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फागुन के रंगों की गजलें

1.
जीवन में आए गए जाने कितने क्लेश,
तन की होली हो गई, मन की होली शेष।
किरच किरच चुभती रही आँखें लहूलुहान,
पलकों के भीतर धरे सपनों के अवशेष।
पाँच बरस के बाद फिर होली का ये ‘स्वांग’,
नये सियारों ने रंगे अपने अपने भेष।
‘उनके’ आने की खबर का है रंग अनूप,
अबके लगता है सखी! लौटा फागुन देस।
अखबारों से आजकल गुम हैं कई सवाल,
विज्ञापन की भीड में, खबरों के अवशेष।
हरे रंग के नोट का कितना गहरा रंग,
‘झूठ’ जमानत पर रिहा, ‘सच’ बेचारा पेश।
कभी जर्द होकर गिरे, कभी हुए बेजान,
जीवन भर सहते रहे मौसम के आदेश।
मजबूरी में पी गए अपमानों के घूँट,
सुर्ख हुई आँखें मगर, रंज ना आया लेश।
बिटिया जब घर से चली करके पीले हाथ,
बाबुल के घर का गया, सारा रंग ‘बिदेस’।

-संजय विद्रोही

2
आँखों में तेरी, प्यार का जो रंग भरा होता,
सपना हमारी आँख, का कुछ और हरा होता।
सारा गुलाल आपके चेहरे पे ठहर जाता,
हाथों में जरा देर को, ये चेहरा धरा होता।
जुल्फों की सियाही में कैसा ‘भंवर’पडा था?
सम्हला अगर न होता, तो आज मरा होता।
होली न अगर आती, सपने ना खिले होते,
आँचल की बदलियों से, ना रंग झरा होता।
हम और किसी रंग में रंगते नही कभी भी,
तूने जो अपने रंग का, कुछ वादा करा होता।

-संजय विद्रोही
 

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