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ग़ज़ल
बात दिल से अगर बयां होती
बात दिल से अगर बयां होती
रूह तक जाये वो ज़ुबां होती

तैश में भी जिसे मैं कह न सका
बात फिर किस तरह अयां होती

मर न जाती अगर लड़कपन में
ज़िन्दगी मेरी अब जवां होती

हुज्जतों में जो बात फैल गई
वो तेरे – मेरे दरमियां होती

थे इस तरह गिरफ्तार अपनी उलझन में
कि होती और मुसीबत तो खामख्वाह होती

वो भी रोता है ज़माने की फिकत में ऐ रज़ा
ये सिफत मुझमें ही तन्हा होती

 

 

 

 

 

ग़ज़ल
वो फुरसतों के शहर ख्वाब हो गये
मिलेगा तुझको भी मौका चलन बदलने का
संभल भी जा कि अभी वक्त है संभलने का

ये ठीक है के तेरे रास्ते जुदा हैं मगर
नहीं हुआ है अभी वक्त तन्हा चलने का

वो फुरसतों के शहर ख्.वाब हो गये लेकिन
कुंआरी आँख में सपनों को हक़ है पलने का

अमल में हो अगर पाक़ीज़गी तो बेहतर है
न सिर्फ तस्बियों से और काम चलने का

अगर तू देखना चाहे सुबह की पहली किरन
कर इंतज़ार भी थोड़ा–सा शब के ढलने का

— हसनैन रज़ा



 

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