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मरूस्थल:
जीवन की दो कविताएं
एक घड़ा पानी
आइए —
इस प्राचीन पर्वत – श्रृंखला के पार
जितनी दूर भी जा सकें आप
रेतीले धोरों में बिखरी एकाकी ढाणियों के बीच
जहां ढाणी में एक घड़ा पानी ही
उसकी पूंजी होता है‚
सूरज‚ चांद और सितारे होते हैं
उजास के आदिम स्त्रोत —
बिजली सिर्फ बादलों में निवास करती है
और पानी पृथ्वी की अतल गहराइयों में मौन
दुर्लभ देवता!
और गिले – शिकवे की बात नहीं है
आने को लोग अकसर आ जाते हैं
फेरी की तर्ज पर और लौट जाते हैं
उस अजनबी सैलानी की तरह
जो नज़ारों की खोज में
भटकता फिरता है आखे जहान में!
उन्हें अपने रिसालों
और बेनूर दीवारों की खातिर
कुछ तस्वीरें लेनी होती हैं नई —
सजानी होती है
अपनी सूनी और बेजान इमारतों की शान
उन्हें आकर्षित करते हैं
बूंद – बूंद पानी के लिये
तरसती रेत के दुर्लभ दरसाव
और सिर पर घड़ा उठाए
पसीने से तर – बतर
पनिहारिनों का छलकता उल्लास
उनका तार – तार परिधान!
वे नहीं जान पाते
अपनी नियोजित यात्रा में
रोजी और जीवारी के लिये
भटकते इंसान की सांसत —
एक घड़ा पानी के लिये
दूर तक जाती क्षितिज के पार—
आकाश और पाताल एक करती
घरनी और ढाणी की
-नन्द
भारद्वाज |
खेजड़ी
बालू रेत की भीगी तहों में
एक बार जब बन जाते हैं उगने के आसार
वह उठ खड़ी होती है काल के
अन्तहीन विस्तार में‚
तुम रोप कर देख लो उसे किसी ठांव
वह सांस के आखिरी सिरे तक
बनी रहेगी सजीव उसी ठौर—
अपनी बेतरतीब सी जड़ों के सहारे
थाम लेगी मिट्टी की सामथ्र्य
उतरती चली जायेगी परतों में
— संधियों के पार
सूख नहीं जायेगी नमी के शोक में!
मौसम की पहली बारिश के बाद
जैसे उजाड़ में उग आती हैं
किसिम – किसिम की घास‚
लताएं‚ पौध कंटीली झाड़ियां
वह अवरोध नहीं बनती किसी के आरोह में
जिन काम्तेदार पौधों को
करीने से सजा कर बिठाया जाता है
घरों की सीढ़ियों पर शान से
उनसे कोई अदावत नहीं रखती
वह अपनी दावेदारी के नाम पर —
इत्मीनान से बढ़ती है
उमगती पत्तियों में शान्त, अन्र्तलीन।
क्यारियों में सहेज कर उगाई जा सकती हैं
फूलों की अनेक प्रजातियां
नुमाइश के नाम पर पनपाए जा सकते हैं
गमलों में भांति – भांति के बौने‚ बन्दी पेड़
उनसे रंच मात्र भी रश्क नहीं रखती
— यह देशी पौध—
उसे पनपने के लिये
नहीं होती सजीले गमलों की दरकार
उसे तो खुले खेत की गोद और
सीमा पर थोड़ी सी निरापद ठौर
सलामत चाहिये शुरुआत में!
बस इतना – सा सद्भाव —
कि अकारण कोई रौंद नहीं डाले
उन उगते दिनों में यह नन्हा आकार
कोई काट डाले निताई के फेर में‚
अपनी ज़मीन से बेदखल
कहीं नहीं पनपेगी इसकी साख
अनचाहे बन्धन में बंधकर
नहीं जियेगी खेजड़ी!
-नन्द
भारद्वाज
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