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एकरसता

तुम नहीं थे‚
बहुत अलसाई सी थी सुबह
कड़क चाय के एक प्याले से भी
नहीं टूटी
तुम्हारे बिना बीती अधसोयी रात की खुमारी

बाहर तुम्हारी आहटों से
भरमाते से‚ हवा में डोलते
पीपल के सूखे पत्ते
मुझसे मज़ाक कर रहे थे

तुम कहो…
कैसा रहा दिन तुम्हारा
वो कल दुपहर का
आधा छूटा सुख…
रेल में भी साथ रहा होगा
दांतों में फंसे एक रेशे सा
मैं ने तो उंगलियों से छुआ भर था
हाथ से फिसल जाती मछली सा
लहराता तैरता सुख

बहुत दिनों बाद
तुम्हारे न होने के सलोने दु:ख को
चाव से चखा था मैं ने
तुम्हारी याद की तुर्शी के साथ
बहुत दिन जो हुए थे
साथ होने के मीठे पलों की
एकरसता जीते जीते!!

– मनीषा कुलश्रेष्ठ



 

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