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वनगन्ध-5
मानसी
के फाइनल एग्ज़ाम्स शुरू होने को थे।
मेरे इन्टरव्यूज
हो चुके थे। परिणाम
अपेक्षा के अनुरूप रहा और मेरा चयन अपने ही शहर के कॉलेज में हो गया था
असिस्टेन्ट लैक्चरर के पद पर।
पापा का
रिटायरमेन्ट करीब था,
पापा ने अपना घर बनवाना आरंभ कर दिया था,
जीवन भर इसी शहर में अध्यापन किया,
लोगों का स्नेह व सम्मान पाया और अब यहीं रहने का मन
बना चुके थे वे।
दीदी की शादी हो
चुकी थी और सही समय पर मैं मम्मी-पापा के साथ रहने आ गया था।
मुझे याद है
मेरी उस नौकरी का पहला दिन।
अब उसके चेहरे परर् ईष्या का भाव था, फिर भी वह हँस रही थी। पर सच तो ये था मिनी का पर्याय ही मेरी पसंद बन गई थी। साफ पारदर्शी त्वचा, गोल चेहरा, ब्लंट कटे लहराते बाल, शहद के रंग की छोटी गोल आँखे, ग्रीक नोज और खूबसूरत होंठ। उसी शाम मम्मी-पापा घर में नहीं थे, वांछित एकान्त पाकर मैं उससे पूछ रहा था कि - ''भविष्य
का क्या करें? '' हर बार शादी की बात पर मिनी का यही रुख रहता, जानता था मानसी को मम्मी-पापा के लिए बहू के रूप में स्वीकार करना लगभग असम्भव ही होगा। जातिगत भेद को छोड भी दूँ तो संस्कारों में जमीन आसमान का अन्तर। कहाँ विशुध्द सनातनी संस्कारों वाली मेरी माँ, कहाँ मानसी के घर में कोई भगवान की तस्वीर तक नहीं थी। न दीपावली को लक्ष्मी पूजन होता न होली पर कोई पूजा। उसपर टूटते-टूटते बचे घर की लडक़ी को अपनाने के प्रति गहरा असंतोष। यूँ भी कोई मेरे और मिनी के बीच ऐसी बात सोचता तक न था, जहाँ तक मैं और मिनी सोच रहे थे। फिर भी मैं एक हल चाहता था। इस सम्बन्ध को कोई सुखद आकार देना चाहता था। पर यहा एक व्यूह था जिसका कोई हल आसान न था। मुझे बार-बार अपनी गलती का अहसास होने लगा था, एक बार फिर वही बात उठी और मैंने मानसी से फिर कहा - '' अब हमें निर्णय लेना होगा, अन्यथा अधिक साथ न चल सकेंगे। या तो विद्रोह कर हम अपने आप को सुखी कर लें, या मम्मी पापा के लिए अपने रास्ते बदल लें, तुम अच्छी तरह पढ क़र अपना कैरियर बनाओ और किसी बेहतर इन्सान से शादी करके बस जाओ। तुम्हारे जीवन के फैसले अब तुम्हारे हाथ हैं।'' बहुत देर वह चुप रही फिर
बिखर गई,
''
...... कौनसी पढाई,
कैसा कैरियर और
कौनसे फैसले?
मेरा तो इस जीवन में ही
विश्वास न था,
कुछ विश्वास था भी तो आपके
होने में,
आपके अस्तित्व में। आप इतने
कुछ हैं मेरे लिए कि आपको पाने का स्वप्न तक देखने से मैं कतराती हूँ।
आप महीनों नहीं मिलते मुझसे पर कहीं वह स्नेह का सूत्र क्षीण नहीं होता,
हम फिर से उतनी ही
आत्मीयता से मिलते हैं। हम स्थाई तौर पर साथ रहें इसकी सम्भावनाओं में
जलजले छिपे हैं और ऐसी नींव पर मैं कैसे अपना और आपका जीवन रख दूँ?
ये भी जानती हूँ
आपसे अलग होकर जीना ही व्यर्थ होगा। पर क्या हल सुझाऊं
,
मैं स्वयं नहीं जानती।'' उसे कस कर मैंने अपने वक्ष से बाँध लिया था मैं ने। अगले दिन वह जयपुर लौट गई उसके कॉलेज खुल गए थे। सैमेस्टरों, इम्तहानों का रुका हुआ सिलसिला फिर शुरू हो गया। लम्बा अन्तराल हमने पत्रों से पाटने का प्रयास किया। उसके इम्तहान जैसे मेरे इम्तहान होते क्योंकि यही एक साल उसके कैरियर के लिए महत्वपूर्ण साल था और मैं उसे मिलता न मिलता लेकिन उसे सफल व्यक्ति के रूप में देखना चाहता था। मैं उसे लम्बे पत्र लिखता, जिनका कि वह आग्रह करती थी, क्या आप भी ना! दो लाईन के लैटर से ही बस काम चला लेते हो। मैं लिखता -
''
मैं चाहता हूँ दुनिया,
वह चाहता है मुझे रणथम्भौर चलोगी छुट्टियों में? तुमने अपने और मैंने अपने फाईनल इम्तिहान अच्छे से किए तो यह ट्रीट हम दोनों का इन्तजार कर रही है। दुबली हो गई होगी, पढ क़र नहीं मुझसे अलग होकर। खुद भी पत्र संक्षिप्त लिखा करो और मुझसे भी लम्बे पत्रों की उम्मीद मत किया करो। तुम्हारे अच्छी भाषा से सजे पत्र मुझे प्रिय हैं पर मैं मन को मना लूंगा, बस तुम मन लगा कर पढो और इस लक्ष्य को साध लो। हम दोनों ने अपने-अपने
पर्चे पूरे प्रयास से अच्छे किए,
हम रणथम्भौर भी गए,
जहाँ
तक मेरा मन जानता था कि
यह हमारे अलगाव से ठीक पहले का अंतिम बेहद खुशनुमा वक्त है,
और इसे हाथ से फिसल जाना ही है,
वहीं वह बेखबर सी उतनी ही खुश और उच्छृंखल थी जितना
वह ऐसे प्राकृतिक वातावरण में और मेरे सान्निध्य में हो जाती थी।
मैं इसे यादगार
बना देना चाहता था।
वहीं उस हजारों साल पुराने बरगद की जमीन को छूती शाखाओं पर बैठ हमने फिर भविष्य की व्याख्या की। तुमने मेरी हथेलियों पर शून्य बना दिया था। उसी शाम उस झील के किनारे टहलते हुए सारस का एक जोडा एक दम हमारे सर पर से फडफ़डाता गुजरा था। तुमने कहा था , '' निखिल, सारस एक ऐसा पक्षी है न जो कभी अपना जोडा नहीं बदलता। '' मैं प्रश्न की भावुकता से तत्काल ही संक्रमित हो गया था और वही कर बैठा था जो एक भावुक प्रेमी कर सकता था। '' मुझसे शादी करलो मानसी ! '' तुम्हें विश्वास नहीं हुआ
था एकाएक,
क्योंकि इस बात को मैं हमेशा या तो टालता था या तुम्हारे भविष्य के प्रति
आशंकित होकर ही कहता था कि अगर इससे तुम्हारा जीवन बनता हो तो और
तुम मेरे शहीदाना भाव को समझ कहतीं ना! क्या फायदा।
पहली बार मैंने
हृदय से कहा था। तुम्हारे
नेत्र विस्फारित हो मुझ पर आ टिके थे।
मैंने प्रश्न
दोहराया नहीं तुमने कुछ कहा भी नहीं।
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