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निकोला की माँ

उसकी दुनिया बस उतनी
जितनी लम्बी उसकी रोटी
उसका आकाश
खिड़की के पार उड़ता
काला परिन्दा
उसके सारे रस
अंगूरों से आरम्भ होकर
अंगूरों पर खतम होते

पंजे पर खड़ी हो
वह घूमने लगती है
चारो दिशाओं में

सीमाएँ बनती बिगड़ती
उसके सीने में
भाषाएँ चहचहातीं
दाने चुगती
उसकी हथेली पर

कई देश बदले है,
बिना हिले अपनी धुरी से
निकोला की माँ ने

रति सक्सेना
7 दिसंबर 2014

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