मुखपृष्ठ  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | डायरी | साक्षात्कार | सृजन स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 Home |  Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

You can search the entire site of HindiNest.com and also pages from the Web

Google
 

 

मंज़िल
ख्व़ाबों की सतरंगी ज़मीन पर
बुना था उसने ताना बाना
बेहद मुश्किल लगभग असम्भव
लगा था उसके हाथ
मंज़िलों का एक ख़ज़ाना

अपना साज़ो-सामां बटोर
वो चल दिया अनजाने छोर
कितने गांव कितने नगर
कितनी पगडंडियां कितनी डगर
तय करता रहा वो अपना सफर
इंद्रधनुष के सातों रंग
उसके जीवन के साथी थे
काली स्याह रातों के
दीया और बाती थे


कौन जाने कहां थी मंज़िल
कहां मिले कौन सी मुश्किल
चलते चलते जब थक गया
कुछ पल को रूक गया वो
थोड़ा सुस्ता के फिर चला

भीड़ भरे रास्ते थे
मुश्किलें थी हर मोड़ पर
लेकिन फ़िक्र उसे मंज़िल की थी
रास्तों से न था गिला

मेहनत उसकी रंग लाई
मंज़िल अपने संग लाई
लेकिन ये क्या
उसकी मंज़िल पर पहले से थे कुछ लोग जमा
जो उस पर करते थे दावा अपना अपना

वो तो मानो टूट गया
और तभी
आँखों से निकली दो बूँदों ने उसे जगाया
मत बहायो ये आँसू वो ख्व़ाब था समझाया
बेहद खुश हुआ कि हारा नहीं है वो

लेकिन उसने अब ये जान लिया था
मन ही मन ये ठान लिया था
के उसे पानी ही होगी हर एक मंज़िल
करना होगा हर लक्ष्य हासिल
वो जान गया कि कुछ पल सुस्ताना
मतलब सफर में पिछड़ जाना

उसे बेहद अच्छी सीख मिली थी
के मंज़िल पानी हो अगर
तो चलो
बिना रूके बिना थके हर डगर

प्रबुद्ध जैन

ख़बर है!

अचानक कुछ शोर-गुल सुनकर
खिड़की खोल कर झाँका बाहर
दृश्य देख चौंका ठिठका
कुछ घर आग के हवाले थे
अंधेरे घरों में उजाले थे
जो अंधेरे से भी काले थे


ये वो वक़्त था
जब आदमी आदमी से दूर था
माने दूरियों का दौर था
उठकर टी वी ऑन किया
कैमरा जो दिखा रहा था
वो देखने लायक नहीं था


पुलिस और प्रशासन
अक्सर मिलकर प्रयोग होने वाले शब्द
और साथ काम करने वाले लोग
पूरी तरह मुस्तैद थे
ऐसी ख़बर थी
शायद सच


दिन किसी तरह गुज़रा
अगले दिन का अख़बार
मेरे ख्य़ाल से ख़ूब बिका होगा
क्यूँकि
मुखपृष्ठ पर थीं दो तस्वीरें
एक जिंद़ा जलाए गए युवक की धुँधली तस्वीर
और गिरफ्तार लोगों की क्लोज़ अप तस्वीर


तस्वीरों के ऊपर ही ख़बर चस्पा थी
शहर में फिर दंगा भड़का
दो की मौत
शायद बिल्कुल ठीक
मज़हब और इंसानियत की मौत


प्रबुद्ध जैन

 

कविताओं का झुरमुट
मेरे मन में मेरी जुबान पर
कबिताओं का एक र्झुमट सा लगा रहता है
कभी एक भावनाओं से भरी कभी एक अहसासों से भरी
तो कभी कोई कभी कोई कई रंगों में रगी
कविताऍं मेरी जुबान पर आती हैं ।
मेरे शब्द कोश से शब्द लेकर मेरे मूख से
बाहर आ कर जाने कहॉं खो जाती हैं।
जब कभी मैं ईन को लिखने की कोश्शि करता
हूं तो ये मुझे ही कहीं दूर ले जाती हैं।

कुछ इन से भी निराली होती हैं
उन में प्यार की महक सी होती है।
कहीं इन में दिलदार की झलक भी होती है
कहीं इन में यार की तसबिर भी होती है।
ये बड़ी अज़ब सी और रस भरी होतीं हैं
कभी ये दिल से तो कभी दिमाग से भी जनम ले लेतीं हैं
हर वक्त ये जुबां पर खड़ी रहती हैं ।
मगर फिर भी मेरे बस से बाहर होतीं हैं।


अमन गर्ग

 

Top

माँ
दहलीज़ लांघते ही
आज प्यार भरी
आँखों ने नहीं निहारा
किसी ने मेरे सिर से
नज़र का भार, नहीं उतारा
कोई दौड़ा नहीं गया
रसोई में लाने रोटी
नमक मक्खन के साथ
व दूध, मलाई वाला ।
कहाँ से, क्यों आवाज़ कौंधी
बबुआ आया है
थक गया होगा
तनी तेल लगा दूँ सिर पर``
आज आँाखें बरस पड़ी हैं
देख माँ के हाथों के थापे
जो बाहर आँगन में पुती
दीवार के नीचे नज़र आ रहे हैं
चक्की के मुट्ठे पर
माँ के हाथ की पकड़ की चमक
जो बरामदे के कोने में
धूल चाट रही है
लस्सी का मटका
चरखे का ढाँचा
जो झाँक रहे हैं मुझे
आज पुरानी पिछली
कोठरी से, साथ ही
दिख रही, जीरे की
वो डिबिया, जिसमें छिपे
रहते थे मुड़े-तुड़े नोट
जो मुझे आपात काल में
बापू की नज़र बचाकर देती थी मुझे ।
लगा आज इस घर के
सारे दरवाज़े
खुले होकर भी
बंद हो गये हैं
मेरे लिये ।



बेटियाँ

शायद पल भर में ही
सयानी हो जाती हैं
बेटियाँ,
घर के अन्दर से
दहलीज तक कब
आज जाती हैं बेटियाँ
कभी कमसिन, कभी
लक्ष्मी सी दिखती हैं
बेटियाँ।
पर हर घर की
तकदीर, इक सुन्दर
तस्वीर होती हैं
बेटियाँ।
हृदय में लिये उफ़ान,
कई प्रश्न, अनजाने
घर चल देती हैं बेटियाँ,
घर की, ईंट-ईंट पर,
दरवाजों की चौखट पर
सदैव दस्तक देती हैं
बेटियाँ।
पर अफसोस क्यों सदैव
हम संग रहती नहीं
ये बेटियाँ।




बूढ़ी आँखें
बेजान सी एकटक निहारती,
वक्त के समस्त पलटे,
खुशियों के अम्बार,
गमों के उथाह सागर
बूढ़ी आँखें ।
बेटी को विदा करते
बेटे के आगमन पर
पुराने दोस्त की
तस्वीर को टकटकी
बाँधे देखती बूढ़ी आँखें ।
घर में रखे पुराने
सामान को,
आँगन के पीपल,
दहलीज़ के दरवाज़े पर
हर वक्त दस्तक देती
बूढ़ी आँखें ।
पर कभी,बिजली चमकने पर,
बबुआ के रोने की आवाज़ सुन,
नींद टूटने पर करवटें बदलते,
क्यूँ बरसती बूढ़ी आँखें ।
 

शबनम शर्मा


 

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com