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कास
फूल गए हैं।
आज बहुत खुश थी मैं ,उछलते कूदते स्कूल से घर आई बस्ता फेंका और सीधी अम्मा
के पास गई। अम्मा रसोई में तरकारी धोकर रख रहीं थीं।
"अम्मा ...अम्मा.. निम्मो दीदी कहां है?"
अम्मा बोलीं "मुझे ना पता, कहीं घूम रही होगी।"
मैं समझ गई दीदी कहां होंगी ।
मैं भागी - भागी आंगन में गई और निम्मो दीदी वहीं थीं, अपने गुलाब के पौधों
पर आए हुए फूलों को गिनते खड़ी थीं।भादो का महीना था, बहुत दिनों की बारिश
के बाद आज धूप खिली थी।पश्चिम की ओर बढ़ते सूरज की चमकती हुई धूप, सफेद रूई
जैसे बादलों की ओट से झांकती हुई आंगन में बिछी हुई थी।
दीदी को फूलों से बहुत प्यार था। फूलों से क्या, उन्हें तो प्रकृति की हर
चीज से प्रेम था। आंगन में लगे सारे फूल उन्होंने ही तो लगाए थे, चंपा,
चमेली ,गुलाब, मोंगरा ,रातरानी ,गुड़हल, बोगन बेलिया और न जाने क्या-क्या,
मैं तो उनके जितने नाम जानती थी, खुद निम्मो दीदी भी ना जानती थीं।
मैंने कहा "निम्मो दीदी... ।"
वह पलटीं और एकदम से दौड़कर मेरे पास आईं " देख न वर्षा कितने गुलाब खिले
हैं, मैं तो गिन भी ना पा रही तू बता न कितने हैं ?"
मैंने झट कहा - "दस ।"
जबकि उसमें और भी फूल खिले हुए थे, पर मैं उन्हें गिनकर वक्त बर्बाद नहीं
करना चाहती थी।
वह खुश हो गईं "तू कितनी होशियार है, स्कूल जाती है न इसलिए।"
" अरे यह सब छोड़ो, चलो ना दीदी तुम्हें एक नए फूल की बात बताऊं ,तुम्हें
पता है,मेरी सातवीं की पुस्तक में मेरा नाम लिखा है, चलो दिखाऊं।"
फूलों की बात सुनकर दीदी झट से मेरे साथ बैठक में चलीं आईं।
मैं पुस्तक खोल कर दिखाने लगी "यहां रामचरितमानस की चौपाई दी गई है,अरे
!तुम तो पढ़ भी ना पाओगी रुको मैं सुनाती हूं ।"
"वर्षा बिगत सरद रितु आई ।लक्ष्मन देखहुं परम सुहाई।।
फूले कास सकल महि छाई । जनु बरसा कृत प्रगट बुढा़ई।।"
अब सुनो मैं समझाती हूं..
