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नटनागर कृष्ण – कवियों की अपनी अपनी दृष्टि में

सूरदास जी के कृष्ण

मैया मौहिं दाऊ बहुत खिजायो।
मोसौं कहत मोल को लीन्हौं‚ तू जसुमति कब जायो।
कहा करौं इहि रिस के मारै खेलन हौं नहीं जात।
पुनि पुनि कहत है कौन है माता‚ कौन है तेरौ तात।
गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात।
चुटकी दे दे ग्वाल नचावत हँसत सबै मुस्कात।
तू मौहिं कौं मारन सीखी‚ दाउहिं कबहूँ न खीजै।
मोहन मुख रिस की ये बातैं‚ जसुमति सुनि सुनि रीझै।
सुनहू कान्ह‚ बलभद्र चबाई‚ जनमत ही को धूत।
सूर स्याम माहि गोधन की सौं‚ हौं माता तू पूत।

अर्थ — माँ से बड़े भाई बलदाऊ की शिकायत करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि — माँॐ बलदाऊ मुझे बहुत चिढ़ाते हैं कहते हैं कि हमने तो तुझे मोल लिया है‚ माँ यशोदा ने तो तुझे जन्म दिया ही नहीं। अब तुझे क्या बताऊं माँ‚ मैं तो इसी खीज के मारे खेलने तक नहीं जाता। बार बार मुझसे यही कहता है कि बता तेरी माता कौन है? पिता कौन है? तू नन्द यशोदा का पुत्र कैसे हो सकता है कहाँ वे दोनों गौरवर्णी कहाँ तू साँवला। दाऊ की इस बात पर ग्वाल बाल भी चुटकी दे दे कर नाच नाच कर चिढ़ाते और हंसते मुस्काते हैं। और तू भी तो … तू भी मुझे ही मारना सीखी है ह्य चाहे मेरा दोष हो न हो‚ दाऊ से तो कभी कुछ कहती ही नहींह्य जैसे कि उसकी कही बात सच हो कि मैं तेरा सगा पुत्र हूं ही नहीं।हृ
माँ यशोदा अपने कान्ह के भोले मुख से ये क्रोध भरी शिकायतें सुन मन ही मन मोहित हो रही है‚ लेकिन शीघ्र ही बाल मनोविज्ञान और बालसुलभ ईष्र्या जान कर अपने कृष्ण की शिकायत दूर करने के लिये उसे कहती है — तुझे नहीं पता‚ लल्ला ये बलभद्र तो बहुत झूठा है‚ जन्म से ही धूर्त है। देख कान्हा‚ गोधन की सौगन्ध खाकर बता रही हूँ कि तू ही मेरा पुत्र है और मैं ही तेरी माता। ह्य तू व्यर्थ ही शैतान बलदाऊ की बातों में आकर खीज मत।


रसखान के कृष्ण

अधर लगाई रस ग्याई बाँसुरी बजाई
मेरो नाम गाई हाई जादू कियो मन मैं।
नटखट नवल सुघर नन्दनवन ने
करिके अचेत चेत हरि के जतन में।
झटपट उलटि पुलटि परिधान
जानि लागीं लालन पे सबै बाम बन में।
रस रास सरस रंगीलो रसखानि आनि
जानि जोर जुगुति विलास कियौ जन में।

अर्थ — कोई गोपिका अपनी सखि से रासलीला का वर्णन करती हुई कहती है —जब कृष्ण ने अपनी बाँसुरी होंठों से लगा कर उसे अधरों का रस पिलाया और मेरा नाम बजाया तो मेरे मन पर मानो यह जादू सा कर गया। नटखट सुन्दर युवक कृष्ण ने मुझे अपने में मगन कर मुझे अचेत कर दिया। तब बांसुरी की धुन सुन कर ब्रज की सारी स्त्रियाँ जल्दी जल्दी उल्टे पुल्टे वस्त्र पहन बन में पहुंच गईं। तब रसराज रंगीले कृष्ण ने युक्तिपूर्वक युवतियों के समूह को एकत्र कर रासलीला रच कर आनन्द मनाया।


मीरां के कृष्ण

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सर मोर मुकुट‚ मेरो पति सोई।
तात मात भा्रत बन्धु‚ अपना नहिं कोई।
छांडि दई कुल की कान‚ का करै कोई।
संतन संग बैठि बैठि लोक लाज खोई।
चुनरी के किए टूक टूक‚ ओढ़ लीन्हीं लोई।
मोती मूंगे उतार बन माला पोई।
अब तो बेल फैलि गई‚ आनन्द फल होई।
दूध की मथनिया बड़े प्रेम से बिलोई।
माखन सब काढ़ लियो‚ छांछ पिये कोई।
आई मैं भक्ति काज‚ जगत देखि रोई।
दासी मीरां गिरधर प्रभु‚ तारो अब मोई।

