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प्रेम की ऋतु

ऋतु करवटें ले जाग उठी है
अपने समस्त सौंदर्य के साथ
बसन्त के उछाह के साथ
उदासीन जीवन चहक उठा है…

नयी कोंपले फिर फूट आयी हैं
नयी कलियां मुझे देखती हैं
एक खुश्बू के वादे के साथ
जो कि मेरे होने के अहसास को
युवा और जीवन्त बनायेगा

माना कि मैं अधीर हो उठा हू
.
किन्तु मुझे धैर्य रखना होगा
उसके हर एक मुखरित होते पुष्प का
आनन्द लेने के लिये, सराहने के लिये
सचॐ जीवन में कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता

कहो,
क्या वह कभी जल्दबाज़ रही है?
वह हंसकर चिढ़ाती है
वह उत्सव मनाती है
उसकी अंतहीनता के अंत तक
वह अपनी दीवानगी से
मुझे प्रेरित करती है
यह प्रेम की ऋतु
निसंदेह मेरी अंतरंग सखि है।

– राजेन्द्र कृष्ण

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