राम जी ने अपने भाई लक्ष्मण से कहा -'देखो लक्ष्मण वर्षा बीत गई और परम
सुंदर शरद ऋतु आ गई, कास के फूलों से पूरी पृथ्वी छा गई है, मानो वर्षा ऋतु
ने कास जैसे सफेद बालों के रूप में अपना बुढ़ापा प्रकट किया है।'
"देखो रामजी ने भी मेरा नाम लिया था।" मैंने खुश होकर कहा।
दीदी ताली बजाकर हंसने लगीं। फिर बोलीं - "वह नए फूल की बात बता।"
मैंने सोचा - "धत्, यहां मैंने इतनी बड़ी बात बताई और इनका मन फूल में ही
अटका पड़ा है।"
मैंने कहा- "हां मास्टर जी ने बताया कि वह कास के फूल बरसात के बाद जब
दशहरा का समय आता है ,शरद ऋतु आती है ,तभी खेत की मेड़ों पर फूलता है।"
मैं फिर चहककर बोली-
" और उस तालाब के किनारे की मेड़ पर भी, जहां हम बैठते हैं। अभी तो बरसात
है इसे बीतने दो फिर तुम्हे दिखाऊंगी।"
दीदी ने उदास होकर कहा - " कास के फूलों के लिए इतना इंतजार।"
तब दीदी और मैं दोनों नहीं जानते थे, कि दीदी की तो जिंदगी कास के फूलों के
इंतजार में बीत जाएगी।
" चल अब दोनों खाना खा लें, तेरे लिए बैठी थी, मैं भी ।"
" जानती हूं तुम मेरे बिना खाना कहां खाती हो।"
खाना खाते हुए दीदी, दिन भर की बातें मुझे बताने लगीं, स्कूल जाने के कारण
जिनसे मैं वंचित हो चुकी थी। दीदी का यह रोज का काम था,मेरे घर पर ना रहने
पर घर में होने वाली सारी बातें जब तक मुझे ना बता दें, उन्हें चैन ना आता
था।
एक दिन मैं स्कूल से आई तो देखा बड़ी अम्मा, निम्मो दीदी को डांट रही थी ।
"अरे मेरे करम फूटे थे, किसी जन्म का बैर लिया भगवान ने हमसे, जो तेरे जैसे
पगली को जना हमने।"
मैं भड़़क उठी थी "बड़ी अम्मा, दीदी पगली नहीं हैं।"
दीदी बोलीं -"तो हमें क्यों डांट रही हो अम्मा, जाकर अपने भगवान को डांटो
न।"
बड़ी अम्मा का गुस्सा और बढ़ गया।
इतने में मेरी अम्मा आ गई और उन्होंने बड़ी अम्मा को शांत करवाया, पर बड़ी
अम्मा देर तक रोती कलपती रहीं।
बात यह थी कि दीदी ने फेरीवाले से अपने लिए बीस रुपए की चूड़ियां ली थीं और
बदले में सौ रूपए दे दिए थे और फेरीवाले ने उनके कम दिमाग का फायदा उठाया
और उनसे पूरा सौ रुपए लेकर चलता बना था।इसलिए बड़ी अम्मा दीदी पर गुस्सा हो
रही थीं।
निम्मो दीदी मेरी बड़े पापा की बेटी थीं, और उनसे छोटा एक भाई था, और मैं
अपने अम्मा-पापा की इकलौती संतान थी।मेरी निम्मो दीदी सामान्य नहीं थीं,
औरों से कम दिमाग था उनके पास, इसलिए वो पढ़ भी नहीं पाईं, लेकिन घर के
सारे काम कर लेती थीं। पर एक बार घर से निकलती तो सारे मोहल्ले के घरों में
घूमती फिरती थीं, कहां क्या बोलना है क्या नहीं बोलना इसकी भी समझ नहीं थी।
दिमाग वालों की तरह नाप - तौल,चालें चलना वह नहीं जानती थीं। मैं बड़ी हुई
तो मेरी जिम्मेदारी थी, निम्मो दीदी की रखवाली करना अब हम दोनों साथ में ही
कहीं बाहर जाते,नहीं तो दीदी अगर अकेले घर से निकल जातीं, तो फिर पूरे
मुहल्ले में उन्हें ढूंढना पड़ता।
मेरी अम्मा ने बताया था मुझे, कि जब मैं छोटी थी, तब सारा दिन मुझे गोद में
लिए फिरती थीं दीदी ।अभी भी तो जब तक मैं स्कूल से ना आ जाऊं, खाना नहीं
खाती थीं ।मेरा और दीदी का रिश्ता बहुत मजबूत था। मेरी दो चुटिया भी तो
दीदी ही बनाती थीं, खूब तेल डालकर कस-कस के बालों को गूंथ देती थीं। हमारी
मैडम मेरी दो चोटी देखकर खुश हो जाती थीं, मैं शान से कहती मेरी निम्मो
दीदी ने बनाई है। भगवान ने उनके दिमाग में कमी कर दी थी और उसकी भरपाई उनके
दिल में कुछ ज्यादा ही प्रेम भर के कर दी थी।
कास के फूलों का समय आ गया था।
मैंने कहा - " चलो कास के फूल दिखाऊं।"
निम्मो दीदी ताली बजाकर खूब हंसने लगीं बोलीं "चलो।"
हम मेड़ों पर गए, वहां वो लंबे-लंबे डंडों पर कास फूले हुए थे, सफेद मोती
जैसी रंगत लिए हुए।
दीदी उन्हें देखकर खूब खुश हो गईं बोलीं -" इन्हें आंगन में लगा लें?"
