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पल्लव-2 इलाहाबाद पहुंच कर, सेमिनार के पहले ही दिन, सुबह-सुबह पल्लव तैयार हो कर प्रोफेसर शलभ के कमरे का दरवाजा खटखटा चुकी थी। परितोष सर ने दरवाजा खोला, भूरे खादी के मुसे हुए कुर्ते और सफेद पैजामे में, उडते बिखरते बाल, बडी अर्धोन्मीलित गहरी भूरी पुतलियों वाली आंखो में लाल डोरे शायद अभी उठे होंगे । ''शुभ
प्रभात सर
''
पल्लव
मुस्कुरा कर बोली। ईष्या कर
हल्का सा दंश वह झेल गई।
किसी
भी प्रतिक्रिया की अवहेलना करते हुए अब तक तो वे बाथरूम में थे।
लौटे
तो पूछा, ''चाय
पियोगी ?'' पूरी खुली आंखों से परितोष ने उसे देखा। हल्की नीली शिफॉन की साडी और बिना बाहों के ब्लाउज से बरगद की नई शाखाओं सी फूटती दो अनावृत भुजाऐं। नीली लहरों के बीच कहीं रेतीले कगारों सी ढरकती, सिमटती-खुलती देह का बहाव। पल्लव चौंकी थी, तप्त आंखों के दग्ध भाव पर किन्तु शीघ्र ही सहज हो कर बोली, '' सर क्या आप नही आएंगे सेमिनार में ?'' क्यों नहीं, शलभ सर तो सीधे सेमिनार हॉल में पहुंचेंगे। तुम नीचे लॉबी में प्रतीक्षा करो, मैं अभी आया, साथ ही चलेंगे। '' पहली बार इतनी बात की होगी परितोष ने उसे थोडा सा अपने स्तर पर बैठा कर । पर्चा ठीक ही पढ ड़ाला था उसने, प्रोफेसर शलभ गर्वित भाव से बार-बार उसका परिचय अपनी शिष्या के रूप में करवाते रहे। प्रितोष वही भाव लिए डाइनिंग हॉल के कोनों से, लेखकों-समीक्षकों के झुण्ड में बतियाते, लंच के लिये प्लेट बढाते उसी ईष्या व आकर्षण मिश्रित दृष्टि से ताक लिया करते। लंच के बाद उसे अकेला पाकर पास आए। ''पल्लव यू आर सुपर्बली जीनियस। जितना भारी-भरकम विषय शलभ सर ने तुम्हें सुझाया था उसे उतने ही अधिकार से तुमने प्रस्तुत भी किया। '' पहली बार उस वीतरागी ने उसके बारे में कुछ कहा था। प्रितोष, कैसी छल भरी भूमिका थी वह, जिसे सुनकर पुलक उठी थी वह? वही पुलक जो मीठा विष बन तन-मन में घुल गई थी। शाम जब शलभ सर ने साथ साथ चाय पीने के लिये बुलाया तो, वह प्रसिध्द साहित्यकारों एवं तीन अंतरंग सखियों सी मगर अलग-अलग मिजाज वाली नदियों के संगम वाले शहर इलाहाबाद को घूमने निकल ही रही थी। एकदम पर्यटक सी लापरवाह वेशभूषा, कसी जीन्स, बातिक प्रिन्ट का जोगिया कुर्ता, सुघडता से कटे बालों को स्कार्फ से बांध वह सहज ही शलभ सर के कमरे में चली आई थी। प्रोफेसर शलभ कुछ रिपोर्टस लिख रहे थे। प्रितोष सुबह वाली ही मुसी पोशाक में तकिया बाहों में कसे, औंधे लेटे कुछ पढ रहे थे। उसकी आहट पर दोनों ने मुड क़र देखा, शलभ सर की आंखो में वात्सल्य उमडा, परितोष फिर असहज थे। शलभ सर से बाते करते हुए परितोष की आंखे उसकी पीठ पर आकर्षण