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जो टूट गया है भीतर
एक अवयव टूट कर बिखर गया है कहीं भीतर
लहूलुहान सा हो गया है मेरा अन्तÁकरण
पीड़ा व्यक्त होने की सीमा तक,
आकर ठहर गई है।
कुछ देर और इसी तरह मुस्कुराते रहना है मुझे
इसी सयानी दुनिया में निस्संग
सहज ही बने रहना है
सफर में, बाकी बरस कुछ और

क्या फर्क पड़ता है नदी की शान में,
कितना बदल गया है मेरा अहसास
किसे परवाह
क्यों पीली पड़ गई दिखती हैं
भरी दोपहर में दरख्तों की हरी पत्तियाँ
सड़कों पर दूर तक दहशत
और दरारें निकल आई हैं परकोटे की भींत में
सहम गई हैं उजड़े हुए किले की पुरानी दीवारें
कहीं भूकम्प आने को है शायद
समय के गर्भ में।
यह दृश्य इतना बेरंग तो नहीं दिखा था कभी
इतनी हताश तो नहीं दिखी थी
चाँद और सूरज की रौशनी,
नदी उलट कर लौटने लगी है
अपने ही उद्गम की ओर।
धुआं आसमान से उतर कर
समाने लगा है चिमनी की कोख में।
अपनी उड़ान बीच ही में समेट
उतर आए हैं असंख्य पक्षी
इस सूखे बंजर ताल में,
तुम क्यों उदास होती हो
तुम्हें तो मिल ही जाएगी
अपने हिस्से की ठण्डी झील
– हरी संवेदना
मुँह अँधेरे उड़ जाना उगते सूरज की सीध
पलट कर भी न देखना
इस उजाड़ बंजर ताल को आँख भर ,

तुम किस–किस के लिये करोगी पछतावे
किसके आहत होने का रखोगी ख़याल
अपनी करवट बदलती दुनिया में,
जो टूट गया है अवयव
किसी के भीतर, उसे उबर कर आने दो
अपनी आत्म पीड़ा से
सहने दो अपने हिस्से का अवसाद
चुन लेने दो जीये हुए अनुभव का कोई अंश
शायद बच रहा हो कहीं एक संकल्प
– शेष संभावना।


        

  उसकी स्मृतियों में


जिस वक्त में यहाँ होता हूँ
आपकी आँख में
कहीं और भी तो जी रहा होता हूँ
किसी की स्मृतियों में शेष
शायद वहीं से आती है मुझमें ऊर्जा
इस थका देने वाली जीव यात्रा में
फिर से नया उल्ला
एक सघन आवेग की तरह
आती है वह मेरे उलझे हुए संसार में
और सुगंध की तरह
समा जाती है समय की संधियों में मौन
मुझे राग और रिश्तों के नये आशय समझाती हुई।

उसकी अगुवाई में तैरते हैं अनगिनत सपने
सुनहरी कल्पनाओं का अटूट एक सिलसिला
वह आती है इस रूखे संसार में
फूलों से लदी घाटियों की स्मृतियों के साथ
और बरसाती नदी की तरह फैल जाती है
समूचे ताल र्में
उसी की निश्छल हँसी में चमकते हैं
चाँद और सितारे पूरी रात
सवेरे रेतीले धोरों पर उगते सूर्य का आलोक
वह विचरती है रेतीले गठानों पर निरावेग
जब
उमड़ती हुई घटाओं के अन्तराल में गूँजता है
लहराते मोरों का एकर्लगान
मन की उमंग में थिरक उठती है वह
नन्हीं बूँदों की ताल पर।

उसकी छवियों में उभर आता है
भीगी हुई धरती का उर्वर आवेग
वह आँधी की तरह घुल जाती है
मेह के चौतरफा विस्तार में

मेरी स्मृतियों के आकाश में
देर तक रहता है उसके होने का आभास
मुझे सहेज कर जीना है
उसकी ऊर्जा को अनवरत।

 

– नन्द भारद्वाज
 

 

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