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शब्द… ये शब्द ये शब्द अब बरसात की बूंदों से सीली सीली काग़ज की कश्तियां हैं तैरती हैं… व्यस्तता में बीते जा रहे सम्वेदनहीन वक्त के मटियाले पानी में गड़ऽप हो जाती हैं उस पार जाकर फिर कभी नहीं लौटतीं शब्द …ये शब्द होंठों से निकलते ज़रूर हैं कलम से उतरते भी हैं कम्प्यूटर के की – बोर्ड से होकर स्क्रीन पर उभरते हैं पर इनके अर्थ पत्तियों के उड़े रंगों की तरह हैं ये मुझसे तुम तक कुछ नहीं पहुंचाते कोई सम्वेदना‚ कोई सम्प्रेषण कुछ भी तो नहीं इन शब्दों में अब वो पुरानी चिट्ठियों की – सी कोई गंध नहीं आती कि जिन्हें तकिये के नीचे रख कर महसूस किया जा सके बार बार निकाल कर पढ़ा जा सके आंखों पर बिछा कर जिन्हें सोया और रोया जा सके इन सीले – सीले रंग उड़े‚ गंध विहीन कठुआये शब्दों में अब कोई प्रयोजन भी बाकि नहीं इनसे मेरा तुम्हारा अब कुछ भी बनता बिगड़ता नहीं.. |
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