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उल्लास की विलुप्त नदी

बहुत दिनों से
रिस रही थी मन में एक याद
पिछली बारिशों की

अनजाने ही एक
आवरण उड़ा था
कहीं कोई खिड़की खुली थी
ढेर सी बरसाती बूंदे
घर और मन को
अन्दर तक भिगो गईं थीं

कहीं भीतर बहती
उल्लास की क्षीण सी
विलुप्त नदी
सहसा उफन कर
अभिव्यक्त हो गई थी

इस बार देर कर दी मानसून ने
या पता नहीं आना ही
स्थगित कर दिया हो
बादलों का मिजाज़ ही
नहीं मिल रहा

घर की सारी खिड़कियां खुली हैं
अपनी आंखें आसमां पर टिकाए
नए अंकुरों के
छौने से पत्ते
अंखुआते ही कुम्हला गए हैं

याद अब भी रिस रही है
पिछली बारिशों की
मन की कहीं किसी
दबी दबी
चाह से

प्रतीक्षा‚ टीस‚

और
आशंका
मुरझाते प्रेम के
लगातार
सूखते जाने की
बहुत से भावों से घुल मिल
एक अकुलाहट
उमस बन घुल गई है हवा में

न जाने कैसा होगा
इस बार का मौसम?
क्या लौटेंगे बादल?
जो एक बार
रास्ता बदल
कर चले गये हैं?

सालों बाद अभिव्यक्त हुई
वह विलुप्त नदी
घनेरे उल्लास की
फिर तो न
जाकर खो जाएगी
अपने उसी
परतों दबे नैराश्य में?

– मनीषा कुलश्रेष्ठ

पारदर्शी

तरह तरह के रिश्तों की
चट्टानों‚ पत्थरों और रेत से
बहकर
हर बार यह रिश्ता
और पारदर्शी
और चमकीला हुआ है
ज़रा भर कर देखो तो‚
अपनी अंजुरियों में
कैसा झिलमिलाता है
यह मानवीयता का रिश्ता !

– मनीषा कुलश्रेष्ठ


 

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