां भरकर पिथौरागढ़ की ओर आ रहे थे। कुछ दूर चलने के बाद महेश ने ड्राइवर से स्टेयरिंग ले लिया। ड्राइवर सीट से उतरकर पीछे की तरफ से अंदर बैठ गया। दस किमी आराम से चलने के बाद एक मलवे का ढेर आया। महेश ने बगैर गेयर बदले गाड़ी उस पर चढ़ा दी। ऊंचाई पर पहुंचकर गाड़ी का मोशन टूट गया। सब कुछ इतनी जल्दी में हुआ कि महेश भी गेयर नहीं बदल पाया। गाड़ी न्यूट्रल पर आ गई और तेजी से पीछे की ओर भागी और पलक झपकते ही सड़क से नीचे लुढ़क गयी। किसी को भी बचने या कूदने का मौका नहीं मिला। हालांकि खाई गहरी नहीं थी। दो सवारियों को मामूली चोटें लगी। लेकिन महेश न जाने कैसे चपेट में आ गया। उसकी पीठ में गहरी चोट लगी। हालत नाजुक थी। हाथ-पांव तथा अंगुलियों ने हिलना-डुलना बंद कर दिया। सांस लेने में तकलीफ हो रही थी। वह मुंह से दर्दनाक तरीके से सांस ले रहा था। जिला अस्पताल के डाॅक्टरों ने उसे तुरंत बरेली में मौजूद न्यूरोसर्जन के पास ले जाने को कहा। वहां पहुंचकर सूबेदार डाॅक्टर के सामने गिड़गिड़ाया- साहब आप रूपये-पैसों की बिल्कुल चिन्ता मत करो। बस, लड़के को सही कर दो !’ डाॅक्टर ने कहा, ‘सवाल पैसे का नहीं, लड़के को लगी चोट का है ! अभी हम कुछ नहीं कह सकते !’ अगले दिन उसने हाथ खड़े कर दिए और कहा-‘आप चाहो तो दिल्ली ले जाकर देख सकते हो। हो सकता है, वहां कोई फायदा हो ! हमारे बस में अब कुछ नहीं है !’ उसी समय सूबेदार एम्बुलैंस का इंतजाम करवाकर दिल्ली की ओर को चल दिए। सूबेदार को उम्मीद थी, महेश को कुछ नहीं होगा। उसके लिए वह अपनी जमीन-जायदाद सब-कुछ दांव में लगाने को तैयार हो गया था। पर ठीक दस दिन बाद जिन्दगी की जद्दोजहद से हारकर महेश इस दुनिया से सदा-सदा के लिए चला गया। सूबेदार अवाक् रह गया। जो कहा जा रहा था, उस पर उसे यकीन नहीं हो रहा था। वह बदहवास सा हो गया था। तब तक कुछ रिश्तेदार भी दिल्ली पहुंच चुके थे जिन्होंने विभिन्न औपचारिकताओं तथा एम्बुलैंस का इंतजाम कर वापस घर लौटने का इंतजाम किया। सूबेदार को मुश्किल सें रूलाया जा सका। कई दिनों बाद तक उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी जल्दी यह सब क्या हो गया ? वह गुमसुम सा घर में बैठे रहने लगा। कई दिनों बाद उसने घर से निकलना आरम्भ किया। पर उसमें न तो पहले जैसा जोश बचा था और न ही अनुशासन ! अब उसे किसी चीज की जल्दबाजी नहीं थी। वह कहीं बैठता तो बैठे रह जाता। कहीं को जाता तो भूल जाता कि उसे कहां जाना है, बस चलते चले जाता। घर धीरे-धीरे जीवन की ओर लौट रहा था। ‘जाने वाले के साथ, हम नहीं जा सकते !’ जैसी बातें सुनाई देने लगी थी। पत्नी उस से किसी बात के लिए कहती तो उस पर अपनी राय देने के बजाय वह, ‘जो करना है कर लो !’ कह देता था। अपने मालिक की जान लेने वाली इस गाड़ी को लोग हत्यारिन कहने लगे। लोगों ने सूबेदार को राय दी कि वह गाड़ी को बेच दे। लेकिन उसने उसे बेटे कि अंतिम निशानी मानते हुए बेचने से इंकार कर दिया। महेश के पास ड्राइविंग लाइसैंस था नहीं, इसलिए इंश्योरेंस कंपनी से भी हर्जाने के तौर पर कुछ नहीं मिल सका। उसने अपनी बचत का बड़ा हिस्सा खर्च कर गाड़ी को फिर से बनवाया। गाड़ी सज-धज कर फिर से सड़क पर दौड़ने लगी। सूबेदार ने ड्राइवर को ताकीद कर दिया था कि वह किसी प्रकार की जल्दबाजी न करे, आराम से चले, किसी प्रकार का गलत काम न करे तथा किसी किस्म का खतरा मोल न ले। लेकिन यह सब बातें किस को याद रहने वाली हुई। सब का अपना-अपना दिमाग हुआ। समय तेजी से बीतता चला गया। दिन आये-गये, रात आई-गई, मौसम बदलते रहे। लोग महेश वाली घटना को भूल चुके थे, क्योंकि कुछ नई और उससे भी बड़ी दुर्घटनायें हो चुकी थी। फिर यह दुर्घटना हुई। हाल के वर्षों की सब से बड़ी दुर्घटना.....