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सम पर आकर टूटती
लय
क्या पाती होगी वह?
अपने ही जैसी हाड़ मांस की बनी
नाज़ुक औरत के भीतर?
क्या पढ़ती होगी वह‚
एक लिपि अपनी ही सी गूढ़ ‚
एक शैली अपनी ही सी
कुछ जानी कुछ अनजानी
उन धड़कते सीनों का संगीत तो
अपना ही सा होगा!
नर्मो नाज़ुक कलाइयों का बंध
क्या कोई सुरक्षा का अहसास देता होगा?
कैसा अजब होता होगा वह समर्पण दोतरफा
जहां समभाव पर जाकर टूटती होगी लय
वृक्ष को उपेक्षित कर बढ़ जाती होगी
कोई वल्लरी फैलाये अपने पर्ण वृन्त
अपनी ही सी किसी लता की और
एक नदी पलट कर बहती हुई
दूसरी नदी की ओर
एक जन्मजात आकर्षण
एक कुचला अहं
एक अवश विवशता
एक अधूरी कामना
एक चोट अतीत की
एक बावरा‚ आवारा ज़िद्दी जीन
कहां से उपजी होगी यह
स्वयं को स्वयं में पूर्ण कर लेने की
अनमनी चाह?
इस संर्कीण सी ज़मीन पर अपने भीतर
अपना सा कोई कोना ढूंढ लेने की
फड़फड़ाती चाह!
पाश्चात्य सी लगती
यह धुन नई तो नहीं
यहां‚ इस भारतीय समाज में
पलती रही है औरत के भीतर सदियों से
ज़िन्दा रही है‚ घुट कर सिसक कर
असामाजिक करार कर दिये जाने के बाद भी
खजुराहो की मूर्तियों में
मुगल हरमों की कहानियों में
पूरी ढिठाई से!
आज यही दबी घुटी धुन
आज सांस लेना चाहती है
यहीं इसी समाज में खुल कर
दो व्यक्तियों के आपसी आकर्षण का
एक सहज और
नितान्त वैयक्तिक मामला बन कर
आखिर फर्क क्या पड़ता है हमें
हम जो समाज की इकाइयां हैं
अपने आप में अलग परिपूर्ण
नहीं जाती एक सीमा से बंधी दृष्टि हमारी
रिश्तों की पारदर्शिता के परे
अगर नहीं देखा हमने कुछ इस दुनिया से परे
तो क्या वह गूढ़ संसार अपने आप में पूरा नहीं?
क्योंकर हो वह ' असामान्य' ‚ 'विकृत' ?
क्या हक बनता है हमें
किसी भी कोमल रिश्ते को उधेड़ने का?
आपस में लिपटी वल्लरियों की जड़ें खोदने का?
मगर फिर भी
एक उत्सुकता जागती है —
क्या पाती होगी वह…
कैसा अजब होता होगा वह समर्पण दोतरफा
जहां सम पर आकर टूटती होगी लय!

-मनीषा कुलश्रेष्ठ

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