मुखपृष्ठ |
कहानी |
कविता |
कार्टून
|
कार्यशाला |
कैशोर्य |
चित्र-लेख | दृष्टिकोण
|
नृत्य |
निबन्ध |
देस-परदेस |
परिवार
|
फीचर |
बच्चों की
दुनिया |
भक्ति-काल धर्म |
रसोई |
लेखक |
व्यक्तित्व |
व्यंग्य |
विविधा |
संस्मरण |
साक्षात्कार
|
सृजन |
स्वास्थ्य
|
|
Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | Feedback | Contact | Share this Page! |
|
एक नदी ठिठकी सी- 4 '' केतकी ! '' पार्थ ने झिडक़ना चाहा पर शब्द लरज ग़ए। केतकी की तेज साँसे सन्नाटा भंग कर रही थी। वह अब एक उफनती बरसाती नदी थी जिस पर बाँध नहीं बाँधा जा सकता था, उसे तो बस बाँहों में लेकर ही पार उतरा जा सकता था। '' क्या ये गेस्ट हाउस ही शापित है? क्यों ले आया केतकी को यहाँ ? '' यही तो दिन थे जब पिछली बार यहाँ आया था। गहरी नींद के बीच एक खटखट हुई। नींद से उलझ कर वह उठा था हार कर उसने दरवाजा खोला था। बाहर एक संतरी खडा था उसके साथ एक आदिवासी, सुपुष्ट लडक़ी अन्दर चली आई। ''
कौन है ये
? '' लडक़ी स्वस्थ और चमकीली काली त्वचा वाली थी। छोटे से लहंगे से झांकती लम्बी टाँगे, सुपर मॉडल सी सधी देह। लेकिन पार्थ का गुस्से से बुरा हाल था वह निर्दोष संतरी पर ही बिगड ग़या। ''
समझते क्या हैं ये लोग?
ले जाओ इसे जहाँ
से आई है। क्या मुझसे पहले यही सब होता रहा है।
'' लौटते ही उसने संबधित सब इन्सपेक्टर को ससपेंड कर दिया और गाँव के सरपन्च को वार्निंग ही दिलवा सका राजनैतिक दबाब की वजह से पर अच्छा खासा हंगामा खडा होगया था। लेकिन न जाने क्यों वह आदिवासी निर्दोष काली आँखों वाली बाला अवचेतन से होकर उसके थके हुए सपनों में चली आती थी। और आज ये केतकी। क्या करूं इसका? पार्थ उठकर चप्पल पहनने लगा पर केतकी ने कुर्ते का छोर पकड लिया। ''
छोडो केतकी।
'' एक पुरूष और कितना संयम बरतता? उसने स्निग्ध आलिंगन में उसे बाँध लिया। मगर केतकी के नशीले कसाव उसे आहत कर रहे थे और वह केतकी के स्पष्ट आमंत्रण में बह गया। चिडियों के अनवरत कलरव से उसकी नींद टूटी। पस ही गलबहियाँ डाले केतकी की अनावृत स्वर्ण काया उससे लिपटी थी। चेहरे पर तुष्टि, सुघड नाक पर पसीने की बूँदे और गाल दहक रहे थे। पार्थ ने उसकी पलकें चूम लीं। खट से वह आँखे खोल कर बोल पडी। ''
प्यार मत करने लगना पार्थ
मुझे। वरना मैं कमजोर हो जाउंगी। बस हम दोस्त होकर जरूरतें बाँट रहे
हैं। '' चिडियों का कलरव उन्हें फिर बहा गया उद्वेगों में। पार्थ के चुम्बनों में ऊष्मा इस बार अपने चरम पर थी। अब लौटना भी तो था । यायावर केतकी ने फिर लम्बे समय तक कोई सम्पर्क नहीं साधा। वह जानता था वह ऐसी ही है। वह यायावरी नदी सी एक दिन लौट भी आई और फोन किया। ''
मैं पापा मम्मी को दमनदीव
ले गई थी और भी बहुत सारी जगह हम घूमे पूरे महीने की एल टी सी पर थी
मैं। '' केतकी ने फोन पटक दिया। पागल है ये लडक़ी। अगले दिन लंच पर पार्थ ने उसे बुला लिया। मॉर्निंग डयूटी खत्म कर वह सीधे ही पहुँच गई। पार्थ पार्थ करती हुई स्टडी में घुसी और अचकचा कर लौट आई। '' कौन था वह? '' ''
सुनिये!
'' पार्थ, अनुराग और केतकी को साथ देख एक सुखद अनुभूति से भर गया। पितृहीन अनुराग कहने को स्कूल से ही उसका जूनियर था मगर उसने हर तरह से बडे भाई का सा सम्मान दिया और बदले में पाया हर कदम पर मार्गदर्शन और दुलार। और ये केतकी उसके न जाने किस जन्म की सखि। उधर वो दोनों बातों में व्यस्त थे इधर एक सुन्दर कल्पना पार्थ के मन में आकार ले रही थी जिससे वे दोनों बेखबर से दुनिया-जहान के साहित्य की बातें कर रहे थे। चलो एक रुचि तो मिलती है वैसे दोनों एकदम विपरीत हैं अनेक आयामों में, एक शान्त, सन्तुलित, व्यवहारिक, दूसरा असामाजिक, दु:साहसी, अव्यवहारिक और बातूनी। एक बेहद शोख , खूबसूरत शख्सियत और दूजा साधारण कद काठी वाला सादा सा व्यक्ति। कहीं सुना है यही विषमताएं शादी के बाद एक-दूसरे की पूरक बन जाती हैं। शाम तक रोके रखा पार्थ ने केतकी को और अगले दिन अनुराग को शहर घुमाने की जिम्मेदारी भी उसे दे दी। दोनों अच्छे बच्चों की तरह शाम बीतते ही लौट आए, बुध्दू! शाम ही तो रूमानी होती है। केतकी के जाने के बाद उसने अनुराग से कुरेद कर पूछा ''
कैसी है?
'' पार्थ की आशंका सही थी। उस रात केतकी के घर डिनर पर बहाना बना कर वह चला गया था। अनुराग ने सहजता से अपने विचार केतकी के आगे रख दिये और केतकी ने सौम्यता से उत्तर दिया - '' शादी के बारे में अभी मैं ठीक से सोच नहीं पा रही अनुराग । फिर भी मैं आपके प्रस्ताव पर गौर करूँगी। '' अगले दिन अनुराग लौट गया। अगले सप्ताहान्त पर उन दोनों को अपने जिले भीलवाडा आने का आमंत्रण देकर। केतकी से रहा नहीं गया उसके जाते ही वह पार्थसे मिली। ''
पार्थ वो अनुराग..
''
|
|
(c) HindiNest.com
1999-2021 All Rights Reserved. |