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जोगिया – पल
राख उड़ती ज़मीन पर
बोया था एक बीज
जस – तस उगा
उगना ही था
एक पूरी न होने वाली
ख्.वाहिश थी
हां बस एक
एक आग्रह था
हां महज बस एक —
वक्त के साथ
उड़ गये रंग ख्वाहिश के
और वह इकलौता आग्रह
खो गया कहीं
बची रहीं ढेर आशंकाएं
पेट में तितलियां उड़ीं थीं
एक भंवर ने जन्म लिया था
लम्बे अन्तराल के बाद
परतों जमी हुई बर्फ
तड़की थी
मैं ने डर कर आंखें मूंद ली
आग्रह पलट कर सामने था
'' हुकुम करो! "
तुम्हारी आवाज़ ठण्डी थी
ठण्डा सरसराते सांप – सा
कुछ छू लिया हो जैसे
क्या कहती?
अपने ही आत्म संकोच में डूबी मैं
कैसे कहती —
पीछे मुड़ कर देखो
मुझ से पहले की – सी बात करो
शब्द थरथरा रहे थे
पेड़ पर अटकी फटी पतंग – से
अर्थ डोर – से उलझ गये थे
मेरी आवाज़
उस ओर से आई शीत लहर में
जम गई थी
अधर में लटकी रह गयी
टपकने को आतुर बूंदों – सी
तुम्हारा प्रेम उगा
कोहरे से छिपे आकाश में
धूमिल पड़े तारे – सा
ज़रा चमका
फिर खो गया
लम्बा अन्तराल
तोड़ रहा था छन्द
प्रेम की लय का
ऊपर जाकर फट सी गई थी
वह चिरपरिचित तान
तो फिर
कह क्यों नहीं देते —
" मेरे असमंजस मुझे मुक्त करो "
गर तुमसे मुमकिन नहीं तो मुझे कहो
लाओ मैं ही समेट दूं यह बिसात
जहां मोहरे आगे नहीं बढ़ते
पासे उलटे पड़ते हैं
प्रेम? प्रेम तो … है… हूं ऽऽ है ।
औचित्य ?
मन ने बार – बार पूछा
फायदा इश्क़ का?
जवाब मिला
पर ऐसे फायदे का भी क्या फायदा?
प्रश्न जमी बूंदों – से
वहीं के वहीं लटके हैं
थरथराते बिजली के तारों पर
जहां अन्दर ऊर्जा है‚ सम्प्रेषण है
बाहर जमा देने वाला ठण्डापन
ऊर्जा अदेही है‚ आभासी
प्रश्न ज्वलन्त हैं‚ स्पन्दित !
ना ऽऽ
मत देखो पीछे मुड़ कर…
मृगमरीचिका है यह
जहां जल आभास था
प्यास ही कौनसी सनातन थी?
प्यास भी महज आभास ही थी
प्यासा कौन था?
न तुम … न मैं
अपने – अपने किनारों पर
तृप्त – संतुष्ट
एक अलख की तरह
किन्हीं जोगिया – पलों में
फूंक मार – मार कर जगाई गई थी
यह प्यास —
ठण्डी राख में से
दो अघोरियों की तरह
मायाविनी रात के
गोल लिपटे नाज़ुक पत्ते में
भर कर प्रेम
दम लगाया था
हां यह प्यास धुंआ थी
नशीला धुंआ
आभास थी …
जल था नहीं… दूर – दूर तक
तृप्ति … मृगमरीचिका थी
प्रेम!! था? था! था।
हां वह शाश्वत था‚
रहेगा
हमारे उठ कर जाने के बाद भी
राख – सा
हवाओं में उड़ता रहेगा देर तक
बरसात के बाद फिर
ज़मीन में घुल जायेगा
तीखे लवण बन कर।
-मनीषा कुलश्रेष्ठ |
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