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दस्तखत Á कोरे काग़ज पर

कहीं फिर
जंगल की किसी परी ने
छड़ी घुमाई
और मैं बुत से
आदमी बन गया
!

जंगल में जो आग थी
उसे मैं
हथेलियों पर धर लाया
हवाएं जो जंगल में
चलती थीं
घर तक
साथ ले आया

आग और हवा का रिश्ता
तुम जानते ही हो
हवाएं जब चलती हैं
आग शोला बन जाती है
मैं इन्हीं शोलों पर
चलता रहा
इन्सान के बनाए
ऊंचे ऊंचे महलों में
पलता रहा

लेकिन अजीब बात है
महल खामोश है
जबकि जंगल में पेड़
बातें किया करते थे
महल में अंधेरा है
जबकि जंगल में
जुगनु साथ चला करते थे
महल में निरन्तर चीख है
जबकि जंगल
मल्हार बुना करते थे

घर के लोग
सपने हो गये
साथ चल तो रहे थे
पर आधे ही रास्ते में
खो गये
अब महल की
अधपुती दीवारों से
मेरा रिश्ता हो गया है
मैंने सांसो में भर ली है
कमरों की घुटन
गुलाब की पांखुरियों से भी
अब होने लगी है चुभन

अब बिस्तर
मां की लोरी नहीं सुनाते
बारूद भरने लगे हैं
कुछ पता नहीं
आधी रात को
सोये सोये ही
विस्फोट हो जाये
और मेरा कंकाल
ताउम्र
अपने टुकड़े ढूंढता रह जाये

हाय
!
यह बारूद कौन बिछा गया
आशंकाओं की कटारी
मेरी आंखों में कौन लटका गया
हर दर्द की तख्ती पर
मेरे दस्तख़त
कौन करवा गया

अब तो कोई
उस परी को बुलाये
फिर से वह
अपनी छड़ी घुमाए
ताकि मैं आदमी से
बुत बन जाऊं
और जंगल के
फूल और पत्तियों के साथ
झूमूं‚ नाचूं
और गुनगुनाऊं
!

– विकेश निझावन


 

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