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तुम्हारे शब्दों के खिलाफ़ न अपनो की दुतकार से न किसी खंजर के वार से मैं सबसे ज्यादा तुम्हारे शब्दों से आहत हूं जिसे देते हुए तुमने मेरी पीठ थपथपायी थी । ये शब्द बताशे की तरह मीठे थे पर एकदम जहरीले थे हलक में उतरते ही इसने मेरे सब संवेदी शब्द मार गिराये और मेरी भाषा नाकाम हो गयी। बुद्धि भी मेरी मात खा गयी। इन शब्दों से अब तक न तो कोई कविता बन सकी, न कोई गीत न लोरी, न प्रार्थनाएं ही चैन और चमन को सिर्फ़ लुटा है इन शब्दों ने । मैं अब समझ सकता हूं तुम्हारे शब्दों की बानगी इनके अंखुवे वहीं फूटते हैं जिस जमीन से अपराध के कनखे निकलते हैं क्योंकि तुम्हारी भाषा की नंगी पीठ जिन हाथों ने सहलाये हैं उन्हीं हाथों ने उडाये हैं शब्दों के जिन्न सुरखाब के पर लगाकर सब ओर दिगंतों तक। इसलिए हर बुर्ज, हर इलाके में गुप्त हो रहे हैं तुम्हारे शब्द अब क्यों न इन शब्दों की एक गठरी बनाकर तुम्हारे चौखट के नीचे जमींदोज कर दूं और लौट आऊं नि:शब्द अपने घर ? फ़िर असंख्य मौन दग्ध होठों को जगाकर तुम्हारे शब्दों के खिलाफ़ एक जंग का एलान कर दूं । -सुशील कुमार |
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