मैंने कहा - " ये तो मन मौजी हैं, जहां चाहें वहां खिलेंगे आंगन में नहीं
लगते, लोग इन्हें लगाते भी नहीं घरों में ।"
दीदी बोलीं " देख न वर्षा कितने सुंदर हैं।"
मैंने कहा -" बिल्कुल तुम्हारी तरह तुम भी तो कितनी सुंदर हो, दूध जैसी
गोरी, गुलाबी रंगत लिए हुए।"
सच में दीदी बहुत सुंदर थीं, बिल्कुल कास के फूलों की तरह।
मैं कास के फूलों को तोड़कर फूंक मारकर उन्हें उड़ाना चाहती थी। पर दीदी ने
मुझे रोक दिया और धीरे-धीरे हाथों से फूलों को सहलाने लगीं। दीदी कास के
फूलों को पाकर बहुत खुश थीं। उनकी प्रेम भरी दुनिया में एक सदस्य और बढ़
गया था।
यूं ही हंसते खेलते हमारे दिन बीत रहे थे।कास के फूलों के दिन बीत चुके
थे, गर्मी के दिन थे। उस शाम हम घर पर ही थे, कहीं घूमने नहीं निकले थे।
बैठक में बड़े पापा- अम्मा, भैया और अम्मा - पापा बैठकर बातें कर रहे थे।
वे दीदी की शादी की बात कर रहे थे।मैंने और दीदी ने सुन लिया।
दीदी को इससे पहले शादी की बात करते, मैंने कभी नहीं सुना था, पर जब
उन्होंने अपनी शादी की बात सुनी,तो बोलीं -" हमारी भी शादी होगी वर्षा,
जैसे रमा की हुई ,जैसे राधा की हुई।" उन्होंने गांव की सारी लड़कियों के
नाम गिना दिए जिनकी शादी के बारे में वो जानती थीं।
उस रात मैं अम्मा के पास सोई थी।
मैंने अम्मा से बोला "दीदी की शादी कैसे होगी अम्मा, कोई भी उनके कम दिमाग
होने की बात जानेगा तो शादी नहीं करेगा।"
अम्मा बोलीं, "तुम्हारे बड़े पापा कह रहे थे कि लड़के वालों को बताएंगे
नहीं।"
" लड़के वाले अभी ना समझ पाएं, शादी हो भी जाए लेकिन शादी के बाद कितने दिन
तक यह बात छुपी रह पाएगी।"
" यही तो हम तुम्हारे पापा और बड़े पापा से भी बोल रहे थे। पर तुम्हारी
बड़ी अम्मा ने हमें चुप करा दिया।बोल रही थीं, कितने लोग शादी के बाद जानकर
भी शादी निभा ले जाते हैं ।"
अम्मा थोड़ी देर रुक कर बोलीं...