जिसे वर्षों तक नहीं भुलाया जा सकेगा। बारह लोग असमय जीवन से हाथ धो बैठे। सिर्फ छोटी बच्ची बची थी, जो जिला अस्पताल में भर्ती थी। उसे देखने के लिए दिनभर लोग आते रहते थे, लेकिन वह किसी से कुछ नहीं बोलती थी। यहां तक कि वह अपने रिश्तेदारों तक को न तो पहचान रही थी और न ही उनके साथ जाने को तैयार थी। डाॅक्टरों का कहना था, ‘उसे गहरा सदमा लगा है, जिससे उबरने में उसे काफी समय लग जायेगा।’ सूबेदार पूरन चन्द्र पाण्डे लड़की को देखने रोज अस्पताल पहुंच जाता। वह उसके लिए घर से खाना बनवाकर लाने के अलावा, तरह-तरह की टाॅफी, चाकलेट तथा बिस्कुट लाया करता। उसके पास रखे स्टूल पर देर तक बैठे रहता। लड़की जब खाना खाकर सो जाती तो वह घर को चल देता। पहले लड़की ने ‘सिबौ-सिब.... सिबौ-सिब......’ की टेर लगाने वाले लोगों के कारण, उसकी ओर ध्यान नहीं दिया था। धीरे-धीरे उन सब के छंटते चले जाने और सूबेदार के हमेशा वहां पर बने रहने के कारण वह उसे अपना कोई करीबी समझने लगी और उसके हाथ से खाना खाने लगी थी। फिर अस्पताल प्रशासन, पुलिस तथा लड़की के स्थानीय रिश्तेदारों से बात कर तथा कोर्ट में लड़की के लालन-पालन, पढ़ाई-लिखाई तथा विवाह की जिम्मेदारी उठाने का हलफनामा देकर एक दिन वह उसे अपने घर ले आया। लड़की जो किसी के साथ जाने को तैयार नहीं थी, सूबेदार के साथ उसके घर चली आई। हम सब जो एकाग्र होकर ड्राइवर से कहानी सुन रहे थे, इस मुकाम पर आकर जैसे खुद एक जीवन जीकर लौट आए थे। ड्राइवर के चुप होने के दौरान हम सब जो अब तक उसके चेहरे पर नजर गड़ाए हुए थे अब एक-दूसरे की ओर देख रहे थे। ‘सूबेदार साहब ने आखिरकार पश्चाताप कर ही लिया........उन्हें लोगों की बातें माननी ही पड़ी !’ हमारे एक मित्र ने कहा था। ‘आपको शायद जानकर यकीन नहीं होगा कि.........सूबेदार ऐसा नहीं मानता था।’ ड्राइवर ने हम सब को चौंकाते हुए कहा था। ‘तो वो क्या मानता था ?’ मित्र ने अधीरता से पूछा था। ‘सूबेदार मानता था दुर्घटनाओं के पीछे मेरी किस्मत में लोहा होना या न होना कारण नहीं था। अगर गाड़ी मेरी किस्मत में नहीं होती तो खरीदने के बाद ही कहीं गिर-गिरा गई होती। उसका साफ कहना था कि महेश वाली दुर्घटना इसलिए हुई क्योंकि उसने ड्राइविंग के सामान्य नियम का पालन नहीं किया। बाद वाली दुर्घटना इसलिए हुई क्योंकि ड्राइवर ने नींद को हराने की कोशिश की थी।’ ‘तो फिर उसने लड़की को गोद क्यों लिया ?’ मित्रों के पास अभी भी सवाल थे। ‘उसका कहना था, लड़की की वेदना को जिस तरह से हम ( वे दोनों पति-पत्नी) समझ सकते हैं शायद ही कोई और समझ पाएगा।’ ‘क्या तुम भी यह मानते हो कि यह मामला किस्मत का नहीं, मानवीय लापरवाही का है ?’ मित्र की जिज्ञासा अभी भी शान्त नहीं हुई थी।
‘ड्राइवर होने के नाते ये मेरा अनुभव
हुआ कि मशीन आदमी को धोखा कम ही देती है। आदमी खुद ही धोखा खा जाता है और
अपनी गलती को छुपाने के लिए बात किस्मत पर डाल देता है।’
उसने दृढ़ता से कहा था।
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दिनेश कर्नाटक |
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