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आग की गरज

नहीं – नहीं
आग बुझ नहीं सकती —
यों ओटी हुई आग भी अगर
बुझने लगी तो क्या होगा?
फूंक मारो —
चूल्हे को और उकेरो‚
बहुत बार ऐसा भी होता है कि
चिनगियां राख की सलवटों में
अनदेखी छूट जाती हैं
और फिर तुम
गाँव भर में आग माँगती
— फिरती हो
कई बार माँगी हुई आग
चूल्हे तक पहुँचने से पहले ही
बुझ जाती है!
अभी कुछ पल पहले
तुम्हें जो दो – एक चिनगियाँ दिखीं थीं —
छोड़ क्यों दिया उन्हें ?
उन्हीं को फूस के बीच
ज़रा ठीक से रखतीं
और फूंक दी होती……
अकसर
चूल्हा ओटते
और उकेरते वक्त
तुम कहीं खो जाती हो
आग जलने से पहले
उसकी आंच को लेकर
उदासीन हो जाती हो
और तुम्हारी उस मारक उदासी का
मेरे पास कोई जवाब नहीं होता!
पारसाल
हमने जाड़े की वो सनसनाती रातें —
जिनमें उल्लुओं तक ने
खा.मोशी अख्तियार ली थी —
उसी खलिहान पर
फटी गुदड़ी में लिपटे
आगामी अच्छे दिनों की आस में
बातें करते — हँसते
खिलकते गुज़ार दी थीं
न दें दोष
हम किसी कुदरत को
लेकिन उससे क्या?
कोई तो होगा आखिर
हमारी इस बदहाली के गर्भ में!
मैं दिन को दिन
और रात को रात ही कहूंगा
अलबत्ता यह सुबह का वक्त है
और चूल्हा ठण्डा‚
कुछ भी पकाने की सोचने से पहले
जरूरी है चिनगियां बटोरी जाएँ
उन्हें फूस – कचरे के बीच रख
— फूंक मारी जाये
आग को जगाया जाए
यों हाथ झटक देने से
कुछ भी हाथ नहीं लगता‚
आग की गरज तो
आग ही साजती है!

-नन्द भारद्वाज

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