"फिर हमने भी सोचा, हो सकता है ऐसा ही हो तो निम्मो के भाग संवर जाएंगे।
जानती हो वर्षा लोगों की ऐसी सोच है कि उन्हें लगता है कि लड़की की शादी कर
विदा कर देेेना उनकी हर समस्या का हल है।बिन ब्याही लड़की सबसे बड़ा बोझ
लगती है उन्हें और तुम्हारी बड़ी अम्मा भी इस सोच से अछूूूती नहीं हैं।"
मैंने कहा " दीदी इस स्थिति में भी खुश हैं अम्मा, कहीं ऐसा ना हो कि शादी
के बाद उनकी जिंदगी ही बर्बाद हो जाए।क्यों कि मैं जानती हूं, वो बहुत
भावुक हैं और लड़के वालों को कुछ ना बता कर शादी करना तो उनके साथ धोखा
होगा ना।"
अम्मा कुछ ना बोलीं।
बड़ी अम्मा ने अम्मा से कहा था। छोटी, निम्मो को शादी के बारे में सब समझा
देना।
बड़ी अम्मा सोचतीं थीं कि दीदी की शादी हो जाए, तो एक जिम्मेदारी,
नहीं..बोझ से मुक्त हो जाएंगी वो।
जून में दीदी की शादी हो गई, शादी में कम लोगों को ही बुलाया गया था। उनकी
शादी मंदिर में हुई थी ।दीदी बहुत सुंदर लग रहीं थीं, शादी वाले दिन जीजाजी
उन्हें देखते रह गए ।सब खुश थे दीदी भी हमेशा की तरह खुश थीं। हंस रही थीं।
बस मैं ही उदास थी और डर भी रही थी, आने वाले समय को लेकर। दीदी विदा होकर
चली गईं, जाते समय भी हंस रहीं थीं। पर जब मुझे देखा तो मुझसे लिपटकर रोने
लगीं, बोलीं " मेरे फूलों का ध्यान रखना वर्षा और उन्हें गिन भी लेना।"
शादी के बाद दस दिन ठीक-ठाक बीत गए, पर जब दीदी रसोई में खाना बनाने लगीं,
तो उनसे होता ही ना, कभी चावल खूब ज्यादा बना दें तो कभी सब्जी,तो कभी
बिल्कुल कम। फिर वह तो नाप-तौल जानती नहीं थीं। यहां तो अम्मा उन्हें चीजें
सही मात्रा में निकाल कर दे देती थी, वे बना देतीं थीं। फिर दीदी के बात
करने के तरीके से उनके ससुराल वालों को दीदी की कम दिमाग की बात पता चल
गई,जीजा जी के ऊपर से भी दीदी के रूप का खुमार उतर चुका था ,परिणाम स्वरूप
दीदी वापस हमारे घर पर थीं।बड़ी अम्मा की बात गलत साबित हो गई थी, कि शादी
के बाद लोग निभा ले जाते हैं ।
बड़े पापा, अम्मा सबने जीजा के घर वालों के हाथ जोड़े पर उन्होंने दीदी को
ना रक्खा। और लाकर हमारे घर छोड़ गए।
पर मैंने देखा, दीदी घर आने के बाद भी बहुत खुश रहती थीं, मैंने उन्हें कभी
दुखी नहीं देखा। मैं भी बहुत खुश थी, चलो दीदी के दिल में शादी टूटने का
कोई दुख नहीं है।
पर मैं गलत थी। जिसका मुझे डर था वही हुआ।दीदी के भावुक दिल में जीजा के
लिए भावनाएं भर चुकी थीं।
एक दिन दीदी मुझसे बोलीं - "जानती है वर्षा तेरे जीजा ने हमको बहुत प्यार
दिया, वे हमसे बहुत प्रेम करते हैं और हम भी उनसे बहुत प्रेम करते हैं
।हमने तो उन्हें भी बता दिया कि हमें कास के फूल बहुत पसंद है।और जानती है
जब हमें वो लोग छोड़ने आए थे ,तो हमने तेरे जीजाजी से पूछा- हमें लेने कब
आओगे ?