बादल देखा झरी स्याम मैं बादल देखां झरी
काला पीला घट्या उमड्या बरस्यौं चार घरी
म्हारा पिया परदेसां बस्यां‚ मैं भीज्यां बार खरी
मीरां रे प्रभु हरि अविनासी करस्यो प्रीत खरी

अर्थ — अपने प्रिय कृष्ण को पुकार कर मीरां कहती हैं कि हे प्रियतम्‚ जब भी बादलों को देखती हूँ मेरा विरहदग्ध मन रो पड़ता है। घनाघोर घटाएं बरसती हैं और चार घड़ी बरस कर चली जाती हैं। जिधर देखो उधर पानी ही पानी दिखाई देता है और प्यासी धरती को तृप्त कर जाता है। लेकिन मैं … मेरे प्रिय तो परदेस में रहते हैं‚ मैं उनकी प्रतीक्षा में द्वार पर खड़ी खड़ी भीग रही हूँ। मीरां फिर अपने अविनाशी कृष्ण को सम्बोधित कर कहती हैं कि मुझसे सच्चा प्रेम करना और इस भीगे वातावरण में मेरे विदग्ध मन को अपने दर्शनों से भिगो देना।

धर्मवीर भारती की कनुप्रिया के कृष्ण

शब्द  अर्थहीन

पर इस सार्थकता को तुम मुझे
कैसे समझाओगे कनु?

शब्द‚ शब्द‚ शब्द…
मेरे लिये सब अर्थहीन हैं
यदि वे मेरे पास बैठ कर
मेरे रूखे कुन्तलों में उंगलियां उलझाए हुए
तुम्हारे कांपते अधरों से नहीं निकलते

शब्द‚ शब्द‚ शब्द …
कर्म‚ स्वधर्म‚ निर्णय‚ दायित्व…
मैं ने भी गली गली सुने हैं ये शब्द
अर्जुन ने इनमें चाहे कुछ भी पाया हो
मैं इन्हें सुन कर कुछ भी नहीं पाती प्रिय
सिर्फ राह में ठिठक कर
तुम्हारे उन अधरों की कल्पना करती हूं
जिनसे तुमने ये शब्द पहली बार कहे होंगे

— तुम्हारा साँवरा लहराता हुआ जिस्म
तुम्हारी किंचित मुड़ी हुई शंख – ग्रीवा
तुम्हारी उठी हुई चन्दन बाँहें
अधखुली दृष्टि
धीरे धीरे हिलते हुए
तुम्हारे जादू – भरे होंठ!

मैं कल्पना करती हूँ कि  अर्जुन की जगह मैं हूँ
और मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
और मैं नहीं जानती कि युद्ध कौनसा है
और मैं किसके पक्ष में हूँ  और समस्या क्या है
और लड़ाई किस बात की है
लेकिन मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
क्योंकि तुम्हारे द्वारा समझाया जाना  मुझे बहुत अच्छा लगता है
और सेनाएं स्तब्ध खड़ी हैं
और इतिहास स्थगित हो गया है और तुम मुझे समझा रहे हो…

कर्म‚ स्वधर्म‚ निर्णय‚ दायित्व…
शब्द‚ शब्द‚ शब्द …
मेरे लिये नितान्त अर्थहीन हैं —
मैं इन सबके परे अपलक तुम्हें देख रही हूँ
हर शब्द को अंजुरी बना कर  बूंद बूंद तुम्हें पी रही हूँ
और तुम्हारा तेज  मेरे जिस्म के एक एक मूच्र्छित संवेदन को धधका रहा है

और तुम्हारे जादू भरे होंठों से
रजनीगंधा के फूलों की तरह टप् – टप् – टप शब्द झर रहे हैं
एक के बाद एक के बाद एक…
कर्म‚ स्वधर्म‚ निर्णय‚ दायित्व…
मुझ तक आते आते सब बदल जाते हैं
मुझे सुन पड़ता है केवल
राधन्‚ राधन्‚ राधन…

शब्द‚ शब्द‚ शब्द …
तुम्हारे शब्द अगणित हैं कनु — संख्यातीत
पर उनका अर्थ मात्र एक है —
मैं‚
मैं‚
केवल मैं!
फिर उन शब्दों से  मुझी को
इतिहास कैसे समझाओगे कनु?

– मनीषा कुलश्रेष्ठ


 

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