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मरूस्थल: प्रेम की दो कविताएं
( राजस्थानी से अनूदित)


पीव बसे परदेस

एक अनचीते हर्ष
और उछाह में तुम इंतज़ार करती हो
घर की मेड़ी चढ़ चारों ओर
आगे खुलते रास्ते पर
अटकी – सी रहती अबोली दीठ
पहचाने पदचिन्हों की छाप
बनी रहती है मन के मरूस्थल में
अनुराग भरे अन्तस में
उमगते अपनापे के गीत
अदेखी कुरजों के नाम
सम्हलाती झीने संदेसे
!
हथेलियों रचती मेंहदी
और गेरूवर्णी आसमान में
सिरजती सलोनी सूरत की सुधियां
भीगी पलकों से
हुलराती हिलता पालना
!
आंगन के अध– बीच निरखती
चिड़ियों की अठखेलियां
नीड़ों में लौटकर आते पंखेरुओं की पांत
छाजों से उडा.ती काले काग
सांझ की ढलती बेला में खोजती
साहिब की निशानियाँ
!
चारों दिशाओं में गहराता गाढ़ा मौन
कलेजे की कोरों में खिलती याद की बिजलियां
सोई हुई बस्ती में तुम जागती सारी रात
करवटें लेती धरती की सेज पर
!
धीरज की रेतीली सीमाओं पर
उमगते भीगी आस के अंकुर
बरसते मेघों की फुहार
मिल जाती है नेह के छलकते रेलों में।
पर नेह मांगता नीड़
ज़मीन चाहिये पांवों के नीचे रहने को
घर में उलटे पड़े हैं खाली ठांव
बुखारियां सूनी —
खुली हैं कुंडियां —
जीना दुर्गम और जोजख है‚ भोली नारॐ
किरची – किरची बिखर जाते हैं
सपनों के घरौंदे
!
वो हंसते फूलों की क्यार‚
वह गार – माटी की
भींतों का अपनापन‚
वह मोतियों सी मंहगी मुस्कान —
अन्तस का छलकता उल्लास
!
जाओ साजन
परदेस सिधाओॐ
तुम इंतज़ार करती हो जीवन की इसी ढलान
और आहिस्ता – आहिस्ता
रेत में विलग जाती हैं सारी उम्मीद
!
जिस आस में गुजरती है समूची उम्र
वही अकारथ हो जाती है आंखों के सामने
परदेसों की परिक्रमा का इतना मंहगा मोल —
आदमी की कीमत लगती है खुले बाज़ार में
!
यह सच है कि
तेरा पीव बसे परदेस
और पूरी उम्र
तुम जीती हो पीव के संग बिन
!

-नन्द भारद्वाज
 

 

 

 

 


        

कामिनी

तुम मेरे होने का आधार
आधी सामथ्र्य
आधी निबलाई
जीवन का आधार सार—
तुम पसरी सुकोमल माटी
खुले ताल में उमगती
कच्ची दूब सी चौफेर
वृक्षों पर खिलती हरियाली की आब
आसमान की परतों में घिरती
तैरती बादली‚
घनी घटाओं के बीच
दमकती दामिनी साकार—
धोरों और चारागाहोम् पर
धारों – धार बरसता ठण्डा नीर
तुम नेह से भरपूर
तलैया – बावड़ी!
तुम विगतों और गीतों की आधी बात
वह आधे बुलावे से पहले
आ खड़े होने का अचूक अभ्यास
वह जननी की गहरी सलोनी सीख
अग्नि के तप में तपी – सी कंचन कामिनी
उछाव से उठाती अजानी ज़िन्दगी का बोझ
रेतीले टीलों को उलांघती आर – पार
आई सजन के घर – बार
सम्हाली जीवन की ढीली डोर
हिम्मत बंधाई अजानी राह पर —
अम्थेरे में जगाये रखी आस
पोखती रही बिखरते कुल के कायदे
गुजरे बरसों की उलझी पहेली ओट
तुम कहां को सिधाई सोरठ – सोहनी
कहाँ अदीठ हो गया तुम्हार
वह आधा सहकार
क्यों इतनी अनमनी – गुमसुम
इस तरुणाई में तीजनी!
क्यों बढ़ता हुआ – सा लग रहा है
पांव तले की धरती पर अधिभार
यह मेरे भीतर उतरती धीमी मार—
तुम किन हालात में बन गई असहाय
कर्मठ कामिनी!
किस दावे पर सहेजूं तुम्हारी आन
किस बूते पर बचा लूं उघड़ती आबरू—
मेरी बांहों तक आ पहुंचने के उपरान्त
तुम कहां अदेखी हो गई‚
ओ मानसी!
कहां अदृश्य हो गया तुम्हारा
वह आधा सहकार
तुम्हें खोजता फिरता हूँ
उजाड़ में दिशाहीन उद्भ्रान्त!
यह चारों दिशा में हलचलों से भरा – पूरा संसार
यह समन्दर में हिचकोले खाती
बेपतवारी नाव‚
ये बालू के रेत की थाह में
उतरता दुर्गम पंथ —
यह अकाल और आंधियों से
लुटी पिटी धरती
ये बूंद – बूंद गहराता जुल्मी अंधेरा
ये सांय – सांय करती काली रात
ये आंधी और बग्गूलों से
हथ – भेड़ी करता मैं!
मेरे पांवों पहुंचती आ
मेरी मानिनी!
अंतस में गहरी दाज —
और गाज़
कि बदल जाये
इस उजाड़ का आगोतर
जीवन का सुरीला बजे साज
सिरजें सांसों में नई जीवारी!

-नन्द भारद्वाज

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