तो वह बोले जब कास के फूल फूलेंगे तब।"
मैं आसमान से गिरी थी। ओह! तो यह बात थी जीजा ने दीदी को बहलाने के लिए यह
बात बोल दी थी। दीदी ने उनसे प्रेम का रिश्ता जोड़ लिया था, पर वे नहीं
जोड़ पाए थे ,खैर उसमें जीजा की गलती भी नहीं थी।
अब बड़ी अम्मा दीदी से और चिढ़ने लगीं थीं, उन्हें और बातें सुनाती पर दीदी
तो अपनी दुनिया में मगन थी । अम्मा की बातों का उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
अब दीदी हर वक्त पूछती " वर्षा चल देखें कास फूले कि नहीं।"
मैं बोलती " अभी नहीं।"
कास के फूलों के मौसम में, जब मैं स्कूल के लिए निकलती तो खेतों की मेड़
,तालाब के किनारे के सारे फूल तोड़ कर फेंक देती थी, कि दीदी ना देख
लें।उनके सपने ना टूट जाए, कम से कम वह खुश तो थीं। उधर जीजा की दूसरी शादी
हो गई थी,इधर दीदी उनका इंतजार कर रहीं थीं।
दीदी बोलती " वर्षा, कास के फूल कितना इंतजार कराते हैं।"
एक दिन मैं मीरा के पद पढ़ रही थी, तो दीदी ने सुन लिया। वो मुझसे पूछने
लगीं " ये तू क्या पढ़ रही है?"
मैंने मीरा के कृष्ण प्रेम के बारे में बताया तो बोलीं " जैसे हम मीरा और
तेरे जीजा कान्हा,अब हम उन्हें कान्हा ही बुलाएंगे।"
मैंने कहा " जो तुम चाहो बोलो दीदी। जहां प्रेम हैै वहां तो कान्हा हैं
ही।"
बड़ी अम्मा ने दीदी की शादी के सारे फोटो जला दिए थे। पर मैंने जीजा जी की
एक फोटो दीदी को चुपके से दे दी थी। वह उसी फोटो को देखकर मगन रहतीं। बड़ी
अम्मा डांटती थीं, पर दीदी छुपकर सिंदूर लगाती, मुझे दिखाती देख वर्षा हम
कैसे लग रहे हैं ?खूब सजती संवरती । अपने कान्हा का इंतजार करतीं, कहतीं
मेरे कान्हा मुझे लेने आएंगे।पर मैं कितने साल दीदी को बहलाती, कितने कास
के फूलों को तोड़ कर फेंकती।
साल दर साल बीत रहे थे, तीन साल बीत चुके थे। अब दीदी भी कुछ - कुछ समझने
लगीं थी , वो अब बहुत दुखी रहने लगी थीं।
मैं भगवान से शिकायत करती कि जब तुमने दीदी को इतना सुंदर रूप दिया, इतना
प्यार भरा दिल दिया, तो फिर दिमाग में क्यों कमी कर दी।
मैं दीदी को समझाती पर जब उद्धव का ज्ञान, प्रेम के आगे हार गया तो फिर मैं
तो एक मामूली लड़की थी।
दीदी का शरीर देखते-देखते सूख गया, वह बीमार रहती थीं। बाहर भी ना जा पातीं
थीं। खाना खातीं पर वह शरीर को ना लगता। जिसका मुझे डर था, वही हुआ। दीदी
की खुशी शादी ने छीन ली थी,बड़ी अम्मा भी अब उनको कुछ ना बोलती।घर के तीनों
मर्दों को उनके दुख से कोई सरोकार ना था, निम्मो का संताप उन्हें बेवजह
लगता।बस मैं ही उन्हें देखकर घुलती रहती।
इंसान को कुछ ना पाने का दुख उतना नहीं होता जितना कि कुछ दिन के लिए ,उसे
पाकर खो देने पर होता है, इंसान का मोह उससे नहीं टूटता।दीदी के साथ भी यही
हो रहा था।
दीदी अभी भी पूछतीं, " वर्षा कास फूले कि नहीं?"
मैं कहती - " नहीं ।"
" और कितना इंतजार...."
