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कहना न कहे गये प्रेम के बारे में

अनब्याही बहनें थीं
जो ब्याही नहीं जा सकती थीं
बाहर जात के
रिटायर्ड हो चुके थे पिता
खटते थे रात दिन ट्यूशन की मेज पर
होता था किसी तरह गुजर बसर घर भर का
ऐसे में मैं तुम्हें ब्याहता कैसे
मिली नहीं थी नौकरी भी
और पढ़ लिखकर
लायक नहीं था दूसरे किसी काम के
जैसे चाहती है बछड़े को गाय
कुत्ता वफादार मालिक को
जैसे हवा पत्ते को
उसी शिद्दत के साथ
जिस शिद्दत के साथ किसान चलाता है खेतों में हल
एक करता हड्डी – पसलियों को खींचता है रिक्शा रिक्शेवाला
जाड़ा – गरमी – बरसात में भी नागा नहीं करती कामवाली बाई
पहुंचा जाता है रोज सुबह अखबार एक बूढ़ा
जिस शिद्दत से तोड़ता है लकड़ी लकड़हारा
बढ़ई रेतता है
बहनें कूटती हैं कातिक में धान
सीती हैं मां फटे पुराने लत्तरों का पैबन्द
नींद को लात मार कर जागता रहता है चौकीदार
दश्वामेध घाट पर नाव वाला चलाता है चप्पू
जिस शिद्दत से नदियां बनाती हैं बादलों का घरौंदा
और बांध बांधता है नदी को
उसी शिद्दत के साथ
मैं ने तुम्हें चाहा है
पर बताया नहीं
क्योंकि बताते ही झर जाता है प्यार
मुट्ठी में बन्द रेत की तरह

– संजय कुमार गुप्त



 

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