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चक्कर साइकिल का

वह आम साइकिल
उस जमाने के चलन के मुताबिक
बिना ब्यूटी पार्लर मेकअप
बावजूद काले रंग और
भारी भरकम डीलडौल के
मन लुभाना जानती थी
फिर भी
दोस्ती का ग्रीस लगने में
काफी वक्त लग गया
चढ़ने की कोशिश करती तो
बिगडी घोडी सी बिदक जाती
कभी मैं उस पे सवार
कभी वह मुझ पर

वक्त बदला
ढलावों पर झरनों से उतरे
हम साथ साथ
चढ़ावों पर उबालों से उफने
हम साथ साथ
पहिये के पंखों को
मन में उतारा
साथ साथ
इच्छाओं के पेंचों को
कसा साथ साथ
फिर साथ छूटा
एक साथ
हम दोनों चले
वह कबाड़ी की दुकान में
मैं जिन्दगी के कबाड़ में
साथ साथ
हड्डियाँ अलग कर
मज्जा खुरच
घुनघुनाती आवाज नोच
पाँवों से हवा निकाल
हिस्सा बाँट दी गयी वह
लगभग मेरे ही साथ

फिर भी है मेरे साथ
मन को वक्त के साथ
चलाती हुई।

– रति सक्सेना


 

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