उकेर रही थी। उसने एक बार मुड क़र देखा, तकिया बाहों में कसे उसी मर्म को कुरेदने वाले भाव से देख रहे थे, उसका हर स्पंदन, हर लय। आंखों में उन्माद के रोगी का सा भाव, समुद्र सी उफनती जलराशि। बात करते उसे व्यवधान हो रहा था, पीठ पर सरकती उस अटपटी दृष्टि से। हूं... ऐसे ही होते हैं ये बूढे होते कुवांरे...। '' तीनों ने साथ चाय पी, थोडी साहित्य चर्चा हुई, फिर पल्लव इजाजत ले निकल पडी नगर भ्रमण को। कॉलेज छोडने के बाद अब ये स्वतंत्रता मिली थी कि वह अकेले निश्चिंत होकर घूमे, खरीदारी करे, खासतौर पर किताबें खरीद पाए। अजित ऊब जाते थे इस सब से । बच्चे शोर मचाने लगते थे। यही कुछ स्वतंत्र पल जी लेने को पल्लव ने अजित से जिद कर इलाहाबाद आने, संगोष्ठी में शामिल होने की अनुमति ले ही ली थी। मम्मी को मथुरा से बुलवा लिया था दोनों बच्चों की देखभाल के लिये। पल्लव लौटी तो हाथों में ढेर से लिफाफे, किताबें, इलाहाबादी अमरूदों की डलिया । परितोष कॉरिडोर में खडे सिगरेट पी रहे थे, देखते ही आगे बढ क़र कुछ सामान ले लिया उसके हाथ से, पीछे-पीछे उसके कमरे में चले आए निशब्द । ''थैंक्स सर... क्या आपने पूरी शाम यही बिताई अकेले? ओह हां शलभ सर तो अपने इलाहाबादी सहपाठियों से मिलने चले गए होंगे ना !'' पल्लव सहज ही एक अच्छे परिचित की तरह बात कर रही थी। यही परितोष को भी भला लगा। ''हां , क्या करता बस एक कविता लिखी, तीन-चार सिगरेट पी, फिर कॉरीडोर में आकर लोगों का आवागमन देखता रहा। '' थोडी ही देर में दोनों टेरेस पर अमरूद खा रहे थे। एक अलग किस्म की स्वंछदता हवा में नमी की तरह घुल गई थी। हलका अंधेरा घिर आया था। पलाश, गुलमोहर, जैकेरेण्डा के पेडों की कतारें मानो स्याह सडक़ को रास्ता सुझा रही थी। पल्लव हवा में घुली नमी से, दृष्य से, उडाये लिये जाती स्वच्छंदता से बंधी जा रही थी। लगभग उसका सम्मोहन तोडते हुए ही परितोष ने कहा ''पल्लव तुम्हारे लेखों से बहुत अलग तुम्हारी कविताएं अकसर रोमान्स से लबालब होती हैं और बहुत वैयक्तिक ''सर
इसीलिये तो छप कम ही पाती हैं। यूं भी लेखों,
शोध
पत्रों से अलग वो मेरी व्यक्तिगत अभिव्यक्तियां ही हैं।
'' पल्लव छिपा गई अपना औत्सुक्य । ''तू
अनन्त राशि है सरस सौंदर्य की, एक अधूरी, अस्तव्यस्त सी कविता.... फ़िर एक लम्बा मौन। सच बता पल्लव क्या तुझे जरा भी आभास नही था, ऐसे किसी आग्रह का ? आखिर स्त्री है, जानती थी वह निर्लिप्तता, उपेक्षा घोर आकर्षण की भूमिका मात्र थे। ''पल्लव
क्या हुआ
?''
एक
सशंक प्रश्न जिसका उत्तर क्या देती वह?
एक
अज्ञात,
गोपन
संशय का आभास दानों के बीच थरथरता रहा।
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