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वैलेनटाइन की रात मैं देख रहा था, धरती की खुली गदगद देह मथती हुई धुंध-सी आदमीनुमा फैलती एक आकृति तेज कदम से बढ रही है मेरे शहर की ओर। उसके पैरों तले कई शहर पहले ही पायमाल हो चुकी है और रात गिर रही है पोर-पोर सब ओर उसके काले जादू के सम्मोहन में । असंख्य खुले कातर हाथ भी कठपुतलों से झूल रहे हैं हवा में और कांप रहा हूं मैं पत्ते सा । कह नहीं सकता कौन था वह मायावी, या कि दुनियावी ? पर जैसे ही उसने मुझे छूआ मेरी सांसें एकदम अटक गयी और नींद भी टूट गयी ।
घबराकर मैंने कमरे के सब दरवाजे-खिड़कियां खोल दिये सामने देखा-- रात को झुठलाता 'पब' का धूम-धडाका 'रॊक' धूनों की धमक झोलंगे लिबासों में हिप्पी लड़के तंग स्कर्ट, उटंग टॊप में मनचली लड़कियां अधेड़ मर्दों के सूर्यहीन कंधे भद्दे,रंगे थुथनों और कटी बांहों की ब्लाउज में उम्रदराज महिलायें सब हिलते-डुलते, एक- दूसरे की बांहों का सहारा ढूंढते। रात को अपने सीने में भींच लेने को आतुर। मैं महसूस कर रहा था, नशेमन फ़ैशनपरस्तों की वैलेनटाइन की रात मेरे स्वप्न की रात से बडी और गहरी थी । -सुशील कुमार |
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