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घर का अनुशासन
हर घर की एक व्यवस्था होती है
जिसे स्वीकारना होता है हर सदस्य को
सबको जानना होता है
कब आता है नल में पानी
जाता है कब
कहां रखे जाते हैं जूते
किस पतीले में रांधा जायेगा चावल
कितनी बड़ी बटलोई में पकेगी दाल

बहुं के भी बंटे होते हैं काम
किस दिन कौन तैयार करेगी नाश्ता
किसके जिम्मे होगा दोपहर का भोजन

किस बटन से चलता है पंखा
किससे टीवी
किससे जलती है ट्यूबलाइट
कौन-सा स्विच मारता है करंट
सबको होता है पता

पिता कितने बजे दाखिल होंगे बैठक में खांसकर
पूजाघर से कब निकलेगी मां
यह भी होता है लगभग तय

मेहमानों को भी सीखना ही पड़ता है यह सब
ध्यान रखना पड़ता है कि किस कमरे में `प्रवेश है निषेध`
कितने दिन तक होती रहेगी मेहमाननवाजी
किसके साथ करना है कितनी ठिठोली
इसका भी रखना पड़ता है खयाल

बेटियों को होना पड़ता है आदी
सबकी झिड़कियां सुनने के लिए वक्त-बेवक्त
झगड़ना पड़ता है गाहे-बगाहे माता-पिता को
कि बेटे नहीं रहते घर का ठीक से खयाल

घर की व्यवस्था में सबसे पहले शामिल होते हैं बच्चे
फिर शुरू होता है उनके बुढ़ापे का सफर

हर घर का होता है एक अनुशासन
जैसे कि किसी चमन का
फूलों के खिलने का
सूरज के उगने और डूबने का
पृथ्वी के घूमने का

और जब टूटने लगता है अनुशासन
तो घर में मचने लगती है उथलपुथल.




-विजयशंकर चतुर्वेदी

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