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सूफी कविता
आहत होने की पीड़ा में सुख हो
घावों की टीस में लज्ज़त हो
प्रेम की वह पराकाष्ठा देखना अभी बाकी है
मेरे उपदेशक तू विज्ञ है
पर मेरे अटूट विश्वास से तू अनभिज्ञ है
किसी दिन गिर कर टूट जाऊं तेरे हाथों से
मेरा वह देखना अभी बाकी है
मैने तुझे स्वप्न में कहीं देखा है
कदम्ब के फूलों की रहस्यमयी गन्ध में
कभी सूफी फकीर के वेश में
कभी दोहे रचते जुलाहे की तरह
कभी देखा है तानाशाह की तरह
तो कभी सलीब पर टंगे
तेरे ज़ख्.मों से लहू टपकते देखा है
सोती – जागती हर अवस्था में
वही चेहरा आंखों में है
जिस चेहरे को देखना अभी बाकी है
मैं ने तो वही देखा ्र सीखा
जो तूने दिखाया ्र सिखाया
दुनिया की हैरतें‚ दुनिया के चलन
मुझे नहीं पता‚ प्रेम और पागलपन
अपने आप कैसे आ गया
फिर भी इस पागलपन का कोई
सार्थक अन्त अभी बाकी है
आते ही खो गया था मैं तो
तेरे भ्रम से रचे संसार में
इस भ्रम के संसार में
खुदको खोकर ही सही
अन्तत: तेरा दिव्य संसार पा लिया मैंने
हज़ारों घायल आत्माओं के बीच
मेरी आत्मा की शिनाख्.त अभी बाकी है
बहुत भटका हूं कि —
बिता लूं एक रात थकान की तेरे यहां
भोर होते ही न जाने ये पैर कहां को उठें
कि कुछ घड़ियां तेरी मेजबानी की अभी बाकी हैं
वह क्या था जो तूने चखाया था एक बूंद
एक बूंद और चखा दे उसी आत्मलीनता की
कि
तेरी पूजा की‚ दर्शन की‚ तेरे संसर्ग की
चाह ही बाकी न रहे
सुला दे उस गफलतों की नींद में कि
सपनों में गहरे कहीं
तुझसे मिलने की चाह का रेशा अभी बाकी है

-मनीषा कुलश्रेष्ठ

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