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सांठ–गांठ
शरीर वस्त्र है
उसे धोने सुखाने और इस्त्री के बाद
चलते फिरते शो केस के हैंगर पर
टांग देते हैं अकसर
खभी गुड़ी मुड़ी मैला
पड़ा रहता है
उपेक्षित कोने में अकेला

कभी तंग चुस्त
कभी ढीला ढाला
स्खलित सुस्त
दूसरे का अच्छा कपड़ा देखकर
सोच में पड़ जाते हैं
मन ही मन सवाल उठाते हैं
न जाने यह किस थान से है
ज़रा पूछ लें
भई‚ किस दुकान से है

सीवन उधड़ जाती है
पैबन्द लगाने की याद आती है
अस्पताल‚ दर्जी की दुकान नज़र आते हैं
उफॐ फैशन की दौड़ में
नये से नये वस्त्र भी
जल्द ही पुराने पड़ जाते हैं

बस…रेल डिब्बा…जीप या किसी सवारी में
ठसाठस भरी भीड़ नज़र आती है तो
कपड़ों से बंधी गठरी नज़र आती है
शहर की सड़कें तब
डोरियां बन जाती हैं
गीले कपड़ों की कतार
उन पर तन जाती है
कुछ सूख रहे हैं
कुछ अज्ञात धोबी घाट की ओर
सरकते हुए थकान से टूट रहे हैं…

जब एक कपड़े को
दूसरा हमराही वस्त्र मिल जाता है
दोनों में प्यार बढ़ जाता है
अपनी सलवटों में एकाकार
वे आपस में उलझ जाते हैं
स्वप्निल चिन्दियों से एक
तीसरा वस्त्र बनाते है
धोबी घाट पर और भीड़ बढ़ाते हैं
और क्या देखें
हर गांव…शहर…और मोहल्ला
कपड़ों की मिल नज़र आता है
झुग्गियों में छोटा बड़ा नाप है
लापरवाही से काट छांट
बेकार चिन्दियों को ठिकाने लगाने की
यह कैसी सांठ गांठ है?

– राजेश जैन


 

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