मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 

 Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

 

विलुप्त होने तक

मैं हिमनद

मेरा कोई कूल किनारा न था

उतरता था वेग से

फूलों की घाटियों में

प्यार करता था तराइयों से

रुक कर मिलता था दोस्तों से

बतियाता हुआ जंगलों से

ठहर कर बहता मैदानों में

 

एक आकस्मिक मोड़ पर

तुम मिले, मेरे साथ को आतुर

मैंने कहा आओ बहो मुझमें

सह्याद्री की ओर मेरे सहयात्री बनो

 

तुम ठिठके, कुछ साथ चले

अपने अस्तित्व की पहचान

का प्रश्न लिए

'नहीं! नहीं! यूं होगा

मेरा वज़ूद बह जाएगा,

पहचान तो विलुप्त हो जाएगी

यूं तुम में समाकर

चलो मैं किनारा बन जाती हूं

अपने पृथक अस्तित्व के साथ

हम चलेंगे साथ साथ

तुम्हें बांधे रखूंगी '

मैं चुप रहा मोहबंध
 

कुछ देर और कुछ दूर तक

हम साथ चले

बंधाव भला था

आवेग थमा था 

एक मुहाने पर आकर लगा तुम्हें

मेरी रफ्तार कम, मेरी धार क्षीण है

तुम्हारी आकांक्षाओं पर नाक़ाफ़ी

तुम्हारी क्षमताओं से कमतर

 

जब कमज़ोर हो गए इरादे

तो,

तुमने खुद ढहा दिए अपने कगार

जाने कहां से समाए

भिन्न वेग, भिन्न दिशा से

जाने कितने नए प्रवाह

ढहते कगारों पर तुमने

उगा लिए नील - हरित सिवार
 

राह बदलते - बदलते

हर नए शहर के साथ

कब - कैसे दूर हो गया मैं,

अपने किनारे से,

क्षीणतर हुआ आवेग,

निःशेष हुआ बहाव

 

सिमट गई कहानी मेरी

भूगोल के नक्शों में

इतिहास के पन्नों में

कि

एक नदी जो बहती थी कभी।

डॉ. अनिल कुमार दीक्षित
28 नवंबर 2014  

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com