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तृप्ति

शाम गहराने के बहुत बाद तक भी गणेसा खेतों में मिट्टी के साथ लोहा लेता। अब खेती करना इतना जोखिम-भरा काम हो गया था कि मुश्किल से घर के दस जनों के लिए साल-भर के लिए मोटा अनाज जमा हो पाता था। सूदकार और बनिये का बिल ज्यों का त्यों खड़ा रहता था। कभी-कभार खेती थोड़ी अच्छी हो जाती तो गणेसा अपने दिल में चिर-संचित अरमानों में से एकाध अरमान पूरा कर लेता।

गणेसे व उसके परिवारवालों के वीरान व नीरस जीवन में साल में बस एक बार ही खुशी का मौका आता था। वह था श्राद्ध का महीना। श्राद्ध वाले दिनों में गणेसे की खूब सेवा होती थी। उसे लगता था कि उसके जीवन की भी कोई साथर्कता है वर्ना सारा साल वही अभावग्रस्त व तंगीभरा जीवन।

श्राद्ध के दिनों में गणेसे के पांव जमीन पर नहीं पड़ते थे। जाटों व अहीरों के उस बड़े-से उस गांव में सिर्फ गणेसा ही पंडित था। एक सफेद धोती कुर्ता, एक सफेद पगड़ी, जनेऊ व एक वी-शेप की चप्पल गणेसे ने बरसों से श्राद्ध के मौके के लिए विशेष तौर पर अलग सहेजकर रखी हुई थी। इन सब को पहनकर गणेसा श्राद्ध वाले पखवाड़े में पूरे गांव का पुरोहित बन जाता था।

पकवानों के प्रति गणेसे का मोह कुछ अधिक ही बढ़ गया था। अब उसमें एक प्रवृति बढ़ती जा रही थी। श्राद्धों के शुभ आगमन से कई-कई दिन पहले गणेसा बिना कुछ खास खाए-पिये ही निकाल देता। किसी फाके या व्रत की मजबूरी के कारण नहीं, बल्कि इसलिए कि श्राद्ध शुरू होते ही वह भरपेट खीर, पुअे, हलुवा भाजी का भरपूर रसास्वादन कर सके।

इस बार भी पितृ-पक्ष शुरू होने से तीन-चार दिन पहले गणेसे ने ये दिन निराहार ही गुजार दिए थे। पूरे दिन में बस एकाध बार कुछ मामूली-सा खा-पी लेता।

श्राद्ध शुरू हो गए तो गांव में उत्सव का माहौल बन गया। हर तरफ चहल-पहल तथा पकवानों की लुभावनी सुगन्ध। गणेसे के घर तो लोगों का तांता लग गया। एक अकेला उसका पंडित परिवार और और भोज खिलाने वाले दर्जनों लोग। कहीं गणेसा जाता कहीं उसकी पत्नी और कहीं उनके बच्चे। एक ही समय में तीन-तीन घरों में खाना इन लोगों को खाना पड़ता या डलवाकर अपने घर लाना पड़ता था।

लोगों ने पितरों को खूब प्रसन्न किया। हर घर में नाना प्रकार के सुस्वादु व्यंजन बने मगर इस बार गणेसे का सारा मजा ही किरकिरा हो गया। श्राद्ध का अभी तीसरा ही दिन था कि गणेसे का पाचन-तंत्र बिगड़ गया। उसे दस्त लग गए। पत्नी ने लाख समझाया कि पड़ोस के कस्बे से जाकर ठीक-सी दवा ले आओ ताकि श्राद्धों का काम ठीक से पूरा हो सके मगर गणेसा इन महत्वपूर्ण दिनों में छुट्टी नहीं कर सकता था।

पेट का हाजमा दुरूस्त करने के लिए गणेसा अपने घरेलू उपचार ही करता रहा। एकाध बार साथ लगते गांव के हकीम काकू शाह के यहां से देसी दवा की तीन पुड़ियां किसी के हाथों गणेसे ने मंगवाई थी मगर उनसे भी कुछ फर्क न पड़ा उसे। साथ में हल्का-हल्का बुखार भी रहने लगा था उसे।

तकलीफ बढ़ती जा रही थी मगर गणेसे ने खाना-पीना बन्द नहीं किया। अब सारा साल इन्तजार करने के बाद तो कहीं श्राद्ध आते हैं और ऐसे में वह लजीज खाने से परहेज कैसे कर सकता था भला। उसकी तबीयत इतनी बिगड़ी कि उसे खूनी पेचिश लग गए।

एक दिन तक तो इतनी गंभीर बात उसने अपनी पत्नी से छिपाए रखी। गांव के हकीम की न जाने कितनी पुड़ियां निगल जाने पर भी गणेसे की तबीयत में रत्तीभर भी सुधार नहीं हो पाया था।

पांचवें श्राद्ध की समाप्ति से पहले गणेसा पूरी तरह निढाल हो चुका था। मानो शरीर की सारी ऊर्जा रात भर खूनी दस्तों व पेचिश-मरोड़ के कारण शरीर से बाहर निकल गई थी। उसकी पत्नी को चिन्ता हुई और अगले दिन पड़ोस के सरकारी हस्पताल में गणेसे को ले जा कर भर्ती करवा देने की सलाह बनी। अब तो सरकारी डाक्टर का ही भरोसा था।

अगले दिन सुबह होने से पहले ही गणेसे की मौत हो गई। सुबह पत्नी जगाने गई तो उसे गणेसे का कमजोर व त्रस्त शरीर एक तरफ लुढ़का हुआ मिला।
गणेसे के चेहरे पर पूरी तरह संतोष के मनोहारी भाव थे। एक तृप्ति थी उसके मन में। अपनी सेहत की परवाह न करते हुए भी लजीज पकवानों का भरपेट रसास्वादन किया था उसने।

- जसविंदर शर्मा
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