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खत ख़तों ने जोड़ी है टुकड़ों में बंटती ज़िन्दगी यहाँ वहाँ से सिला है फटते उधड़ते दिलों को जलते कदमों के नीचे बिछ गये हैं खत गीली मिट्टी की तरह हर बार जिन पर चल तय किये हैं कठिनतम मोड़ ज़िन्दगी के ख़तों के ज़रिये हर बार शब्दों का एक समन्दर पैरों के पास आ आ कर लौटा है फूट फूट कर रोये हैं शब्द कभी खिलखिला कर हँसे हैं जब कभी सारे के सारे पते खो गये हैं यादों के सेतु बांधे हैं खतों ने बहुत बार खुद के गुम हो जाने पर मुझसे मुझको मिलाया है ख़तों ने एक आदत सी बन गई है खत लिखना और कभी न आने वाले जवाबों का इंतज़ार करना क्या कोई असर नहीं होता उन पर मन को मथ कर निकाले फेनिल शब्दों का? या अब खत ही खुद भूल गये हैं अपने पतों को? किस युग में जी रहे हैं हम? क्या सचमुच बहुत पुरानी बात हो गई है खत लिखना? वही खत जो जोड़ते थे भाव को भाव से आश्वस्त करते थे रिश्तों को देते थे ऊर्जा आवेशित शब्दों की क्या आज अपनी सामयिकता खो चुके हैं? प््राकृति भी तो लिखती है खत पतझड़ के पत्तों से बसन्त को ज्वार की लहरों से चाँद को नदियों में बहा रेत को लिखती है खत समन्दर को उसे तो मिलते हैं जवाब लौटता है हर साल बसन्त उतर आता है चाँद प्रतिबिम्बों में बरसते हैं बादल लेकर जवाब समन्दर का माना कम हो गई हैं देश से देश की शहर से शहर की दूरियाँ आधुनिकतम हो गये संचार के साधन रेले सा बहता वक्त रहता नहीं किसी के पास पर नहीं समझ आता कि कम कैसे हो गईं खत की संभावनाएं शब्दों में ढले भावों की प्रेरणाएं ! |
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