दीदी बोलकर चुप हो जातीं। एक साल और बीता।
अक्टूबर महीने की शुरुआत हो गई थी, शरद ऋतु आ गई थी ।
दीदी की तबीयत ज्यादा खराब थी, तीन दिन से खाना पीना छूट गया था। वह केवल
हड्डी का ढांचा रह गई थी ।डॉक्टर ने जवाब दे दिया था, दीदी को अस्पताल से
घर ले आए थे,हम लोग। वो बोल भी नहीं पा रही थीं,बहुत कष्ट में थीं।पर प्राण
थे कि निकलते ही ना थे। दो दिन और बीत गए, हम सब उनके पास ही रहते।
जब मैं उनके पास जाती तो वो धीरे से आंख खोल कर मुझे देखती उनकी आंखें ही
पूछ लेतीं -
कास फूले ?
मैं उनके सामने ना रह पाती और भाग आती वहां से ।
बड़ी अम्मा, अम्मा सब रोते थे, उनकी दशा देखकर।सब भगवान से प्रार्थना करते
निम्मो को अपने पास बुला लो, कष्ट से मुक्ति दे दो इसे भगवान।
पर प्राणों के हठ की सीमा न थी, शरीर में कुछ ना था, फिर भी जमे बैठे थे।
बड़ी अम्मा ने भैया से कहा, " निम्मो को बिस्तर से उतार दो, जमीन पर लिटा
दो।" अम्मा तुलसी दल और गंगाजल ले आईं।
बड़े पापा, भैया, पापा ने मिलकर दीदी को जमीन पर लिटाया, पर कुछ न हुआ फिर
भी प्राण ना निकले।
अब मुझसे ना रहा गया , मैं घर से बाहर भागी।उस काम को करने जाते हुए मेरे
पांव पाषाण हो जाने चाहिए थे, लेकिन नहीं वे दौड़े-दौडे गए, क्योंकि आंखें
अब दीदी का कष्ट नहीं देख पा रहीं थीं।
और जब मैं वापस घर आई तो, हाथ कास के फूलों से भरे हुए थे।
मैंने जाकर दीदी के सर को छुआ, वो मेेेरा स्पर्श पहचान गईं आखिर उन्होंने
अपने दिल से जितना प्रेम उलीचा था, वह मुझसे और उनके फूलों से ही तो वापस
मिला था उन्हें, जिनकी वो दीवानी थीं। आज मैं और फूल दोनों ही एक साथ उनके
सिरहाने खड़े थे।
दीदी ने धीरे से आंखें खोल दीं..
मैंने फूल दिखा कर कहा " दीदी कास फूल गए हैं, कान्हा देहरी पर खड़े
हैं......।"
दीदी ने आंखें बंद कर लीं, उनके चेहरे पर चिर शांति थी,वे गहरी निद्रा में
सो गईं।
उनका इंतजार खत्म हो गया था।
दीदी अपनी अंतिम यात्रा पर चली गईं।
निम्मो दीदी के बिना घर सूना-सूना लगता था।
आज घर में लोगों की भीड़ थी ,गरुड़ पुराण का पाठ करवाया जा रहा था। मैंने
बड़ी अम्मा से कहा, " अम्मा, अगर लड़कियां बोझ ना समझी जातीं,तो हंसती
खिलखिलाती दीदी, आज हमारे साथ होतीं।"
यह बोलकर मैं अपने कमरे में चली आई, उनका झुका हुआ सिर देखने ना रूक सकी।
बाहर पंडित जी गरुण पुराण पढ़ रहे थे और मैं, दीदी के और अपने कमरे में
बैठी पढ़ रही थी -
कास फूल गए हैं ।
तुम लेने आए थे न कान्हा?
निम्मो चली गई है ।
कास के फूलों के आने से,
ये वर्षा बूढ़ा गई है ।
कास फूल गए हैं ,
निम्मो चली गई है।
मैं अब भी उन फूलों को गिनती हूं दीदी ,जैसा तुम बोल गई थी। जब भी आती है
तुम्हारी याद, दौड़ जाती हूं मेड़ो पर, तो देखती हूं......
कास फूल गए हैं।
- अनामिका वर्मा
जन्मतिथि- 07/07/1990
सहायक शिक्षक के पद पर कार्यरत
बिलासपुर, छत्तीसगढ़।
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