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और फिर

अवसाद की एक
मटमैली सी चादर
ओढ़े हूँ बरसों से
यहां तक कि
मोह हो चला है ओढ़ते ओढ़ते
उसके दिये
उमंगों के शोख आकर्षक वस्त्रों पर भी
कभी कभी ओढ़ लेती हूँ
तो वह‚
बहुत खीज उठता है
' तुम उदास हो नहीं
ढोंग करती हो
सोचती हो अदा है इसमें
सच पूछो तो
लगता है उदास चेहरा तुम्हारा
एक मृत चेहरा'
और मैं
घबरा कर पटक देती हूं
उसे
अतीत के गहरे सघन कोने में
कभी नहीं‚ कभी भी नहीं उठाने
प्रण के साथ
मगर मोह फिर घुमड़ता है
और फिर…

– मनीषा कुलश्रेष्ठ
 


   
 

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