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यात्रा: क्षितिज के उस पार

एटलांटिक के तट पर चहलकदमी करते हुए
मेरी दृष्टि टिकी है
पूर्व दिशा की ओर
जहां आकाश में
क्षितिज पर
उभरते हैं कुछ आभासी चित्र
चित्र
फैले हुए बाजुओं का
खुलती हुई सुघड़ देहाकृति का
एक रमणीय मुस्कान का
याचक नेत्रों का
ये चित्र पिघल कर
एकरूप हो जाते हैं
वही स्मृतिजीवी चेहरा
दुपट्टे से ढका सर
वक्ष पर फैला
पीछे को लहराता
और मैं
उसके छोर को
कस के थामे हुए
कि कहीं उसे खो न दूं।

ज्वार से उठती लहरें
मेरे नंगे पैरों को सहलाती हैं
उन्माद से भरी
तो कभी सिमटती हुई
यही सब महसूस करते हुए
मैं सागर में थोड़ा गहरे उतरता हूं
मेरे पैरों का अंगूठा
रेतीले फर्श पर गड़ता है
एक नाव की रेखाकृति
मुझे विश्वास है
ले जायेगी मुझे वह
उन फैले हुए बाजुओं की ओर
जो मुझे समेट लेंगे
और मेरा अस्तित्व
पुर्नजीवित हो उठेगा।

– राजेन्द्र कृष्ण

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