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प्रेम

यदि प्रेम मृगतृष्णा है
और सत्य स्वप्न नहीं
तो मेरे अज्ञान की यवनिका न उठा –
यह विचार मात्र
कि तू स्नेह सम्बंधों से मुझसे जुड़ा है
जीवन के लिये काफी है।
तेरा उपेक्षा का भाव भी मीठा लगता है
क्योंकि मेरा प्यार गुनाहों की ओर से अन्धा है‚
और मैं तुझे प्रकृति व परमेश्वर
दोनों से परे
प्यार की एक विपुल राशि
और निश्छलता का
स्पष्ट उद्गम समझती हूँ।

प्यास के लिये निर्मल नद हो
तब भी‚
मृगमरीचिका की ओर
लम्बी लम्बी डगें भरने में
विचित्र आल्हाद है।

तू मधुर हेमन्त की प्रभाती धूप है‚
जिसमें मेरे विकारों के ज्वरों की
समस्त क्षीणता निकल जाती है‚
और मेरी कामनाएं स्वस्थ सबल हो कर
पुनÁ
जीवन संघर्ष में प्रवेश करती हैं।

तू आधिपत्य की वस्तु नहीं।
तुझसे आकृष्ट हो
स्नेह की तूफानी भेंट लाकर
मैं ने प्रकृति का अपराध किया है‚
अब प्रतिपल
अशान्ति के ज्वर में झुलसती हूँ‚
तेरे सभी क्षण पराए हैं
और उन पर
मैं ने प्रतीक्षा का भार रख
ठीक नहीं किया।

तेरी स्नेहिल
अभिव्यक्तियों की मौलिकता के
अतिप्रिय तट पर
मैं अपने औत्सुक्य की प्यास बुझाने‚
यौवन की समीक्षा करने
और जीवन का
अर्थ समझने आ पहुँची हूँ।

तूने
मुझे एक ऐसा रहस्य बना दिया है
कि जिसे केवल तू ही जानता है‚
जिसका निर्वाह भी तू ही कर सकता है।

गरिमा


 
 

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